Book Title: Shishupal vadha Mahakavyam
Author(s): Gajanan Shastri Musalgavkar
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री।। चौखम्भा संस्कृत भवन ग्रन्थमाला १५ महाकवि श्रीमाधप्रणीत शिशुपालवध-महाकाव्यम् ŠIŚUPĀLAVADHAM महामहोपाध्याय-मल्लिनाथकृत-'सर्वकषा' -व्याख्यायुत 'रहस्यबोधिनी' नामक-हिन्दीव्याख्योपेतञ्च हिन्दीच्याख्याकार: डॉ. केशवराव मुसलगांवकरः चौखम्भा संस्कृत भवन चौक (दी बनारस स्टेट बैंक बिल्डिंग) वाराणसी-२२१००१ (भारत) Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्रीः ।। चौखम्बा संस्कृतभवन ग्रन्थमाला 님 महाकवि श्रीमाघप्रणीतं शिशुपालवध-महाकाव्यम् महामहोपाध्याय-मल्लिनाथकृत-'सर्वङ्कषा'-व्याख्यायुत 'रहस्यबोधिनी'-नामक-हिन्दीव्याख्योपेतञ्च सम्पूर्ण (१-२० सर्ग) सम्पादक: डॉ० गजाननशास्त्री मुसलगांवकर: हिन्दीव्याख्याकार: डॉ० केशवराव मुसलगाँवकर: एम० ए० (सस्कृत. हिन्दी) डी० फिल्. साहित्यरत्न भूमिकालेखक: डॉ० (राजू) राजेश्वरशास्त्री मुसलगाँवकर: एम० ए० साहित्याचार्य, पी-एच० डी० जनरल फेलो, आई० सी० पी० आर० दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी मा सर चौखम्म ORIU चौखम्बा संस्कृत भवन संस्कृत, आयुर्वेद एवं इन्डोलाजिकल ग्रन्थों के प्रकाशक एवं वितरक पोस्ट बाक्स नं० ११६०, चौक (दी बनारस स्टेट बैंक बिल्डिंग) वाराणसी - २२१००१ (भारत) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 प्रकाशक : चौखम्भा संस्कृत भवन, वाराणसी मुद्रक : चारु प्रिंटर्स, वाराणसी संस्करण : प्रथम, वि० सं० २०५५ मूल्य : रु० ३५०.०० ISBN-81-86937-11-0 © चौखम्भा संस्कृत भवन, वाराणसी इस ग्रन्थ के परिष्कृत तथा परिवर्धित मूल पाठ एवं टीका, परिशिष्ट आदि के सर्वाधिकार प्रकाशक के अधीन है । फोन: ३२०४१४, ३३५६२६ प्रधान कार्यालय चौखम्भा संस्कृत संस्थान पोस्ट बाक्स नं० ११३६ के ३७ /११६, गोपाल मन्दिर लेन ( गोलघर समीप मैदागिन ) वाराणसी २२१००१ ( भारत ) फोन: ३३३४४५, ३३५६३० -- कम्प्यूटर टाइपसेटर मालवीय कम्प्यूटर्स, लंका, वाराणसी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ine Chaukhambha Sanskrit Bhawan Series ŚIŚUPĀLAVADHAM OF MAHĀKAVI MĀGHA (With Sarvankaņā-Rahasyabodhinī SanskritHindi commentary, edited text, paraphrase of Verses notes and a Critical Introduction) (1-20 Cantos COMPLETE) By Dr. KEŠAVARÃO MUSALGAONKARA Edited By MĪMĀŅSĀ BHŪSAŅ Dr. GAJĀNANŚĀSTRĪ MUSALGAONKARA Introduction By Dr. RĀJEŚWAR ŚASTRĪ MUSALGAONKARA M.A., Sahityacharya, Ph.D., Jon. Fellow, I.C.P.R. Deptt. of Philosophy, Banaras Hindu University Varanasi - 5 CHAUKHAMBHA SANSKRIT BHAWAN Sanskrit, Ayurveda & Indological Publishers and Distributors POST BOX NO. 1160 Chowk, (The Banaras State Bank Building) Varanasi - 221001 (INDIA) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © Chaukhambha Sanskrit Bhawan Post Box No. 1160 Chowk (The Banaras State Bank Building) Varanasi. Phone : 320414, 335929 Edition : First, 1998 ISBN-81-86937-11-0 Head-Office: CHAUKHAMBHA SANSKRIT SANSTHAN Post Box No. 1139 K. 37/116, Gopal Mandir Lane (Golghar Near Maidagin) VARANASI - 221001 Phone : 333445, 335930 Computer Type-Setter : Malaviya Computers, Lanka, Varanasi - 5 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्रीहरिः शरणम् ॥ निवेदनं समर्पणञ्च कविवर्येण माघेन महाकाव्यं सुनिर्मितम् । शिशुपालवधाख्यं हि तत्र टीका मया कृता ।। १ ।। या टीका सरला चास्ते सुबोधापि तथैव हि । व्युत्पित्सूनामनायासं बोधाय प्रभवेत् किल ।। २ ।। विशेषः सान्वयार्थश्च सर्वत्र दर्शितः पुनः । छात्राणां यदिलाभः स्याद्यत्नो मे सफलो भवेत् ।। ३ ।। मातरं पार्वतीं पूज्यं गुरुं तातं सदाशिवम् । ध्यायं ध्यायं प्रणम्यादौ व्याख्या विरचिता मया ।। ४ । तयोर्वरदहस्तो मे सदा मूर्ध्नि स्थिरो भवेत् । प्रसन्नौ पितरौ तस्माज्जन्म मे सफलं भवेत् ।। ५ ।। तयोः कृपाप्रसादेन व्याख्यैषा पूर्णतां गता । तामहमपर्यन्नासे भवत्पादसरोरुहे ॥ ६ ॥ बसन्त पञ्चमी वि० सं० २०५५ जनकगंज, बक्षी की गोठ लश्कर (ग्वालियर) म० प्र० ४७४००१ विनीत: पुत्र: केशवराव मुसलगाँवकर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द कविवर माघ के शिशुपालवध' महाकाव्य की यह हिन्दी व्याख्या आज से कई वर्ष पूर्व ही प्रकाशित हो जानी चाहिए थी, पर प्रकाशक की अत्यधिक व्यस्तता के कारण ऐसा न हो पाया । प्रकाशक महोदय ने आज से नौ वर्ष पूर्व मुझसे इसकी हिन्दी व्याख्या करने को कहा था । नदनुसार मैनें हिन्दी अनुवाद का कार्य आरम्भ भी कर दिया था. किन्तु प्रकाशक महोदय ने हर्षचरितम् की मेरी हिन्दी व्याख्या को इसके पूर्व प्रकाशित करने का विचार किया और उसे सन् १९९२ में प्रकाशित कर दिया और इस कारण भी इसका अनुवाद प्रकाशित न हो सका । मस्कृत महाकाव्य की परम्परा में 'शिशुपालवध' महाकाव्य एक महत्वपूर्ण काव्य ग्रन्थ है । प्राचीन पण्डितों ने इसे संस्कृत काव्यों की बृहत्रयी (किरात, शिशुपालवध और नैषध) में परिगणित किया है । इस पर अनेक संस्कृत टीकाओं की उपलब्धि होती है । किन्तु इस दुरुह महाकाव्य पर सर्वसुबोध हिन्दी व्याख्याओं का प्रकाशन अधिक नहीं हुआ है । केवल पं० हरगोविन्द शास्त्रीकृत 'मणिप्रभा' नामक हिन्दी व्याख्या उपलब्ध है । उक्त हिन्दी टीका में प्राय: भाषानुवाद नथा कहीं कहीं पर विमर्श' दिया गया है । इस अल्पप्रयास में पाठकों को ग्रन्थ के श्लोकों का गूढार्थ समझने में कठिनाई होती है, साथ ही कवि की बहुज्ञतावश श्लोकों में निहित अन्य शास्त्रों के मन्दों का प्रकाशन भी नहीं हो पाता । इस कमी को दूर करने के लिए मेरे पुत्र डॉ० (राजू) राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर ने जिन्हें पू० डॉ० गजानन शास्त्री मुसलगांवकर जी का वरदहस्न प्राप्त है, परिश्रमपूर्वक हिन्दी व्याख्या के पश्चात् 'विशेष' में विभित्र शास्त्र सन्दर्भो को स्पष्ट किया है । साथ ही विविध लक्षण ग्रन्थों - कुवलयानन्द, वक्रोक्तिजीवित, सरस्वतीकण्ठाभरण, काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण, उज्वलनीलमणि, दशरूपक और चित्रमीमांसा के अनुसार श्लोकों में अनुस्यूत एकाधिक अंलकारों को भी दर्शाया है । अन्त में प्रत्येक सर्ग में प्रयुक्त छन्दों की सूची दी है तथा सुभाषितों और लोकोक्तियों का उल्लेख भी किया है । निश्चय ही अधावधि प्रकाशित शिशुपालवध के किसी भी संस्करण में इतनी विस्तृत एव सहित सटीक सामग्री उपलब्ध नहीं है ।। पितृतुल्य स्नेह एवं पद पद पर शिक्षा देने वाले मेरे पूज्य बड़े भाई डॉ. गजाननशास्त्री मुसलगांवकर जी की ही प्रेरणा एवं ज्ञानोपदेश को सहायता से मैनें शिशुपालवध महाकाव्य का हिन्दी अनुवाद पूर्ण किया है, उनका तो मैं सदा ही कृतज्ञ हूँ, उनके ऋण को तो शब्द मात्र के उल्लेख से चुकाना संभव नहीं है, अत: मैं उनके आशीर्वाद का अभिलषी हूँ। वाराणसी के विश्वविख्यात प्रकाशक चौखम्भा संस्कृत संस्थान के संचालक श्री मोहनदास जी गुप्त इसे प्रकाशित कर विद्वानों तक पहुँचा रहे हैं, एतदर्थ उन्हें भूरिश: धन्यवाद दे रहा हूँ । साथ ही श्रीरामरञ्जन मालवीय [Malaviya Computers] को हृदय से आशीर्वाद है, जिन्होंने अनवरत परिश्रम कर अपने कम्प्यूटर में इस पुस्तक को वर्तमान भौतिक स्वरूप प्रदान किया । मैं इनके मङ्गलमय भविष्य के लिए भगवान् विश्वनाथ से शुभकामना करता हूँ। - केशवराव सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका 'शिशुपालवध' महाकाव्य के रचयिता महाकवि 'माघ' डाँ० केर्न ने आश्चर्य के साथ लिखा कि संस्कृत के ग्रन्थकारों को अपना परिचय छिपाने की विचित्र आदत है । सामान्यतः वे ( प्राचीन संस्कृत ग्रंथकार ) अपने विषय में या अपने समय के विषय में कुछ भी संकेत स्वकृत ग्रंथ में नहीं देते । संभवतः उन्होंने दुर्वार काल - स्रोत्र के सम्मुख स्थिर रहने में अक्षम इस कार्य को एक बालिश प्रयत्न जैसा समझा और वे इसीलिए प्राय: मौन ही रहे हैं । जो कुछ भी रहा हो, किन्तु हमारे कविवर 'माघ' इस सामान्य नियम के लिये अपवाद स्वरूप ही हैं । महाकवि 'माघ' ने काव्य के २० वें सर्ग के अन्त में प्रशस्ति के रूप में लिखे हुए पाँच श्लोकों में अपना स्वल्पपरिचय अंकित कर दिया है जिसके सहारे तथा काव्य यत्र-तत्र निबद्ध संकेतों से तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर कविवर माघ के जीवन की रूपरेखा अर्थात् उनका जन्म समय, जन्मस्थान, तथा उनके राजाश्रय को जाना जा सकता है । प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने प्रशस्ति रूप में लिखे इन पाँच श्लोकों की व्याख्या नहीं की है । केवल वल्लभदेव कृत व्याख्या ही हमें देखने को मिलती है । इसी प्रकार १५ वें सर्ग में प्रथम ३९ श्लोक के पश्चात् द्र्यर्थक ३४ श्लोक रखे गये हैं । पश्चात् ४० वाँ श्लोक है, यहीं से मल्लिनाथ ने व्याख्या की है। अतः यह समझा जाता है कि जिस तरह उन ३४ श्लोकों को प्रक्षिप्त मानकर मल्लिनाथ ने उनकी व्याख्या नहीं की है, उसी प्रकार प्रशस्ति के पाँच श्लोकों को भी प्रक्षिप्त मानकर मल्लिनाथ ने व्याख्या नहीं की है । किन्तु मल्लिनाथ के पूर्ववर्ती टीकाकार वल्लभदेव ने उन ३४ श्लोकों की तथा कविवंश वर्णन के पाँच श्लोकों की टीका लिखी है । अतः वल्लभदेव मल्लिनाथ से पूर्ववर्ती होने के कारण यह विश्वास किया जाता है कि कविवंश वर्णन के आदि में जो - "अधुना कविमाघो निजवंशवर्णनं चिकीर्षुराह"- लिखा है, वह सत्य है अर्थात् अन्य द्वारा लिखा हुआ यह कविवंश वर्णन नहीं है । 'कविवंशवर्णन के पाँच श्लोक प्रक्षिप्त हैं" वह कहना केवल कपोल कल्पना है । क्योंकि प्रभाकरचरितकार ने स्वयं यह लिखा है कि मैंने कविवर माघ के विषय — - - में जो कुछ लिखा है, वह सब जनश्रुति के आधार पर है। निश्चित ही जनश्रुतियाँ एकदम निराधार नहीं होतीं 'नह्यमूला जनश्रुति: ' - उनमें सत्याश अवश्य रहता । इस दृष्टि से ९वीं या १०वीं शती के विद्वान् माघ के वंशीय व्यक्तियों - पिता, पितामह प्रपितामह तथा कवि का नाम, उसका निवासग्राम, आदि से अधिक दूरवर्ती न होने के कारण, Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 8 ] अनभिज्ञ नहीं हो सकते । इसके अतिरिक्त कवि द्वारा लिखे हुए वश-वर्णन के पाँचवें श्लोक में स्पष्ट लिखा हुआ है कि दत्तक के पुत्र माघ ने सुकवि-कीर्ति को प्राप्त करने की अभिलाषा से 'शिशुपालवध' नामक काव्य की रचना की है, जिसमें श्रीकृष्णचरित वर्णित है और प्रतिसर्ग की समाप्ति पर 'श्री' अथवा उसका पर्यायवाची अन्य कोई शब्द अवश्य दिया गया है । यहाँ ध्यातव्य यह है कि जिस कवि ने १९वें सर्ग के अन्तिम श्लोक ( क्र० १२० ) चक्रबन्ध' - में किसी रूप में बड़ी ही निपुणता से - 'माघकाव्यमिदम्', शिशुपालवधः" - तक अंकित कर दिया है तो वह अपने वंश का वर्णन भी सूक्ष्म रूप से अकित क्यों नहीं करेगा ? यश का अभिलाष रखनेवाला कवि बहुज्ञता की प्रतिद्वन्द्रिता के युग में निश्चय ही अपने वंश का वर्णन करके युगों तक अपनी प्रसिद्धि फैलाने का कार्य करेगा । इतना सब कुछ स्पष्ट होते हुए भी विद्वानों के सम्मुख कविवर माघ के जीवन के विषय में उलझनें हैं । महाकवि माघ का जीवनवृत्त और समय : - ___ कविवर माघ का जन्म राजस्थान की इतिहासप्रसिद्ध नगरी 'भीनमाल' में राजा वर्मलात के मन्त्री सुप्रसिद्ध शाकद्विपीय ब्राह्मण सुप्रभदेव के पुत्र कुमुदपण्डित ( दत्तक ) की धर्मपत्नी ब्राह्मी के गर्भ से माघ की पूर्णिमा को हुआ था । कहा जाता है कि इनके जन्म समय की कुण्डली को देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यह बालक उद्भट विद्वान, अत्यन्त विनीत, दयालु, दानी और वैभव सम्पन होगा । किन्तु जीवन की अन्तिम अवस्था में यह निर्धन हो जायगा । यह बालक पूर्ण आयु प्राप्त करके पैरों पर सूजन आते ही दिवंगत हो जायगा । ज्योतिषी की भविष्य वाणी पर विश्वास करके उनके पिता कुमुद पण्डित-दत्तक ने जो एक श्रेष्ठी ( श्रेष्ठं धनादिकम् अस्ति यस्य, श्रेष्ठ इनि ) ( धनी ) थे, प्रभूत धनरत्नादि की सम्पत्ति को भूमि में घड़ों में भर कर गाड़ दिया था और शेष बचा हुआ धन माघ को दे दिया था । कहा जाता है कि 'शिशुपालवध' काव्य के कुछ भाग की रचना इन्होंने परदेश में रहते हुए की थी और शेष भाग की रचना वृद्धावस्था में घर पर रहकर ही की । अन्तिम अवस्था में ये अत्यधिक दरिद्रावस्था में थे । 'भोज-प्रबन्ध' में उनकी पत्नी प्रलाप करती हुई कहती है कि जिसके द्वार पर एक दिन राजा आश्रय के लिए ठहरा करते थे, आज वही व्यक्ति दाने दाने के लिए तरस रहा है । क्षेमेन्द्रकृत 'औचित्य विचार चर्चा' में पं० महाकवि माघ का अधोलिखित पद्य माघ की उक्त दशा का निदर्शक है - बुभुक्षितैर्व्याकरणं न भुज्यते न पीयते काव्यरस: पिपासितैः । न विद्यया केनचिदुद्धृतं कुलं हिरण्यमेवार्जयनिष्फलाः क्रियाः ॥ १. श्रीशब्दरम्यकृतसर्गसमाप्तिलक्ष्म लक्ष्मीपतेश्चरितकीर्तनमात्रचारु । तस्यात्मजः सुकविकीर्तिदुराशयाऽदः काव्यं व्यधत्त शिशुपालवधाभिधानम् ।। ५ ।। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [9] उक्त वक्तव्य से ऐसा प्रतीत होता है कि दरिद्रता से धैर्यहीन हो जाने के कारण अत्यन्त कातर हुए माघ की यह उक्ति है । कविवर माघ १२० वर्ष की पूर्ण आयु प्राप्त करके सन् ८८० ई० के आसपास दिवंगत हुए । साथ ही इनकी पत्नी सती हो गई । इनकी अन्तिम क्रिया तक करने वाला कोई व्यक्ति इनके परिवार में नहीं था । भोजप्रबन्ध, प्रबन्धचिन्तामणि तथा प्रभावकचरित के अनुसार माघ भोज की जीवितावस्था में ही दिवंगत हुए, क्योंकि भोज ने ही माघ का दाह संस्कार पुत्रवत् किया था । प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माघ के जीवन की यही घटना ज्ञात होती है । इतना तो स्पष्ट है कि माघ का जन्म कुल–परम्परा के अनुसार एक प्रतिष्ठित धनाढ्य ब्राह्मण कुल में हुआ था । जीवन के सुख की समग्र सामग्री इनके पास थी । पिता से इन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी । पिता के समान ही ये दानी, दयालु तथा उपकारी थे । इनका सम्बन्ध किसी 'भोज' नाम या उपाधिधारी राजा विशेष से अवश्य था । किन्तु धारा-नरेश भोज से कदापि नहीं, क्योंकि धारा नरेश-भोज का समय ईसा की ग्यारहवीं शती (१०१०-५०ई० ) है । इसलिए माघ धारा-नरेश भोज के समसामयिक कदापि नहीं हो सकते । __इतिहास देखने पर ज्ञात होता है कि भारतवर्ष में कम से कम दो-तीन भोजनामधारी राजा अवश्य थे । माघ के समय निर्धारण में अन्य प्रमाण भी मिलते हैं, जिनकी सहायता से हम उनका समय जान सकते हैं । नवीं शती के आनन्द वर्धन ( ८५० ई० ) ने अपने ध्वन्यालोक ( २ उद्योत ) में माघ के दो पद्यों को उद्धृत किया है । प्रथम पद्य है - 'रम्या इतिप्राप्तवती: पताका:' ( ३.। ५३ ) तथा द्वितीय है - त्रासाकुल' परिपतन् परितो निकेतान् । (५। २६ ) इस प्रकार माघ निःसन्देह आनन्द वर्धन ( ८५० ई० ) के पूर्ववर्ती हैं । आनन्दवर्धन द्वारा माघ के श्लोक उद्धृत किये जाने के कारण माघ आनन्दवर्धन के पूर्ववर्ती ही हो सकते हैं या समकालीन भी हो सकते हैं, क्योंकि यशोलिप्सा के कारण माघ स्थिर रूप में किसी एक स्थान पर न रह पाये हों । उन्होंने निश्चित रूप से उत्तर भारत में काश्मीर तक भ्रमण किया था, जिसका प्रमाण काव्य के प्रथमसर्ग का नारदमुनि की जटाओं का वर्णन है । यहीं पर सम्भव है, ध्वन्यालोक में उद्धृत श्लोकों को किसी काव्यगोष्ठी में श्री आनन्दवर्धन ने माघ के मुख से सुने हों और वे उत्तम होने के कारण आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया हो । एक शिलालेख से भी माघ के समय-निर्धारण में सहायता मिलती है । राजा वर्मलात का शिलालेख वसन्तगढ़ ( सिरोही राज्य में ) से प्राप्त हुआ है । यह शिलालेख शक संवत् ६८२ का है । शक संवत् ६८२ में ७८ वर्ष जब जोड़ दिये जाते हैं तब ईस्वी सन् का ज्ञान होता है । इस प्रकार यह शिलालेख सन् ७६० ई० का लिखा हुआ होना चाहिए । माघ ने २० वें सर्ग के अन्त में -'कविवंशवर्णनम' में लिखा है कि उसके Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 10 ] पितामह सुप्रभदेव के आश्रयदाता राजा वर्मल ( वर्मलात ) थे । अत: सुप्रभदेव का समय ७६० ई० के आसपास होना चाहिए और उनके पौत्र कविमाघ का शैशवकाल सन् ७८० के आसपास । इतना तो निश्चित है कि माघ आनन्दवर्धन के पश्चात् वर्ती नहीं थे और उनकी स्थिति ८वीं और ९वीं शताब्दियों के बीच में होनी चाहिए । वस्तुत: कवि अपने समाज से प्रभावित रहता है । कुशल कवि जिस अतीत के इतिवृत्त को अपने काव्य का कथानक बनाता है, उसी अतीत की अन्य स्थितियाँ भी चित्रांकित करने का भरसक प्रयत्न करता है । किन्तु सूक्ष्मेक्षिकया देखा जाय तो वहाँ भी उसका वर्तमान समाज झाँकता परिलक्षित होता है । क्योंकि उसका अतीत या भविष्य से सम्बद्ध संपूर्ण कल्पनाओं का आधार वर्तमान ही रहता है । कवि की कल्पना वर्तमान की नींव पर अतीत तथा भविष्य के प्रासादों का निर्माण किया करती है । इसलिए माघ में अंकित रोतिबद्धता की बढ़ी हुई प्रवृत्ति तथा समाज का शृङ्गारिक वातावरण भी हमें माघ की उक्त तिथि निश्चित करने में सहायक है । संक्षेप में माघ एक ऐसे युग की देन है जिसके प्रमुख लक्षण शृंङ्गारिकता, साजबाज के कार्यों में अत्यधिक रुचि और चमत्कार एवं विद्वता प्रदर्शन की प्रवृत्ति आदि है । मदिरा एवं प्रमदा का जो साहचर्य माघ काव्य में देखने को मिलता है वह आठवीं से दसवीं शताब्दी के उत्तर भारतीय राजपूत जीवन का प्रतिबिंब है । इस तरह माघ का काल प्राय: ८वीं और ९वीं शताब्दियों के बीच स्थिर होता है। इसमें सन्देह नहीं किया जा सकता । माघ का जन्मस्थान कविवर माघ के समय की तरह ही उनके जन्मस्थान के विषय में भी विद्वानों का मतैक्य नहीं है । (१ ) कुछ विद्वान् उन्हें गुजरात प्रान्त में आबूपर्वत के निकट स्थित भीनमाल के निवासी मानते हैं । (२) भोजप्रबन्ध, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रभावकचरित तथा माघ काव्य की कुछ प्रतियों में उल्लिखित - "इति श्री भिन्नमालव-वास्तव्य" - आदि के अनुसार माघ राजस्थान के प्रान्तान्तर्गत भीनमाल के ( जो पूर्व में श्रीमाल के नाम से प्रसिद्ध था ) निवासी थे । ( ३ ) डॉ० भोलाशंकरव्यास माघ कवि को भीनामाल के निवासी नहीं मानते वे उन्हें राजस्थान के पर्वतीय प्रदेश डुंगरपुर, बांसवाड़ा के समीप का निवासी मानते हैं । ( ४ ) इसके विपरीत डॉ. मनमोहन लाल शर्मा, डॉ० व्यास के विचारे :: सहमत नहीं हैं । उनके विचार में माघ की जन्मभूमि प्राचीन गुजरात प्रान्त के अन्तर्गत भीनमाल ही है । जो आज राजस्थान के सिरोही जिले के निकट एक तहसील है Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 ] वस्तुतः मारवाड़ की भूमि एक समय गुजरात ही कहलाती थी और आबू पर्वत के समीप ही भीनामाल की स्थित भी थी । ऐसी स्थिति में वर्तमान भीनमाल ही स्वीकार करना चाहिए । डुंगरपुर बाँसवाड़े की समीप की भूमि उसे क्यों समझी जाय 1 शिशुपाल - वध - काव्य में वर्णित ऊँटों का तथा ऊँटों की प्रकृति का यथार्थ वर्णन कवि को उस प्रदेश का ही निश्चित करता है । डुंगरपुर - बाँसवाड़े जैसे पथरीले भाग का निवासी कवि ऐसा यथार्थ वर्णन नहीं कर सकता जैसा रेगिस्तान का एक निवासी प्रत्यक्ष द्रष्टा । वस्तुतः ऊँट तो रेगिस्तान का जहाज कहलाता है और भीनमाल तो मारवाड़ में है ही । अतः ऊँटों का वहाँ होना स्वाभाविक ही है । भीनमाल के निकट आबू पर्वत हैं और वहीं लूणी नदी भी प्रवाहित हो रही है । कवि ने इसी पर्वत का वर्णन रैवतक पर्वत के रूप में किया है । यहाँ कि जड़ी-बूटियाँ रात्रि की चन्द्रिका में प्रकाशित होकर पर्वत की शोभा को बढ़ाती हैं । इसके अतिरिक्त शिशुपालवध की अधिकांश प्रतियों में यह उल्लेख इति श्री भिन्नमालव- वास्तव्यः दत्तकसूनोर्माघ.. माघ को भीनमाल का निवासी घोषित करता है । शिशुपाल वध के १९ वें सर्ग के चक्रबन्ध श्लोक में श्लिष्ट रूप में अंकित वत्सभूमि ( भीनमाल, जालौर मारवाड़) का संकेत है, जो कवि को भीनमाल का बताता है । प्रबन्ध तथा अन्य तद्विषयक ग्रन्थ माघ को भीनमाल का निवासी बताते हैं । वसन्तगढ़ के शिलालेख तथा ब्रह्मगुप्त के ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त के आधार पर कवि माघ भीनमाल के ही निवासी सिद्ध होते हैं । उक्त विवेचन से यही सिद्ध होता है कि कविवर माघ की जन्मभूमि प्राचीन गुजरात प्रान्त के अन्तर्गत भीनमाल ही है जो आज राजस्थान के सिरोही जिले के निकट एक तहसील है । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ का व्यक्तित्व युग-चेतना कालिदास से माघ तक का मध्यवर्तिकाल करीब-करीब ५०० वर्ष का है । इस प्रदीर्घ समयावधि में काव्य-धारा के स्वरूप, उसकी गुणवत्ता और उसकी प्रवाह-शैली में पर्याप्त परिवर्तन हुआ सा दिखाई देता है । निश्चय ही यह कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं था । वस्तुतः साहित्य पर युग-चेतना का सर्वाधिक प्रभाव रहता है । और इस चेतना के फलस्वरूप साहित्य की शैली में, उसकी कलात्मक मान्यताओं में परिवर्तन दृग्गोचर होता है । गुप्त और वाकाटक साम्राज्यों की सर्वाङ्गीण उन्नति ने साहित्यिक वातावरण में आमल परविर्तन कर दिया । वाकाटक नृपतियों के राज्यकाल में ही प्राकृत भाषा और उसके साहित्य का उत्कर्ष प्रारम्भ हो चुका था । फलतः अब संस्कृत भाषा और उसके साहित्य का लक्ष्य जनसाधारण न रहकर विदग्ध समाज था । राजनैतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के पश्चात् भारतवर्ष टुकड़ों में विभक्त हो गया था । कनौज के हर्षवर्धन और चालुक्य पुलकेशी ने साम्राज्य की स्थापना की थी, किन्तु वे साम्राज्य चिरस्थायी न हो सके थे । सामन्तों तथा पण्डितों ने शास्त्रार्थों, अर्थालङ्कारों, शब्दालङ्कारों, प्रहेलिकादि काव्यों में आनन्द लेना प्रारम्भ कर दिया था । इसी समय एक ओर दिङ्नाग तथा धर्मकीर्ति जैसे बौद्ध पण्डितों का और वात्स्यायन तथा उद्योतकर जैसे ब्राह्मण नैयायिकों का उदय हुआ, तो दूसरी ओर अलङ्कार और कथा साहित्य के आचार्य सुबन्धु, दण्डी और बाण ( ५५० ई० तथा ६५० ई० के मध्य में ) ने वासवदत्ता, दशकुमारचरित और कादम्बरी जैसे क्रमश: उत्कृष्ट ग्रन्थ लिखकर काव्य को अलङ्कृति की सीमा पर पहुंचा दिया और इसका चरमोत्कर्ष श्रीहर्ष के नैषध तथा उत्तरकालीन काव्यों में दिखाई पडा । फलतः अश्वघोष और कालिदास की ऋजुता, सरसता और अव्याज मनोहारिता के स्थान पर विदग्धता और आयास सिद्ध आलङ्कारिता ने स्थान ग्रहण किया । यद्यपि शास्त्र के अनुसार काव्य यश के लिए व्यवहारज्ञान के लिए लिखे जाते थे', अर्थात् जीवन की लगभग समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए काव्य लिखे जाते थे, पर अधिक बल कीर्ति-यश पाने पर ही दिया गया है। जो बहज्ञताजन्य थी । कवियों की यह कहकर प्रशंसा की गई है कि उनके यश: शरीर में जरा-मरण का भय नहीं होता । कीर्ति प्राप्त करने में राजा और उसकी राज्यसभा प्रधान सहायक साधन थे । इस प्रकार हम देखते हैं कि सामन्त युग का १. काव्यं सद् दृष्टाऽर्थ प्रीतिकीर्तिहेतुत्वात् (काव्यालंकार ५। ५) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [13] प्रभाव हमारे अलंकार शास्त्रों पर पड़ा है । राजकीय युग का प्रभाव हमारे अलंकारशास्त्रों पर पड़ा है । राजकीय ठाट-बाट का जीवन कवि का भी आदर्श हो गया । राजशेखर ने कवि के जिस शानदार जीवन का चित्र अंकित किया है, वह कम आश्चर्यजनक नहीं है। 