Book Title: Shishupal vadha Mahakavyam
Author(s): Gajanan Shastri Musalgavkar
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 182
________________ शिशुपालवधम् अन्वयः - उच्चैः विद्विषां मूर्धसु हेलया पादम् अकृत्वा अनालम्बा कीर्तिः कथङ्कारं धाम् अधिरोहति ।। ५२ ।। १०० हिन्दी अनुवाद - शत्रुओं के उन्नत मस्तक पर अवज्ञापूर्वक पैर रक्खे विना निराधार कीर्ति स्वर्ग में कैसे चढ़ सकती है ? इसलिए कीर्ति चाहने वाले व्यक्ति को पुरुषार्थं का अवलम्बन करना चाहिए । यहाँ 'समासोक्ति' अलङ्कार है ।। ५२ ।। प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में, 'पौरुष का ही आश्रय लेना चाहिए,' यह कहा गया है । पौरुषमेवाश्रयणीयमित्यत्रान्वयव्यतिरेकदृष्टान्तावाचष्टे— अङ्काधिरोपितमृगश्चन्द्रमा मृगलाञ्छनः । केसरी निष्ठुरक्षिप्तमृगयूथो' मृगाधिपः ॥ ५३ ॥ अङ्केति ॥ अङ्कमुत्सङ्गमधिरोपितो मृगो येन स चन्द्रमाः मृगलाञ्छनः मृगाङ्कः । तथा निष्ठुरं यथा तथा क्षिप्तो हतो मृगयूथो मृगसमूहो येन स केसरी सिंहो मृगाधिपः । उभयत्रापि ख्यात इति शेषः । तस्माच्छत्री मार्दवं दुष्कीर्तये, पौरुषं तु कीर्तये इति भावः । अत्राप्रस्तुतकथनात्प्रस्तुतार्थप्रतीतेरप्रस्तुतप्रशंसा ॥ ५३ ॥ अन्वय-अङ्काधिरोपितमृगः (सः) चन्द्रमाः मृगलान्छनः, निष्ठुरक्षिप्तमृगयूथः (सः) केसरी मृगाधिपः ।। ५३ ।। हिन्दी अनुवाद -- गोद में मृगको ( दयापूर्वक ) आश्रय देनेवाला चन्द्रमा 'मृगलान्छन' (मृगकलङ्की ) कहा जाता है, और निर्दयतापूर्वक मृगों को मारनेवाला सिंह 'मृगाधिप' (मृर्गों का राजा ) कहा जाता है ॥ ५३ ॥ विशेष- ( इसलिये कीर्ति के लिए पौरुप की ही आवश्यकता है । शत्रु के साथ मृदुव्यवहारं दुष्कीर्ति का कारण होता है । प्रकृत श्लोक में अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कार है ॥ ) प्रसङ्ग — मनु के इस वचन का - "साम्ना भेदेन दानेन समस्तैरुत वा पृथक् । विजेतुं प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदाचन ॥ " ( ७|१९८ ) - खण्डन करते हुए बलराम जी कहते हैं कि चतुर्थोपायसाध्ये तु शत्रौ र सान्त्वमपक्रिया | स्वेद्यमामज्वरं प्राज्ञः कोऽम्भसा परिषिञ्चति ॥ ५४ ॥ ननु सामादि सुकरोपायमुपेक्ष्य कि पाक्षिकसिद्धिना दण्डेन । यथाह मनुः'साम्ना भेदेन दानेन समस्तैरुत वा पृथक् । विजेतुं प्रयतेताऽरीन्न युद्धेन कदाचन ॥ (म० स्मृ० ७ १६८ ) २. रिपो । १. पुगो ।

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