Book Title: Shishupal vadha Mahakavyam
Author(s): Gajanan Shastri Musalgavkar
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 191
________________ द्वितीयः सर्गः १०२ निश्चित होनेपर किसी के स्वार्थ में बाधा न पहुँचेगी, अतः सभी अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते रहें । हि पार्थप्रार्थनायाः का गतिरित्याशङ्क्य उपेक्षैव गतिरित्याहयजतां पाण्डवः स्वर्गमवत्विन्द्रस्तपत्विनः । वयं नाम द्विषतः सर्वः स्वार्थ समीहते ॥ ६५ ॥ यतामिति ॥ पाण्डवो युधिष्ठिरो यजतां यागं करोतु । इन्द्रः स्वर्गमवतु रक्षतु । इनोऽर्कः 'इनः पत्यो नृपार्कयो:' इति मेदिनी । तपतु प्रकाशताम् । वयं द्विषोsन्नाम मारयान । 'आडुत्तमस्य पिच्च' ( ३।४।१२ ) इत्याडागमः । सर्वत्र प्राप्तकाले लोट् । तथा हि-सर्वो जनः स्यायं स्वप्रयोजनं समीहतेऽनुसन्धत्ते । इन्द्रादिसमानयोगक्षेमो नः पार्थं इत्यर्थः । अर्थान्तरन्यासः ॥ ६५ ॥ अन्वयः -- पाण्डवः यजतां, इन्द्रः स्वर्गम् अवतु, इनः तपतु, वयं द्विषतः हनाम "तथाहि” सर्वः स्वार्थं समीहते ॥ ६५ ॥ हिन्दी अनुवाद - पाण्डव ( युधिष्टिर ) यज्ञ सम्पन्न करें, इन्द्र स्वर्ग की रक्षा करें, सूर्य तपते रहें और हम लोग भी अपने शत्रु (शिशुपाल का वध करें, क्योंकि सभी अपने-अपने स्वार्थ की सिद्धि चाहते हैं, यहाँ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है ॥ ६५॥ प्रसङ्ग - बलराम जी यहाँ अपनी अभिलाषा को व्यक्त करते हैं । प्राप्यतां विद्युतां सम्पत्सम्पर्कादर्करोचिषाम् । शस्त्रैर्द्विषच्छिरश्छेदप्रोच्छलच्छोणितोक्षितैः ॥ ६६ ॥ प्राप्यतामिति ॥ किञ्च द्विषतां शिरश्छेदेन प्रोच्छलतोद्गच्छता शोणितेनोक्षितः सिक्तैः शस्त्रैरर्करोचिषां सम्पर्कात्सम्बन्धाद्विद्युतां सम्पल्लक्ष्मीः प्राप्यतामिति निदर्शनालङ्कारः ॥ ६६ ॥ अन्वयः - द्विषच्छिरश्छेदप्रोच्छु लच्छोणितोचितैः शस्त्रैः अर्करोचिषां सम्पर्कात् विद्युत सम्पत् प्राप्यताम् ।। ६६ ।। हिन्दी अनुवाद - (शिशुपाल के साथ होनेवाले युद्ध में ) शत्रुओं के सिर कटनेपर उड़ती हुई रक्त की धारा से सिक्त शस्त्रों को सूर्य किरणों के सम्पर्क से विद्युत-शोभा प्राप्त हो, प्रस्तुत श्लोक में निदर्शनालङ्कार है ।। ६६ ।। प्रसङ्ग—इस प्रकार ( २- २२ से ६६ ) बलराम की ओजपूर्ण ( क्षुब्ध ) वाणी सभा भवन में प्रतिध्वनित हो उठी ।

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