'माघ' पण्डित कवि की समृद्धि का वर्णन "प्रबन्धचिन्तामणि" आदि ग्रंथों में बड़ी मुखर भाषा में किया गया है । स्वयं राजा भोज को उस समृद्धि के सामने चकित और हतगर्व होना पड़ा था । ऐसा प्रतीत होता है कि इस श्रेणी के कवियों के सामने वाल्मीकि, व्यास, और कालिदास का आदर्श नहीं था । प्राचीन ग्रंथों में राजसभाओं का जो वर्णन पाया जाता है, वह यद्यपि एक प्रकार के काव्य विनोदों से परिपूर्ण है, फिर भी उक्तिवैचित्र्य को या कौशल विशेष को ही विशेष सम्मान प्राप्त होता था । कादम्बरी में बाणभट्ट ने इस राजसभा का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है । उनके वर्णन से ज्ञात होता है कि दरबार में काव्य-विनोद की रुचि थी, परन्तु वह काव्य विनोद बिन्दुमती, प्रहेलिका, चित्र आदि काव्यों की श्रेणी का था । राजसभा में शास्त्र-चर्चा भी होती थी । नाना शास्त्रों के तज्ञ पण्डित तर्क-युद्ध में उतरते थे । कवियों की नानाभाव से परीक्षा होती थी । तात्पर्य यह है कि कवि को ऐसी राजसभा में अपनी कविता पढ़कर कीर्ति प्राप्त करनी होती थी । हम उस युग की कविता की चर्चा करते समय इस बाह्य-परिस्थिति की उपेक्षा नहीं कर सकते । वस्तत: इस प्रकार के साहित्यिक तथा पाण्डित्यमय वातावरण और सहृदय की विदग्धता ने कवियों को एक नई प्रेरणा दी । फलतः पूर्वागत रसमय शैली के स्थान पर एक नवीन 'विचित्र' मार्ग चल पड़ा, जिसमें विषय की अपेक्षा उसकी अभिव्यञ्जना, वर्णनं प्रकार में सरसता के स्थान पर वैदग्ध्य पर अधिक बल दिया जाने लगा । साथ ही काव्य की सजावट के लिए वात्स्यायन के कामसूत्र तथा अन्य शास्त्रों का उपयोग होने लगा । ऐसे ही नवीन युग के प्रतीक स्वरूप तथा पूर्ववर्ती काव्यधारा के दाय रूप में प्राप्त गुणों को आत्मसात कर अपनी विदग्धता एवं व्युत्पत्ति से काव्य की नवीन शैली की उद्भावना में संश्लिष्ट रहने वाले दो महाकवि हैं- 'भारवि' और 'माघ' । इतना तो निश्चित है कि इन दोनों में 'सुकवि-कीर्तिदुराशया' से कवि कर्म करने वाले 'माघ' विदग्धता और कलानैपुण्य में 'भारवि' से अधिक आगे बढ़े हुए हैं । काव्य में उनका कल्पना चातुर्य, वृत्त-प्रभुत्व, पाण्डित्य, और भाषा का प्रखर ज्ञान सबकुछ विस्मयावह है । हाँ, यदि हम कालिदास के काव्य की ऋजुता, स्वाभाविकता और भावतरलता के बिन्दु को छोड़ दें और माघ के सम्पूर्ण काव्य-शिशुपालवध-में झाँककर देखें तो हृदय की अपेक्षा मस्तिष्क, कवित्व की अपेक्षा पाण्डित्य का एक विचित्र समन्वित रूप ही दिखाई देता है' । वस्तुत: मनुष्य का यथार्थ व्यक्तित्व उसके हृदय में निहित रहता है, मस्तिष्क में नहीं । Man is hidden in his heart not in his head". १. काव्य मीमांसा - दशमोध्यायः, पत्र १३०, चौखम्भा प्रकाशन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [14] इसका यह तात्पर्य नहीं है कि 'माघ' के पास कवि-हृदय है ही नहीं । निश्चय ही उसके पास कवि हृदय है और वह किसी प्रकार कम नहीं है । किन्तु जहाँ भी उसका कवि जाता है, अकेला नहीं जाता, वह अपने पाण्डित्य के घटाटोप, अपने सामंतवादी लवाज में ( बहुज्ञता ) के साथ जाता है । उसका युग निर्मित व्यक्तित्व, उसका स्वभाव (Nature) उसके कवि को एकाकी जाने से रोक लेता है । वस्तुत: काव्य-कृति की सफलता में कवि-स्वभाव और युग-भावनाओं का प्राधान्य रहता है । जो कवि अपनी रुचि तथा लोक-भावना के विपरीत काव्यनिर्माण करता है, वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता । इसीलिए राजशेखर ने काव्यमीमांसा में कहा है कि "कवि को पहले अपना ही संस्कार करना चाहिये । मेरा संस्कार कितना है, किस भाषा में मैं समर्थ हूँ, लोगों की रुचि किस विषय की ओर है, मेरा काव्य रचना का उद्देश्य क्या है ? मेरा संरक्षक किस गोष्ठी में शिक्षित है अथवा उसका मन कहाँ लगता है, यह जानकर काव्यरचना के लिए भाषा विशेष का आश्रय लेना चाहिए ॥" 'कविः प्रथममात्मनमेव कल्पयेत् । कियान्मे संस्कारः, क्व भाषाविषये शक्तोऽस्मि, किं रुचिर्लोकः, परिवृढो वा, कीदृशि गोष्ठयां विनीता, स्वास्य वा चेतः, संसजत इति बुद्ध्वा भाषा विशेषमाश्रयेत" इति आचार्याः ।। यदि कवि ने उक्त निर्दिष्ट बातों की ओर ध्यान न देकर अपने काव्य लिखने का वही उद्देश्य हेतु 'दुष्ट राजा या असुर का विनाश कथन मात्र' – ग्रहण किया जो इतिहास या पुराण के लेखक का था, तो उसकी कृति केवल इतिहास या पौराणिक कथा की पुनरावृत्ति मात्र होकर रह जायगी । उसकी कृति और पुराण- इतिहास में कोई अन्तर नहीं रहेगा । उसमें एक व्यापक हेतु के अभाव में कवि युग की भावनाएँ भी मुखरित नहीं हो सकेंगी । अतः ऐसे केवल इतिवृत्त मात्र कथन करने के लिए एक महाकवि की क्या आवश्यकता है ? 'पेरेडाइज लॉस्ट' (Paradise Lost) के कवि 'मिल्टन' ने भी पहले महाकाव्य की रचना के लिए योग्य विषयों की एक सूची बनाई थी, जिसमें पुराण-प्रसिद्ध - (Legendary) अर्थर की कथा का विषय क्रम में प्रथम था । किन्तु विचार-मन्थन करने पर स्वरुचि एवं अपने अभिलषित हेतु की पूर्ति उसके द्वारा न हो सकने पर उसने 'बायबिल' के एक प्रसंग पर अपने महाकाव्य-पेरेडाइजलॉस्ट' की रचना की । उसके आलोचक ( डिक्सन Dixon.p.193) डिक्सन ने लिखा है कि कवि मिल्टन ने अपने स्वभाव-रुचि के अनुकल विषयों को ग्रहण कर अन्य विषयों का त्याग कर दिया । "What was akin to his own nature he took, the rest he put aside with perfect unconcern". वास्तव में जब कवि या कलाकार अपनी तथा लोक-रुचि के साथ समरस-तदाकार-होकर उसके सुर में अपना सुर मिलाते हुए अपनी १. काव्यमीमांसा, अ० १०, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 15 ] कृति का निर्माण करता है तभी उसका काव्य- कौशल उस कृति में प्रस्फुटित होता है, और वह कृति पूर्ण वैभवता को प्राप्त होती है कहा गया है "The artist is then most powerful when he finds himself in accord with the age he lives in. And the plenitude of art is only reached when it marches with the sentiments which possess a community" (Mark Pattison's Milton ). इस प्रकार हम देखते हैं कि माघ के कवि का महत्त्व केवल पाण्डित्य के कारण ही नहीं है, अपितु इसलिए है कि वह समाज की भावनाओं को समझकर काव्य में अपने युग के धर्म, समाज, राजनीति आदि विविध क्षेत्रों का व्यापक चित्र अंकित कर सका है । किन्तु उसके आलोचकों की दृष्टि सदा एकांगी रही है । माघ के पाण्डित्य की चकाचौंध से दीप्त आँखों से उसके काव्य को देखने वाले प्राचीन पण्डितों ने उसे कालिदास भारवि से भी श्रेष्ठ ठहराया है । यहाँ तक कि उसके काव्य को देखकर महाकाव्यपञ्चक पर टीका करने वाले प्रखर पाण्डित्य से विभूषित रसिक मल्लिनाथ ने अपने ये विचार बड़ी तन्मयता से व्यक्त किये हैं "धन्यो माघकविर्वयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात् । " निश्चय ही मल्लिनाथ की यह उक्ति निर्मूल नहीं है । उनके विचार में अत्यधिक व्युत्पन्न कविवर माघ के व्यक्तित्व में हृदय और मस्तिष्क का अपूर्व संगम देखने को मिलता है । किन्तु अर्वाचीन पण्डित माघ को समुचित रीति से समझने में असमर्थ रहे हैं । वास्तव में बहुज्ञता और विद्वत्ता में माघ अपने पूर्ववर्ती कवियों कालिदास, - भारवि, भट्टि में किं बहुना - श्रीहर्ष से भी एक कदम आगे ही बढ़े हुए दिखाई देते हैं । यदि देखा जाय तो कालिदास मूलत: कवि हैं, भारवि राजनीति के प्रकाण्ड विद्वान् और भट्टि शुष्क वैयाकरण तथा उत्तरवर्ती श्रीहर्ष विशेष रूप से दार्शनिक ही ज्ञात होते हैं । किन्तु माघ उक्त सभी क्षेत्रों के मर्मज्ञ पण्डित हैं । उन कवियों का ज्ञान क्षेत्र एकाङ्गी है, जबकि माघ की गति सर्वत्र है । वेद १. १ - तावद् भा भारवेर्भाति यावन् माघस्यनोदयः । उदिते तु पुनर्माघे भारवेर्भा वेरिव ।।' 'कृत्स्न प्रबोधकृद् वाणी भा रवेरिव भारवेः । माघनैव च माघेन कम्पः कस्य न जायते ॥' ३ - माघेन विघ्नोत्साहा नोत्सहन्ते पदक्रमे । स्मरन्तो भारवेरेव कवयः कपयो यथा ॥ ४ - उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थ – गौरवम् । दण्डिनः पदलालित्यं माद्ये सन्ति त्रयो गुणाः ॥' अवयः केवलकवयः केवलकीरास्तु केवलं धीराः । पण्डितकवयः कवयः तानवमन्ता तु केवलं गवयः ॥ २. २ - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 16 ] तथा दर्शनों से लकर राजनीति तक का परिनिष्ठित ज्ञान इनके काव्य में देखने को मिलता है। यही नहीं, अलंकार शास्त्र, कामशास्त्र, सङ्गीत, अश्वविद्या, तथा हस्तिविद्या के वे उत्तम ज्ञाता हैं । माघ एक प्रवीण वैयाकरण हैं । इसका ज्ञान उनके द्वारा यत्र-तत्र उल्लिखित व्याकरण के सूक्ष्म नियमों से होता है । इसी प्रकार वे सङ्गीतशास्त्र के भी सूक्ष्म विवेचक हैं। ( ११ । १ - माघ ) निश्चय ही इतने शास्त्रों का परिनिष्ठित ज्ञान अन्य किसी संस्कृत कवि में देखने को नहीं मिलता । बहुमुखी प्रतिभाशाली माघ का कवि हृदय जब भी बाहर आने का, अपने को प्रस्फुटित होने का अवसर पाता पाण्डित्य उसे पीछे ढकेल कर अपना प्रभुत्व जमा लेता है । परिणामतः आज के नये आलोचक उसे ठीक से समझ पाने में सर्वथा असमर्थ रहते हैं । परिणामतः ये माघ को 'कविरुढियों का दास कहते हैं ।'' किन्तु ऐसा दोषारोपण करने के पूर्व सुविज्ञ लेखक को भली प्रकार से संस्कृत कवि-परम्परा के काव्यसाहित्य पर दृष्टिपात करना चाहिए कि ऐसा कौन सा महाकवि हुआ है जिसने काव्यरुढ़ियों का वर्णन अपने काव्य में नहीं किया ? डॉ० व्यास ने ही अपने संस्कृत - कवि दर्शन में एक स्थान पर यह लिखा है कि " अश्वघोष में ही सर्वप्रथम हमें कुछ ऐसी काव्यरुढ़ियाँ मिलती हैं, जिनका प्रयोग कालिदास से लेकर - श्रीहर्षतक मिलता है ।" क्या ये कवि रुढियों के दास नहीं हैं । यदि हम पुराण साहित्य की ओर दृष्टिपात करें तो हमें श्रीमद्भागवत महापुराण तक में अपने अभीष्ट - प्रिय को देखने के लिए लालायित पुर सुन्दरियों का वर्णन देखने को मिलता है । जिसकी परम्परा -श्रीहर्ष तक देखने को मिलती है । भारतीय आचार्यों ने महाकाव्य में वस्तु - व्यापार वर्णन पर बहुत अधिक जोर दिया है । अलंकृत महाकाव्य का यही प्रधान लक्षण है । जैसे प्रकृति चित्रण तथा जीवन के विभिन्न व्यापारों और परिस्थितियों का चित्रण आदि । ऐसी स्थिति में यह कहना कि माघ ने “मौलिकता को कुचल दिया है" अपने पूर्व कवियों की रूढ़ पद्धति का माघ की प्रतिभा आश्रय न लेती तो अभिनव सरणि को उद्भावित करती" आदि आदि-माघ के प्रति बुद्धिपूर्वक अन्याय करना है । जिन-जिन पूर्व कवियों के वर्णनों के अनुरूप माघ ने अपने काव्य वर्णनों का अंकन किया है, उन्हें चित्रांकित करने की कल्पना, माघ की अपनी है । हू-ब-हू अनुकरण करने की चेष्टा नहीं की गई है । अपनी प्रकृति के अनुसार उन वर्णनों को सजाने, उन्हें हल्के या गहरे रंग से रंगने का कार्य माघ का है। वैसे देखा जाय तो कोई भी "विचारक आसमान में नहीं पैदा होता है । सबकी जड़ परंपरा में गहराई तक गयी हुई हैं । सुन्दर से सुन्दर फूल यह दावा नहीं कर सकता कि वह पेड़ " १. संस्कृत कविदर्शन २. भागवत - दशमस्कन्ध - अ० ४१ डॉ० व्यास, पृ० १७६ ३. अपारेकाव्यसंसारं कविरेकः प्रजापतिः । यथाऽस्मै रोचते विश्वं तथेदं परिकल्प्यते ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 17 ] से भिन्न होने के कारण उसमें एकदम असंपृक्त है । कोई भी पेड़ यह दावा नहीं कर सकता कि वह मिट्टी से भिन्न होने के कारण एकदम अलग है । इसी प्रकार कोई भी तथाकथित मौलिक विचार यह दावा नहीं कर सकता कि वह परंपरा से एकदम कटा हुआ है । कार्य-कारण के रूप में, आधार- आधेय के रूप में परम्परा की एक अविच्छेद्य श्रृंखला अतीत में गहराई तक, बहुत गहराई तक गयी हुई है।' ऐसी स्थिति में हम यह कैसे कह सकते हैं कि माघ "रुढ़ियों का दास" है या उसका लक्ष्य अपने पूर्व कवियों की नकल करना'' है । माघ का लक्ष्य अपने पूर्व कवियों द्वारा वर्णित वर्णनों जैसा वर्णन कर उनके आगे बढ़कर 'कीर्ति' को प्राप्त करना रहा है । अत: उसे ऐसा करने के अतिरिक्त अन्य मार्ग भी नहीं था । वे प्रकृति से तो विनीत थे पर वे जो कछ कार्य करते उसके लिए वंश, प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा की एक उत्कट चाह उनके हृदय में बनी रहती थी । उन्होंने यशोलिप्सा के कारण ही अपने पाण्डित्य, चमत्कारी प्रतिभा एवं बहुज्ञता का स्थान-स्थान पर परिचय दिया है । माघ कलावादी कवि अवश्य हैं, वे 'विचित्रमार्ग' के प्रवर्तक भी हैं, किन्तु वे सत्कवि की यथार्थ कसौटी भी जानते हैं । उन्होंने अपने काव्य में शब्द और अर्थ दोनों के समन्वित सौन्दर्य पर ध्यान दिया है । ऐसी स्थिति में माघ के साथ न्याय करते समय हमें सर्वप्रथम उस युग चेतना को ध्यान में रखना चाहिए । जिसने माघ के व्यक्तित्व तथा उसके स्वभाव (Disposition) का निर्माण किया है । वे अपने स्वभाव से धार्मिक समन्वय में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे । इन सब बातों के अतिरिक्त महाकविमाघ अपने ढंग के शृंगारी-प्रेमी रसिक व्यक्ति थे । उनका प्रेम वासना-प्रधान है । एकस्थान पर वे कहते हैं – “स्वच्छ जल से धुले अंग, ताम्बूलचूति से जगमगाते होठ और महीन निर्मल हल्की सी साड़ी अथवा एकान्त स्थान-यही तो विलासिनियों का वास्तविक श्रृंगार है बशर्ते वह काम ( वासना ) से रहित न हो ।'' इस प्रकार का वासना-प्रधान-श्रृंगार वर्णन युग की विचारधारा से ही प्रभावित माना जायगा । शिशुपालवध- काव्य रचना के प्रेरक हेतु - ( १ ) सुकविकीर्तिदुराशा और ( २ ) कृष्णभक्ति महाकवि कालिदास की ललित-मुधर, विनोदात्मक, रम्म्योदात्त और आदर्शवादी काव्य कृतियों के पश्चात्, लगभग १५० वर्ष के अन्तराल में महाकवि भारवि की ओजपूर्ण, भारी-भरकम, विवेक प्रधान, और विचार दृष्ट्या यथार्थवादी कृति को संस्कृत-काव्याकाश में अपनी प्रखर द्युति से प्रकाशित देखकर सुकवि की कीर्ति का १. "शब्दार्थो सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते ।" २। ८६ “स्वच्छाम्भः स्नपनविधौतमङ्गमोष्ठस्ताम्बूलद्युतिविशदो विलासिनीनाम् । वासश्च प्रतनु विविक्तमस्त्वितीयानाकल्पो यदि कुसुमेषुणा न शून्यः ।। ८। ७०।। ( शिशु० वध ८। ७० ) शि० भू०2 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 18 ] अभिलाष रखने वाले महाकवि माघ को अपने प्रतिद्वन्द्वी कवि भारवि को पछाड़कर आगे बढ़ने की इच्छा करना स्वाभाविक ही था । माघ ने इस हेतु को बड़ी ही नम्रता से व्यक्त किया है - 'लक्ष्मीपतेश्चरितकीर्तनमात्रचारु 1 ...... सुकविकीर्तिदुराशयाऽदः काव्यं व्यधत्त शिशुपालवधाभिधानम् ॥' (२०५ कविवंशवर्णनम् ) और तदनुसार अपने काव्य को सर्वभावेन श्रेष्ठ करने का प्रयत्न भी किया है । ( इसे हम किरातार्जुनीय और शिशुपालवध की तुलना में देख सकते हैं ।) अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिए माघ ने भारवि की कीर्ति उसके काव्य की प्रखर द्युति को ध्वस्त करने में कुछ भी कसर नहीं छोड़ी । महाभारतीय कथाभाग में २ / ३ नवीन भाग भागवत तथा विष्णुपुराणों के अंशों को जोड़ना तथा महाभारतोक्त कथा भाग में परिवर्तन करना भी भारवि के आगे जाने का माघ का एक प्रयत्न है। साथ ही यशः प्राप्ति के साथ अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण का गुणगान करना भी है । अतएव माघ ने महाभारतीय कथा में थोड़ा परिवर्तन किया । भागवत के 'जरासंध के स्थान पर शिशुपाल जैसे पराक्रमी की स्थापना की है । जिससे उसके वध का संपूर्ण श्रेय श्रीकृष्ण को मिले । ( जो जरासंध के वध में नहीं मिलता ) क्योंकि क्रूरता व पराक्रम में भी रावण का उपहास करने वाले शिशुपाल जैसे एक वीर पुरुष का वध कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं कर सकता । इस छोटे से परिवर्तन से कथानक को एक मोड़ मिला है जो श्रीकृष्ण के चरित्र का वीरतापूर्ण तथा तेजोमय स्वरूप प्रस्तुत करता है । इसी तथ्य को व्यक्त करने के लिए माघ ने काव्य में एकाधिक स्थानों पर श्रीकृष्ण के लिए - वराह, आदिवराह, महावराह जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है । डाँ० मनमोहन लाल ने इन विशेषणों का संकेत आदिवराह भोज अर्थात् मिहिरभोज ( जो माघ के आश्रयदाता थे ) की ओर माना है । 'महाकविमाघ पृ० १९२ देखिए - १ । ३३ या ३४, १४। १४, ४३, ७१, ८६, १५/५, १८/२५, ९८, १९/११६, २०/३३ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ की रचनाएँ महाकवि भारवि की तरह ही माघ की भी केवल एक ही रचना शिशुपालवध' आज प्राप्त है । यद्यपि माघ काव्य के टीकाकार वल्लभदेव की टीका में 'शील' शैलतटात्पततु तथा 'नारीनितम्बफलके' ये दो श्लोक और क्षेमेन्द्र की 'औचित्यविचारचर्चा' में बुभुक्षितैर्व्याकरणं न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते । न विद्यया केनचिदुद्धृतं कुलं हिरण्यमेवार्जय निष्फलाः कलाः ।।' ये प्रसिद्ध श्लोकः देखने को मिलते हैं, किन्तु ये किस ग्रन्थ में से उद्धृत किये गये हैं, ज्ञात नहीं होता । संभव है, माघ समय-समय पर कुछ फुटकर रचनाएँ राजसभा या कवि गोष्ठियों में सुनाने के लिये लिखते रहे हों, इसकी पुष्टि उनके अप्रासंगिक-श्रृंगार-लीलाओं के वर्णनों को देखने पर होती है । इन्हीं मुक्तक - वर्णनों को कवि ने बाद में शिशुपालवध - काव्य में अनुस्यूत कर दिया हों यही कारण है ि शिशुपालवध - काव्य के इतिवृत्त - निर्वाहकता में बाधा उपस्थित हो गई है । 'सुभाषितावलि' तथा 'औचित्यविचारचर्चा' में अंकित श्लोकों के अतिरिक्त सुभाषितरत्नभाण्डागारम् में भी कई श्लोक माघ के नाम से देखने को मिलते हैं । किन्तु इनका मूलरूप ज्ञात नहीं होता । प्रबन्ध काव्य के रूप में केवल 'शिशुपालवध' महाकाव्य ही आज उपलब्ध है, जो उनके उत्कृष्ट कलावादी काव्यत्व को सिद्ध करने में निश्चय ही अलम् है । शिशुपालवध कवि माघ ने अपने काव्य के लिए कथा भारवि के किरातार्जुनीय की तरह महाभारत से ग्रहण की है। इसमें शिशुपालवध - कृष्ण तथा शिशुपाल के वैर की, तथा युद्ध में कृष्ण के द्वारा चेदिनरेश शिशुपाल के वध किये जाने की लघु-कथा वर्णित है । यही 'शिशुपालवध' महाकाव्य का वर्ण्य विषय है । माघ वैष्णव होने के कारण इसका प्रेरणा स्रोत प्रधानतः भागवतपुराण है, और गोण रूप से महाभारत । सर्गो की संख्या २० तथा श्लोकों की १६५० । द्वारका में श्रीकृष्ण के पास नारद का आगमन तथा उनके द्वारा दुष्टों - शिशुपालादि - के वध के लिए प्रेरित किये जाने की कथा वर्णित है ( १ सर्ग ), युधिष्ठिर के राजसूययज्ञ में जाने के लिए बलराम तथा उद्धव द्वारा मन्त्रणा करने के पश्चात् निश्चय किया जाता है ( २ सर्ग ); श्रीकृष्ण यादव सेना के साथ इन्द्रप्रस्थ के लिए प्रस्थान करते हैं ( ३ सर्ग ), इसके पश्चात् महाकाव्य के लिए लक्षण ग्रन्थकारोक्त आवश्यक पूरक विषयों का वर्णन आरम्भ होता है । - रैवतक पर्वत का वर्णन ( ४ सर्ग ), कृष्ण के रैवतक पर्वत पर निवास करने का वर्णन (५ सर्ग), ऋतुओं का वर्णन ( ६ सर्ग ), वनविहार वर्णन ( ७ सर्ग ), जलक्रीडा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 20 ] वर्णन ( ८ सर्ग ), सूर्यास्त तथा चन्द्रोदय का वर्णन ( ९सर्ग ), मधुपान और सुरतवर्णन (१:सर्ग ), प्रभात वर्णन ( ११ सर्ग ), प्रात:कालीन अभियान का वर्णन ( १२ सर्ग ), पाण्डवों से मिलन तथा सभाप्रवेश का वर्णन ( १३ सर्ग ), राजसूययाग तथा दान का वर्णन ( १४सर्ग ), शिशुपाल का विद्रोह वर्णन (१५ सर्ग ), दूतों की उक्ति-प्रत्युक्ति का वर्णन ( १६ सर्ग ), सभासदों के क्षोभ तथा युद्धार्थ कवच धारण का वर्णन (१७ सर्ग ), युद्ध का वर्णन ( १८-१९ सर्ग ) तथा श्रीकृष्ण और शिशुपाल के साथ द्वन्द्व युद्ध का वर्णन २० वें सर्ग में सम्पन्न होता है । उपर्युक्त कथा एवं वर्णनों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि माघ प्रबन्धकाव्य के इतिवृत्त निर्वाहकता में सफल नहीं कहे जा सकते । इनके पूर्ववर्ती कवियों - भारवि और कुमारदास जैसी थोड़ी भी इतिवृत्त-निर्वाहकता माघ में नही पाई जाती । माघ में इतिवृत्त और प्रासंगिक वर्णनों का किचिंन्मात्र भी सन्तुलन नहीं मिलता । वस्तुत: मूल कथावस्तु ४ थे सर्ग से १३ सर्ग तक का वर्णन अनपेक्षित रूप में विस्तृत कर दिया गया है । परिणामतः वीररसपूर्ण इतिवृत्त में अप्रासंगिक श्रृङ्गार लीलाओं का छ: सर्गो में विस्तार है । जो मुक्तक की तरह प्रतीत होता है । इसका मूल कारण है कवि का व्यक्तित्व Personality स्वभाव । संसार की विविध घटनाओं, व्यक्तियों तथा सामाजिक वातावरण-प्रसंगादि ले अनुभवों से सतत होने वाले परिणामों से ही कवि की मनोरचना का, उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है और उसके व्यक्तित्व में ही धार्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक विचार, उसका विद्या-कलाभ्यास तथा उसकी नैसर्गिक रुचि-अरुचि भी सत्रिहित रहती हैं । इसीलिए राजशेखर कहते हैं - जिस स्वभाव का कवि होता है, तदनुरूप ही उसका काव्य भी होता है - 'स यत्स्वभाव: कविस्तदनुरूपं काव्यम् । (का० मी० १०) __ हम अन्यत्र कह चुके हैं कि माघ एक ऐसे युग की देन है जिसके प्रमुख लक्षण श्रृङ्गारिकता, साज-बाज के कार्यों में अत्यधिक रुचि और चमत्कार एवं विद्वत्ता प्रदर्शन की प्रवृत्ति आदि हैं । मदिरा एवं प्रमदा के साहचर्य के प्रति कवि की रुझान भी आठवीं से दसवीं शताब्दी के उत्तर भारतीय राजपूत जीवन को झलकाती है । ६ वि को प्रबन्धकाव्य के इतिवृत्त की निर्वाहकता में सावधान रहना चाहिए, इस बात का ज्ञान कविवर माघ को पूर्ण रूप से था, किन्तु युग-प्रभाववश तथा पूर्ववर्ती कवि भारवि की कीर्ति-पताका को ध्वस्त करने के भावावेश में वे स्वयं उक्त तथ्य की ओर ध्यान नहीं दे सके - वे कहते हैं - बह्वपि स्वेच्छया कामं प्रकीर्णमभिधीयते । अनुज्झितार्थसम्बन्धः प्रबन्धः प्रबन्धो दुरुदाहरः ।। २। ७३ ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 21 ] शिशुपालवध की कथावस्तु का आधार १/३ भारत और २/३ अन्यभाग ( भागवत, विष्णुपुराण ) कविवर माघ ने अपने महाकाव्य शिशुपालवध की कथावस्तु को महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों के आधारपर ही प्रस्तुत किया है । काव्य की प्रधान घटना का मुख्य आधार महाभारतान्तर्गत सभापर्व की कथा (अध्याय ३३ से ४५ श्लोक १-३०) ही है । जिसमें राजस्ययज्ञ की प्रचण्ड तैयारी. श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना तथा राजाओं, ब्राह्मणों एवं सगे-सम्बन्धियों को बुलाने के लिये निमन्त्रण भेजना । यज्ञ में सब देशों के राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन और उनके भोजन-विश्राम आदि की व्यवस्था । राजसूय यज्ञ का वर्णन, भीष्मजी की आज्ञा से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन । भीष्म और शिशुपाल का वाक्कलह और अन्त में शिशुपाल का श्रीकृष्ण के द्वारा वध आदि का वर्णन है । उपर्युक्त कथा शिशुपालवध-काव्य के १४ से २० सर्ग में आती है और प्रथम १ से १३ सर्ग तक की कथा पुराण ( भागवत व विष्णु ) के आधार पर है । शिशुपाल वध के १ से १३ सर्ग तक की कथा महाभारत में नहीं है । यही कथा प्रसङ्ग भागवत महापुराण में ( दशम स्कन्ध उत्तरार्ध अ० ७०-७३ ) वर्णित है, जिसमें शिशुपाल के स्थान पर जरासन्ध का उल्लेख है । प्रसङ्ग इस प्रकार है - जरासन्ध ने राजाओं को कारागृह में डाल दिया था, एक समय उन राजाओं का दूत श्रीकृष्ण के यहाँ आकर उनकी स्थिति भी कृष्ण से कहता है उसी समय नारद धर्मराज के राजसूययज्ञ का निमन्त्रण भी श्री कृष्ण को देते है । अत: श्री कृष्ण के सम्मुख दो समस्याएँ आती हैं - ( १ ) जरासन्ध का वध और (२) राजसूययज्ञ में उपस्थित होना । अतः श्रीकृष्ण केवल उद्धव से इस विषय में परामर्श लेते हैं, जिससे वे जान लेते हैं कि यज्ञ गमन में ही दोनों कार्यों की सिद्धि सम्भव है । अतः श्री कृष्ण यज्ञ में उपस्थित होने के लिये ससैन्य निकलते हैं और वन-उपवन और नदियों को पारकर हस्तिनापुर पहुँचते हैं । वहाँ पहुँचने पर ही जरासन्ध के वध का निश्चय होता है । और उसके वध के पश्चात् यज्ञ आरम्भ होता है । श्री कृष्ण सभा में ही शिशुपाल का वध करते हैं । इस प्रकार माघ के काव्य तथा भागवत की कथा में अधिकांश साम्य है । माघ ने विष्णु के अवतारों का उल्लेख करते समय भीष्म स्तुति में अन्य अवतारों के वर्णन में दत्तात्रेय का स्पष्ट उल्लेख किया है । उसके अतिरिक्त माघ ने भागवत के अनुसार ही वराहावतार से आरम्भ किया है । भागवत कथा के अतिरिक्त माघ ने अन्य पुराणों के अंशों को भी सम्मिलित किया है, जैसे प्रस्तुत काव्य के प्रथम सर्ग में शिशुपाल के दो पूर्वजन्मों का उल्लेख किया गया है, जो विष्णु पुराण के आधार पर वर्णित है - (विष्णु अंश ४ अ० १४-१५ ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 22 ] इसके अतिरिक्त आलोच्य काव्य के प्रथम सर्ग के ४६ श्लोक का ९वें सर्ग के १४ वें श्लोक का भाव क्रमश: अग्निपुराण-व-भविष्य पुराण में मिलता है । आदान माघ पर पूर्ववर्ती कवियों का प्रभाव - पूर्ववर्ती कवियों – कालिदास, भारवि तथा भट्टि की कविता का प्रभाव माघ के कई वर्णनों पर दिखाई पड़ने के कारण विद्वानों ने माघ पर पूर्व कवियों की नकल करने का दोष लगाया है. किन्तु हमारे विचार में यह दोषारोपण न्याय संगत नहीं है । वस्तुतः साहित्य के विकास में 'आदान-प्रदान' प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है । यह एक गतिशील जीवंत प्रक्रिया है । उसमें पूर्ववर्ती से आधार रूप में उसे जो कुछ मिलता है, उस पर खड़े होकर ही वह आगे के लिए अपना कदम उठाता है । इसी तथ्य को नीतिवाक्य में इस प्रकार व्यक्त किया गया है - 'चलत्येकेन पादेन तिष्ठत्येकेन बुद्धिमान्' - बुद्धिमान् व्यक्ति एक पैर से खड़ा रहता है और दूसरे से चलता है । यह केवल व्यक्ति सत्य नहीं है, साहित्यिक सन्दर्भ में भी यही शाश्वत सत्य है । खड़े पैर का आधार पूर्ववर्ती उपजीव्य साहित्य होता है । इसी उपजीव्य-परंपरागत साहित्य की भूमि पर कवि का पैर खड़ा रहता है । यही उसका आदान' है और चलता पैर है - 'प्रदान' जो उत्तरवर्ती साहित्य पर उसकी छाया अर्थात् उसकी कृति का प्रभाव होता है । हम अन्यत्र बता चुके है कि कवि को व्युत्पन्न होने के लिये लोक, शास्त्र तथा पूर्ववर्ती काव्य का अभ्यास करना नितान्त आवश्यक होता है । इन्हीं से कवि को काव्य करने की प्रेरणा मिलती है । अपनी काव्य-रचना की प्रारम्भिक अवस्था में कवि पूर्ववर्ती कवियों की कृतियों का अध्ययन करता ही है । बाद में ज्ञात या अज्ञात रूप से उसकी अपनी रचना में उनका प्रभाव कुछ न कुछ अवश्य दिखाई पड़ता है । यही है उपजीव्य-उपजीवक भाव । इसे हम 'हेय' कहकर तिरस्कृत नहीं कर सकते । क्योंकि “कोई भी श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कवि आसमान में नहीं पैदा होता है । सबकी जड़ परम्परा अतीत में गहराई तक गयी हुई है । सुन्दर से सुन्दर फूल यह दावा नहीं कर सकता कि वह पेड़ से भिन्न होने के कारण उससे एकदम असंपृक्त है । कोई भी पेड़ यह दावा नहीं कर सकता कि वह मिट्टी से भिन्न होने के कारण एकदम अलग है । इसी प्रकार कोई भी कवि यह दावा नहीं कर सकता कि वह परम्परा से “पूर्ववर्ती साहित्य से एकदम कटा हुआ है । कार्य-कारण के रूप में, आधार-आधेय के रूप में परम्परा की पूर्ववर्ती कवियों के दाय की-एक अविच्छेद्य श्रृंखला अतीत में गहराई तक, बहुत गहराई तक गयी हुई है ।" यह तो रही परम्परा या पूर्ववर्ती कवियों के दाय की बात, जिसके अनुसार प्रत्येक कवि की कृति में पूर्ववर्ती काव्य-वर्णनों की छाया सहजगत्या ढूंढी जा सकती है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 23 ] कोई भी इस प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकता । यह एक अटल सत्य है । