Book Title: Shishupal vadha Mahakavyam
Author(s): Gajanan Shastri Musalgavkar
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 221
________________ द्वितीयः सर्गः १३६ अन्वयः-(अहो ! ) सन्त: मन्त्रजिह्वेषु यत् जुह्नति तत् अमृतं नाम । मन्दरदुग्यक्षुभिताम्भोथिवर्णना ( तस्य ) शोभा एव ।। १०७ ।। हिन्दी अनुवाद-विद्वान् लोग विधिपूर्वक जो हवि अग्नि में हवन करते हैं, वस्तुतः वही तो अमृत है । और पौराणिको का यह कहना कि समुद्र का मन्दराचल से मन्थन करने पर जो अमृत निकला है, वह तो समुद्र का महत्व मात्र है। इस प्रकार के वर्णन से समुद्र की शोभा ही बढ़ती है । उपर्युक्त श्लोक में काव्यलिङ्ग अलंकार है ।। १०७ ॥ विशेष-पुराणों ( मत्स्य, १.९.;२४९.१४ से अन्त तक वायु, २३.९०,५२. ३७; ९२. ९, विष्णु-१.९ ८०-१11) के अनुसार समुद्रमन्थन अमृत की प्राप्ति के लिए हुआ था ।। १०७ ॥ प्रसन-अब उद्धवजी शिशुपाल पर आक्रमण करने में बाधक श्रीकृष्ण कृत प्रतिज्ञा की ओर संकेत करते हैं । यात्रायाः प्रतिबन्धः कश्चिद् दुस्त रस्तवास्तीत्याह--- सहिष्ये शतमागांसि प्रत्यौषीः 'फिलेति यत् । प्रतीक्ष्यं तत्प्रतीक्ष्यायै पितृष्वस्र प्रतिश्रुतम् ।। १०८ ॥ सहिष्य इति ।। प्रतीक्ष्याय पूज्याय । 'पूज्यः प्रतीक्ष्यः' इत्यमरः। पितृष्वा पितृभगिन्मं । 'विभाषा स्वस पत्यो।' ६।३।२५ इति विकल्पादलुगभावः । 'मातृपितृभ्यां स्वसा' ८।३।८४ इति षत्वम् । ते तव सूनोः शतमागांस्यपराधान् । 'बागो. ऽपराधो मन्तुश्च' इत्यमरः। सहिष्ये सोढाहे इति यत्त्वया प्रतिश्रुतं प्रतिज्ञातं तत्प्रतीक्ष्यं प्रतिपालनीयम् । अन्यथा महादोषस्मरणाविति भावः ॥ १०८ ।। अन्वयः-प्रतीक्ष्यायै पितृष्वस्रे "ते सुनोः शतम् आगांसि सहिष्ये" इति यत् स्वया प्रतिश्रुतम् तत् अपि प्रतीक्ष्यम् ॥ १०८ ॥ हिन्दी अनुवाद-( उद्धव जी कहते हैं कि हे श्रीकृष्ण ! ) आप अभी भी शिशुपाल का वध करने के लिये उस पर आक्रमण नहीं कर सकते, क्योंकि आपने अपनी पूज्या बुआ से यह प्रतीज्ञा की है कि तेरे पुत्र शिशुपाल के सौ अपराध मैं सहन करूँगा। अतः आपको अपनी इस प्रतिज्ञा का अवश्य ही पालन करना चाहिये ।। १०८ ॥ विशेष- चेदिराजकुले जातस्यद एव चतुर्भुजः । रासभारावसदृशं ररास च ननाद च ।। १ ।। १. 'मदकाव्यमेतदित्यर्थः' इत्यादर्शपुस्तके। २. सूनोस्त इति यत्त्वया ।

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