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किन्हीं दो भिन्न काव्यों में कुछ स्थलों में समान पद, समान वाक्य, समान अर्थ तथा समान शैली तक देखने को मिलती है, यहाँ यह आवश्यक नहीं कि एक ने दूसरे का अनुकरण किया हो या नकल की हो । बात यह है कि किसी विषय के प्रति कभी-कभी एक ही प्रकार के भाव दो या कई कवियों में स्फुरित होते हैं, और उन कवियों में देश-काल आदि का बहुत बड़ा व्यवधान भी रहता है । लोक-श्रुति भी है कि महापुरुषों के विचार प्राय: समान ही होते हैं । चिन्तन प्रणाली की यह एकता मनुष्य जाति में स्वभाव सिद्ध है । पूर्ववर्ती साहित्य और वर्तमान साहित्य के धनी ऋणी सम्बन्ध, तथा मानव जाति की चिन्तन प्रणाली की एकता पर विचार कर लेने के पश्चात् हमें आलोच्य कवि के काव्य-प्रणयन के उद्देश्य तथा उसके समय की साहित्यिक दशा पर भी विचार कर लेना होगा जिसके कारण कवि के काव्यवर्णन पूर्वकवियों - कालिदास, भारवि, भट्टि आदि- के काव्य वर्णनों से प्रभावित परिलक्षित होते हैं । महाकवि माघ ने अपने जीवन की उत्कट अभिलाषा को इन – 'सुकविकीर्तिदुराशयाऽअद: काव्यं व्यधत्त शिशुपालवधाभिधानम्" शब्दों में अंकित 'सुकविकीर्ति दुराशा' के द्वारा व्यक्त किया है । माघ की इस अभिलाषा के विषय में तथा तत्कालीन साहित्यिक वातावरण के विषय में हम इसके पूर्व ‘माघ कवि का व्यक्तित्व'- इस शीर्षक के अन्तर्गत पर्याप्त चर्चा कर चुके हैं । अतः यहाँ संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि माघ को अपनी अभिलाषा-'सुकविकीर्ति' की पूर्ति के लिये अत्यधिक परिश्रम करना पड़ा होगा । क्योंकि उन दिनों 'सुकवि-कीर्ति' को प्राप्त करना कोई सरल कार्य नहीं था । वह राजा और उसकी सभा में पूर्व से ही कुण्डलीमारकर बैठे हुए अत्यन्त घाघ कवियों की कृपा-दृष्टि पर निर्भर थी । एक कवि ने तो ऐसी राज-सभा को हिंस्त्र-जन्तुओं से भरे समुद्र के समान कहा है ( मृच्छकटिक ९। १४ ) ऐसी स्थिति में नये कवि के लिये राज-सभा में प्रवेश पाना दुष्कर था । इसका संकेत ____ 1. There is no more interesting and important fact in human history than the universality of folk songs and legends. There is an amazing similarity between the subjects of the songs of the East and the songs of the West and stories are common to all the peoples of the world.............Probably the most satisfactory explanation of the universality of myths is that they are the result of universal experience and sentiment." The outline of literature of John äink Water. Vol I 1940 London Page no 28 to 30. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 24 ] बाण के हर्षचरित' में अंकित विवरण से तथा बिल्हण के - 'राजद्वारे भगाकारे बिल्हणो वृषणायते' - इस कथन से मिल जाता है । निश्चित ही माघ को अपने पूर्ववर्ती कवियो-विशेष कर कवि भारवि- को पछाड़ने के लिये उनके द्वारा वर्णित वर्णनों जैसे वणनों को अपने काव्य में चित्रित कर और आगे बढ़कर अपना काव्य कौशल दिखाने के व्यक्तिरिक्त अन्यमार्ग नहीं था । ऐसी स्थिति में पूर्ववर्ती कवियों के वर्णनों की छाया या उनको समानता माघ के काव्य 'शिशुपालवध' में दिखाई देना कोई आश्चर्य नहीं है । इस समानता को आप उनकी नकल या उनका अनुकरण कह सकते हैं, किन्तु अपने अभिलाषा ( यशोलिसा ) की पूर्ति के लिए किये हुए कवि के ये प्रयत्न सहज स्वाभाविक ही माने जायेंगे । अनुकरण या नकल नहीं । वैज्ञानिकों की दृष्टि में मौलिकता का दूसरा नाम नवीन उदभावना है, किन्तु साहितय. में किसी भाव को प्रस्तुत करने के नवीन दृष्टिकोण अथवा विवेचन की नवीनता को ही मौलिकता कहा जाता है । केवल भाव साम्य अथवा प्रभाव प्रहण में मौलिकता नष्ट नहीं होती । माघ का कवि 'भावपरिपन्थी' तो नहीं कहा जा सकता । वह पूर्व वर्णित भाव को अपनी अम्लान प्रतिभा और व्युत्पत्ति के साँचे में ढालने में खूब कुशल है । परिणामतः पूर्वदृष्ट सारे भाव-पदार्थ-भी नए से प्रतीत होने लगते हैं । देखिए - एक उदाहरण पर्याप्त होगा- भारवि के भाव को ग्रहण कर माघ के कवि ने अपनो मौलिकता से सजाकर किस प्रकार उपन्यस्त किया है - भारवि कहते हैं - 'कृतावधानं जितबर्हिणध्वनौ सुरक्तगोपीजनगीतनिःस्वने । इदं जिघत्सामपहाय भूयसी न सस्यमभ्येति मृगीकदम्बकम् ॥' (४। ३३ भारवि) इसी भाव को माघ के कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है - 'विगतसस्य जिघत्समघट्टयत्कलमगोपवधून मृगव्रजम् । श्रुततदीरित कोमलगीतकध्वनिमिषेऽनिमिषेक्षणमग्रतः ॥" ( माघ० ६। ४९ ) यही मौलिकता उसके सेनाप्रयाण वाले स! -( ५, १२, १३ ) तथा एकादश सर्ग के प्रभात वर्णन में परिलक्षित होती है । इसी प्रकार माघ ने भट्टि के भाव को ग्रहण कर एक अपूर्व कलात्मकता के साथ उसे प्रस्तुत किया है - माघ का पद्य इस प्रकार है - 'सटाच्छटाभित्रघनेन विप्रता नृसिंहसँहीमतनुं तनुत्वया समुग्धकान्तास्तनसङ्गभहरैः रुरोविदारं प्रितिचस्करे नखैः ॥' (१। ४७ ) 'हे नृसिंह ! आपने अति विशाल सिंह का शरीर धारण कर, अपनी अयाल की शोभा से बादलों को छित्र-भित्र करके, उस दैत्य के वक्षःस्थल को, मुग्धा कान्ता के ( कठोर ) स्तनस्पर्शमात्र से टेढ़े हो जाने वाले, अपने नखों से, विदीर्ण कर दिया ।" भट्टि का इसी भाव को व्यक्त करने वाला पद्य इस प्रकार है - 'क्व स्त्रीविषहयाः करजाः क्व वक्षो, दैत्यस्य शैलेन्द्रशिला विशालम् । सं पश्यतैतद् घुसदा सुनीतं विभेद तैस्तत्ररसिंहमूर्तिः ॥" ( भट्टि - १२.५९ ) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 25 ] 'कहाँ तो स्त्रियों के द्वारा सहन करने लायक नख, कहाँ पर्वत की शिला सदृश बृहदाकार हिरण्यकशिपुका वक्षःस्थल ? ( आश्चर्य है ) देवताओं की नीति को तो देखो कि उन नखों से नृसिंह ने उसे विदीर्ण कर दिया ।' उक्त पद्यों के भावों में साम्यता होने पर भी माघ के प्रस्तुत करने के अभिनव ढंग ने और उसकी ध्वन्यात्मकता ने उसी भाव को 'अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलून'..... आदि की तरह अस्पृष्ट बना दिया है । माघ कवि की सहृदयता, काव्य कशलता तथा भावों को प्रस्तुत करने की मौलिकता का इससे बढ़कर क्या प्रमाण चाहिये ? माघ का एकादशसर्ग तो वास्तव में एक अनूठा सर्ग है, जिसमें माघ के कवि ने प्रौढोक्ति-कुशलता, तथा स्वभावोक्ति की अपूर्व चित्रोपमता को एक साथ अंकित कर अपनी सहृदयता तथा सूक्ष्म निरीक्षण क्षमता को बड़ी कुशलता से प्रदर्शित किया है । यह तो हुई मौलिकता की बात, अब माघ को उपलब्ध पूर्ववर्ती कवियों के दाय पर कुछ विचार किया जाय । विद्वानों के अनुसार कालिदास की कविता का प्रभाव माघ के कई वर्णनों पर, विशेषरूप से माघ के एकादश तथा त्रयोदश सर्ग पर स्पष्टरूप से परिलक्षित होता है । माघकृत प्रभात वर्णन और कालिदास के प्रभात वर्णन में प्रधान अन्तर यह है कि माघ का वर्णन अधिक विस्तृत और अलंकृत है, जबकि कालिदास का संक्षिप्त और अधिक मार्मिक बन पड़ा है । माघ के त्रयोदश सर्ग का पुरसुन्दरियों का वर्णन भी कालिदास के ( कुमारसंभव और रघुवंश ) शिव तथा अज को देखने के लिये उत्सुक रमणियों के वर्णन से प्रभावित है । कालिदास का यह वर्णन सरल, और वर्ण्यविषय को अंकित करने वाला है, जबकि माघ का वर्णन पौराणिक सन्दर्भ को गर्भित रखने से विशेष अलंकृत है । पुरसुन्दरियों के दोनों कवियों के वर्णन एक से चित्र को अंकित करने वाले होने पर भी कालिदास का वर्णन व्यंजना प्रधान है और माघ का अधिक विलासमय है (रघुवंश - ७.९ माघ- १३। ४४ ) माघ के वर्णन कहीं-कहीं अधिक श्रृंगारिक और विलासमय होने से अरुचिकर हो जाते हैं, जैसे - १३.३९, ४१, ४२ आदि । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि - इस प्रकार के वर्णन, जिन्हें काव्यरूढ़ियों के नाम से अभिहित किया जाता है और आर्षकाव्य से लेकर श्रीहर्ष तक के काव्यों में पाये जाते हैं । वे हमारे विचार में, कालिदास की देन नहीं है, अपितु काव्य शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट वस्तुव्यापार की देन हैं । क्योंकि काव्यशास्त्रों के नियम पूर्ववर्ती आर्ष आदि काव्य रामायण और पुराण साहित्य ( भागवत पुराण ) के वर्णनों को दृष्टि में रखकर ही निर्मित हैं । १. श्रीमदभागवत ऐसा महापुराण है जिसमें काव्यात्मकता पर्याप्त मात्रा में वर्तमान है । विन्टरनित्स का कहना है कि भाषा, शैली, छन्द और कथा की अन्विति, सभी दृष्टियों से भागवत एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक रचना है । इस पुराण ने रामायण-महाभारत की भाँति लोकप्रियता प्राप्त की है और परवर्ती साहित्य को दूर तक प्रभावित किया है । - (* आगे पृष्ठ-२० पर देखें) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 26 ] माघ कवि भारवि से विशेषरूप से प्रभावित माने जाते हैं । प्रभावित होने का प्रमुख कारण उनकी 'यशोलिप्सा' ही हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि कवि में 'सुकविकीर्ति' को प्राप्त करने का ऐसा दुर्निवार 'अहं' या अभिलाष था, जिससे विवश होकर उसे अपनी व्युत्पन्नता का परिचय हठात् देना पड़ा है। यह निश्चित है कि कवि के हृदय में भारवि के काव्य और उसकी कीर्ति को देखकर यह प्रतिक्रिया जाग्रत हो चुकी थी कि 'किरातार्जुनीयम्' की प्रसिद्धि और लोक प्रियता को दबाकर अपना काव्य 'शिशुपालवध' उससे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करे । इसीलिए माघ ने सादृश्यवाद को स्वीकार किया है । और पूर्ववर्ती सभी काव्यों विशेषरूप से 'किरातार्जुनीयम्' के वस्तु और शिल्प का सादृश्य स्वीकार कर उस पर अपनी मौलिकता और अगाध व्युत्पन्नता की छाप लगा दी है । कथावस्तु की साज-सज्जा, सर्गों का विभाजन, और वर्ण्य विषयों को प्रस्तुत करने में माघ, भारवि के पद चिह्नों पर चलते परिलक्षित होते हैं । भेद केवल दोनों के इष्ट देवों के कारण है । भारवि ने शिव भक्त होने के कारण महाभारत से शिव से सम्बन्धित इतिवृत्त को ग्रहण किया है, और माघ ने कृष्ण भक्त होने के कारण कृष्ण से सम्बन्धित इति वृत्त को । शिशुपालवध और किरातार्जुनीय में साम्य और वैषम्य इस प्रकार दोनों काव्यों समझा जा सकता है - 1 माघ काव्य के प्रारम्भ में 'श्री' शब्द का प्रयोग मंगलाचरण के लिए है । प्रतिसर्ग के अन्तिम श्लोक में 'श्री' शब्द का उल्लेख है । किरात काव्य के आरम्भ में 'श्री' शब्द का प्रयोग मंगलाचरण के लिए है । प्रतिसर्ग के अन्तिम श्लोक में 'लक्ष्मी' शब्द का प्रयोग किया गया है । * "Moreover it is the one purana which, more than any of others bears the stamp of a unified composition, and deserves to be appreciated as a literary production on account of its language, style, and metere" A History of Indian literature -Vol I, by Winternitz, Calcutta. P. 556 ( १ ) आचार्य बलदेव उपाध्याय ने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में भागवत का समय षष्ठशतक से कतिपय शताब्दी प्राचीनतर माना है । पृ० ८९ ( २ ) अन्नमलाई विश्वविद्यालय के प्रो० कृष्णमूर्ति शर्मा ने भागवत का समय पाँचवी शती ई० स० माना है । देखिए Annals of the B.O. R. Institute, Vol. XIV& 1932-33 Pp. 182-218 1 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 27 ] नारद श्रीकृष्ण को इन्द्र का सन्देश सुनते हैं । माघ के द्वितीय सर्ग में बलराम, श्रीकृष्ण और उद्धव के मध्य राजनीति विषय की बातें होती हैं, रैवतक का वर्णन यमक में किया गया है । माघ का १९ वाँ सर्ग चित्रकाव्य जैसा है । माघ के चतुर्थ सर्ग में विविध छन्दों का प्रयोग किया गया है । इसमें वनेचर - युधिष्ठिर को दुर्योधन, सम्बन्धी समाचार देता है । इसमें भी द्वितीय सर्ग में युधिष्ठिर, भीम और द्रौपदी के मध्य राजनीति विषयक बातें होती है । हिमालय का वर्णन यमक में है । किरात का १५वाँ सर्ग चित्रकाव्य जैसा - है । किरात के भी चतुर्थ सर्ग में विविध छन्दों का प्रयोग किया गया है । इसके अतिरिक्त दोनों काव्यों में वर्ण्य विषय एक जैसे हैं जैसे शत्रुवर्णन, राजनीति - वर्णन, प्रवास वर्णन, पुष्पावचय- वर्णन, जलक्रीड़ा वर्णन, सायं तथा रात्रिवर्णन, सुरतक्रीड़ा–वर्णन आदि । इस प्रकार दोनो काव्यों में समता होने पर भी सहृदय पाठक के सामने भारवि को हीन समझते हैं 'तावत् भा भारवेर्भाति यावन्माघस्य नोदयः' माघ पर - भट्टि के व्याकरण विषयक प्रभाव को सिद्ध करने के पूर्व हमें यह समझ लेना चाहिये कि माघ स्वयं महा वैयाकरण थे । इसका प्रमाण काव्य में यत्र-तत्र अंकित व्याकरण के सूक्ष्म नियमों को देखने से मिल जाता है । सामान्यभूते लुड्. यङ्– लुगन्त क्रियापद, तथा अन्य पाणिनि संमत प्रयोगों का मोह माघ को भट्टि से मिला है, ऐसा कहने में भी हमें संकोच होता । क्योंकि भट्टि की तरह व्याकरण के सूत्रों का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए वे नहीं बैठे थे और न श्रीहर्ष की तरह जटिल शब्दों को ढूंढ-ढूँढकर पदों में पच्चीकारी करने का ही उन्हें व्यसन था, किन्तु यह कहा जा सकता है कि काव्य में माघ ने जितने नवीन शब्दों का प्रयोग किया है, वह केवल व्याकरण के सूक्ष्म नियमों के ज्ञान के कारण ही हो सका है, इतना अन्य कवि से नहीं बन पड़ा है । प्रदान उत्तरवर्ती काव्यों पर माघ का प्रभाव इस प्रकार हमने देखा कि माघ ने शिशुपालवध' में 'किरातार्जुनीय' की पद्धति को अपनाया ही नहीं, अपितु अलंकृति और विद्वत्ता- प्रदर्शन में उससे आगे निकल जाने का प्रयास भी किया है ( यह प्रयास क्यों किया, इसे हमने पूर्व में कह दिया है ) परिणामत: उत्तरवर्ती काव्यों में कृत्रिमता बढ़ती ही गई है । अब कालिदास की भावतरलता या भावनोत्कटता, भारवि की विचार प्रवणता और माघ का पाण्डित्यपूर्ण कल्पनाविलास, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 28 ] माघोत्तरवर्ती काव्यों में नहीं मिलता अब केवल श्लेषादि शब्दप्राधान्य की ही प्रधानता उनमें दृष्टिगोचर होती है । यह प्रवृत्ति रत्नाकर कृत 'हरविजय' ( ५० सर्ग ) शिवस्वामी कृत 'कफ्णिाभ्युदय' मंखक कृत- 'श्रीकण्ठचरित', हरिश्चन्द्र कृत 'धर्मशर्माभ्युदय' आदि काव्यों में पर्याप्त मात्रा में देखने को मिलती है । उक्त सभी काव्य माघ से प्रभावित हैं । ये सभी ह्रासोन्मुख होकर चमत्कार प्रदर्शन-परम्परा पालन करते दिखाई देते हैं । लक्षण ग्रन्थों के अनुसार –'शिशुपालवध' – काव्य का महाकाव्यत्त्व - लक्षण ग्रन्थों के आचार्यों के अनुसार महाकाव्य का स्वरूप इस प्रकार है - (१) महाकाव्य का सर्गबद्ध होना आवश्यक है, जो सन्धियों से समन्वित हो । (२) उसका नायक धीरोदात्त, क्षत्रिय अथवा देवता होना चाहिए । (३) उसमें सों की संख्या आठ से कम नहीं होनी चाहिए, उसमें अनेक वृत्तों की योजना होनी चाहिए । सर्गान्त में लक्षणानुसार छन्द का परिवर्तन होना चाहिए । (४) महाकाव्य का इतिवृत्त इतिहास प्रसिद्ध हो अथवा सज्जनाश्रित जिसमें जीवन, जगत् तथा प्रकृति के विभिन्न अङ्गों का सरस चित्रण हो । (५) श्रृङ्गार, वीर और शान्त रसों में से कोई एक रस अङ्गीरूप में वर्णित हो । (६ ) प्रकृतिवर्णन तथा वस्तुवर्णन के रूप में उसमें नगर, समुद्र, पर्वत, सन्ध्या, प्रात:काल, संग्राम, यात्रा तथा ऋतुओं का वर्णन होना चाहिए । (७) शैली के रूप में काव्य सौष्ठव तथा काव्य के समस्त गुण पूर्ण विकसितरूप में हों। (८) उसमें महत्कार्य और युगजीवन का चित्र होना चाहिए । (९) उसमें ज्ञानोपदेश विषयक वर्णन होना चाहिए । (१०) अनवरुद्ध जीवनी शक्ति और सशक्त प्राणवत्ता होनी चाहिए । प्राचीन और आधुनिक लक्षण ग्रन्थों में निर्दिष्ट लक्षणों के अनुसार 'शिशुपालवध महाकाव्य' पर महाकाव्य के समस्त लक्षण पूर्ण रूप से घटित होते हैं । आलोच्य काव्य - 'शिशुपालवध' महाकाव्य के नायक क्षत्रियवंशोत्पन्न यदुकुल के श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण हैं, जिनमें नायकत्व के समस्त गुण विद्यमान है । वह विनयशील, त्यागी, कार्य करने में कुशल, लोकप्रिय, स्थिरचित्त, युवा, साहसी शूर एवं तेजस्वी तथा धीरोदात्त नायक के समस्त गुणों से संयुक्त हैं । वास्तव में माघ के श्रीकृष्ण परब्रह्म होते हुए भी मनुष्य है । उनका अवतार 'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्' ही हुआ है । उन्होंने इन्द्रसन्देश के अनुरूप शिशुपाल का वध करके अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण किया है । इस प्रकार काव्य का संपूर्ण कथा-सूत्र काव्य के नायक श्रीकृष्ण से बंधा हुआ है । जो कथा को फल की ओर ले जाता है । काव्य का प्रतिनायक वीर 'शिशुपाल' है । कवि माघ ने दण्डी के Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 29 ] निर्देशानुसार, उसके वंश, शौर्य (शिशुपालवध काव्य का प्रथमसर्ग एवं श्लोक १। ७० ) आदि की पर्याप्त चर्चा की है । क्योंकि ऐसे प्रतिनायक पर विजय प्राप्त करने वाले नायक का उत्कर्ष बढ़ता है । ( काव्यादर्श १। २१,२२ ) इसका मुख्य रस वीर है । और श्रृंगार आदि अन्य रस गौण हैं । इसके कथानक का प्रेरणास्रोत मुख्यतया भागवत है और गौण रूप से महाभारत जो लोक प्रसिद्ध है । इसमें २० सर्ग हैं । एक सर्ग में प्रमुख छन्द एक है, किन्तु नियमानुसार सर्गान्त में छन्द का परिवर्तन किया गया है । केवल चतुर्थ सर्ग में ही विविध छन्दों का प्रयोग किया गया है । तृतीय सर्ग में द्वारिका नगरी का वर्णन और समुद्र का वर्णन है । चतुर्थ सर्ग में रैवतक पर्वत का मनोरम वर्णन है । पञ्चम सर्ग में श्रीकृष्ण के शिविर का वर्णन मुख्यरूप से अंकित है । ६, ७, और ८ वे सर्ग में ऋतुओं का वर्णन किया गया है । ९ वें तथा १० वें सर्ग में चन्द्रोदय एवं नायक नायिकाओं की सुरत-क्रीड़ा का वर्णन है । ११ वें सर्ग में प्रभात वर्णन है । १२ वें सर्ग में श्रीकृष्ण की सेना का रैवतक पर्वत से इन्द्रप्रस्थ की ओर प्रस्थान वर्णित है । अन्त में यमुना नदी का वर्णन है । अन्तिम ३ सर्गों में शत्रु-सेना युद्ध स्थल पर आकर मिलती है । जहाँ श्रीकृष्ण और शिशुपाल का युद्ध होता है । बीसवें सर्ग में उपसंहार रूप में युद्ध का वर्णन कर शिशुपाल के जीवन के साथ काव्य समाप्त हो जाता है । उपर्युक्त सर्गानुसार कथा-क्रम को देखने पर ऐसा लगता है कि चतुर्थ सर्ग से त्रयोदश सर्ग तक वर्णन आवश्यकता से अधिक बढ़ा दिया है, जिससे कथानक की अन्विति का क्रम टूट सा गया है, यह एक बड़ा दोष परिलक्षित होता है । मल्लिनाथ अपनी 'सर्वकषा' नाम्नी टीका में लिखते हैं - 'नेताऽस्मिन् यदुनन्दनः स भगवान् वीरप्रधानो रसः, श्रृंगारादिभिरंगवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना । इन्द्रप्रस्थगमाधुपायविषयश्चैद्यावसादः फलम् ॥' महाकाव्य के मंगलाचरण विषयक आचार्यों के निर्देशानुसार इसमें श्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगनिवासो वसुदेव-सद्मनि--।' माघ ने इस प्रकार मांगलिक "श्रीः" शब्द से अपने ग्रन्थ का आरम्भ करके "वस्तुनिर्देशात्मक" मंगलाचरण किया है । मल्लिनाथ लिखते हैं - "आशीराद्यन्यतमस्य प्रबन्धमुखलक्षणत्वाच्च काव्यफलशिशुपालवधबीजभूतं भगवतः श्रीकृष्णस्य नारददर्शनरूपं वस्तु आदौ श्रीशब्दप्रयोगपूर्वक निर्दिशन् कथामुपक्षिपति ।" श्री वल्लभदेव लिखते हैं - "अभिलषितसिद्ध्यर्थे मंगलादिकाव्यं कर्तव्यमिति स्मरणात्तु कविः - श्री शब्दमादौ प्रयुङ्कते ॥" आलंकारिकों के अनुसार प्रबन्धों का कार्य महत् होना चाहिये । तदनुसार नैतिक, सामाजिक या धार्मिक प्रभाव की दृष्टि से इस काव्य का महत् कार्य 'शिशुपालवध" है, जैसा कि रामायण का 'रावण वध' है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 30 ] महाकाव्य में ज्ञान, उपदेश और नीतिविषयक जानकारी अथवा शास्त्रीय शैली का पाण्डित्य प्रदर्शन करने की परंपरा सभी देशों के काव्यों में बहुत प्राचीन काल से दिखाई पड़ती है । संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के काव्यों में भी नीति-धर्म विषयक उपदेश तथा अन्य विषयों का तथ्य प्रकाशन किया गया है । तद्नुसार इस काव्य में भी धर्म नीति, ज्ञान-विज्ञान, सदाचार, शास्त्रीय अभिज्ञता आदि विषयों से संबन्धित वर्णनों की कोई कमी नहीं है । जो कवि के धार्मिक दृष्टिकोण और शास्त्रीय काव्य परंपरा के प्रभाव की देन है । शैली की दृष्टि से प्रस्तुत आलोच्य 'शिशुपालवध" महाकाव्य की शैली संस्कृत के अन्य काव्यों से अपना अलग स्थान रखती है । जहाँ कालिदास की शैली प्रासादिक, स्वाभाविक और कोमलकान्तपदावली से युक्त है, वहीं माघ की शैली धीर और गम्भीर है । माघ का समासान्तपद - विन्यास उनकी शैली को गंभीरता और उदात्तता प्रदान करता है । सच पूछा जाय तो माघ के पदविन्यास में गौड़ी की विकटबन्धता है जो हृदय को आकर्षित करने में अलम् है । इस प्रकार हम देखते हैं कि महाकाव्य के लिए आवश्यक शैली के गुण- अत्यन्त गरिमा और उदात्तता - शिशुपालवध महाकाव्य में निहित हैं । अब प्रश्न उठता है कि क्या 'शिशुपालवध' में वह अनवरुद्ध जीवनी शक्ति और सशक्त प्राणवत्ता है ? जो महाकाव्य का शाश्वत लक्षण है । इसका समाधान यह है कि 'शिशुपालवध' एक अलंकृत विदग्ध महाकाव्य है । और अलंकृत महाकाव्यों में रामायण- महाभारत जैसे विकसनशील महाप्रबन्ध काव्यों में जैसी जीवनी शक्ति और प्राणवत्ता नहीं होती । कारण यह है कि विकसनशील महाप्रबन्धकाव्य युग-युग के मानव समाज की असीम जीवनी शक्ति लेकर पुष्ट होते हैं । इसके विपरीत अलंकृत महाकाव्य में उतनी जीवनी शक्ति और प्राणवत्ता का न होना स्वाभाविक ही है । फिर भी व्यापकता, और लोकप्रियता की दृष्टि से उत्तर कालीन अलंकृत महाकाव्यों में 'शिशुपालवध' महाकाव्य का बृहत्त्रयी - किरातार्जुनीय, शिशुपालवध और नैषधीयचरित' में अपना विशिष्ट महत्त्वपूर्ण स्थान आज करीब-करीब डेढ़ हजार वर्ष के पश्चात् भी बना हुआ है । उसकी लोकप्रियता - प्रचार प्रसार में आज भी कोई कमी नहीं आयी है । इसका एकमात्र कारण उसकी वह जीवनी शक्ति और प्राणवत्ता ही है जो संस्कृत के अन्य पुराने तथा उसके उत्तरवर्ती अलंकृत महाकाव्यों में नहीं है । अतः समग्र दृष्टि से हम कह सकते हैं कि संस्कृत महाकाव्यों की परम्परा में माघ का स्थान कालिदास से दूसरा है । निश्चित ही शिशुपालवध संस्कृत काव्य साहित्य का एक जगमगाता अनमोल रत्न है । शिशुपालवध की यह प्राणवत्ता केवल माघ की वैयक्तिक प्राणवत्ता नहीं अपितु उसमें उस युग की समस्त प्राण - धारा भी मिली हुई है, जिसे माघ ने आत्मसात् कर लिया था । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 31 ] महाकवि माघ का पाण्डित्य एवं उनकी व्युत्पन्नता : - संस्कृत के महाकवियों की परम्परा में माघ का व्यक्तित्व, कवित्व और पाण्डित्य, प्रखरता और आह्लादकता, रूक्षता और आर्द्रता के अपूर्व संयोग (Syntheesis) को लेकर उपस्थित होता है । उनमें वे सभी विशेषताएँ हैं जो उनके पूर्ववर्ती कवियों में थीं । वस्तुतः वे बहुमुखी प्रतिभाशाली कवि हैं । एक सफल कवि के लिए जितना प्रतिभा सम्पन्न होना आवश्यक है उतना ही व्युत्पन्न होना भी परम आवश्यक है । इसे ध्यान में रखकर ही हमारे आर्ष और लौकिक साहित्य में 'कवि' -शब्द का प्रयोग सर्वज्ञ और सब विषयों के वर्णन करने वाले के लिये हुआ है । हमारे काव्यशास्त्र के आचार्यों के मत में कवित्व के दो आधार स्तम्भ हैं - दर्शन और वर्णन । इन दोनों के पूर्ण रूप से समन्वित होने पर ही सत्कवित्व का उन्मेष होता है । दर्शन का अर्थ है, वस्तु के विचित्र भाव को, उसके अन्तर्निहित धर्म को, तत्व रूप से देखना, और वर्णन का अर्थ है, उसे शब्दरूप में प्रकट करना । वस्तु के बाह्य और अन्तर्निहित तत्व का द्रष्टा होने के कारण ही कवि 'क्रान्तदर्शी कवयः क्रान्तदर्शिनः' कहलाता है । किन्तु विशेष ध्यातव्य यह है कि दर्शन और वर्णन के समन्वितरूप से निर्मित काव्य सृष्टि का केन्द्र बिन्दु है - 'कवि की व्युत्पत्ति' से संस्कृत प्रतिभा जो अपूर्व वस्तु के निर्माण में समर्थ होकर नियति कृत नियमों से सर्वथा रहित होती है । व्युत्पत्ति से संस्कृत प्रतिभा के द्वारा ही कवि उन भावों तथा चित्रों की उद्भावना करता है, जिन तक जन-साधारण की दृष्टि नहीं पहुंच पाती । कवि कर्म उन भावों तथा चित्रों तक ही सीमित नहीं है उसकी सफलता की मूल कसौटी है - परप्रेषणीयता । कवि अपनी अनुभूति को पर संवेद्य बनाकर ही सतोष लाभ करता है । काव्य में यह परप्रेषणीयता का गुण तब तक नहीं आ सकता जब तक कवि लोक हृदय न हो जाय । लोक हृदयता के लिए आवश्यक है - कवि के लिए व्यापक लोक ज्ञान की आवश्यकता । यह व्यापक ज्ञान ही है - कवि की व्युत्पत्ति, बहुज्ञता और 'व्युत्पत्ति' (कवि की व्युत्पन्नता )-लोक और शास्त्र के ज्ञान पर निर्भर है। ___ इसी दृष्टि से कवि कर्म की महत्ता भरतमुनि और भामह ने स्वीकार की है । लोक में ऐसा न कोई वाच्य है और न वाचक, न कोई शब्द है और न कोई अर्थ जो काव्य-तत्त्व, का अंग न हो सके । इसीलिए कवि को सर्वज्ञ 'व्युत्पत्र' होने की आवश्यकता है । अर्थात कवि को विभिन्न शास्त्रों और लोकानभव का जान आवश्यक है। वास्तव में व्युत्पन्न कवि ही कवि होता है - "कवयः पण्डितकवयः" राजशेखर ने कविज्ञान के व्यापक क्षेत्र को ध्यान में रखकर ही व्युत्पत्ति को काव्य की जननी कहा है । व्युत्पत्ति और प्रतिभा के उत्कृष्ट संयोग से ऐसे सहृदयाह्लादक काव्य की रचना होती है, जो सदा विदग्धजन मण्डित रहता है । विभित्र आचार्यों ने उपलक्षण के रूप में कुछ प्रधान विद्याओं का उल्लेख कर दिया है । क्षेमेन्द्र ने तर्क, व्याकरण, भरत, चाणक्य, वात्स्यायन, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 32 ] भारत, रामायाण, मोक्षोपाय, आत्मज्ञान, धातुवाद, रत्नपरीक्षा, वैद्यक, ज्योतिष, धनुर्वेद, गजतुरग, पुरुषलक्षण, द्यूत, इन्द्रवास तथा विविध विषयों में उक्त विद्या-ज्ञान का उल्लेख उपलक्षण के रूप में है, क्योंकि कवि ज्ञान की इयत्ता निर्धारित ही नहीं की जा सकती । ऐसे प्रतिभाशाली एवं व्युत्पन्न कवि के चित्त-गंगा में स्नान करने के पश्चात् उसके द्वारा निर्मित कविता की कान्ति नई शोभा के रूप में निखरती है, मानों “प्रत्यग्रमज्जन विशेषविविक्तकान्तिः" कोई अनुरागवती प्रिया हो । कवि के उल्लास, मुखर चित्त में जो विभित्र शास्त्रों के अभ्यास जनित संस्कार होता है, वह इस शोभा में नवीन आभरणों की योजना करता है । इसलिए संस्कृत काव्य पाठक को कविता के कल्पलोक में विभिन्न शास्त्रों की सुचितित विचारधारा के दर्शन होते हैं । ये विभिन्न शास्त्रीय विचार काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य नहीं होते, परन्तु उनकी विवेचना के बिना संस्कृत काव्य की शोभा ठीक-ठीक हृदयंगम भी नहीं हो पाती । ___ उपर्युक्त विवेचन ( गतपृष्ठों में उनके व्यक्तित्व और युग चेतना विषयक विवेचन ) से महाकवि माघ के पाण्डित्यपूर्ण कविता की पृष्ठभूमि उसका मूलाधार समझ में आ जाने से भामह का यह कथन 'अहो भारो महान् कवेः' - यथार्थ प्रतीत होता है ये सभी बातें माघ पर पूर्णतः घटित हो जाती हैं । उनके महाकाव्य- 'शिशुपालवध' - को अथ से इति तक पूरे मनोयोग से पढ़ लेने पर ज्ञात होता है कि इस कवि का संस्कृत भाषा एवं साहित्य पर कितना असाधारण अधिकार रहा होगा । अपने व्यापक लोक ज्ञान के कारण वे न केवल मानव प्रकृति को ही समझते थे, अपित् गज-तरग आदि पशओं की प्रकति के अच्छे ज्ञाता भी थे । उनको सर्वशास्त्र-तत्त्वज्ञता को देखकर नवसर्ग गते माघे नव शब्दों न विद्यते' अथवा 'काव्येषु माघ: कवि: कालिदासः' जैसी उक्तियाँ निराधार प्रतीत नहीं होती, उनका पाण्डित्य सर्वगामी था । अत: किसी को उनके चित्रकाव्य तथा उनकी यमक योजना ने आकर्षित किया तो किसी को उनके अर्थालंकारों ने । कोई उनके वर्णन वैचित्र्य पर मुग्ध हुआ है, तो कोई काव्य में निहित भाव सौष्ठव पर, कोई सहृदय उनकी कल्पना की उडान पर आश्चर्यचकित होता है तो कोई उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य पर विस्मित । यहाँ उनकी व्युत्पत्रता ( बहुज्ञता ) पर एक विहंगम दृष्टि अभीष्ट है - व्युत्पत्ति - श्रुति (वेद) माघ का श्रुतिविषयक ज्ञान अत्यन्त प्रशंसाह है । प्रातः काल के समय इन्होंने अग्निहोत्र का सुन्दर वर्णन किया है । इन्होंने हवन-कर्म में आवश्यक सामधेनी ऋचाओं का उल्लेख किया है । ( ११। ४१ ) वैदिक स्वरों की विशेषताओं का उन्हें पूर्ण ज्ञान था । स्वरभेद से अर्थभेद उत्पन्न हो जाता है - इस नियम का उल्लेख काव्य के (१४। २४ ) वें श्लोक में देखने को मिलता है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 33 ] संशयाय दधतोः सरूपतां दूराभिन्नफलयोः क्रियां प्रति । शब्दशासनविदः समासयोर्विग्रहं व्यवससुः स्वरेण ते ।। (१४। २४ ) इसका तात्पर्य यह है कि स्वर या वर्ण का शुद्ध उच्चारण नहीं होने पर यथार्थ अर्थ व्यक्त नहीं होता है । अतः मन्त्रात्मक वाग्वज्र यजमान का ही नाश कर देता है । जिस प्रकार स्वर के अपराध से यज्ञ करने वाला इन्द्र का शत्रु ही मारा गया । एक पद में होने वाला उदात्त स्वर अन्य स्वरों को अनुदात्त बना डालता है । इस स्वर विषयक प्रसिद्ध नियम का प्रतिपादन माघ ने शिशुपाल के वर्णन में अत्यन्त सुन्दर रीति से किया है – 'निहन्त्यरीनेकपदे य उदात्त: स्वरानिव' ( २। ९५ ) इसके अतिरिक्त युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का विस्तार पूर्वक वर्णन कवि ने किया है । व्युत्पत्ति दर्शन - विभिन्न दर्शन-शास्त्रों का ज्ञान माघ में परिलक्षित होता है । सांख्य के तत्त्वों का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है । प्रथम सर्ग में नारद ने श्रीकृष्ण की जो स्तुति की है, ( १।२३ - 'उदासितारं निगृहीतमानसैः...' ) वह सांख्य के अनुकूल ही है । इसके अतिरिक्त दूसरे सर्ग में बलराम की यह उक्ति ( 'विजयस्त्वयि सेनायाः ........ २। ५९ ) तथा राजसूय यज्ञ के अवसर पर यह कथन – 'तस्य सांख्ये पुरुषेण तुल्यतां........ १४। १९- भी सांख्य के अनुकूल ही है । मीमांसा दर्शन का परिचय राजसूय यज्ञ के प्रसंग में मिलता है - ( 'शब्दितामनाशब्दममुच्चकै...' १४। २० ) । निर्विकल्प प्रत्यक्ष (१/२) एवं सविकल्पक प्रत्यक्ष (१/३) के द्योतक श्लोक भी प्रंशसाह हैं । योगशास्त्र में प्रवीणता भी काव्य में दिखाई देती है 'मैत्र्यादिचित्तपरिकर्म विधाय' ... ( ४। ५५ ) – इस पद्य में चित्तपरिकर्म, सबीजयोग, सत्त्वपुरुषान्यथाख्यातियोगशास्त्र के ही परिभाषिक शब्द है । इसके अतिरिक्त काव्य के चौदहवें सर्ग में यह -'सर्वेवेदितमनादिमास्थितं... (१४। ६२ ) श्लोक भी योग शास्त्र के तत्त्व की ओर इंगित करता है । कवि ने अद्वैत वेदान्त के तत्त्वों का प्रतिपादन अनेक स्थलों पर किया है । जैसा कि - (१४। ६२, १४। ६४ व १। ३२) इन श्लोकों से ज्ञात होता है। आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त कवि को नास्तिक दर्शनों बौद्ध तथा जैन का भी पूर्ण ज्ञान था । 'सर्वकार्यशरीरेषु ( २। २८ ) इस पद्य में बौद्ध-दर्शन के तत्त्वों का उल्लेख है । कवि ने इन दर्शनों के सूक्ष्म विभेदों को उल्लिखित कर तत् विषयक अपने ज्ञान का परिचय दिया है । व्युत्पत्ति-पुराण - शिशुपालवध काव्य में निहित बहुज्ञता-जन्य गाम्भीर्य ऐतिहासिक तथा पौराणिक संकेतों के बाहुल्य के कारण अत्यधिक बढ़ जाता है । वैसे तो संस्कृत महाकाव्यों की कथाओं का स्रोत ही इतिहास-पुराण है । महाकवि माघ को पुराण का विशेष ज्ञान शि० भू०3 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 34 ] था । इन कथाओं का उल्लेख विभिन्न अलंकारों के माध्यम से, अपना पाण्डित्य प्रदर्शन करने तथा विशेष भाव-बोध कराने के लिये किया गया है । राजशेखर ने कहा है - ( काव्यमीमांसा, अ० ८ ) कि सत्कवि इतिहास पुराण रूपी आँखों को विवेकरूपी अंजन से शुद्ध करके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अर्थ को देखता है । सम्भव है, उक्त भावना ही काव्य को अलंकृत करने की रही हो । पुराण विषयक ज्ञान को जानने के लिए - (१। १५, ४९, ५०, २। ३८, ३९, ४०, ६०, ३। ६१, ४। २, ५। ३१, ६६, ६। १७, ८। ६४, ९।१४, ८०, ११। ३ ) आदि ये श्लोक पर्याप्त हैं । व्युत्पत्ति-राजनीति .. माघ कवि राजनीति के भी अच्छे ज्ञाता थे । बलराम और उद्धव के वार्तालाप द्वारा राजनीति की बारीक से बारीक खूबियों का निदर्शन किया गया है । अर्थान्तरन्यास अलंकार की सहायता से कवि ने राजनीति के तत्त्वों को समझाते हुए अर्थगाम्भीर्य को पुष्ट किया है । उदाहरणार्थ देखिए - (२।१०, २। २६, २८, २। ५४, ५७, ९६) आदि श्लोक । व्युत्पत्ति-आयुर्वेद - माघ की आयुर्वेद का भी अच्छा ज्ञान था । आयुर्वेद के तत्त्वों को कवि ने व्यावहारिक नीति के उदाहरणों से सरलरीति में समझाया है । देखिए - (२। ८४, ९३, ९४, ३। ७२, १२। २५, २०। ७६ ) आदि । व्युत्पत्ति-ज्योतिष - कवि ने आयुर्वेद की तरह ज्योतिष शास्त्र का भी अध्ययन किया था । माघ ने ज्योतिषशास्त्र में प्रसिद्ध ग्रह-नक्षत्रों एव ग्रह योगो की उपमाओं द्वारा प्रतिपाद्य विषय को सुन्दरता से समझाया है । एतदर्थ - द्रष्टव्य हैं - ( २। ३५, ४९, ८४, ९३, ९४, ३। २२, ९, ६, १२। २५, १५। १७, ४८, १३। २२) व्युत्पत्ति गज और अश्वशास्त्र - माघ को पशु शास्त्र का अच्छा ज्ञान होने के कारण वे उनकी प्रकृति को अच्छी तरह जानते थे । उन्होंने हाथियों, घोड़ों, ऊटों, साँड़ों आदि का यथावत वर्णन किया है । स्वभावोक्ति के वर्णन में सबसे बड़ी सफलता तब मिलती है, जब वर्ण्य विषय का चित्र, वर्ण्य की चेष्टाओं की बारीकियाँ इस तरह वर्णित की जाय कि पाठक के हृदय-पटल पर वह हू-ब-हू अंकित हो जाय । स्वभाव की सूक्ष्मता का वर्णन वही कवि कर सकता है, जिसने पशु-पक्षियों या मानव प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण किया हो । माघ के स्वभावोक्तिमय वर्णनों में जो चित्रोपमता, कुशलता देखने को मिलती है, वह उत्तरवर्ती काल के अन्य कवियों में नहीं मिलती । माघ के पञ्चम, एकादश द्वादश तथा अष्टादश सर्ग में स्वभावोक्ति के अनेक सुन्दर चित्र है । एक-दो उदाहरण पर्याप्त होंगे (५। ७, ६२, ६३, ६४, ६५) गण्डूषमुज्झितवता पयसा सरोषं नागेन लब्धपरवारणमारुतेन । अम्भोधिरोधसि पृथुप्रतिमान भाग रुद्धोरु दन्तमुसलप्रसरं निपेते ॥ ( ५। ३६ ) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 35 ] कोई गजराज नदी-तट पर पानी पी रहा है । इसी समय उसे दूसरे मस्त हाथी के मद-जल की सुगन्ध आ जाती है । वह क्रोध में सन्तप्त होकर अपनी सूंड में भरे हुए पानी को वापस ( बाहर ) गिरा देता है । और तेजी से अपने मूसलाकार दाँतों को जमीन पर अड़ा कर, दाँतों के प्रहार करने के वेग को रोकते हुए, स्वय गिर पड़ता है ।' ऐसे ही अन्य चित्र भी हैं. द्रष्टव्य हैं (१२। ५, १२। २२, १२। २४ ) आदि । ये तो हैं पशुओं की स्वाभाविक चेष्टाओं के यथार्थ चित्र । अब देखिए मानव प्रकृति का स्वाभाविक चित्र - "प्रहरकमपनीय स्वं निनिद्रासतोच्चैः प्रतिपदमुपहूतः केनचिज्जागृहीति । मुहुर विशदवर्णा निद्रया शून्य शून्यां दददपि गिरमन्तर्बुध्यते नो मनुष्यः" । अपने पहरे के समय को व्यतीत कर सोने के इच्छुक किसी पहरेदार ने जब अपने जोडीदार को "उठो, जागो" ऐसा बार-बार उच्च स्वर में पुकारा तब वह सोया हुआ पहरेदार निद्रावश अस्पष्ट स्वर में अण्ट-सण्ट बातें तो बीच-बीच में बोलता रहा, किन्तु तब भी भीतर से वह नहीं जाग सका । कितना स्वाभाविक-यथार्थ चित्र है. प्रगाढ निद्रा में सोये हुए मनुष्य का । माघ का सच्चा कवि हृदय और उनका व्यापक-सूक्ष्म निरीक्षण इन वर्णनों से व्यक्त हो जाता है, जो एक सफल कवि के लिए आवश्यक है । इनके अतिरिक्त माघ ने नाट्यशास्त्र के विभिन्न अंगों की उपमा सुन्दर ढंग से देकर अपना उसमें वैदुष्य व्यक्त किया है । माघ एक उद्भट वैयाकरण थे । उन्होंने व्याकरण' के सूक्ष्म नियमों का पालन अपने काव्य में किया है । साथ ही व्याकरण के प्रसिद्ध ग्रंथों का भी उल्लेख उन्होंने किया है । एक उदाहरण पर्याप्त होगा - त्वक्साररन्ध्र परिपूरणलब्धगीति-रस्मिनसौ मृदितपक्ष्मलरल्लकांगः । कस्तूरिकामृगविमर्दसुगन्धिरेति रागीव सक्तिमधिका विषयेषु वायुः ।।' ४। ६१ उपर्युक्त श्लोक में 'कस्तूरिकाविमर्दसुगन्धि' पंक्ति विचारणीय है । वार्तिक “गन्धस्येत्वे तदेकान्तग्रहणम्' के अनुसार यहाँ “इ” न होकर सुगन्धः होना चाहिये । कैयट, १. व्याकरण - १। ५१, १९। ७५, १४। २३, २४, १४। ६६, १४। ४८, १४। २०, ४। ६१, इनके अतिरिक्त व्याकरणनिष्ठ प्रयोगों के कुछ उदाहरण ये हैं - ( १ ) पर्यपूपुजत् ( १.१४ ), अभिन्यवीविशत् ( १.१५ ), अचूचुरत् (१.१६ ), ( २ ) मध्ये समुद्रं ( ३.३३ ) ( 'पारे मध्ये षष्ठ्या वा' ), पारेजलं ( ३.७० ) ( ३ ) सस्मार वारणपतिः परिमीलिताक्षमिच्छाविहारवनवासमहोत्सवानाम् ।। ( ५.५० - अधीगर्थदयेशां कर्मणि ) ( ४ ) पुरीमवस्कन्द लुनीहि नन्दनं मुषाण रत्नानि हरामराङ्गनाः । विगृहय चक्रे नमुचिद्विषा बली य इत्थमस्वास्थ्यमहर्दिवं दिवः (१.५१-क्रियासमभिहारे लोट ) शिशुपालवध की अनेक हस्तलिखित प्रतियों की पुष्पिका में इस प्रकार लिखा दृष्टिगोचर होता है – 'इति श्री भित्रमालववास्तव्य दत्तकः सूनोर्महावैयाकरणस्य माघस्य कृतौ शिशुपालवधे......... इत्यादि ।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 36 ] नागोजीभट्ट, भट्टोजि दीक्षित आदि वैयाकरणों की “गन्धस्यत्वे' में भित्र भिन्न संमतियाँ है । 'निरङ्कुशाः कवयाः' के अनुसार वे स्वेच्छा से शब्दों का निर्माण करते हैं । परन्तु यहाँ पर महाकवि माघ ने इस पथ का अनुसरण नहीं किया है । माघ काव्य के प्राचीन टोकाकार श्रीवल्लभदेव कहते हैं - "गन्धशब्दोऽत्र गुणवचनो न द्रव्याभिधायी इति 'इत्वं' भवत्येव" 'गन्धस्येदुत्पूतिसुसुराभिभ्यः' इति । ___ माघ का ज्ञान ललित कलाओं में उच्चकोटि का था । वे संगीत शास्त्र के सूक्ष्म विवेचक थे । ( माघ ११ । १ ) इसका ज्ञान उनके द्वारा स्थान-स्थान पर किये हुए संगीत शास्त्र विषयक सूक्ष्म निदर्शनों से होता है । गायन, वादन, स्वर, ताल, लय आदि के सम्बन्ध में ऊवि की अधिकार पूर्ण उपमाएँ एवं उक्तियाँ उनके संगीतशास्त्र के वैदुष्य को सिद्ध करती हैं । अलंकार शास्त्र के विषय में उनकी प्रशंसा करना निरर्थक है । वह तो उनका अभीष्ट क्षेत्र है । उन्होंने राजनीति के गढ-तत्त्वों को अलंकार शास्त्र के नियमों का सहारा लेकर सम्यक् प्रकार से समझाया है । उन्होंने शब्द तथा अर्थ को काव्य माना है, ( माघ २। ८६ ) माघ की बहुज्ञता के विषय में जितना कहा जाय उतना कम ही है । उन्हें जीव विज्ञान, कृषि विज्ञान, का भी अच्छा ज्ञान था । लोकरीति का तो उन्हें अच्छा अनुभव था ।' कहने का तात्पर्य यह है कि माघ एक उच्चकोटि के कवि-पण्डित थे । उनका ज्ञान क्षेत्र बहुत व्यापक था । उनके काव्य में हिन्दुदर्शन, बौद्धदर्शन, नाट्यशास्त्र, अलंकार शास्त्र, व्याकरण, राजनीति, कामशास्त्र, संगीत आदि विभिन्न शास्त्रों का व्यापक परिचय प्राप्त होता है । उक्त विवरण कवि की बहुज्ञता व्युत्पत्रता को व्यक्त करता है । ऐसे व्युत्पन्न कवि के काव्य को समझने तथा उसका आनन्द प्राप्त करने के लिए अपेक्षित है - सहृदय-पाठक की बहुश्रुतता-व्युत्पन्नता । क्योंकि व्युत्पन्न सहदय-पाठक के समक्ष ही कविता-कामिनी अपने कलेवर को ठीक उसी तरह प्रकट कर देती है, जैसे सुन्दर वस्त्र धारण की हुई कोई कामिनी अपने प्रिय के हाथों स्वयं को सौंप देती है । इसलिए बहुज्ञता के अभाव में केवल पल्लवग्राही पाण्डित्य को धारण कर पण्डितमानी पाठक माघ-काव्य का रसास्वाद नहीं कर सकता । उसे भी भामह के इस 'अहोभारो महान् कवेः' - कथन के अनुसार बहुज्ञता का भार वहन करना चाहिए, अन्यथा वह निश्चित ही काव्यानन्द से वंचित रहेगा। १. माघ - १९। ७१, १४। ७ ३.६। ४४, १५। ४१ ( ४ ) ऋग्वेद - १०-७१-४-५, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथासार प्रथम सर्ग { आकाश मार्ग से नारद मुनि का द्वारिकापुरी में आगमन तथा श्रीकृष्ण से इन्द्र सन्देश का कथन । ] लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण एक दिन वसुदेव के घर में बैठे थे, उसी समय उन्होने आकाश नीचे की ओर फैलते हुए प्रखर तेज को देखा । किन्तु कुछ क्षणों के पश्चात ही उन्होने नारदमुनि को आकाश मार्ग से बादलों के नीचे-नीचे उतरते हुए देखा । नारद गौरवर्ण के थे । उनकी पीली जटाएँ हिमालय पर्वत पर उगी एवं पकी पीत वर्ण की लताओं जैसी थीं । शरीर पर कृष्ण मृगचर्म को धारण किये हुए वे अपनी अंगुली से वीणा को बजाते आ रहे थे । नारद के निकट आते ही श्रीकृष्ण अपने आसन से उठ खड़े हुए । श्रीकृष्ण ने पूजायोग्य देवर्षि नारद की अर्ध्य-पाद्य आदि पूजा की यथोचित सामग्रियो से पूजा की और उन्हें अपने सम्मुख आसन पर बैठाया । सत्कार के पश्चात् कृष्ण ने उन्हें आने का कारण पूछा । नारदजी ने स्तुतिरूप में श्रीकृष्ण की प्रशंसा की और पश्चात् अपने आगमन का कारण बताया । नारदजी श्रीकृष्ण कहने लगे कि आपने पृथ्वी के भार को हल्का करने के लिए ही अवतार धारण किया है । आपने ही नृसिंहावतार धारण करके हिरण्यकशिपु का वध किया था । उसी हिरण्यकशिपु ने 'रावण' के रूप में जन्म लेकर वरुण सूर्य, इन्द्र आदि देवों को दास बना लिया था । तब आपने राम के रूप में अवतार लेकर उसका वध किया था, आज वही रावण इस भूमण्डल पर शिशुपाल' के रूप में रावण का भी उपहास कर इस जगत् को उत्पीडित कर रहा है । अतः आप इस 'शिशुपाल' को नष्ट कीजिए । शिशुपाल के अत्याचारों से भयभीत इन्द्र ने यही सन्देश आपको कहने हेतु मुझे आपके पास भेजा है । इन्द्र इस सन्देश को कहकर नारदजी जैसे ही आकाश की ओर जाने लगे तभी श्रीकृष्ण रे 'ओम्' कहकर इन्द्र के कार्य को करने की स्वीकृति दे दी । उस समय शिशुपाल के प्रति उनकी कुटिल भृकुटि ऐसी परिलक्षित हो रही थी कि मानों शत्रुओं के नाश की सूचना देने वाला धूमकेतु नामक तारा आकाश में उदित हुआ हो । द्वितीयसर्ग (श्रीकृष्ण का उद्धवजी तथा बलराम के साथ मन्त्रणा करना ) नारदजी के मुख से इन्द्र का सन्देश सुन लेने के पश्चात एक ओर तो 'राजसूय'यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए युधिष्ठिर द्वारा आमन्त्रित किये गये तथा दूसरी ओर जगत् को उत्पीडित करनेवाले शिशुपाल पर अभियान करने के इच्छुक श्रीकृष्ण द्विविधा में पड़कर व्याकुल होने के कारण मन्त्रणा करने के लिए श्रीकृष्ण, उद्धव और बलराम को साथ लेकर सभाभवन में गये । वहाँ सिंहासनों पर बैठे हुए वे तीनों— श्रीकृष्ण, बलराम और उद्धव - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 38 ] त्रिकूट पर्वत की तीन चोटियों पर बैठे हुए तीन शेरों जैसे शोभित हुए । सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने अपनी समस्या को व्यक्त किया। शिशुपाल का वध करना आवश्यक है, किन्तु इसी समय युधिष्ठिर के 'राजसूय' यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए युधिष्ठिर का निमन्त्रण भी मिला है । इन दोनों आवश्यक कार्यों में से पहले किस कार्य को करना चाहिए । तत्त्वज्ञ भी अकेला होने पर कर्तव्य का निश्चय करने में संदिग्ध हो जाता है । अत: आप दोनों का विचार मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । श्रीकृष्ण का वचन सुनकर बलराम बोले - अपनी उन्नति और शत्रु का नाश- ये ही दो नीति की बातें हैं (२। ३०) । स्वाभिमानी पुरुष शत्रुओं का समूल नाश किए बिना उन्नति नहीं प्राप्त करते (२। ३३) । साधारण स्थिति में क्षमा पुरुषों का भूषण है, किन्तु अपमान या पराजय होने पर पराक्रम ही उनका आभूषण है । अत: बलरामजी ने कहा कि मेरे विचार में शिशुपाल की राजधानी चेदि' पर आक्रमण कर दिया जाय । युधिष्ठर यज्ञ करें, इन्द्र स्वर्ग का राज्य करें, सूर्य तपें और हम भी शत्रुओं का विनाश करें '। प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थ को सिद्ध करना चाहता है । किन्तु उद्धव, बलराम के उक्त विचारों से सहमत नहीं हैं । वे कहते हैं कि केवल बुद्धि पर अवलवित रहने पर ही कल्याण नहीं होता, कल्याण के लिए आवश्यक है उत्साहसम्पन्न होना । उद्धवजी बलराम के प्रत्येक तर्क का उत्तर देते हैं । वे कहते हैं कि समय-ज्ञाता राजा के लिए केवल तेज या क्षमा-धारण करने का कोई नियम नहीं है । वास्तव में समय (अवसर ) की प्रतीक्षा करनेवाले जिगीषु राजा के सभी कार्य लोगों की सहायता से अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं शिशुपाल अकेला है, ऐसा न समझें । वह राजाओं का समूह है । उस पर आक्रमण करने पर उसके मित्र और तुम्हारे शत्रु उससे मिलकर राजसूय यज्ञ में विघ्न डालेंगे । इस कारण आप ही युधिष्ठिर के शत्रु बन जायेंगे । क्योंकि मित्रसे वैमनस्य होने पर उसे कठिनता से प्रसन्न किया जा सकता है । उचित अवसर आये बिना शिशुपाल का वध करना अशक्य है । अत: अच्छा यही है कि गुप्तचरों को नियुक्त कर उसकी शक्ति का प्रथम पता लगाते रहें । तथा उसके पक्ष का भेदन करें । इसके अतिरिक्त इस समय शिशुपाल पर चढ़ाई करने में दूसरी बाधा, आपके बूआ के दिये हुए आश्वासन की है- आपने अपनी बूआ को आश्वासन दिया है – “तुम्हारे पुत्र के सौ अपराधों को मैं सहूँगा" - उसका भी पालन करना है । अन्त में यही निश्चय हुआ कि युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होना ही उचित है । १. यजतां पाण्डव: स्वर्गमवत्विन्द्रस्तपत्विनः । वयं हनाम द्विषत: सर्व: स्वार्थ समीहते ।। २। ६५ तृतीयसर्ग (द्वारकापुरी से श्रीकृष्ण का प्रस्थान तथा द्वारकापुरी और समुद्र का वर्णन ) उद्धव के सुविचारित विचार सुन लेने के पश्चात् युद्ध का आग्रह समाप्त हो जाने के कारण सौम्य मुखाकृति वाले श्रीकृष्ण ने इन्द्रप्रस्थ की ओर इस प्रकार प्रस्थान किया जैसे उष्ण किरणों वाला सूर्य उत्तर दिशा को त्याग कर दक्षिण-दिशा के मार्ग की ओर प्रस्थान Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 39 ] करता है । उस समय श्रीकृष्ण ने छत्र-चामर सहित अनेक बहुमूल्य रत्नजटित अलंकारों को धारण किया था । उनके नख रक्तवर्ण के थे । उनके नीलआभावाले वक्षःस्थल पर मोतियों का हार दोलायमान था । ये कौस्तुभमणि धारण किये हुए थे । पीताम्बर को धारण किये हुए श्रीकृष्ण के हाथों में सुदर्शनचक्र, कौमोदकी गदा, नन्दक खड्ग, शार्ङ्गधनुष तथा पाञ्चजन्यशंख था । प्रस्थान करते समय नगाड़ों की प्रतिध्वनि हो रही थी । वे सर्वत्र अप्रतिहतगतिशील रथारूढ़ होकर चल रहे थे । यादवों की चतुरङ्गिणी सेना श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे चल रही थी । हाथियों के मदज से मार्ग की धूल कीचड़ का रूप धारण कर रही थी । अश्वारोही तीव्र गतिवाले घोड़ों पर बैठकर वल्गाओं से उन्हें नियन्त्रित करते हुए जा रहे थे । द्वारकापुरी के सौन्दर्य निरीक्षण में मग्न श्रीकृष्ण को देखने के लिए नागरिकों की भीड़ त्वरा से आगे बढ़ रही थी । वह द्वारकापुरी समुद्र के मध्य में अपनी सुवर्णमयी चहारदीवारी की शोभा से अलंकृत थी । उसका प्रतिबिम्ब समुद्र के जल में स्वर्ग की छाया के तुल्य परिलक्षित हो रहा था । ऐसी स्वर्गोपम द्वारकापुरी का निरीक्षण करते हुए जैसे ही श्रीकृष्ण ने उससे बाहर निकल कर शैवाल के समान श्यामवर्णवाली समुद्रतटवर्ती वनावली को देखा वैसे ही समुद्रतट पर निरंतर बहने वाली एलालताओं की शीतल मन्द और सुवासित वायु श्रीकृष्ण के स्वेदलवों को सुखाने लगी । लवंग के पुष्पों की मालाओं से विभूषित यादवों के सैनिक नारियल के जल को पीते हुए तथा कच्ची सुपारियों का आस्वादन करते हुए आगे बढ़ रहे थे । इस कारण यादव सेना समुद्र से बहुत आगे बढ़ गयी थी । चतुर्थसर्ग (रैवतक पर्वत का प्राकृतिक सौन्दर्य वर्णन ) श्रीकृष्ण ने अपनी चतुरङ्गिणी सेना के साथ मार्ग में चलते हुए विविध प्रकार के धातुओं से युक्त बृहदाकारवाली पाषाण चट्टानों के ऊपर चारों ओर से उठते हुए मेघों से सूर्य के मार्ग को रोकने के लिए पुनः तत्पर विन्ध्याचल पर्वत की तरह अत्यधिक ऊँचे पंवत रैवतक को देखा । जिसके रत्नों की स्वर्णिम आभावाले शिखरों पर, इन्द्र नीलमणियों की श्यामलता से मनोरम तथा सौरभ से भ्रमरों को आकर्षित करती हुई लताएँ परिलक्षित हो रही थीं । अनेक शिखरों से आकाश को तथा समीपवर्ती लध्वाकारवाली पर्वतों की श्रेणियों से भूमण्डल को घेरे हुए इस पर्वत को देखकर उत्कण्ठित हुए श्रीकृष्ण को उनका सारथि दारुक उस रैवतक पर्वत का वर्णन इस प्रकार करने लगा - बहुतुल्य रत्नों से भरे हुए इस पर्वत के शिखर इतने ऊँचे हैं कि वे सूर्य के समीपवर्ती दिखाई देते हैं । उसने कहा- सूर्य के उदय तथा चन्द्रमा के अस्त होने के अवसर पर दोनों पावों में लटकते हुए दो घंटोंवाले एक हाथी की तरह यह पर्वत शोभा देता है । दूर्वाओं से आच्छादित स्वर्णमयीं भूमिवाला यह पर्वत, हरताल के सदृश पीतवर्ण के नवीन वस्त्रवाले आपकी तरह शोभा दे रहा है । यह अपने उतुङ्ग शिखरों से गिरते हुए Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 40 ] झरनों के ऊपर की ओर उछलते हुए जल-बिन्दुओं से देवांगनाओं के शरीर को शीतल करता है । स्फटिक के तट की किरणों से श्वेतजलवाली तथा इन्द्रनील मणियों की आभा से नीलवर्णवाली यहाँ की नदियाँ, यमुना के नीले जल से युक्त गंगा की शोभा को धारण करती हैं (४। २६ ) । एक ओर स्वर्णमयी तथा दूसरी ओर रजतमयी दीवाल से यह पर्वत भस्मोद्धूलित एव नेत्र से अग्निकण निकालते हुए शिवजी की तरह परिलक्षित हो रहा है । दारुक कहता है- देखिए, यहाँ विविध प्रकार के पुष्पों पर भ्रमर सदा मँडराते रहते हैं । चितकबरे रोमवाले मृग विचरण करते हुए दिखाई देते हैं । कमलों से भरे हुए जलाशय यहाँ हैं । कदम्ब के पुष्पों पर पक्षिगण कलरव करते रहते हैं । यहीं पर तमाल और ताल के अनेक वृक्ष हैं । सघन वंश-वृक्षों में चमरी गायें प्रायः घूमती हुई दिखाई देती हैं । यहीं पर अश्व जैसी मुखाकृतिवाले किनर विचरण करते रहते हैं । विशेष आश्चर्यपूर्ण तथ्य की ओर श्रीकृष्ण का ध्यान आकर्षित करते हुए दारुक श्रीकृष्ण से कहता है कि इस पर्वत पर चन्द्रकिरणें, विविधप्रकार की रत्नकिरणों से मिश्रित होकर सहस्रों संख्यावाली हो जाने पर - 'यह निश्चित रूप से सूर्य है' - ऐसा विश्वास कर कमलिनियाँ रात्रि में ही विकसित कमलों वाली हो जाती हैं । रात्रि में औषधियाँ यहाँ चमकती हैं पुष्पित कदम्ब को दोलायमान करती हुई मन्द वायु सदा बहती रहती हैं । यहाँ बहुमूल्य रत्नों की खाने हैं । जहाँ एक ओर यह पर्वतीय प्रदेश भोगभूमि है, वहीं दूसरी ओर समाधि लगाए हुए सिद्ध पुरुषों का निवास स्थान होने से यह सिद्ध भूमि भी है । देखिए, परमश्रेष्ठ यह रैवतक पर्वत, ऊपर उठे हुए नीलवर्ण के मेघों द्वारा मानों स्वयं उठकर आपका स्वागत करने के लिए अभ्युत्थान कर रहा है । १ उदयति विततोर्ध्वरश्मिरज्जावहिमरुचौ हिमधाम्नि याति चास्तम् । बहति गिरिरयं विलम्किघण्टाद्वयपरिवारितवारणेन्द्रलीलाम् ।। ४। २० पञ्चमसर्ग (सेना के रैवतक पर्वत पर पड़ाव डालने का वर्णन) सूतपुत्र दारूक की रैवतक-पर्वत के मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्य की बातें सुनने के अनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने रैवतक पर्वत पर कुछ समय तक रूककर निवास करने की इच्छा की । तदनुसार श्रीकृष्ण की विशाल सेना रैवतक पर्वत की ओर प्रस्थान करने लगी । सेना के हाथी, ऊँटे, घोड़े द्रुतगति से दौड़ रहे थे । परिणामत: रैवतक पर्वत के समीपवर्ती प्रान्तों में दौड़ते हुए रथचक्रों से उड़ी हुई धूलि चारों ओर फैल रही थी । मार्ग में चलते हुए हाथी और ऊँट एक दूसरे से डर रहे थे । लोग अपने पैरों को आगे बढाते हुए द्रुतगति से चलने वाले घोड़ों को देख रहे थे । थके हुए सैनिक वृक्षों की विस्तृत छाया में बैठने लगे थे । श्रीकृष्ण के अनुचर नृपति-गण पर्वत पर पहुँच कर गुफाओं को अपना निवास-स्थल बना रहे थे । कुछ नृपतियों ने श्रीकृष्ण के शिविर के समीप ही अपने शिविरों को स्थापित कर लिया था । इस प्रकार ऊँचे ऊँचे लाल रंग के तम्बुओं से सुशोभित तथा काले-काले हाथियों के समूहों से Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 41 ] घिरा हुआ भगवान् श्रीकृष्ण का शिविर सन्ध्या कालीन किरणों से लाल वर्ण के मेघों से चित्रित नीले आकाश की तरह शोभा दे रहा था। परिजनों द्वारा वाहनों से नीचे उतारी जानेवाली रानियों की मुख - श्री को, जिनके घूंघट का वस्त्र नीचे उतरे समय किंचित् हट गया था, लोग भय मिश्रित कुतूहल के साथ देख रहे थे । जब तक सैनिक उतर रहे थे, तब तक वणिक्जन दोनों ओर तम्बू फैलाकर बिक्री की वस्तुओं से भरी-पूरी दूकानों को सजा रहे थे । दूसरी ओर क्षण-भर में ही नव निर्मित निवास स्थान पर शय्या को सुसज्जित कर एवं अलंकरणों से सजी हुई वेश्याएँ मार्ग की थकान से खिन्न पुरुषों को शीतल जल एवं ताम्बूल आदि उपचारों से स्वागत कर अपने वश में करने में व्यस्त हो गई थीं । सेना के हाथी नदी जल में डूब कर आनन्द ले रहे थे । घोड़े, ऊँट और बैल अपनी विभिन्न प्रकार की क्रीडाओं को कर लोगों को मुग्ध कर रहे थे । वैतालिक यादव - नृपतियों की प्रशस्तियों का गान कर रहे थे । षष्ठ सर्ग (श्री कृष्ण भगवान् की सेवा के लिए रैवतक पर्वत पर छहों ऋतुओं का एक साथ प्रादुर्भूत होने का वर्णन ) श्रीकृष्ण भगवान् की रैवतक पर्वत पर रूकने की इच्छा जानकर उनकी सेवा के लिए वसन्तादि छहों ऋतुओं का एक साथ वहाँ प्रादुर्भाव हुआ। वसन्तऋतु के आगमन पर विभिन्न वृक्षों तथा लताओं ने नवपल्लवों से सुसज्जित होकर सुरभित पुष्पों को धारण कर लिया । शीतल, मन्द और सुवासित समीर बहने लगा । आम्रवृक्षों पर मंजरियों को देखकर कोयलें कुहुकने लगीं, भ्रमरगण अपनी मधुर गुञ्जार से रमणियों को कामपीडित करने लगे । दूतियाँ रमणियों के पतियों के पास जा - आकर उनकी मदनावस्था का वर्णन करके उन्हें रमणियों के पास जाने के लिए प्रेरित करने लगीं । ग्रीष्म ऋतु के आने पर शिरीष तथा नवमल्लिका के पुष्प विकसित हो उठे । कामीजन मद से चंचल हो गये । रमणियाँ आर्द्रचन्दन से सिक्त अपने पीन स्तनों को प्रियतमों के वक्षःस्थल पर रखकर पुनः पुनः उनका आलिङ्गन करने लगीं । वर्षाऋतु में चमकती हुई विद्युत तथा गर्जन करने वाले मेघों से भी भय-भीत न होती हुई कामार्ता रमणियाँ अपने प्रियतमों के पास जाने लगीं । बादलों से बरसे हुए जल को प्राप्तकर मयूरवृन्द एकाएक आनन्द से भर गये, नदियाँ बह निकलीं और भ्रमरियाँ सायंकाल के दीपक की भाँति लालरंग के कन्दली के फूलों पर भ्रमरों के साथ रमण करने लगीं शरद् ऋतु के आरम्भ होने पर आकाश निरभ्र हो गया । चन्द्ररश्मियाँ निर्मल हो गई । मयूरों तथा हंसों के शब्द क्रमशः कर्णकटु तथा कर्णसुखद हो गए । धान की रखवाली करने वाली गोप कन्याओं के मधुर गीत सुनने में तन्मय होकर मृग- समूह धान खाना भूल गये । हेमन्त के आगमन पर जलाशयों का जल जम जाने के कारण कम हो गया । कामी जन विविध प्रकार की सुरतक्रीड़ा में प्रवृत्त हो उठे । शिशिरऋतु के आने पर सूर्य किरणों का Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 42 ] तेज मन्द पड़ गया । रमणियाँ प्रियतमों का आलिंगन कर पयोधरस्थ अपनी उष्णता को सार्थक करने लगीं । इस प्रकार पुष्पों के भार से वृक्षों को नीचे झुकाने वाली एवं भ्रमरों के गुंजार को कभी भी बन्द न करने वाली समस्त ऋतुओं को प्रत्येक शिखरों पर धारण करने वाले इस रैवतक पर्वत पर भगवान् श्रीकृष्ण क्रीड़ा करने के लिए मयूरों की वाणी द्वारा प्रेरित किये गये । सप्तम सर्ग ( यदुदम्पत्तियों का विलासपूर्ण वन विहार वर्णन ) तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण रैवतक पर्वत के प्रत्येक शिखर पर वसन्तादि ऋतुओं द्वारा विस्तारित वन्य श्री की शोभा देखने के लिए शिविर से बाहर निकले । तत्पश्चात् गौर वर्ण की यदुवंशी सुन्दरियाँ अपने पति के साथ पैदल ही वन-श्री को देखने के लिए विविध प्रकार के कामजन्य विलासों को करती हुई जाने लगीं । यादवगण भी विविध प्रकार के कामकला का प्रदर्शन करते हुए उनकी विलासपूर्ण क्रीडाओं को बढ़ा रहे थे । नदियों के तीर पर शब्द करते हुए सारस पक्षियों का कलरव कामधनुष के टङ्कार सदृश कामिजनों को प्रतीत हो रहा था । गुञ्जार करते हुए भ्रमर-गण रमणियों के साथ यादवों को मानों दूर से ही बुला रहे थे । आधी खिली हुई कलियाँ वायु के स्पर्श एवं भ्रमरों के बैठने से पूर्णत: विकसित होकर सुन्दरियों का कामोद्दीपन कर रही थीं । कोई नायिका शीघ्रगामी नायक से कह रही थी 'हे मित्र ! इस प्रकार जल्दी जल्दी पैर रखते हुए मत चलो । पीछे-पीछे आती हुई मेरी भी प्रतीक्षा करते जाओ । एक दूसरी कोई नायिका अपने प्रियतम के दोनों कन्धों पर अपने दोनों हाथों को रखकर अपने कठोर कुचों के अग्रभाग से उसे प्रेरित अथवा निपीडित करती हुई लीलापूर्वक उसके पीछे-पीछे जा रही थी । कोई खण्डिता नायिका अपने प्रियतम को फटकार रही थी । किसी रमणी के नेत्र में पड़ा हुआ पुष्पराज मुख- वायु करते हुए नायक को देखकर उसकी सपत्नी के नेत्र क्रोध से लाल हो थे । और तो सपत्नी का नामोच्चारण पूर्वक बुलायी गयी कोई सुन्दरी कामप्रयुक्त अभिचार मन्त्र से आहत होकर मूर्च्छित भी हो रही थी । कोई नायिका अपने प्रियतम को बलपवूक पकड़कर एकान्त में ला जा रही थी । भ्रमर - वृन्द, युवतियों द्वारा सब फूल चुन लिये जाने के कारण कोमल मालाओं को धारण करने वाली युवतियों के ऊपर बैठ रहे थे । इस प्रकार दीर्घकाल तक वन विहार करने के कारण श्रान्त - क्लान्त रमणियों के खुले हुए केशजालों के भार से मानों उनके कन्धे नीचे की ओर झुक गये थे, सघन एवं लम्बी पलकों के भार से मानों उनके नेत्र बन्द से हो रहे थे, जिससे उनके मुखार विन्द अधिक शोभा दे रहे थे, प्रेमी के विशेष चुंबन के मर्दन के कारण लगी हुई केशर की धूल रमणियों के कपोलों पर से छूट गयी थीं । उनके कपोलमण्डल सूर्य की किरणों से अधिक लाल हो रहे थे । परिश्रम के कारण उनके बाहु शिथिल पड़ गये, स्तन मण्डल पसीने से शिथिल हो गया था, बहुत देर तक धरती तल पर पैदल चलने के कारण उनके चरण कमलों में लगा हुआ नूतन आलता का रंग छूट गया क्या, से दूर - Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 43 ] था । वे कोमलाङ्गों वाली सुन्दरियाँ अत्यधिक श्रान्त क्लान्त हो गयीं थीं, उनके कपोलों से बहने वाले पसीने की बून्दें बहकर कठोर स्तनमण्डलों पर गिर कर जरजरित हो रहे थे । बार-बार पुष्प चुनने के परिश्रम से थकी हुई कोई रमणी अपने पति के गले में दोनों भुजाएँ डालकर उसके वक्षस्थल का आश्रय लिये हुए थी । कोई तन्वी सुन्दरी अपने प्रियतम के सम्मुख अपने विशाल स्तन युगलों को और ऊँचा करके अंगडायी लेती हुई अपनी भुजलताओं को फैलाकर थकावट मिटाने के व्याज से अपनी आलिंगन करने की अभिलाषा प्रकट कर रही थी । इस प्रकार जब प्रियतम के कर-स्पर्श के कारण उन्हें अधिक पसीना हो आया उस समय पूर्ण शोभा शालिनी वे सुन्दरयिाँ, वन-विहार के परिश्रम के कारण थके हुए अपने अंगों को सम्पूर्ण रूप से जल द्वारा सिंचित करने की इच्छा करने लगी ( अर्थात् रमणियाँ अब स्नान करने की इच्छा करने लगीं) अष्टम सर्ग (जल-विहार का वर्णन) तदनन्तर वन-विहार के परिश्रम से नितान्त श्रान्त हुई विशाल स्तनमण्डलवाली उन सुन्दरियों के नेत्र मुँदने लगे और किसी प्रकार धरती पर आगे पैर रखती हुई वे जलाशय की ओर चल पड़ी । उन रमणियों की संख्या अधिक होने से मार्ग में चलना कठिन हो रहा था । जलाशय के मार्ग में विचरण करने वाली हँसनियाँ आलस्यपूर्ण मन्द-मन्द गमन करने वाली उन रमणियों को देखकर विस्मय से अपनी चाल को त्याग रही थीं । नदियाँ उनकी जंघाओं से पराजित हो जाने से लज्जावश पाषाण खण्डों पर गिर-गिर कर चंचलता से भाग रही थीं । मार्ग में कहीं कहीं मोती बिखरे हुए थे । भ्रमर-समूह पुष्पों को छोड़कर अधिक सौरभ के लोभ से यादवाङ्गनाओं के मुखारविन्दों पर मंडरा रहे थे ।। मोर मयूरनियों को अपनी विशाल पूंछों से छिपा रहे थे । हँस रमणियों के कर्णसुखद-मधुर वाणी से पराजित होकर कमलों के बीच में छिप रहे थे । चकवा चकई का मुख चुम्बन कर रहा था । इस प्रकार प्राकृतिक सौन्दर्य से विभूषित मार्ग से जब यादवाङ्गनाएँ जलाशय से निकट पहुँची, तब पक्षिवृन्दों के कलरव से स्वागत करते हुए जलाशय ने नव विकसित कमल युक्त तरंगों से उन रमणियों के लिए अर्घ्य देकर उनका स्वागत किया और फेन से मुस्कराती हुई मानों अपने चंचल-लहररूपी हाथों से पैर धोने के लिए उन्हें जल प्रदान किया । उस समय रमणियों की हथेलियों की लालिमा ने कमलों को श्री (शोभा) विहीन बना दिया । वे यादव-रमणियाँ उस सरोवर के जल में प्रथम डरती हुई प्रविष्ट हुई और फिर थाह पाकर अपने कोमल पद को धीरे से आगे बढ़ाकर अनुराग से स्नान करने लगीं । कोई नव विवाहिता रमणी (लज्जावश) अपने पति के साथ जब सरोवर में प्रविष्ट नहीं होना चाहती थी, तब उसकी सखियों ने उसे तट से जल में ढकेल दिया । भय से चकित नेत्रों वाली वह नववधू पति से लिपट गई । कोई रमणी केवल कन्धे तक जल में खड़े हुए अपने प्रियतम को देखकर उस जल को अपने भी कन्धे तक जानकर निर्भय चित्त से उसके पास जाने Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 44 ] लगी। तब उसके पति ने यह समझकर कि यह डूब जायगी, उस सुन्दरी को शीघ्र ही उठाकर अपने अंगों में लिपटा लिया । वे रमणियाँ यद्यपि जल के भीतर डूबी हुई थीं, फिर भी उनका गोरा शरीर बाहर दिखाई पड़ रहा था । वे रमणियाँ अपने प्रियतमों के साथ दात लगाकर एक दूसरे पर हाथों से पानी फेंक रहीं थीं । जल में भींगने के कारण रमणियों की करधनियाँ ध्वनि रहित हो गयीं थीं । अत्यधिक वेगपूर्वक जल क्रीड़ा करने से जल में गिरे हुए उन रमणियों के सुवर्ण भूषण वाडवाग्नि की ज्वाला सदृश परिलक्षित हो रहे थे । स्नान करती हई सन्दर नेत्रों वाली रमणियों के विशाल एवं स्वच्छ जल बिन्दुओं से मनोहर उनके स्तन कलश इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे, मानों सूत्र रहित मुक्ताहारों की मणियों से वे घिरे हुए हों । आभूषणों से रहित होने पर भी उन यादव-रमणियों के शरीर पर पर्याप्त आभूषण दिखाई दे रहे थे, उनके स्तनों पर फेनों की माला सुशोभित हो रही थी, सेवारो से जघन-प्रदेशों पर वस्त्रों की तथा कपोलों पर विन्यस्त पद्म-पत्र-लता की शोभा हो रही थीं । इस प्रकार जल-क्रीड़ा के अनन्तर अपने अद्भुत सौन्दर्य से देवों को भी विस्मित करती हुई कोई सुन्दरी अपने दोनों हाथों में कमल लिये हुए, लक्ष्मी की भांति जल से बाहर निकली । रमणियों ने जिन सूक्ष्म और चिकने वस्त्रों को पहन रखा था, वे जल से भीगकर उनकी जाँघों में चिपक गये थे । कोई सुन्दरी अपने केशपाश को जब हाथों से बाँध रही थी तब उसके बाहुमूल एवं स्तनप्रदेश दिखाई पड़ रहे थे, और उसका प्रियतम उसे अनुराग पर्दूक निर्निमेष देख रहा था । कोई सुन्दरी दोनों कंधों पर केशराशि फैलाकर अपने भीगे हुए शरीर को सुखा रही थी किन्तु उसका शरीर प्रियतम पास में ही होने से पुन: पसीने से भीग जाता था । इस प्रकार सरोवर में स्नान करने से जब रमणियों के चित्त से प्रणय-कोप दूर हो गया तथा यदुवंशियों के शरीर की शोभा अत्यन्त बढ़ गयी तथी सूर्य ने जलराशि के भीतर मग्न होने की इच्छा की । नवम सर्ग ( सूर्यास्त वर्णन, दूतीकर्म का वर्णन, आहार्य-प्रसाधन की शोभा का वर्णन ) इस प्रकार जलविहार करने के पश्चात् जब यादवाङ्गनाएँ अपने-अपने शिविरों में पहुँची तब सूर्यास्तकालीन दिवस का अन्तिम समय वृद्धावस्था को प्राप्त क्षीण दृष्टि वृद्धपुरुष के सदृश क्षीणकान्ति परिलक्षित हो रहा था । दिवस के अवसान के समय पक्षीगण चहचहाते हुए अपने निवास की ओर लौट रहे थे । रति-क्रीड़ा के लिये कोई सुन्दरी खिड़की पर नजर गड़ाकर वह बार-बार यह नाप रही थी कि अभी एक हाथ दिन बाकी है, अभी एक बित्ता बाकी है... आदि आदि । लाल वर्णवाला समुद्र में आधा डूबा हुआ सूर्य बिम्ब सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा के द्वारा नख से विदीर्ण किये गये सुवर्णमय ब्रह्माण्ड के एक खण्ड की तरह सशोभित हो रहा था । कमलनियाँ मकलित हो रही थी । यद्यपि सूर्य अस्त हो गया था. फिर भी अभी तक नक्षत्र नहीं दिखाई पड़ रहे थे और न चन्द्रमा ही उदित हुआ था, किन्तु शान्त गर्मी वाला अन्धकार रहित आकाश शोभ रहा था । चक्रवाक दम्पति अलग-अलग हो रहे Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 45 ] थे । दिवस का अवसान हो जाने पर गाढ़ा अन्धकार चारों दिशाओं में इस प्रकार फैल रहा था कि कुछ भी ज्ञात नहीं हो पा रहा था कि वह कहाँ से आ गया है ? अन्धकार छा जाने पर रमणियों ने दिव्य अंजनों को नेत्रों में लगा लिया , और वे अपने प्रियतमों के अभिसार के लिए तैयार हो गयीं । रात्रि ने चिरकाल से सुप्त कामदेव को उत्तेजित कर दिया । उसी समय पूर्वदिशा निर्मल कान्ति से व्याप्त हो उठी । शनैः शनैः कलामात्र चन्द्रमा का उदय हुआ । फिर वह आधा दिखाई पड़ा, तदनन्तर उदित होकर वह पूर्ण बिम्ब में दिखाई पड़ा । फिर रात्रि के सानिध्य से चन्द्रमा की शोभा बढ़ी और चन्द्रमा ने भी रात्रि की शोभा में वृद्धि कर दी । कामदेव चन्द्रमा की किरणों का अवलम्ब लेकर उठ खडा हआ । परिणामतः रमणियों ने अपने अपने प्रियतम के आगमन का निश्चित समय जानकर साज-श्रृंगार करना शुरू कर दिया । कन्तु रमणियों ने आलिंगन के सख में बाधा डालने के भय से अपने शरीर में अनलेपन नहीं किया । कोई सुन्दरी अपने मुख की वायु द्वारा अपने मुख की सुगन्धि की धीरे से परीक्षा कर बहुत प्रसन हो रही थी । तदनन्तर रमणियों ने निपुण सखियों को अपने प्रियतमों के पास भेजा । कोई सखी अभिमानिनी नायिका के बिना कहे ही उसके प्रियतम के पास उसे बुलाने के लिए चली गयी । अन्धकार में रमणियों के मार्ग को न जानने वाले युवक चन्द्रोदय होने पर अपनी प्रियतमाओं की ओर चल पड़े । सहसा प्रियतम के घर पर उपस्थित होने पर प्रियतमा प्रसन्न हो गई । किसी युवक ने उसके स्वागत के लिए उठती हई अपनी प्रेयसी का आलिंगन करके उसे रोक लिया । नीचे की ओर झुककर पति के गाढ़ आलिंगन करने से पति के वक्षस्थल पर रमणी के स्तन युगल सट गये और उसकी करधनी की घण्टियाँ सुन्दर शब्द करने लगी । प्रियतम के आ जाने पर शीघ्रता पूर्वक उठती हुई किसी सुन्दरी का वस्त्र जब छूट गया तब उसने तुरन्त अपने हाथों से नीवी को पकड़ लिया । किसी मानवती सुन्दरी का प्रियतम को देखने पर जब नीवी-बन्धन छूट गया और वह मुख को नीचे की ओर झुकाकर खड़ी हो गई तो ऐसा ज्ञात हो रहा था मानों वह शीघ्र की गये हुए अपने मान के पद-चिह्नों को देख रही हो । इस प्रकार शीघ्र ही मान-रूपी विघ्न को शान्त करने वाली चन्द्रमा की किरणों ने दूतियों की तरह उन रमणियों को नायकों के साथ मिलने में पर्याप्त सफलता प्राप्त की, साथ ही मदिरा ने उन्हें रति क्रीड़ा का उपदेश दिया ।। दशम सर्ग (सुरा तथा सुन्दरी के सेवन का विलासपूर्ण वर्णन ) तदनन्तर कामीजन मद्यपान करने के अवसर पर उससे भी अधिक सुगन्धियुक्त तथा अत्यन्त सुन्दर प्रियतमाओं का अधर पान करने में व्यस्त हो गए । मदिरा से भरे हुए प्यालों में प्रतिबिम्बित सुन्दरी के नेत्रों को कमल समझने वाले भ्रमर वृन्द सूंघने के लिए उस पर मंडरा रहे थे । कोई युवक एक बार मदिरा का स्वाद लेकर वह प्रेयसी के अधरपान में ही निरत हो गया था । तीन-बार के मदिरापान से उत्पन्न प्रचण्ड नशा से मतवाली सुन्दरियाँ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 46 ] अत्यन्त प्रगल्भ हो गयीं थीं । चिरकाल से अप्रकट विलास भावों को रमणियों ने प्रकट करना प्रारम्भ कर दिया था । मदिरापान के कारण धीरे धीरे लज्जा के दूर होने से किसी नववधू के नेत्र विकसित हो गए थे, उसकी भौंहे खिल उठी थीं और वह नीचे मुख किये हुए ही अपने प्रियतम के मुख को तिरछी नजर से देख रही थी । प्रियतम संकेत-स्थलों पर स्वयं आ गये थे । प्रियतमों के सम्मुख पहुँचकर रमणियों के मुख प्रफुल्लित हो उठे, अंग पुलकित हो गये, हृदय द्रवीभूत हो गये तथा वाणी से क्रोध दूर हो गया । किसी सुन्दरी ने स्तनों को ढंकने वाली चोली को खींच लिए जाने पर लज्जित होकर प्रियतम के दृष्टि-पथ को राकने के व्याज से उसके विशाल वक्षस्थल को ही अपना आवरण बना लिया था । किसी युवक ने प्रेयसी की साड़ी के अंचल खींचते हुए अपने स्तनों को हाथों से ढंकने वाली नववधू का आलिंगन कर लिया । प्रियतम ने जब सन्दरी का आलिंगन किया तो उसके स्पर्श सख से उसका वस्त्र यद्यपि नीचे गिरने लगा था, किन्तु पसीना से लथपथ होने के कारण वस्त्र नीचे गिरने नहीं पाया । किसी नायिका का प्रियतम के समागम के अवसर पर दृढ़ता से बँधा हुआ नीवी-बंधन तुरन्त ही छूट गया । किसी अनुरागी पति ने सुन्दरी की चोर्टी खींच कर उसके अधर का पान करना प्रारम्भ किया । किसी रसिक नायक ने सुन्दरी के ओष्ठ पल्लव को छोड़कर उसके सरस एवं शीतल नेत्रों का ही कुछ समय तक चुम्बन किया । तदनन्तर बाह्यरति करने के पश्चात् आभ्यन्तर सुरत करने की इच्छा करते हुए - नायकों ने प्रथम रमणियों के स्तनों का स्पर्श किया और फिर नाभि-प्रदेश का स्पर्श किया । प्रियतम ने साड़ी की गाँठ खोलने के लिये हाथ बढ़ाया तो रमणी ने उसे पकड़ लिया । रमणियों ने अपने शरीर को यद्यपि संपूर्ण रूप से समर्पित कर दिया था, फिर भी वे रति से प्रतिकूलता दिखा रही थी । और कभी-कभी सुख की अनुभूति में भी ऊपर से दिखाने के लिए वे शुष्क रुदन कर रही थीं। बार-बार गद्गद स्वर में “रहने दो, बस करो" इत्यादि निषेध वाचक शब्दों का प्रयोग करने वाली सुन्दरी के साथ प्रतिकूल व्यवहार करके ही विलासी नायकों ने उनके अनुकूल आचरण किया । इस प्रकार रमणियों के अंगों में सोया हुआ कामदेव, बाहुपीड़न, निर्दय आलिंगन, केशग्रहण, नखक्षत, दनांदशनं आदि व्यापारों से जाग गया । रति क्रीड़ा में तरुणियों के सीत्कार, कण्ठरव, करुण उक्ति, स्नेह भरे वाक्य, निषेध सूचक वाक्य, तथा हँसी और आभूषणों की आवाज - ये सब मानों वात्स्यायन के कामशास्त्र के पदों को सार्थक से कर रहे थे । रति-क्रीड़ा के अनन्तर रमणियाँ लज्जा से अभिभूत हो गयीं । किन्तु प्रथम रति की समाप्ति पर परिश्रम को दूर करने के लिए प्रियतम ने सुन्दरियों का जो निरन्तर आलिंगन किया था, वही अब कामदेव को उत्तेजित करने वाला उनका आलिंगन द्वितीय रतिक्रीड़ा का आरम्भ बन गया । इस प्रकार निरन्तर रतिक्रीडा से रमणियाँ थकगयीं और लज्जावश अपने वस्त्रों को पुन: धारण करने के लिए त्वरा करने लगीं । चन्द्रमा भी लज्जित होकर अधोमुख करके अस्ताचल की ओर मुड़ गया । और रजनी परम निवृत्ति को प्राप्त हो गयी । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 47 ] एकादश सर्ग जिसकी बारी आयी है बार-बार जगा रहा { अब इस सर्ग में प्रभात का वर्णन किया जा रहा है । यह सर्ग कवि की काव्य- कुशलता, निरीक्षण - शक्ति की सूक्ष्मता का तथा स्वभावोक्ति की चित्रोपमता के अनूठे समन्वित रूप को प्रस्तुत करता है । बन्दीजनों ने किस प्रकार रात्रि के बीतने एवं प्रभात के आगमन का वर्णन किया है इसी का पूरे सर्ग में वर्णन देखने को मिलता है |} सुरत - क्रीड़ा की उत्सुकता से बार-बार के विलास में लीन होने के कारण खिन्न कामी - जनों के नेत्र अभी तक पूर्णरूप से बन्द भी नहीं हो पाये थे कि तभी रजनी के बीतने की सूचना देने वाला मृदंग उच्चस्वर में बज उठा । प्रातःकाल स्तुति - पाठ करने वाले बन्दीजनों के मधुर स्वर वीणा वादन के साथ सुनाई देने लगे । प्रातः काल हो गया है । रात्रि की सुरत - क्रीड़ा के कारण थककर प्रगाढ़ नींद में सोये हुए दम्पतियों में नायिकाएँ पहले जग गई हैं, किन्तु फिर भी वे अपने शरीर को इसलिए नहीं हिलाती डुलाती कहीं उनके हाथ के हटा लेने से प्रिय की नींद टूट न जाय । वस्तुतः वे स्वयं भी आश्लेषजनित अपूर्व सुख का वियोग नहीं चाहतीं । एक पहरेदार ने अपना पहरा पूरा कर दिया है । वह अब सोना चाहता है । इसलिए दूसरे पहरेदार को “उठो, जागो" किन्तु दूसरा व्यक्ति नींद में अस्पष्ट स्वर में उत्तर तो देता रहा, पर जागता नहीं था । क्षणभर तक शयन करके तुरन्त ही उठे हुए राजा लोग पिछले प्रहर में बुद्धि के अत्यन्त निर्मल हो जाने पर राज्य के सम्बन्ध में, साम, दाम, आदि प्रयोगों का निर्वाचन कर धर्म, अर्थ और काम की चिन्ता करने लगे । अहीर मक्खन निकालने के लिए मथानी मटके में डालकर दही को मथने लगे । घोड़े खड़े-खड़े ही आँखों को बन्द करके जो सो गए थे, प्रातःकाल होते ही जग गये और नथूनों को फड़काते हुए आगे पड़ी हुई घास को खाने लगे । पूर्व दिशा में उदित चन्द्रमा अब पश्चिम दिशा को जाता हुआ प्रभा हीन हो गया था । कुमुदिनियों की शोभा फीकी पड़ गई । मालती के विकसित पुष्पों की सुगन्ध से युक्त वायु मन्द मन्द प्रवाहित होने लगी । कमलों की सुगन्ध से उन्मत्त भ्रमरगण इधर-उधर उड़ने लगे । शीतल, मन्द और पुष्प - सुवासित वायु के बहने से सुरत से श्रान्त - क्लान्त रमणियों की कामाग्नि पुनः उद्दीप्त हो रही थी । वाराङ्गनाएँ राजभवन से अपने-अपने निवास स्थान को लौट रही थीं । अरुणोदय से अन्य कार दूर हो रहा था । नवोढ़ा नायिकाएँ रात्रि के विविध सम्भोग - वृत्तान्तों का समरण कर स्वयं लज्जित हो रही थीं । अग्निहोत्रियों के घर में प्रज्वलित अग्नि जल रही थी । तपस्वीगण मन्त्रों का जप करने लगे थे । सूर्योदय के साथ-साथ पूर्व दिशा सूर्य की पीत और लालिमा से रञ्जित हो रही थी । नदियों की जलधारा सूर्यकिरणों के सम्पर्क से लाल हो रही थीं । कमलों के विकसित हो जाने से उनमें बन्द भ्रमर बाहर निकल रहे थे । पक्षियों ने कलरव प्रारम्भ कर दिया था । उदय कालिक बालसूर्य उदयाचल के विशाल - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 48 ] प्रांगण में रेंगता हुआ, पद्मिनियों द्वारा कमलरूपी मुख के हास्य के साथ देखा जाता हुआ, पक्षियों के कलरव में बुलाती हुई अपनी माता की गोद में, अपने कोमल करारों को फैलाता हुआ मन्द-मन्द हँसता–डोलता चला जा रहा था । इस प्रकार कल्पान्त में जगत् का संहार कर क्षीर समुद्र में सोये हुए विष्णु भगवान् के सदृश सूर्य आकाश में टिम टिमाते तारागणों को नष्ट कर आकाश में सोता हुआ सा परिलक्षित होने लगा । द्वादश सर्ग { इस सर्ग में सेनाप्रयाण के वर्णन के साथ यमुना को पार करने का सुन्दर चित्रण किया गया है । इस प्रकार सूर्योदय हो जाने के पश्चात् रथों, अश्वों और गजों पर सवार राजाओं के समूह शिविरों के बाहर भगवान् श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा करने लगे । तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण अपने मनोरम रथ पर आरूढ होकर शिविर से बाहर निकले । भगवान् श्रीकृष्ण के चलने पर दूसरे राजा लोग भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े । तत्पश्चात् शिविर के तम्बू-कनात आदि को समेट कर गाड़ी, ऊँट, बैल, खच्चर आदि वाहनों पर लाद-लादकर पैदल सेना चलने लगी । उस समय भगवान् श्रीकृष्ण की सेना का वह विशाल समुद्र ‘सामवेद' की समता धारण कर रहा था । उनकी सेना के प्रयाण के अवसर पर पाञ्चजन्य शंख एवं मृदङ्ग आदि की होने वाली भयावह ध्वनि से विपक्षी राजाओं का हृदय दहलने लगा । रथ के चक्कों तथा हाथियों को चिग्घाड़ की शब्द-ध्वनि परस्पर मिश्रित होने से कुछ स्पष्ट ज्ञात नहीं हो रहा था, केवल घोड़ों की हिनहिनाहट सुनाई पड़ रही थी । रथों के चक्कों से विदीर्णभूमि हाथियों के पैरों से समतल हुई भूमि हल से जोतने के पश्चात् पाटा से समतल की हुई सी दिखाई दे रही थी । अश्वारोहियों ने उतार के स्थानों पर लगाम को जकड़कर रखने से घोड़े धीरे-धीरे ढालू भूमि पर उतर रहे थे, किन्तु मैदान में पहुँचने पर शीघ्रतापूर्वक अपनी खुरों से टप-टप करते हुए दौड़ रहे थे । उस सेना में छत्रधारी अनेक राजाओं के होने से सर्वत्र छाते ही छाते दिखाई पड़ रहे थे । बन्दीजन भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों की प्रशंसा के अनेक श्लोक आगे-आगे गाते चल रहे थे । भगवान् श्रीकृष्ण की सेना समुद्र जैसी विशाल होने पर भी मर्यादा बद्ध होकर चल रही थी । ग्रामीण वधुएँ भगवान् श्रीकृष्ण को छिप-छिपकर बार-बार निहार रही थी । भगवान् श्रीकृष्ण ने मार्ग में देखा कि ग्रामीण-गोप मण्डलाकार में बैठकर, मद्य-पान करते हुए उच्च स्वर में अट्टहास कर रहे हैं । धान के खेतों की रखवाली करने वाली स्त्रियाँ जब तक तोतों को उड़ाने के लिए जाती थीं तब तक उस धान को मृगों के समूह आ-आकर चरने लगते थे । इस प्रकार व्याकुल हुई उन स्त्रियों को मुस्कराते हुए श्रीकृष्ण ने देखा । मार्ग में ऊँट पर चढ़ने वाले उन पर बैठ भी नहीं पा रहे थे कि वे शीघ्रगामी ऊँट त्वरा से उठकर नकेल की उपेक्षा करते हुए शीघ्रता से चल पड़ रहे थे । कोई ऊँट नकेल को दृढ़ता पूर्वक खींचे जाने पर आधी चबाई हुई नीम की पत्तियों को बाहर निकालता हुआ उच्च स्वर Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 49 ] से बल-बला रहा था । कोई बैल नाथ की रस्सी को पकड़ने पर भी अपने दोनों सीगों को हिलाता हुआ '-तूं करता हुआ पीठ पर काठी को नहीं रहने दे रहा था । सेना के चलने से उड़ी हुई धूलि पर्वतों की चोटियों तक पहुँच रही थी । गजेन्द्रों के द्वारा हिलाये गये वृक्षों की शाखाओं में लगे हुए छत्तों से उड़ी हुई मधु-मक्खियों के काटे जाने के भय से लोग इधर-उधर भाग रहे थे । विशाल सेना के नदी पार करते समय नदी का जल-प्रवाह विपरीत दिशा में बहने लगता था । जब तक हाथियों का समूह नदियों के जल में उतर कर उसे नहीं आलोडित कर पाता था तब तक तुरंगों की खुरों से उड़ी हुई धूल नदियों के जल को पंकिल बना देती थी । हाथी नदियों के तटों को तोड़कर नदी को समतल बना रहे थे । मार्ग में निवास के लिये गाड़े गये तम्बू बड़े-बड़े महलों की शोभा को भी तिरस्कृत कर रहे थे : इस प्रकार वह विशाल सेना नगरों को पार करती हुई यमुना नदी के तट पर आकर रुक गई । पश्चात् नौकाओं द्वारा सैनिकों ने यमुना को पार कर लिया । हाथी-घोड़ों ने भी यमुना को पार कर लिया । कुछ लोग हाथों ही से तैरकर यमुना-पार जा पहुंचे थे । तैरती हुई यादवी-सेना यमुना को दो भागों में बँटी हुई केशराशि की भाँति बना रही थी । इस प्रकार लक्ष्मी के पति भगवान् श्रीकृष्ण की वह विशाल सेना यमुना नदी को तुरन्त ही पारकर उस पार चली गयी । और उसने हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किया । त्रयोदश सर्ग {इस सर्ग में श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये उत्सुक इन्द्रप्रस्थ की पुरनारियों का सरस वर्णन अंकित है।) श्री कृष्ण भगवान् के ( अपनी सेना के साथ यमुना पार कर ) आगमन का समाचार ज्ञात कर धर्मराज युधिष्ठिर प्रसन्नता से अपने अनुजों के साथ उनकी अगवानी के लिए द्रुतगति से निकल पड़े । श्रीकृष्ण भगवान् के आगमन के हर्ष से कुरुवंशियों की सेना में नगाड़ों की गम्भीर ध्वनि होने लगी । श्रीकृष्ण भगवान को दर से ही देखकर यधिष्ठिर रथ से पहले उतरना ही चाहते थे, किन्तु श्रीकृष्ण भगवान् त्वरापूर्वक उनसे भी पूर्व रथ से उतर पड़े । श्रीकृष्ण ने अपने गौरव को बढ़ाते हुए अपनी बुआ के पुत्र युधिष्ठिर को दण्डवत् प्रणाम किया । और युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण भगवान् का आलिङ्गन किया ,। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने भीम आदि का तथा यादवों ने पाण्डवों का आलिंगन किया, तत्पश्चात् यादव-रमणियाँ और पाण्डव-रमणियाँ एक दूसरे का आलिंगन करने लगी । इस प्रकार एक-दूसरे से मिलने के पश्चात् युधिष्ठिर के अनुनय-विनय करने पर अर्जुन से अपना हाथ मिलाये हुए, भगवान् श्रीकृष्ण युधिष्ठिर के रथ पर चढ़ गये । धर्मराज स्वयं ही रथ हाँकने लगे, भीमसेन चामर डुलाने लगे, अर्जुन ने श्वेतछत्र हाथ में ग्रहण किया और नकुल-सहदेव अनुचर बनकर पार्श्व में खड़े हो गये । इस प्रकार रथ चल पड़ने पर सेना की दुन्दुभियाँ बजने लगी । यादव और पाण्डवों की सेनाएँ गंगा और यमुना के जल-प्रवाह शि० भू०4 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 50 ] की भांति मिलकर आगे बढ़ने लगीं । इस अनुपम दृश्य को देखने के लिये देवगण विमान से आकाश में स्थिर होकर देखने लगे । इतने में ही युधिष्ठिर के यज्ञ में आये हुए राजाओं के शिविरों से घिरे हुए तथा स्वागतार्थ निर्मित नव द्वारों से सुशोभित हस्तिनापुर में भगवान् श्रीकृष्ण ने पाँचों पाण्डवों के साथ प्रवेश किया । श्रीकृष्ण को देखने के लिये नगर - रमणियाँ अपने-अपने सभी कामों को छोड़कर त्वरापूर्वक प्रत्येक सड़क और गली में आ - आकर एकत्र हो गयीं । कुछ रमणियाँ आधा ही श्रृंगार किये हुए थीं कि इसी बीच भगवान् के नगर में आने का समाचार सुनकर वे उन्हें देखने के लिए चल पड़ीं । उनकी साड़ी खिसकी जा रही थी जिसे संभालने के लिये वे अपने हाथों से नीवी पकड़े हुए थीं । शीघ्रता के कारण किसी रमणी ने मुक्तामाला के स्थान पर करधनी पहन ली थी, किसी ने केशों पर कान के आभूषण पहन लिये थे, किसी ने ओढ़ने के दुपट्टे को पहनकर पहनने की साड़ी ओढ़ली थी । कोई सुन्दरी आधे रँगे हुए गीले पैरों से ही चल पड़ी, जिससे पृथ्वी पर उसके पैरों के गीले महावर के चिह्न अंकित हो गये थे । कोई रमणी सुवर्ण की सीढ़ियों पर चढ़ते समय झनझनाते हुए नूपुरों को बजाती हुई ऊँची अँटारी के ऊपर चढ़ गयीं । अपनी ऊँची अँटारी पर चढ़ी हुई किसी सुन्दरी की साड़ी का आँचल वायु के वेग से उड़ रहा था, इससे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों वह इन्द्रप्रस्थ नगरी भगवान् श्रीकृष्ण के शुभाग के उपलक्ष में सजायी गयी पताका से सुशोभित हो रही हो । इस प्रकार नगर प्रवेश के अनन्तर उन्होंने जलसिंचित और धूलिरहित मार्गों को पार किया । तत्पश्चात् वे सभामण्डप में शीघ्र ही पहुँच गये । विभिन्न प्रकार की मणियों से जड़ा हुआ सभा मण्डप अत्यन्त सुन्दर था । उस सभाभवन में कमलिनी के नीचे जल ऐसा छिपा हुआ था पर स्थल की भ्रान्ति हो जाती थी । कहीं-कहीं पर उसी भवन में आगन्तुक जल के भ्रम दूर से ही अपना अधोवस्त्र ऊपर उठा लेते थे । सभामण्डप के सम्मुख आकर श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर रथ से नीचे उतर पड़े । सभा भवन का निरीक्षण करने के पश्चात् युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण विशाल सिंहासन पर एक साथ बैठ गये । नर्तकियाँ आकर उत्तमोत्तम वाद्यों के स्वर के साथ नवीन-नवीन गीतों को मधुर स्वर से गाती हुई नृत्य करने लगीं । और वे दोनों बैठे-बैठे संभाषण करते रहे । से चतुर्दश सर्ग { मीमांसा और कर्मकाण्ड संबन्धी - ज्ञान के प्रकाश में राजसूय यज्ञ के वर्णन के साथ-साथ श्रीकृष्ण भगवान् का विधिवत् पूजा - सत्कार का वर्णन इसमें किया गया है। } सिंहासनारूढ भगवान् श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर ने नम्र निवेदन किया, - हे भगवन् ! मैं यज्ञ करना चाहता हूँ, अतः उसके लिए आप अनुज्ञा प्रदान कर मुझे अनुगृहीत करें । क्योंकि मूल में आप ही को प्राप्त करके ही मैंने धर्ममय वृक्ष का पद प्राप्त किया है, अर्थात् आपके ही कारण मैं धर्मराज कहलाता हूँ । अब आपके समीप होने से मेरा यह Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 51 ] यज्ञ विघ्नबाधाओं से रहित तथा निर्दोष सम्पन्न होगा । उस निर्दोष यज्ञ करने की आकांक्षा से सभी साधनों को एकत्र करके मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था । अपने सभी भाइयों समेत मैं आपकी आज्ञा के अधीन हूँ । आप मुझे मेरे कर्तव्य की शिक्षा दीजिये । इत्यादि बातों को सुनकर भगवान् ने कहा – “हे राजन् ! मैं आपके अत्यन्त दुष्कर आदेशों का भी पालन करूंगा । आप मुझे धनञ्जय से तनिक भी भिन्न न मानें । जो राजा आपके इस राजसूय यज्ञ में भृत्य के समान कार्य न करेगा उसके शिर को मेरा यह सुदर्शन चक्र शरीर से पृथक् कर देगा ।" उनके ऐसा कहने पर युधिष्ठिर प्रसन्न चित्त से यज्ञ करने के लिए प्रवृत्त हो गये । तत्पश्चात् मीमांसा शास्त्र के ज्ञाता पुरोहित अग्नि में आहुतियाँ छोड़ने लगे । सामवेद ब्राह्मण स्पष्ट स्वर से सामवेद का गान करने लगें । द्रौपदी देवी हवनीय पदार्थों का घूम-घूम कर निरीक्षण कर रही थी । हवन करने के साथ ही उठा हुआ धूम दिशामण्डल को धूमिल करने लगा । अमृत का भोजन करने वाले देवगण मन्त्रोच्चारण के साथ अग्नि में छोड़े गये हविष्य रूप अमृत का भोजन करने के लिए त्वरा करने लगे । इस प्रकार उस राजसूय यज्ञ में जितनी भी क्रियाएँ सम्पन्न हुई, किसी में भी कोई दोष नहीं हुआ तथा यज्ञ की समस्त सामग्रियाँ पूरी पड़ गयीं । तदनन्तर एक ओर युधिष्ठिर ब्राह्मणों के समीप जाकर उन्हें राजसूय यज्ञ के उपयुक्त उचित दक्षिणाएँ प्रदान कर रहे थे दूसरी ओर राजा लोग युधिष्ठिर को अमूल्य रत्नों की भेट करने के लिये यज्ञमण्डप से बाहर प्रतीक्षा कर रहे थे । एक ही राजा ने भेंट रूप में जो धन दिया था, वहीं उस राजसूय यज्ञ को सविधि सम्पन्न करने में पर्याप्त था, किन्तु त्यागी राजा युधिष्ठिर समस्त राजाओं द्वारा प्राप्त धन को ब्राह्मणों को दान रूप में दे रहे थे । वे याचकों को अनादर की दृष्टि से नहीं देखते थे । उस यज्ञ के लोग मधर आदि छः हों रसों का विधिवत आस्वादन कर रहे थे । इस प्रकार विस्तारपूर्वक होने वाले उस राजसूय यज्ञ की समाप्ति के अनन्तर राजा युधिष्ठिर ने धर्मशास्त्र का विचार करते हुए अर्ध्य-दान के सम्बन्ध में भीष्म से पूछा, तब शन्तनु के पुत्र भीष्म ने उस सभा के अनुकूल यह उत्तर दिया । भीष्म ने कहा- हे राजन् ! तुम करणीय वस्तुओं में क्या नहीं जानते ? फिर भी गुरुजनों से पूछना उचित ही है । अतः सुनो “इस समय ब्राह्मणों और राजाओं के इस संपूर्ण समागम में भी मुझे तो सम्पूर्ण गुणों के आगार, असुरों के विनाशक, भगवान् श्रीकृष्ण ही एक मात्र पूजा के अधिकारी दिखाई पड़ते हैं ।" हे युधिष्ठिर ! तुम धन्य हो, जिसके सम्मुख भगवान् स्वयं आकर उपस्थित हुए हैं । यज्ञकर्ता इन्हीं की विधिपूर्वक पूजा करते हैं । अतः परमपूज्य भगवान् श्री कृष्ण की विधिवत् पूजा करके जब तक यह संसार रहेगा तब तक के लिये साधुवाद प्राप्त करो ।" राजायुधिष्ठिर ने भीष्म पितामह की बातों को सुनकर समस्त राजाओं के सम्मुख भगवान् श्री कृष्ण की विधिवत् पूजा की, और राजसूय-यज्ञ इस प्रकार सम्पन्न किया । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 52 ] पञ्चदश सर्ग {पूजा के अनन्तर शिशुपाल, सभा के बीच में युधिष्ठिर द्वारा किये गये भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मान को नहीं सहन कर सका, और वह कृष्ण, भीष्म और युधिष्ठिर को खरी-खोटी सुनाने लगा। __ श्री कृष्ण की पूजा के अनन्तर शिशुपाल अत्यन्त कुपित हो उठा और वह कटुवचन कहने लगा - 'हे युधिष्ठिर ! सज्जनों द्वारा अपूजित इस कृष्ण की जो तुमने पूजा की है, उससे तुम्हारा इसके प्रति प्रेम ही प्रकट होता है - इसकी पूज्यता नहीं । आश्चर्य है ! तुम्हारा यह 'धर्मराज' नाम झूठा ही है । हे कुन्ती पुत्रो ! यदि यह कृष्ण ही तुम्हारे लिये अधिक पूजनीय था, तो व्यर्थ ही अपमान करने के लिये इन राजाओं को तुमने क्यों बुलाया ? अथवा तुम सबके सब महामूर्ख हो! तुम्हें धर्म-तत्त्व का ज्ञान नहीं है । आश्चर्य है, व्यर्थ में ही बाल पका कर बूढा और नष्ट बुद्धिवाला यह नदी का पुत्र भीष्म भी इस प्रसंग में असावधान और मतवाला बन गया था । हे भीष्म ! तुम सचमुच ही निम्नगा - निम्नस्तर की ओर बहने वाली नदी-गंगा-के पुत्र हो ।' इस प्रकार युधिष्ठिर और भीष्म को कटुवचन सुनाकर भगवान् श्रीकृष्ण से कहने लगा - हे कृष्ण ! राजाओं के योग्य इस पूजा को तुम्हें नहीं स्वीकार करना चाहिए था । तुम स्वयं अपने सम्बन्ध में सोचो कि 'मैं कौन हूँ ।' मधु की मक्खियों को मारकर तुम 'मधुसूदन' बने हुए हो । जरासन्ध ने तुम्हारे तेज को ध्वस्त कर दिया था । बलराम के साथ रहने के कारण 'सबल' कहलाते हो । तुम 'सत्यप्रिय' के नाम से ख्याति प्राप्त करते हो । किन्तु तुम्हारा यह 'सत्यप्रिय' नाम सत्यभामा से प्रेम रखने के कारण है । इस चञ्चल मति कृष्ण ने अब तक शकटासुर का वध, यमलार्जुन का भंग, गोवर्धन को ऊपर उठाना आदि जिन-जिन कार्यों को किया है, उनसे किसी धीर बुद्धिं वाले को कौन सा विस्मय होगा ? हे - अविवेककारी ! समस्तगुणों से विहीन यह तुम्हारी की गयी पूजा इस संसार में केशविहीन शिर में कंघी करने के समान है । इतनी कटुबाते कहने के पश्चात् वहाँ उपस्थित राजाओं को शिशुपाल कहने लगा - हे पृथ्वी के स्वामियों ! सिंहों के समान आप लोगों को देखते हुए भी इस प्रकार इन कुन्ती-पुत्रों ने गीदड़ के समान इस कृष्ण की पूजा की है । यह आप सबका अपमान है । इस कृष्ण की बुद्धि पूतना के प्रति यदि स्त्री होने के कारण से दयायुक्त नहीं हुई तो नहीं सही, किन्तु इस निर्दय-हृदय को जिसने उस पूतना का स्तनपान किया था, वह धर्म से माता भी तो इसकी होती थी । फिर भी इसने उसे मार डाला । इस प्रकार कहकर वह नरकासुर के साथ ताली बजाकर जोर से अट्टहास करने लगा । श्रीकृष्ण भगवान् मौन रहकर इसके अपराधों को गिन रहे थे । शिशुपाल के इन कटुवचनों को सुनकर भीष्मपितामह गरजकर बोले - हे राजाओं ! जिस राजा को आज इस सभा में मेरे द्वारा की गयी भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा सह्य नहीं है, वह धनुष चढ़ा ले । यह मेरा बाँया Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 53 ] पैर ऐसे सभी राजाओं के शिर पर रखा जा रहा है । भीष्म की गर्जना सुनकर शिशुपाल पक्षीय सभी राजा क्षुब्ध हो उठे । शिशुपाल नें अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा हे राजाओं ! तुम लोग इन पाँचों जारज सन्तान पाण्डवों के साथ इस बूढ़ी राजकन्या के साथ वध के योग्य कंस के दास कृष्ण को क्यों नहीं अभी मार डालते ? अथवा इसे मैं ही मारता हूँ इस कृष्ण को मारना कोई बड़ा कार्य नहीं है । ऐसा कहकर शिशुपाल सभामण्डप से बाहर निकल कर अपने शिविर में चला गया । अन्य राजा भी उसके पीछे-पीछे चले गये । शिशुपाल के शिविर में पहुँचते ही रणदुन्दुभि बज उठी । लोग इधर-उधर दौड़ने लगे । शूरवीरों ने कवच धारण कर लिया । शिशुपालपक्षीय वीर लोग रमणियों के साथ मद्यपान करने लगे । अनेकविध अपशकुन शिशुपाल पक्षीय वीरों को होने लगे । एक सुन्दरी अपने युद्ध के उत्साही पति से ईर्ष्या के साथ कहने लगी- हे वंचक ! तुम स्वर्ग की अप्सराओं के साथ निरन्तर भोग-विलास करने की इच्छा से इस युद्ध में जाने के लिए तत्पर हो । ऐसा कहकर वह उसे युद्ध में जाने से रोकने लगी । रमणियाँ युद्ध में जाते समय अपने पति का फिर दर्शन नहीं पाने की आशंका से काँप रही थीं । षोडश सर्ग - { युद्ध के लिये तत्पर शिशुपाल का दूत सभामण्डप में आकर कृष्ण को द्वयर्थ ( श्लिष्ट ) सन्देश देता है, जिसका तात्पर्य यह है कि या तो कृष्ण शिशुपाल की अधीनता स्वीकार कर लें, या युद्ध के लिये तैयार हो जायँ । दूत का उत्तर सात्यकि देता है । } युद्ध - यात्रा की तैयारी हो जाने के पश्चात् शिशुपाल द्वारा भेजे गए एक दूत ने, सभा में भगवान् श्रीकृष्ण के समीप आकर दो अर्थों वाली (प्रिय तथा अप्रिय ) बातें इस प्रकार कहने लगा शिशुपाल आपके अर्घ्य दान के अवसर पर आप से अप्रिय बातों को कहकर अत्यन्त पश्चात्ताप कर रहा है । [ उस अवसर पर केवल अपमान जनक बातें कहकर शिशुपाल इस बात का पश्चात्ताप कर रहा है कि मैंने श्रीकृष्ण को मारा क्यों नहीं ?} शिशुपाल अपने पक्ष के समस्त राजाओं के साथ मस्तक झुकाकर आपको प्रणाम करेगा और आपकी आज्ञा को शिर पर धारण करेगा । [ वह शिशुपाल अपने राजाओं के साथ आकर तुम्हें शिक्षा ( दण्डित करेगा ) देगा } आप अग्नि और सूर्य सदृश तेजस्वी हैं । सभी आपकी आज्ञा का पालन करते हैं । [ अग्नि के सम्मुख पतिङ्गे के सद्दश शिशुपालपक्षीय राजाओं के सामने तुम्हारा तेज है । इस प्रकार विविध प्रकार के . श्लिष्ट वचन कहकर दूत के चुप हो जाने पर श्रीकृष्ण भगवान् का संकेत पाकर सात्यकि कहने लगे - हे दूत ! तुम बड़े ही निपुण हो । भीतर से अप्रिय और बाहर से प्रिय ज्ञात होने वाली तुम्हारी बातें हमारे लिये बाहर से अप्रिय और भीतर से प्रिय मालूम हो रही हैं । तुम्हारा एक ही वाक्य बाहर से अत्यन्त कोमल है तो भीतर से अत्यन्त सरस कमलनाल से सदृश नितान्त कठिन है । इस प्रकार सात्यकि ने दूत की भर्त्सना करने के अनन्तर Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 54 ] शिशुपाल को भी खूब खरी-खोटी सुनाई । यदि राजा युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की है तो शिशुपाल को क्यों द्वेष होता है ? भगवान् श्रीकृष्ण और शिशुपाल में कोई प्रतिस्पर्धी हो ही नहीं सकती, क्योंकि दोनों में बहुत अन्तर है । सज्जन पुरुष स्वभावतः ही सदा दूसरों का उपकार करने वाले होते हैं, किन्तु आश्चर्य है कि उनकी उन्नति भी दुष्टों के हृदयों में पीड़ा पहुँचाती है । दुष्टों की कठोर वाणी से महान् पुरुषों का गौरव निश्चय ही नष्ट नहीं होता । सात्यकि ने आगे कहा-तुम्हारा राजा जैसा भी चाहे श्रीकृष्ण को आकर देख लें । उसे उचित उत्तर देने में श्रीकृष्ण थोड़ा भी विलंब नहीं करेंगे । अब यदि तुम कोई अप्रिय बात कहोगे तो तुम्हें दण्ड मिलेगा । इस पर दूत पुन: बोला मैंने सन्धि अथवा विग्रह करने की बात जो आप से कही है, उनमें आप अपने विवेक से एक कोई ग्रहण कर लें । सैकड़ों अपराधों को सहन करने वाले आप का रुक्मिणी हरण रूप एक ही अपराध क्षमाकर शिशुपाल आप से आगे बढ़ गये हैं । उन्होंने युद्धार्थ यादवों को ललकारने के लिए मुझे आपके पास भेजा है । रणक्षेत्र में उनके सम्मुख कोई नहीं ठहर सकता । वे मित्रों के लिए चन्द्रतुल्य आनन्द देने वाले तथा शत्रुओं के लिए सूर्य की तरह सन्तापदायक हैं । वे इन्द्र को भी जीतने वाले हैं । अन्त में दूत ने कहा-हे श्रीकृष्ण ! सूर्य का तेज लोकालोकपर्वत का अतिक्रमण नहीं कर पाता, किन्तु हमारे राजा शिशुपाल का विश्वव्यापी तेज बड़े बड़े भूभृतों राजाओं का अतिक्रमण कर जाता है । उनके शत्रु की रमणियाँ पतियों के मरने पर भी विभूषणा श्रेष्ठभूषणवाली, पक्षां०-भूषणरहिता-ही रहती हैं । हमारे राजा शिशुपाल अतुल पराक्रमी हैं, वह रण में शीघ्र ही तुम्हारा वध करेंगे और तुम्हारी रोती हुई स्त्रियों पर दया करके अपने 'शिशुपाल' नाम को सार्थक करेंगे । सप्तदश सर्ग { सप्तदश और अष्टादश सर्ग में सेना की तैयारी का एवं योद्धाओं के सनद्ध होने का वर्णन किया गया है । इस प्रकार शिशुपाल के दूत के प्रचण्डवायु की तरह गम्भीर कटु एवं श्लिष्ट वचन कहने पर भगवान् श्रीकृष्ण की वह सभा तुरन्त ही अत्यन्त क्षुब्ध हो उठी । सभा में उपस्थित सभी राजालोगों के शरीर क्रोध से लाल हो गये, पसीना बहने लगा । हथेलियों से अपनी जाँघों को पीटते हुए दाँतों से ओंठों को काटने लगे । बलरामजी दूत के वचनों को सुनकर तिरस्कार पूर्वक अट्टहास करने लगे । इसी प्रकार उल्मुक, युधाजित्, आहुकि, सुधन्वा, मन्मथ, पृथु तथा अक्रूर आदि वीर क्रोधावेश में तत्काल ही शिशुपाल को नष्ट कर देना चाहने लगे । ___इस प्रकार अत्यन्त क्रुद्ध यदुवंशी राजाओं द्वारा खूब फटकारे जाने पर वह दूत सभा से चला गया और तुरन्त ही श्रीकृष्ण की सेना में युद्ध की तैयारी होने लगी और Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 55 ] भयानक नगाड़े, बजने लगे । युद्ध की वार्ता से प्रसन्न यादव-शूरवीरों ने कवच धारण कर हाथियों और घोड़ों को युद्धोपयुक्त साज-सज्जा से तैयार करने को सेवकों को निर्देशित किया । तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण अनिवार्य अस्त्रों से युक्त होकर अपने रथपर आरूढ हो गये । पक्षिराज गरुड़ भी स्वर्ग से उतरकर भगवान् श्रीकृष्ण के रथ की ध्वजा पर आकर बैठ गये । गरुड़ के बैठते ही श्रीकृष्ण का रथ चल पड़ा । तत्पश्चात् उनकी सेना चल पड़ी । सेना के हाथियों – की चिंघाड़ एवं घोड़ों की हिनहिनात्मक शब्दों से तथा नगाड़ों की कर्णविदीर्ण करने वाली ध्वनि से आकाश विदीर्ण होने लगा, गम्भीर ध्वनि सुनकर कन्दराओं में सोये हुए सिंह निकलकर भागने लगे । दिशाएं धूलि-धूसरित हो गयीं । भगवान् श्रीकृष्ण ने शत्रु सेना को देखकर उसकी संख्या का अनुमान कर लिया । शत्रुपक्षीय सैनिक यादव-सैनिकों को देखकर अपने अपने शस्त्रों को लेकर आगे बढ़ने लगे । यादव सैनिक भी शत्रुओं के सम्मुख तीव्र वेग से बढ़ने लगे । रणक्षेत्र के इस दृश्य को देखकर सुन्दर वीरों को वरण करने की अभिलाषिणी अप्सराओं ने प्रथम समागम के योग्य श्रृङ्गार करना प्रारम्भ कर दिया । रत्नजटित कवचों को धारण करने से वीर सैनिकों के शरीर ऐसे दिखाई दे रहे थे मानों वे बाणों से बिधे हुए हों । रण-क्षेत्र की धूलि आकाश में स्थित मेघों के ऊपर चली गयी । वीर सैनिकों के शिर धूलि-धूसरित होने से पके-केशों से युक्त से दिखाई दे रहे थे । सूर्य धूलि-मण्डल से आच्छादित होने से सर्वत्र अन्धकार हो गया । अन्धकार में कुछ भी नहीं दिखलायी देने पर भी हाथी मद जल की गन्ध सूंघकर प्रतिद्वन्द्वी हाथियों के साथ लड़ने के लिये आगे बढ़ रहे थे । सातों स्थानों से मद-जल बहाते हुए सेना के गजराजों ने रणक्षेत्र की धूलि-राशि को सिंचित कर शान्त कर दिया था । अष्टादश सर्ग रणक्षेत्र से हटने की थोड़ी भी इच्छा न करने वाले दोनों पक्षों के सैनिक एक दूसरे से वेगपूर्वक भिड़ गए । पैदल पैदल से, घोड़े घोड़ों से, हाथी हाथी से तथा रथी रथी से भिड़ गये । रणभेरी की गम्भीर ध्वनि, रथों की घरघराहट, हाथियों की भीषण चीत्कार तथा घोड़ों की हिनहिनाहट ने परस्पर मिलकर एक तुमुल अव्यक्त ध्वनि को उत्पन्न कर दिया था । धनुषधारी अपने धनुषों को गोलाकार बनाते हुए टंकार-ध्वनि उत्पन्न कर रहे थे । कोई दो योद्धा क्रोध के आवेश के वेग में एक दूसरे के सम्मुख पहुँचकर और अपने शस्त्रों को डालकर एक दूसरे का हाथ पकड़कर मल्लों की भाँति मुक्केबाजी करते हुए बाहु युद्ध करने लगे थे । दोनों सेनाओं के परस्पर मिलजाने से अपना-पराया पक्ष जानना बड़ा कठिन हो रहा था । शत्रु के तीक्ष्ण खड्ग से श्यामल कवच कट जाने के कारण वीर सैनिक के शरीर की रक्त धारा बादल में विद्युत की तरह दिखाई दे रही थी । नाक के मार्ग से छाती तक बाण के घुस जाने से घोड़े हिनहिनाते हुए त्रस्त हो रहे थे । कोई हाथी प्रतिद्वन्द्वी हाथी के शरीर में प्रविष्ट अपने दांतों को बार-बार गर्दन हिलाकर बड़ी कठिनता से निकाल रहा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 56 ] था । रक्त में लिप्त हुए उनके लाल-लाल दाँत समुद्र में उत्पत्र होने वाले प्रवालांकुर के सदृश दिखाई दे रहे थे । कोई गजराज किसी वीर को उठाकर जमीन पर पटक रहा था और अन्य हाथी किसी वीर सैनिक को लकड़ी के समान बीच से चीर रहा था । रणक्षेत्र में प्रवाहित रक्तधारा की गन्ध पाकर एक गजराज पागल हो उठा और क्रोध से लोगों को कुचलने लगा । शत्रु के तीक्ष्ण बाण से किसी वीर का कण्ठ कट कर राहु जैसा हो गया । मृतक राजाओं के वक्षःस्थल से गिरे हुए कुंकुम से अनुरंजित मोतियों के हार, रक्तरूपी आसव का पान करने वाले यमराज के दातों की पंक्तियों जैसे दिखाई दे रहे थे । रणक्षेत्र में एकत्र रन यमराज की मुन्दरियों के दुपट्टों को रंगने के लिये रखे हुए कुसुम्भी रंग जैसा दिखाई दे रहा था । रक्त की धारा में कमल के समान वीरों के मुख बह रहे थे । पक्षिगण मांस खाने की इच्छा से मरे हुए वीरों के ऊपर मँडरा रहे थे । श्रृगाली अग्नि-ज्वाला को बाहर निकालती हुई विलाप कर रही थी । श्रृगाल मृतकों के शरीर के कलेजों को खा रहे थे । और हुआ-हुँआ' शब्द कर रहे थे । मांसभक्षण करने वाले पशु-पक्षिगण चरबी के लोभ से रण-भूमि में पड़े हुए नगाड़ों के मुख फाड़ डाल रहे थे । इस प्रकार वह रणक्षेत्र मरे हुए प्राणियों के अङ्ग-प्रत्यङ्गों से सब ओर से व्याप्त होकर ऐसा दिखाई दे रहा था मानों लगभग पूर्णतया निर्मित एवं अर्ध-निर्मित आकृति समूहों से व्याप्त विधाता का विशाल सृष्टि-निर्माण स्थल हो । दोनों पक्षों की सेनाएँ जय-पराजय के सन्देह में दोले का रूप धारण कर तुमुल-कोलाहल मचा रही थीं । एकोनविंश सर्ग { इसमें कविने द्वन्द्व-युद्ध का वर्णन अनुष्टुपछन्द में चित्रकाव्य का आश्रय लेकर किया है। भीषण युद्ध के अनन्तर बाणासुर का पुत्र वेणुदारी शत्रुरूपी बाँसों को जलाने वाली अग्नि के समान रणक्षेत्र में युद्धार्थ उठ खड़ा हुआ । किन्तु केसरी के सम्मुख वह टिक न सका, महापराक्रमी बलरामजी ने सिंह के समान गरजते हुए अपने बाणों के आघात से उसे मूच्छित कर दिया । पश्चात् उसका सारथी उसे रण क्षेत्र से लेकर भाग गया । तदनन्तर शिनि तथा रुक्मी आदि सभी वीरों ने एक साथ प्रद्युम्न पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया, किन्तु प्रद्युम्न ने अकेले ही चारों ओर से एक साथ दौड़कर आती हुई शत्रु राजाओं की सेनाओं को इस प्रकार रोका जिस प्रकार चारों ओर से आती हुई नदियों को अकेला समुद्र रोक लेता है । उस अवसर पर शत्रुओं के चमकीले बाणों से विद्ध उस प्रद्युम्न का शरीर मंजरी युक्त विशाल वृक्ष के समान परिलक्षित हो रहा था । उसके तीव्र गति से चलने वाले बाण कभी विफल नहीं होते थे । क्षणमात्र में ही उसके पराक्रम के कारण शत्रु-सेना में भगदड़ मच गयी । रणक्षेत्र में उसकी वीरता को देखकर देवतागण प्रशंसा करने लगे । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 57 ] भय के कारण शत्रुपक्षीय योधाओं का सिंह नाद बन्द हो गया । यह देखकर शिशुपाल क्रुद्ध हो उठा । और अपनी सेना के साथ उसकी ओर दौड़ पड़ा । उस समय शिशुपाल की वह विकट शस्त्रों से युक्त सेना काव्य-रचना के समान सर्वतोभद्र ( १९।२७ ) चक्रबन्ध (१९। १२० ) गोमुत्रिकाबन्ध (१९। ४६ ) मुरजबन्ध (१९। २९ ) अर्धभ्रमकबन्ध (१९। ७२ ) आदि से युक्त दुर्जय दिखाई दे रही थी । रणक्षेत्र में यादव सेना के सम्मुख आते ही वह यादव सेना पर आक्रमण करने लगी दोनों सेनाओं में भीषण संग्राम प्रारम्भ हुआ । उस भयंकर युद्ध को देखकर आकाशगामी विद्याधर लोग भी आश्चर्य करने लगे । सेना के अगणित हाथियों, घोड़ों तथा सैनिकों का वध करता हुआ शिशुपाल तीव्र गति से आगे बढ़ रहा था । यादवों की सेना संत्रस्त हो रही थी । इस प्रकार शिशुपाल की विजय को सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण का पाञ्चजन्य-शंख-बज उठा । अत्यन्त देदीप्यमान रथारूढ होकर महाधनुष लिये हुए श्रीकृष्ण रणक्षेत्र में आ पहुँचे । उनके आ पहुँचते ही शंख-ध्वनि से आकाश कंपित हो उठा । क्षण भर में ही शिशुपाल की वह सप्त-पंक्तिबद्ध सेना (व्यूह-रचना ) श्रीकृष्ण के एक ही बाण से छिन्न-भिन्न हो गई । भू–भार-भूत शिशुपालपक्षीय वीर राजा लोगों को श्रीकृष्ण ने नष्ट कर दिया । उस अवसर पर क्रोधादीप्त होकर भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा छोड़े हुए बाणों से आकाश आछादित हो गया और सूर्य अदृश्य सा प्रतीत होने लगा । विंश सर्ग { इस सर्ग में महाकवि माघ ने उपसंहार रूप में युद्ध वर्णन कर शिशुपाल के जीवन के साथ ही काव्य को समाप्त कर दिया है ।) इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के अतुलित पराक्रम को न सहन कर सकने के कारण शिशुपाल की भृकुटियाँ वक्र हो गयीं, उसके विशाल ललाट पर उभरी हुई तीन वक्राकार रेखाएँ उसके मुख को और अधिक विकराल बनाने लगी । वह निर्भय होकर श्रीकृष्ण को युद्ध के लिये ललकारने लगा । उसने बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी । उसके असंख्य बाणों से आकाश पूर्णत: आच्छन्न हो गया । उसके असंख्य बाणों ने यादवी सेना को एक कटघरे जैसे में बन्द कर दिया, जिसमें वह हिल भी नहीं सकती थी । उसमें से निकलने का कोई मार्ग नहीं था । शिशुपाल के वज्र के समान धनुष-टंकार की ध्वनि से पृथ्वी कम्पित हो रही थी । यह दृश्य देखकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने धनुष को शिशुपाल की ओर तान दिया । क्षणमात्र में ही उन्होंने शिशुपाल के समस्त बाणों को काटकर नीचे गिरा दिया । यह देखकर यादवी सेना जयघोष करती हुई प्रफुल्लित हो उठी। श्रीकृष्ण इतने तीव्र वेग एवं त्वरा से बाण छोड़ रहे थे कि दर्शकों की दृष्टि उन पर टिक नहीं रही थी । भगवान श्रीकृष्ण के इस चमत्कार को देखकर शिशपाल ने 'स्वापनास्त्र' का प्रयोग किया । किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के कौस्तुभमणि के प्रकाश में वह विलीन हो गया Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [58] और उस अस्त्र के ईषत् प्रभाववश सुप्तावस्था में पड़ी हुई यादवी सेना पुनः सचेत होकर पूर्ववत् युद्ध करने लगी । तत्पश्चात् शिशुपाल ने नागास्त्र का प्रयोग किया जिससे यादवी सेना को बड़ी-बड़ी फणाओं वाले विषैले सर्पों ने फूत्कार मारकर सेना को जकड़ लिया । किन्तु भगवान् के रथ की ध्वजा पर बैठे हुए गरुड़ ने श्रीकृष्ण का संकेत प्राप्त कर तत्काल अनेक रूपों को धारण किया, रणक्षेत्र में उनके उड़ने से सर्प भयभीत होकर पाताल में प्रविष्ट हो गये । तत्पश्चात् क्रुद्ध शिशुपाल ने 'आग्नेयास्त्र' का प्रयोग किया, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के 'मेघास्त्र' के प्रभाववश वह भी विफल हो गया । इस प्रकार शिशुपाल के सभी प्रयत्न विफल हो जाने पर वह मर्मस्पर्शी कटुवचनों से भगवान् श्रीकृष्ण को उत्तेजित करने लगा । राजसूय यज्ञ में शिशुपाल के अभद्र वाणी से सन्तप्त हुए भगवान् श्रीकृष्ण इस बार संग्राम में उसके अधम-स्तर के व्यवहार को सहन नहीं कर सके । अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल की गर्दन को काट दिया । शिशुपाल का सिर कटकर जब पृथ्वी पर गिरा तब रणक्षेत्र में उपस्थित समस्त राजाओं ने प्रत्यक्ष देखा कि क्षण भर में एक परम दीप्तिमान् तेज शिशुपाल के शरीर से निकलकर भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर में प्रविष्ट हो गया । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित तथा लोकोक्तियाँ क्र० सर्ग० श्लोक १ १ १४ २ १ १७ ३ १ २६ ४ १ ३८ ६७ ७२ ७३ ७ ८ १ २ २ १२ १३ २३ f ર૭ १२ १३ १४ २ २ २ ३१ ३३ ३४ गृहानुपैतुं प्रणयादभीप्सवो भवन्ति नापुण्यकृतां मनीषिणः । ग्रहीतुमार्यान् परिचर्यया मुहुर्महानुभावा हि नितान्तमर्थिनः । अथ वा श्रेयसि केन तृप्यते ? ऋते रवेः क्षालयितुं क्षमेत कः क्षपातमस्काण्डमलीमसं नभः । सदाभिमानकधना हि मानिनः । सतीव योषित्प्रकृतिः सुनिश्चला पुमांसमभ्येति भवान्तरेष्वपि । शुभेतराचाविपक्त्रिमापदो निपातनीया हि सतामसाधवः । उत्तिष्ठमानस्तु परो नोपेक्ष्यः पथ्यमिच्छता । ज्ञातसारोऽपि खल्वेकः सन्दिग्धे कार्यवस्तुनि । ...............महीयांस प्रकृत्या मितभाषिणः । इन्धनौघधगष्यग्निस्त्विषा नात्येति पूषणम् । अनिर्लोडितकार्यस्य वाग्जालं वाग्मिनो वथा । तृप्तियोगः परेणापि महिम्ना न महात्पनाम् । समूलपातमघ्नतः परात्रोद्यन्ति मानिनः । विपक्षमखिलीकृत्य प्रतिष्ठा खलु दुर्लभा । ध्रियते यावदेकोऽपि रिपुस्तावत्कुतः सुखम् । उपकारिणा सन्धिर्न मित्रेणापकारिणा । बद्धमूलस्य मूलं हि महदूवैतरोः स्त्रियः । कथापि खलु पापानामलमश्रेयसे यतः । तुङ्गत्वमितरा नाद्रौ नेदं सिंधावगाधता । अलवनीयता हेतुरुभयं तन्मनस्विनि ।। तेजस्विमध्ये तेजस्वी दवीयानपि गण्यते । चतुर्थोपायसाध्ये तु रिपौ सान्त्वमपक्रिया । सामवादा: सकोपस्य तस्य प्रत्युत दीपकाः । सामानाधिकरण्यं हि तेजस्तिमिरयोः कुतः ? सर्वः स्वार्थ समीहते । निर्धारितेऽर्थे लेखेन खलुक्त्वा खलु वाचिकम् । उपायमास्थितस्यापि नश्यन्त्यर्थाः प्रमाद्यतः ।। तेजः क्षमा वा नैकान्तं कालज्ञस्य महीपतेः । नैकमोजः प्रसादो वा रसभावविदः कवेः ।। ३५ १६ १७ १८ २ २ २ ३७ ३८ ४० ४८ २ ५५ २७ २८ २ २ २ ७० ८० ८३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र० सर्ग० श्लोक २६ २ ८५ ३० २ ६४ ३१ २ १०० ३२ २ १०४ ३३ २ १०५ ३४ २ १०७ ३५ २ १०६ ३६ ३ ३७ ३८ ३६ ४० ५ ४१ ४२ ४३ ५ ४४ ४५ ४६ mr 20 ४८ ४ ܚ ܒ ܒ ܒ ܒ ܒ ܒ ܒ ܒ ܒ ५५ ५६ ५७ ५८ ५ ५ ५ १४ ५ ५ ५ ४७ ६ ५ ६ ४६ ६ ww g ५० ५१ ७ ५२ ७ ५३ ५४ ७ 6 6 6 6 ७ U U ८ ३१ १७ ६ ८ 30 1 2 3 30 १६ ३७ ४१ ४२ ४४ ४७ ४६ ४४ ४५ ६३ १ ३८ ४३ ५० ५२ ६१ ६८ ७ १० [ 60 ] मृदु व्यवहितं तेजो भोक्तुमर्थान् प्रकल्पते । अयथाबलमारम्भो निदानं क्षयसम्पदः । बृहत्सहायाः कार्यान्तं क्षोदीयानपि गच्छति । महात्मानोऽनुगृह्णन्ति भजमानान् रिपूनपि । छन्दानुवृत्तिदुःसाध्याः सुहृदो विमनीकृताः । अमृतं नाम यत्सन्तो मन्त्रजिह्वेषु जुह्वति । तीक्ष्णा नारुन्तुदा बुद्धिः कर्म शान्तं प्रतापवत् । नोपतापि मनः सोष्म वागेका वाग्मिनः सतः । अनेकशः संस्तुतमप्यनल्पा नवं नवं प्रीतिरहो करोति । क्षणे क्षणे यन्त्रवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः । सर्वः प्रियः खलु भवत्यनुरूपचेष्टः । सर्वे हिनोपगतमप्यपचीयमानं वर्धिष्णुमाश्रयमनागतमभ्युपैति ।। संघर्षिणा सह गुणाभ्यधिकैर्दुरासम् ।। दानं ददत्यपिजलैः सहसाधिरूढेको विद्यमानगतिरासितुमुत्सहे ।। आकान्तितो न वशमेति महान परस्य ।। नान्यस्य गन्धमपि मानभृतः सहन्ते ।। नैवात्मनीनमथवा क्रियते मदान्धैः । शास्त्रं हि निश्चितधियां क्वन सिद्धिमेति ॥ मन्दोऽपि नाम न महानवगृह्य साध्यः ।। समय एव करोति बलाबलम् । परिभवोऽरिभवो हि सुदुःसहः । उपचितेषु परेष्वसमर्थतां व्रजति कालवशाद् बलवानपि । अभिराद्धमादृतानां भवति महत्सु न निष्फल: प्रयास:) स्फुटमभिभूषयति स्त्रियस्त्रपैव । भवति हि विक्लवता गुणोऽङ्गनानाम् । त्वरयति रन्तुमहो जनं मनोभूः । किमिव न शक्तिहरं ससाध्वसानाम् । न परिचयो मलिनात्मनां प्रधानम् । मृदुतरतनवोऽलसाः प्रकृत्या चिरमपि ताः किमुतप्रयासभाजः । बुद्ध्वा वा जितमपरेण काममाविष्कुर्वीत स्वगुणमपत्रपः क एव । औचित्यं गणयति को विशेषकामः । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र० सर्ग० श्लोक ५६ ८ १२ ६० ८ १८ ६१ २० ६२ २२ ६३ २४ ६४ ६५ 8 5 8 m m m m ६६ ६७ ६८ ६६ ७० ७२ ८ ७३ ७४ ८ U . ८ ८ μ ८ ८ UU S - ७१ ६ w w mm २८ ४५ ५४ ८५ १० ८६ १० ८७ १० ५५ ५७ ६० ६६ ५ ६ १२ १६ ७५ ६ २३ ७६ ६ २६ ७७ ६ ३३ ७८ ६ ४३ ७६ ६ ४८ το ६ ५१ ८१ ६ ५७ ८२ ६ ६२ ८३ ६ ६८ ८४ ६ ६६ ५ १८ २१ τη १० २८ ८६ १० ३५ ६० १० ७६ [ 61 ] प्रादुःष्यात्क इव जितः पुरः परेण । उद्वृत्तः क इव सुखावहः परेषाम् । विपदि न दूषितातिभूमिः । लब्धस्पर्शानां भवति कुतोऽथवा व्यवस्था । क्षुभ्यन्ति प्रसभमहो विनापि हेतोर्लीलाभिः किमुसति कारणे रमण्यः । युक्तानां विमलतया तिरस्क्रियायै नाक्रामन्नपिहि भवत्यलं जलौघः । कस्मिन्वा सजलगुणे गिरां पटुत्वम् । आरूढः पतित इति स्वसम्भवोऽपि स्वच्छानां परिहरणीयतामुपैति । शोभायै विपदि सदाश्रिताभवन्ति । चक्षुष्यः खलु महतां परैरलङ्घ्यः । ....अवधीरतानामप्युच्चैर्भवति लघीयसां हिधाट्यम् । नैवाहो विस्मति कौतुकं प्रियेभ्यः । ..अस्तसमयेऽपि सतामुचितं खलूच्चतरमेवपदम् । प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ विफलत्वमेति बहुसाधनता । अपदोषतैव विगुणस्य गुणः । चपलाजनं प्रति न चोद्यमदः । लघवः प्रकटीभवन्ति मलिनाश्रयतः । दधति ध्रुवं क्रमश एव न तु द्यूतिशालिनोऽपि सहसोपचयम् । अविलम्बित कममहो महतामितरेतरोपकृत्तिमच्चरितम् । समये हि सर्वमुपकारि कृतम् । भजते विदेशमधिकेन जितस्तदनु प्रवेशमथवा कुशल: क्षममस्य बाढमिदमेव हि यत्प्रियसङ्गमेष्वनवलेपदमः किमु चोदिताः प्रियहितार्थकृतः कृतिनो भवन्ति सुहृदः सुहृदाम् ? सुहृदर्थमीहितमजिह्मधियां प्रकृतेविराजति विरुद्धमपि । विषतां निषेवितमपक्रियया समुपैति सर्वमिति सत्यमदः विदितङ्गिते हि पुरएव जने सपदीरिताः खलु लगन्ति गिरः । भ्रान्ति भाजि भवति क्व विवेक: ? स्वां मदात्प्रकृतिमेति हि सर्वः । दुस्त्यजः खलु सुखादपि मानः । निवृत्तिहि मनसा मदहेतुः । न क्षमं भवति तत्त्वविचारे मत्सरेण हतसंवृतिचेत: । आनुकूलिकतया हि नाराणामाक्षिपन्ति हृदयांनि तरुण्यः । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 62 ] क्र० सर्ग० श्लोक ६१ ११ २५ ६२ ६३ ६४ ६५ ११ ३३ ११ ३५ ११ ५७ ११ ५६ १०१ १३ १०२ १३ १०३ १४ १०४ १४ १०५ १४ १०६ १४ १०७ १४ १०८ १४ १०६ १४ ८ १३ १४ परपरिभवि तेजस्तन्वतामाशु कर्तु प्रभवतिहि विपक्षोच्छेदमग्रेसरोऽपि ।। ........कामिनां मण्डनश्रीव्रजति हि सफलत्वं वल्लभालोकनेन ।। करुणमपि समर्थ मानिनां मानभेदेरुदितमुदितमस्रं योषितां विग्रहेषु ।। निरसितुमरिमिच्छोर्ये तदीयाश्रयेण श्रियमधिगतवन्तस्तेऽपि हन्तव्यपक्षे ।। नियतविषयवृत्तेरप्यनल्पप्रतापक्षतसकलविपक्षस्तेजसः स स्वभावः ।। हतविधिलसितानां ही विचित्रो विपाकः ।। दाक्ष्यं हि सद्यः फलदम् ।। नि:शेषमाक्रान्तमहीतलो जलैश्चलन्समुद्रोऽपिसमुज्झशि स्थितिम् ।। प्रायेण नीचानपि मेदिनीभृतो जनः समेनैवपथाधिरोहति ।। मदमूढबुद्धिषु विवेकिता कुतः ? ।। महतां हि सर्वमथवा जनातिगम् ।। महतीमपि श्रियमवाप्य विस्मयः सुजनो न विस्मरति जातु किंचन ।। लज्जते न गदित: प्रियं परो वक्तुरेव भवति त्रपाधिका ।। तोषमेति वितथैःस्तवैः परस्ते च तस्य सुलभाः शरीरिभिः।। को विहन्तुमलमास्थितोदये वासरश्रियमशीतदीधितौ ।। किं परस्य स गुण: समश्नुते पथ्यवृत्तिरपि यद्यरोगिताम्।। उद्धृतौ भवति कस्य वा भुवः श्रीवराहमपहाय योग्यता ।। वर्षकस्य किमपः कृतोत्रतेरम्बुदस्य परिहार्यमूषरम् ।। स्नातकं गुरुमभीष्टमृत्विजं संयुजा च सह मेदिनीपतिम् अर्घभाज इति कीर्तयन्ति षट्....।। परवृद्धिमत्सरि मनो हि मानिनाम् ।। १।। याति विकृतिमपि संवृतिमत्किमु यानिसर्गनिरवग्रहं मनः ।। दयितं जनः खलु गुणीति मन्यते ।। तव कर्मणैव विकसत्यसत्यता ।। भौमदिनमभिदधत्यथवा भृशमप्रशस्तमपि मङ्गलंजना: स्फुटमापदां पदमनात्मवेदिता । हासकरमघटते नितरां शिरसीव कङ्तमपेतभूर्धजे ।। ननु सर्व एव समवेक्ष्य कमपि गुणमेति पूज्यताम् । चपलात्मिका प्रकृतिरेव ही दृशी । सत्यनियत वचसं वचसा सुजनं जनाश्चलयितुं क ईशते ?।। प्रभुचित्तमेव हि जनोऽनुवर्तते ।। ४६ ५५ ११४ ११० १५ १११ १५ ११ ११२ ११३ १५ १७ ११५ १५ २२ ११६ १५ ३३ ११७ १५ क्षे० १ ११८ १५. १४ ११६ १५ ४० १२० १५ ४१ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 63 ] क्र० सर्ग० श्लोक १२१ १५ ४३ १२२ १६ २० १२३ १६ २२ १२४ १६ १२५ १६ १२६ १६ १२७ १२८ १२६ १६ २६ १३० १६ ३१ १३१ १६ १३२ १६ ३५ ३६ स्मर्तुमधिगतगुणस्मरणा पटवो न दोषमखिलं खलूत्तमाः ।। न्यसनाय ससौरभस्य कस्तरुसूनस्य शिरस्यसूयति । उपकारपरः स्वभावतः सततं सर्वजनस्य सज्जनः ।। परितप्यत एव नोत्तमः परितप्तोऽप्यपरः सुसंवृतिः । परवृद्धिभिराहितव्यथ: स्फुटनिर्भिनदुराशयोऽधमः । अनुहुकुरुते घनध्वनिं न हि गोमायुतानि केसरी । जितरोषरया महाधियः, सपदि क्रोधजितो लघुर्जनः । वचनैरसतां महीयसो न खलु व्येति गुरुत्त्वमुद्धतैः । परितोषयिता न कश्चन स्वगतो यस्य गुणोऽस्ति देहिनः । परदोषकथाभिरल्पकः स्वजनं तोषयितुं किलेच्छति ।। सहजान्धदृशः स्वदुर्नये परदोषेक्षणदिव्यचक्षुषः । स्वगुणोच्चगिरो मुनिव्रताः परवर्णग्रहणेष्वसाधवः ।। किमिवाखिललोकीर्तितं कथयत्यात्मगुणं महामनाः । वदिता न लघीयसोऽपरः स्वगुणं तेन वदत्यसौ स्वयम् ।। महतस्तरसा विलघयनिजदोषेण कधीविनश्यति । विविनक्ति न बुद्धिदुर्विधः स्वयमेव स्वहितं पृथग्जनः । विदुरेष्यपायमात्मना परतः श्रद्धधतेऽथवा बुधाः । न परोपहितं न च स्वतः प्रमिमीतेऽनुभवादृतेऽल्पधीः ।। उपदेशपराः परेष्वपि स्वविनाशाभिमुखेषु साधवः । अथवाभिनिविष्टबुद्धिषु व्रजति व्यर्थकतां सुभाषितम् । अनपेक्ष्य गुणागुणौ जनः स्वरुचिं निश्चयतोऽनुधावति । प्रियमांसमृगाधिपोज्झितः किमवद्यः करिकुम्भजो मणिः ? ।। क्रियते धवल:खलूच्चकैर्धवलैरिव, सितेतरैरधः ।। सहसि प्लवगैरूपासितं न हि गुञ्जाफलमेति सोष्मताम् प्रलयोल्लसितस्य वारिधेः परिवाहो जगतः करोति किम्? || न परेषु महौजसश्छलादपकुर्वन्ति मलिम्लुचा इव ।। भजते कुपितोऽप्युदारधीरननीति नतिमात्रकेण सः ।। घनाम्बुभिर्बहुलितनिम्नगाजलैर्जलं न हि व्रजति विकारमम्बुधेः ।। पयस्यभिद्रवति भुवं युगावधौ सरित्पतिर्नहि समुपैतिरिक्तताम् । विलम्बितुं न खलु सहा मनस्विनो विधित्सतः कलहमवेक्ष्य विद्विषः । ससंहतैर्दधदपि धाम नीयते तिरस्कृतिं बहभिरसंशयं परैः ।। १३३ १६ १३४ १६ १३५ १६ ४३ ४४ १३६ १४० १६ १४१ १६ १४२ १६ १४३ १७ १४४ १७ १४५ १७ १४६ १७ ५६ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 64 ] क्र० सर्ग० श्लोक १४७ १८ २३ १४८ १६ ६४ १४६ १८ ६६ १५० १६ ६६ कर्मोदारं कोर्तये कर्तुकामान् किं वा जात्या: स्वामिनो हेपयन्ति ? का च लोकानुवृत्तिः ? योग्येनार्थ: कस्य न स्याज्जनेन ? । दानेषु स्थूल लक्ष्यत्वं नहि तस्य शरासने । शुद्धया युक्तानां वैरिवर्गस्य मध्ये भर्चा क्षिप्तानामेतदेवानुरूपम् । भवति स्फुटमागतो. विपक्षात्र सपक्षोऽपि हि निर्वृते विधाता । ननु वारिधरोपरोधमुक्तः सुतरामुत्तपते पतिः प्रभाणाम् । उपकृत्य निसर्गतः परेषानुपरोधं न हि कुर्वते महान्तः ।। १५१ १६ १५२ २० १५३ २० १५४ २० ११६ २६ ४० ७४ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सर्ग १. वंशस्थवृत्त इस संपूर्ण सर्ग में है । २. पुष्पिताग्रा ७४ ३. शार्दूलविक्रीडित - द्वितीय सर्ग १. इस सर्ग में अनुष्टुप छन्द है । २. औपच्छन्दसिक, वृत्त ११६ अन्त में है । ८. जलधरमाला ३० ९. द्रुतविलंबित ३२ १०. वंशस्थ ३३ ३. द्रुतविलंबित ११७ ४. मालिनी छन्द अन्त में है । - ११८ तृतीय सर्ग १. उपजाति ( इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा का मिश्रण ) संपूर्ण सर्ग में है । २. पंचकाबली रुचिरा अथवा धृतश्री अन्त में । चतुर्थ सर्ग १. उपजाति छन्द १-१८ श्लोक तक २७, ६३ २. वसन्ततिलका १९,२२,२५, ४९, ५२, ६१, ६४ ३. पुष्पिताग्रा २० २९, ५०, ५६ ४. द्रुतविलंबित २१, ६० ५. शालिनी छन्द २३ ६. पथ्या छन्द २४ ७. प्रहर्षिणी २६, ५३, ५९ - ११. प्रमिताक्षरा ३६ १२. प्रहर्षिणी ३८ १३. मत्तमसूर ४४ १४. दोधक ४५ छन्द १७. जलोद्धतगति ५४ १८. रथोद्धता ५७ १९. भ्रमरविलसित ६२ २०. मालिनी ६५, ६८ २१. पृथ्वी ६६ २२. वंशपत्रपतित ६७ पञ्चम सर्ग १. वसन्ततिलका छन्द सम्पूर्ण सर्ग में है । २. शिखरिणी छन्द अन्त में है । षष्ठ सर्ग ६७ ६८ १. द्रुतविलम्बित छन्द पूरे सर्ग में है । २. प्रभावृत्त ३. स्वागतवृत्त ४. उपजातिवृत्त - ६९ ५. औपच्छन्दसिक वृत्त ६. तोटकवृत्त ७१ ७. कुटजाछन्द ७३ ८. उपजातिछन्द ९. मत्तमयूरवृत्त १०. वसन्ततिलका ११. द्रुतविलम्बित - - 1 - - 1 ७४ ७६ - ७१ ७७, ७९ ७८ सप्तम सर्ग १. पुष्पिताग्रा छन्द पूरे सर्ग में २. मंदाक्रान्ता छन्द है ७४ ३. मालिनी अन्त में । अष्टम सर्ग १. प्रहर्षिणी सर्ग इसमें है । २. अति शायिनी वृत्त अन्त में है । नवम सर्ग १. प्रमिताक्षस पूरे सर्ग में है । १५. स्कंधक अथवा अष्टगण आर्यागीति ४८ २. वंशस्थ १६. आर्यागीति ५१ शि० भू० 5 ८६ ३. मन्दाक्रान्ता, अन्त में । I Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 66 ] दशम सर्ग ३. उपेन्द्रवजा – ११८, १. स्वागता छन्द पूरे सर्ग में है । ४. वैश्व देवी - ११९ २. मालिनी वृत्त अन्न में ।। ५. सर्वतोभद्र - २७ एकादश सर्ग ६. मुरजबन्ध - २९ १. इस सर्ग में मालिनी छन्द है । ७. अर्धभ्रमक – ७२ २. महामालिका छन्द अन्त में है । ८. चक्रबन्ध – १२० द्वादश सर्ग ९. समुद्ग – ११८ १. उपजाति पूरे सर्ग है । १०. अर्थत्रयवाची - ११६ २. हरिणी छन्द अन्त में है । ११. एकाक्षर - ११४ त्रयोदश सर्ग १२. अतालव्य - ११० १. मंजुभाषिणी छन्द पूरे सर्ग में है । १३. द्वयक्षर - ६६, ८४,८५,८६,८७, २. रमणीक वृत्त अन्त में । ९४,९८,९९,१००,१०२,१०४,१०६,१०८ चतुर्दश अर्ग १. रसोद्धताछन्द पूरे स. में है । १४. गूढचतुर्थ – ९६ २. वसन्त तिलका छन्द अन्त से प्रथम । १५. प्रतिलोम - ३३, ३४, ९० ३. प्रहर्षिणी छन्द अन्त में । १६. गत प्रत्यागतम् – ८८, ८९ पञ्चदश सर्ग १७. असंयोग - ९८ १. उद्गता छन्द पूरे सर्ग में है । १८. समुद्गयकम् – ५८ २. स्त्रग्धरा छन्द अन्त में । १९. गोमूत्रिकाबन्ध - ४६ षोडश सर्ग २०. प्रतिलोमानुलोमपाद - ४० १. वैतालीय छन्द इस सर्ग में है । २१. प्रतिलोमार्ध - ४४ २. प्रहर्षिणी छन्द - ८२ २२. एकाक्षर पाद - ३ ३. शार्दूलविक्रीडित वृत्त – ८४ विश सर्ग ४. औपच्छन्दसिक वृत्त-८०, ८५ १. इसमें औपच्छन्दसिक वृत्त है । ५. मालिनी छन्द - ८३ २. मालिनी वृत्त – ७६ सप्तदश सर्ग ३. वसन्ततिलका वृत्त - ७७ १. रुचिरा छन्द पूरे सर्ग में है । ४. शार्दूलविक्रीडित वृत्त – ७८ २. शार्दूल विक्रीडित छन्द अन्त में है । ५. मेघविस्फूर्जिता वृत्त ७९ अष्टादश सर्ग कविवंश वर्णनम् १. शालिनी वृत्त पूरे सर्ग में है । २. मन्दाक्रान्ता छन्द अन्त में । १. उपजाति वृत्तम् - १ एकोनविंश सर्ग २. आख्यानकी वृत्तम – ३ १. इसमें अनुष्टुप छन्द, चित्रबन्ध के साथ । ३. इन्द्रवजा वृत्तम् - ४ २. शार्दूलविक्रीडितम् - १२०, ४. वसन्ततिलका वृत्तम् - ५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 67 ] पौराणिक कथाएँ प्रथम सर्ग सर्ग श्लोक ब्रह्मापुत्र-नारद के जन्म की कथा, भाग० १, ५, ६ वायु० ५२.३; ६१.८५; १०५.२ अनूरु = अरुण की कथा, भाग० ६.६.२२ कृत्तिवास- गजासुर की कथा, ब्रह्मा० २.९.६९ मत्स्य० १८१.१४ वायु० २१.५१ १५ चिरन्तनमुनि नरनारायण की कथा, मत्स्य० १७०.१ कैटभारि – (कैटभ नामक दैत्य) १७८.६ - १८ भाग ३ - २४,१८, ६.१२.१; १०.४०.१७ हिरण्यकशिपु:-रामच० मा० बाल० १२१-१२२ दशमुख रावण-रामच० मा० बाल० १७५-१७६; १७६.१-३ नमुचिद्विषः (इन्द्र) वामनपु० अ० ५२, विष्णु० १.२१.१२ भाग ६.१०.१९ - ३१ ६७-६८ सीताहरण की कथा ६९-७० शिशुपाल के जन्म की कथा-महाभा० आदि ६७.५; १८५.२३ द्वितीय सर्ग ३८ रुक्मिणोहरण की कथा-विष्णु० ५.२८.१-२; भाग १०.५२-५३ ३९ भीमासुर (नरकासुर) के वध की कथा- भाग १०, अ० ५९ 'बभ्रु' – यदुवंशीराजा थे, जब उनकी पत्नी सौवीर देश को जा रही थी, तब शिशुपाल ने, उस पर काममोहित होने के कारण, उसका अपहरण कर लिया था । महाभा० अभापर्व राहु-कथा भाग ८, अ.० ८-९ जरासन्ध कथा- महाभा० सभापर्व बाणासुर कथा- भाग ८.१०.१९,३०, १०.२.२ मत्स्यपु. १८७.२५-४५ ९८ कालयवन कथा- भाग १०-५०.४४-९; ४१.१-१२ विष्णु-५.२३.५-८, १७-२३ १०७ समुद्रमन्थन कथा-मत्स्यपु० २४९.१४ से लेकर अध्याय २५०.२५१ पूरा, वायु० २३.९० आदि Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 68 ] तृतीय सर्ग सर्ग श्लोक ६४ बाणासुर संग्राम में शम्भु की शक्ति के क्षय की कथा बाणासुर की तपस्या, भाग ६.१८.१७-१८, ८.१०.१९-३० चतुर्थ सर्ग रैवतक पर्वत की कथा-भाग ९,२२, २९.३३ हलधर भाग १०.६६.२३ विन्ध्यपर्वत सूर्यभाग में बाधक कथा महाभा० आदिपर्व २०८.७, १० पञ्चम सर्ग पर्वत का पक्षधारी रूप - अग्निपुराण गरुड़ म्लेच्छ कथा-महाभारत आदि पर्व गोवर्धन पर्वत के ऊपर उठाना-भा० स्क० १०, अ० २४-२६ अष्टम सर्ग समुद्रमंथन से १४ रत्न निकालने की कथा । भा०स्क० ५, अ० ५-८ नवम सर्ग ब्रह्माने संध्या को अपनी मूर्तिबनाया । भविष्य पुराण कुएँ में सिंह की परछाई की कथा - कथासरित्सागर, पञ्चतन्त्र, व हितोपदेश । गोत्रभिद् - अग्निपुराण । एकादश सर्ग शकटभंजन - भागवत - १०। ७ समुद्र मन्थन - मत्स्य, १, ९, २४९,१४ से अन्त तक । वायु० २३, ९०, ५२, ३७, ९२, ९, विष्णु - १, ९, ८०-१११, भागवत -८।६, ७ दधीचि का अस्थिदान - भाग ० ६, अ० ९।१०, महाभा० वनपर्व अ० १०० । नारायण का क्षीरसागर में शेषशय्या पर शयन । भाग० १०. १. १९ घोड़ो के पंख की कथा - 'तुरगाणमपि पक्षा आसन् पश्चात्कनचित्कारणेन देवैः पक्षच्छेदः कारिता इति प्रसिद्धिः ।। प्रलय - मन्वंतरों के अन्त में सृष्टि का लय हो जाना - मत्स्य, २, २२; १४२. ३६ । विष्णु – ६. १. ३। १८ ६६ __३६ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 69 ] १२ ६९ १९ ५२ गंगा, जाह्नवी और गंगासागर - भाग० - ७. १४. २९, ८. ४. २३, ब्रह्मा० - २. १६. ११, २४, भाग ०- ९. १५. ३; ब्रह्मा० ३. ६६. २५-६; ७३. ११७; मत्स्य० - १२. ४४; १२१-२६। वामन अवतार की कथा - भाग० - स्कन्ध - ८, अ० १८-२३ कथा-प्रसङ्ग १। ४१ शिशु में भी देखिए । पर्वत पक्षधारी थे – इस कथा प्रसङ्ग को शिशु० ५। ३१ में भी देखिए। त्रिपुरासुर वध की कथा - मत्स्यपुराण, अ० १२९ – १४० 'मय' – नामक असुर तथा युधिष्ठिर की सभा का निर्माणब्रह्मां - ३. ५९. २१; ४. १२. ३; २०. ४६; ३१-७; वायु० - ८४.२१ - १ भाग ० – २. ७. ३१. १०. ५५. २१; ७१. ४५; ५८.२७; ७५.३४, ३७ परशुराम द्वारा रक्त के पांच सरोवर निर्मित करने की कथा महाभारत, वनपर्व, अ० ११६-११७, भाग० ९।१५-१६ । वराहावतार कथा - महाभारत सभा० ३८ २९ के पश्चात् भाग० ३।१३। ३०-३३। नरसिंहावतार कथा - भाग० - ७. ८. ३४. ४०-५६ भाग० ७. ८.१५-३१.११. ४.१९ वामनावतार कथा - भाग० - ८.१३. ६; १०. ३. ४२. । मोहिनी अवतार कथा - भाग० १. ३. १७; ८. ८. ४५-४६ । अ० ९. १२ पूरा । दत्तात्रेयावतार कथा - हरिवंश १४१, ५-६ मार्कण्डेय पु० १७. ११, भाग० - २, ७, ४, ४, १.१५-३३, ११.४.१७ परशराम द्वारा कार्तवीर्य का वध - भाग० - ९.१५. २७-३६. ब्रह्मां - ३.३०, ५-१५; ३२.६१; ३८.८.२७; ४०-१९: ४१. ३७. ३८. ४४. १४; ४७.६३.८८ रामावतार कथा - वाल्मीकि रामायण 'पारिजात' नामक देववृक्ष के लाये जाने की कथा'- भाग० - ३. १५.१९; ४. ६. १४; ३०. ३२; ८. २. १०; १०. ३७. १६: ५९. '३९-४० ६८.३५; शिशुपाल की जन्मजात तीन आँखवाली कथा - महा० आदि० ६७. ५; १८५.२३ । तथा १५ । ५ व वराहसम्बन्धी कथांश को १४ । १४ में तथागोपसम्बन्धी कथांश को ५ । ६९ में देखिये । ८५ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ १५ १५ १५ १५ १५ .१५ १५ १५ १५ क्षेपक ८ २४ २८ २९ ३० ३१ ३५ ३६ ३७ १७ [ 70 ] तथा २३ की कथा को १४ । ८५ में देखें । मुचुकन्द कथा १-४ । वामनावतार की कथा १ । ४१ में व १४ । ७४ में देखें । इसे १४ । १४ में देखें । 'गोवर्धन' पर्वत को उठाने की कथा भाग० १०. २५. १९; २७. १। इसे ५६९ में देखें । नरकासुर-वध कथा १०. २९ । ब्रह्मां अरिष्टासुर-वध कथा --- 1 भाग० ९ ६. ३८; २. ७. ४४; १०.५१ पूरा ५२. - ३४ । पूतना वध - कथा - भाग० १०.२.१; ६.२–१७, २८, ३४–३८; १४. ३५; २६.४; ४३.२५; । भाग० गोवर्धन धारण की कथा ११ । ३ तथा शकटासुर वध कथा ५ ६९ में देखिये । यमलार्जुन कथा भाग० १०.१०. २२७ । से २६ क्षेपक इन दश श्लोकों के कथांशों को क्रमशः १४ । १४, १ । ४७, १ । ४१, १६७।६८, ११।३०, १५।३६, ३७, ११।५६ और १५ । ३५ में देखिये । - — 1 भाग० - १०.५९, १४ - २२; ३७.१६.१ ३. ३६. ३४ । केशीवध कथा - भाग० - १०.२.१; ३६.२०; ३७. १–८, २५; ४३.२५; २.७.३४; । १५। २८-२९ क्षेपक इन दोनों कथांशों को ५। ६९ में देखें । १५। ३०- क्षेपक - कुवलयापीड़कथा भाग० २५; ३७.१५; ४३.१ - १८ । क्षेपक १५ । ३१ - - भाग० १०.३६, १-१६; ४६.२६; २.७. - १०.३६.२४ (१), चाणूर वध- कथा - भाग० १०.२.१; ३६.२१ - २४; ३७.१५; ४२.३७ अध्याय ४३ और ४४; | १५ |३२ क्षेपक- कंस वध कथा- भाग० - १०, अ० ३६-४४; १५ । ५३ - रुक्मिणीहरण कथांश को २। ३८ में तथा १६ । ८ की कथा को १५। ३५ में देखें । १६४८ तथा ४९ शिशुपालके सौ अपराधों को क्षमा करने का कथा प्रसङ्ग १४।८५ में तथा रुक्मिणीहरण का कथा प्रसंग २।३८ में देखना चाहिये । १९७९ भाग० - 'कुकुर' तथा 'अन्धक' यादव विशेषों का कथा प्रसंग ९.२४.१९ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 71 ] १७१४७ की कथा को १।२३ में और १८१ की कथा को ५।३१ में देखें | १८ ६ - प्रलय वर्णन - प्रलय के विविध प्रकारों में प्रलय का एक प्रकार यह भी शास्त्रों में वर्णित है कि इतनी तीव्र गति से हवा चलती है कि पर्वत परस्पर टकराने लगते हैं और उनके मध्य में पड़ने से जगत् के प्राणिमात्र चूर्णित होकर नष्ट हो जाते हैं । १८ । २५ - इस कथांश को १४१४ में देखें । १८ । ४० पुराणों की कथाओं के अनुसार बाह्यय सृष्टि करने की इच्छा करने वाले ब्रह्मा प्रथम आभ्यन्तर सृष्टि देखने के लिये विष्णु के उदर में प्रविष्ट हुए थे । 'पुरा किल बाह्यं सिसृक्षुर्ब्रह्मा पूर्वसृष्टिर्दिदृक्षया विष्णोः कुक्षिं प्राविशदिति पौराणिकी कथा ।' केचिद् ब्रह्मा ब्राह्मणो मार्कण्डेय इति व्याचक्षते । सोऽपि - भगवन्महिमावलोकन कौतुकात्तदनुज्ञया महाप्रलये तदुदरं प्रविश्य बभ्रामेत्यागमः । ( मल्लिनाथ : ) १८ । ५० विन्ध्यवासिनी देवी आकाशवाणी के अनुसार अपनी बहन 'देवकी' की सन्तान से अपनी मृत्यु होना है यह जानकर कंस ने वसुदेव और देवकी को कारागार में बन्द कर दिया, और उसकी सन्तानों को मारने लगा । इस प्रकार क्रम चालू रहने पर श्रीकृष्ण भगवान् का जन्म वहीं कारागार में ही हुआ । श्रीकृष्ण की माया के प्रभाव से वसुदेव ने श्रीकृष्ण को नन्द के यहाँ गोकुल में पहुँचा दिया, उसी समय नन्दपत्नी यशोदा के उदर से उत्पन्न कन्या को रातोरात लाकर कंस को समर्पित कर दिया । तत्पश्चात् नियमानुसार कंस ने कन्या को ऊपर उठाकर भूमि पर पटकना चाहा किन्तु वह भूमि पर न गिरकर चण्डिकारूपिणी होकर यह कहती हुई आकाश में चली गयी "नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा । ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ॥ " - - - - भाग० १० । ४ । १२ । १० । ४ । ९-१० । भागवत में विन्ध्याचलनिवासिनी का उल्लेख नहीं मिलता I वामनपुराण और वाक्पतिराजकृत ‘गौडवहो' नामक प्राकृत महाकाव्य में इसका वर्णन है । - १८ । ७०- इस कथा को १३ । ५२ में देखें । १९।५४ महाभारत शांति पर्व ३८४.३५, स्कन्दपुराणानुसार Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 72 ] वीरभद्र को शिव का एक अवतार माना गया है । महाशान्ति पर्व २८४, ३५–५० स्कन्द पु० माहेश्वर- केदारखण्ड ३३.९२ । १९ । ९८ - वराह लीला का प्रसंग १४ । १४ में देखें । १९ । १०७ एक ही बाण से पंक्तिबद्ध सात ताल वृक्ष को गिरा देने का उल्लेख - विभेद च पुनस्तालान्सप्तैकेन महेषुणा' रामायण में - देखना चाहिये । ( किष्किन्धा काण्ड ) १९ | ११६ - इसे १४ । ३१ तथा १ । ४१ में देखें । २० । ४३ - इस कथा को ५। ६६ में और २० । ५६, की कथा को २। ४९ में देखें । २० । ७३ महाभारत आदिपर्व अ० ३१ ३३, ३४ और ३६ २० । ७८ इसे २ । ४९ में देखें । - - Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ की.काव्यकला पीछे हम संकेत कर चुके हैं कि कविवर माघ विचित्र मार्ग के प्रमुख कवि हैं और उनकी काव्यशैली 'अलंकृत' है, शैली का चरम दृष्टान्त, जिसका प्रभाव उत्तरवर्ती कवियों पर बहुत अधिक पड़ा । माघ परिष्कृत पदविन्यास के आचार्य हैं । सीधे-सादे शब्दों में, अव्याज मनोहर शैली में, वस्तु-वर्णन श्रेष्ठकाव्य की कसौटी नहीं है, प्रत्युत वक्रोक्ति से विभूषित तथा शाब्दिक तथा आर्थिक चमत्कारों के उद्भावक विविध अलंकारों से समन्वित पदविन्यास ही माघ के विचार में काव्य का यथार्थ निदर्शन है । परिणामत: इनका काव्य समास-बहुल है । उसमें विकट वर्गों की उदारता है साथ ही गाढ़बन्धों का हृदयाकर्षण है । माघ का मस्तिष्क काव्य-कामिनी की साज-सज्जा करने में ही सदा संलग्न रहता है । इसीलिए उनका ध्यान इतिवृत्त-निर्वाहकता में रमा ही नही ।। इस दृष्टि से वे कालिदास से तो क्या भारवि से भी मात खा जाते हैं । शिशुपालवध में महाकाव्य के लिए आवश्यक प्रासंगिक वर्णनों का सन्तुलन देखने को नही मिलता । चतुर्थ सर्ग से त्रयोदश सर्ग तक का वर्णन विशेष रूप से विस्तृत हो गया है । वस्तुत: मूलकथा प्रथम, द्वितीय और चतुर्दश से विंश सर्ग तक ही देखने को मिलती है । और वह भी लड़खड़ाती हुई आगे बढ़ती है । काव्य का प्रधानरस 'वीर' होने पर भी वह गौण श्रृङ्गाररस से आक्रान्त हो जाता है । वे विविध अलङ्कारों श्लेष-यमकादि के प्रयोग करने में सिद्धहस्त हैं । इसका दृष्टान्त है, काव्य का १९ वाँ सर्ग, जिसमें चित्रालङ्कारों का बाहुल्य है साथ ही कवि की चमत्कारिणी प्रतिभा का निदर्शन । माघ ने विविध छन्दों का प्रयोग किया है- भारवि के १४ छन्दों के विरोध में माघ ने २३ छन्दों का प्रयोग कर अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन किया है ।। वस्तुत: माघ पण्डित कवि' है । अत: कवि ने विविध शास्त्रों के विषयों का उपयोग अपनी उपमा तथा उत्प्रेक्षा के प्रयोग के लिए बड़ी ही निपुणता से किया है उदात्त चरित शिशुपाल एक ही चाल में अपने शत्रुओं को उसी प्रकार मार भगाता है, जिस प्रकार एक ही पद में विद्यमान उदात्त स्वर अन्य स्वरों को अनुदात्त बना देता है । इस (२। ९५) उपमा में कवि ने वैदिक व्याकरण के मूल तथ्य का बड़ी ही विदग्धता से संकेत दिया है । माघ का प्रकृति-वर्णन भी अलंकृत शैली का ही संकेत देता है । उनका प्रकृति-वर्णन दूर की कल्पना और यमक से ग्रस्त है । फिर भी कुछ स्थल सरसता से पूर्ण हैं । माघ की मूल प्रकृति वस्तुतः श्रृङ्गारिक-उद्दीपन पक्ष की है। विशेष अध्ययन के लिए देखिए - १. संस्कृत महाकाव्य की परम्परा' - डॉ केशवराव मुसलगांवकर, चौखम्बा प्रकाशन । २. 'महाकाव्य पञ्चक में व्युत्पत्ति' - डॉ श्याम मुसलगांवकर, प्रकाशक-ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 74 ] नवसर्गगते माघे नवशब्दो न विद्यते पीछे हम कह चुके हैं कि माघ के काव्य की साज-सज्जा, कल्पना तथा शब्द-भण्डार भारवि से कहीं अधिक है । उनका संस्कृत-कोष पर पूर्ण स्वामित्व था । परिणामतः एक शब्द के कई पर्यायवाची शब्द प्रसंग विशेष में देखने को मिलते हैं । व्याकरण के उदाहरणार्थ – 'सूर्य' के लिये जहाँ - भानुः, सवितृ, दिनकरः, रविः, मित्र:, जैसे रुचिभर्तुः, अतुषारकरः, तिग्मरश्मिः, अनूरुसारथे:, अनूरुसारथिः, अशीतरुचिः, इनः, अंशुमत्, अतुहिनरश्मिः आदि जैसे अपरिचित शब्दों का भी प्रभूत मात्रा में प्रयोग किया गया है । 'गोत्रभिद्' शब्द इन्द्र के लिए आता है । किन्तु गोत्र को भेदनेवाला पति भी होता है- ( ९। ८० ) । अत: गोत्रभिद् का अर्थ 'पति' भी हुआ । लकारार्थ प्रक्रिया के उदाहरण इनमें - १। ३७, १। ३८,१। ४७, १। ५१ देखने चाहिए । इनके अतिरिक्त इन प्रयोगों को भी देखिए – 'संध्यया व्यगमि' (७। १७) 'धातुः सुतेन भुवस्तले चरणौ न्यधायिषाताम्' (१। १३) पर्यपूपुजत्' (१ । १४) 'अभिन्यबीविशत्' (१। १५) 'परितस्तीररे' बिभरांबभूवे' (३। २) । इस प्रकार माघ काव्य के नवम् सर्ग तक आते-आते पाठक के पास व्याकरण का ज्ञान व्युत्पत्ति (बहुज्ञता) व शब्द-भण्डार प्रभूतमात्रा में हो जाता है । उसे ऐसा अनुभव होने लगता है कि अब नये शब्द रहे ही न होंगे । माघे सन्ति वयो गुणाः (१) उपमा का सौन्दर्य – यह उक्ति सर्वाधिक प्रचलित है । महाकवि कालिदास की प्रसिद्धि उनके द्वारा प्रयुक्त उपमाओं के कारण है, क्योंकि उनकी उपमाएँ श्लेष मूलक नहीं हैं । वे सहजरम्य साम्य के ऊपर आधारित हैं । इसलिए उनकी उपमाएँ रमणीय हैं । दूसरा गुण हैं, उनमें यथार्थता का । तीसरा गुण है विविधता का । और चौथा गुण है पूर्णता का । कालिदास ने अपनी उपमाओं में उपमान और उपमेय का सर्वागीण साम्यता का निर्वाह किया है । भारवि अपने अर्थगौरव के लिए प्रसिद्ध हैं । उनकी उक्तियों में गम्भीर अर्थ भरा हुआ है । कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ की अभिव्यक्ति । दण्डी की रचना में पदलालित्य का आनन्द है । किन्तु कविवर माघ में उक्त तीनों का समन्वय है । इतना निश्चित है कि अलंकृत शैली के उद्भावक माघ के भक्तों द्वारा कथित इस उक्ति में अतिशयोक्ति है । फिर भी माघ में इनका अभाव भी नही है । माघ की उपमाओं में चमत्कार है और चित्र को उपस्थित करने की क्षमता भी । एक स्थान पर कविवर माघ प्रात:कालीन चिड़ियों का मधुर कलरव, जल में डूबे घड़े के शब्द के समान बताते हैं - ‘विततपृथुवरत्रा तुल्यरूपैर्मयूखैः कलश इव गरीयान् दिग्भिराकृष्यमाणः । कृतचपलविहंगालापकोलाहलाभिर्जलनिधिजलमध्यादेष उत्तार्यतेऽर्कः ॥ ११॥ ४४ अन्यत्र कवि माघ अपने सरल हृदय का परिचय देते हुए कहते हैं – (४। ४७) 'अपशङ्कमङ्कपरिवर्तनोचिताश्चलिताः पुरः पतिमुपेतुमात्मजाः । अनुरोदितीव करुणेन पत्रिणां विरुतेन वत्सलतयैष निम्नगाः' । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 75 ] पर्वतीय नदियाँ कल-कल शब्द करती हुई प्रवाहित हैं, वे निर्भय होकर उसकी गोद में लोट-पोट किया करती हैं, निश्चय ही वे रैवतक की कन्याएँ हैं। आज वे अपने पति समुद्र से मिलने जा रही हैं । इस कारण रैवतक चिड़ियों के करुण स्वर के द्वारा, ज्ञात होता है कि, वह प्रेम के कारण रो रहा है । कन्या के पतिगृह जाने के समय पिता का हृदय द्रवित हो उठता है । “पीडयन्ते गृहिणः कथं नु तनयाविश्लेषदुःखैर्नवै: " अतः रैवतक भी पक्षियों के करुण स्वर के व्याज से विदा होती हुई कन्याओं के लिए रो रहा है । इस उपमा के द्वारा कवि ने अपने हृदय की सरसता तथा चित्रोपमता की क्षमता को सरलता से व्यक्त कर दिया है । ( २ ) अर्थ गौरव गुण की महाकवि भारवि अपने अर्थ- गौरव के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं । उनकी छोटी से छोटी उक्तियों में अर्थ- गौरव एक विशेष अर्थ की गम्भीरता सन्निहित है । जैसे 'हितं मनोहारि च दुर्लभं वच: ' (१४) भारवि ने भीम की वाणी के प्रशंसा करते हुए ‘अर्थ–गौरव' की ओर संकेत कर दिया है (२।२७) । उनके एक-एक शब्द में तत्वज्ञान भरा हुआ है । वक्ता के अभिप्रायानुरूप ही भारवि की शब्दयोजना है । भारवि के प्रत्येक पात्रों का भाषण चाहे वह सामान्य दूत हो ( १ । ३ ) या शान्तिप्रिय धर्मराज हो या फिर द्रौपदी हो या भीम हो, अर्जुन हो या इन्द्र हो – रेखाङ्कित, विचारपरिप्लुत आदि, मध्य और अन्त से बद्ध तथा सभा में बोलने के लिए तैयार किये हुए भाषण की तरह होता है, उसमें तर्कशुद्धता, विचारों की स्पष्टता Clarity शास्त्रप्रामाण्य, व्यग्रता, शब्दसौष्ठव से पूर्णता, संक्षिप्तता, व्यापकता तथा समयानुरूपता होती है । निश्चित ही उक्त गुणों से परिपूर्ण एवं तेजस्वी वाणी को व्यक्त करनेवाला अन्य कवि देखने में नही आता । तथापि गुणों के प्रकाश में कविवर माघ के काव्य को देखने से ज्ञात होता है कि भारवि की तरह ही माघ में भी अर्थ - गौरव की उद्भावना करने की पर्याप्त क्षमता थी । वे इस तथ्य से भली-भाँति परिचित मालूम होते है कि कतिपय वर्णों के ही विन्यास से काव्य साहित्य में असीम वैचित्र्य उत्पन्न होता है, जिस प्रकार केवल सात स्वरों से ग्रसित होने वाला संगीत अनन्त रूप से विचित्र बन जाता है (२ । ७२) । और इसीलिए कविवर माघ वाणी के प्रतान को शाटी के प्रसार के तुल्य समझते हैं (२ । ७४) । निश्चय ही माघ में अर्थ - गाम्भीर्य की विपुलता है और इसका ज्ञान दार्शनिक एवं नीति तथ्यों के उद्घाटन के अवसर पर होता है ( १४ । १९) उदाहरणार्थ. यज्ञ-प्रसंगों के वर्णनों को देखना चाहिए ( १४ । २४ ) । - देखिए आदर्श राजा के स्वरूप का निम्नाङ्कित यह चित्र कितना समुचित तथा चमत्कारी है, 'बुद्धिशस्त्रः प्रकृत्यङ्गो धनसंवृतिकञ्चुकः । चारेक्षणो दूतमुखः पुरुषः कोऽपि पार्थिवः ।।' (२ । ८२) जिसकी बुद्धि ही शस्त्र है, जिसके शरीराङ्ग प्रकृति (प्रजा) स्वामी, अमात्य आदि हैं, जिसका कवच दुर्भेद्य मन्त्र की सुरक्षा है, जिसके नेत्र गुप्तचर हैं, जिसका मुख ही सन्देशवाहक दूत होता है - ऐसा राजा सर्वसामान्य जन न होकर अलौकिक पुरुष होता है । इस छोटे से लोक में अर्थ का गाम्भीर्य (गौरव) पूर्ण रूप से विद्यमान है । - - Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 76 ] (३) पदलालित्य - आचार्य दण्डी के किसी भक्त को यह उक्ति - 'दण्डिनः पदलालित्यम्' - है । पदलालित्य से उस पद विन्यास में तात्पर्य है जिसके पढ़ने से कर्ण-कुहरों में एक विशेष प्रकार का स्वर-माधुर्य सुनाई पड़ता है, और यह स्वरमाधुर्य अनुप्रास से उत्पन्न होता है । कोमल शब्दों के अनुप्रास में इतनी संगीतात्मक एकरसता उत्पन्न हो जाती है कि वीणा के तारों की झंकार की तरह अर्थबोध हुए बिना ही श्रोताओं का हृदय रसाप्लावित हो जाता है । वस्तुत: 'पदलालित्य' की विशेषता संस्कृत भाषा में ही प्राप्त होती है, अन्य भाषाओं में नही । फिर वह दण्डी का या बाण का गद्य हो अथवा कालिदास भारवि या माघ की कविता हो । माघ के अधिकांश पद्यों में या यों कहे कि अस्सी प्रतिशत पद्यों में अनुप्रास-सुषमा परिलक्षित होती है । उदाहरणार्थ – बसन्त के सौन्दर्य का संकेत कितनी सुन्दरता से 'शब्दजन्यनाद' द्वारा व्यक्त हो रहा है - मधुरया मधुबोधितमाधवी - मधुसमृद्धसमेधिया । मधुकराङ्गनया मुहुरुन्मदध्वनिभृता निभृताक्षरमुज्जगे ॥' (५।२०) श्लोक के सरस वर्णों - के उच्चारण के समय या 'म' कार की सरसता में जीभ आगे बढ़ने में एक विशेष रसास्वाद का अनुभव करती है । वह बिना किसी व्यवधान के आगे-आगे चली जाती है । 'म' कार का नाद-सौन्दर्य एक विशेष आनन्द प्रदान करता है । इस प्रकार माघ में - तीनों गुण विद्यमान हैं, किन्तु उनकी प्राप्ति के लिए हृदय और मस्तिष्क की आवश्यकता है। माघ का उत्तरवर्ती कवियों पर प्रभाव माघ के पश्चाद्भावी अनेक कविगण उनके द्वारा अलंकृत शैली एवं पदविन्यास से प्रभावित हुए हैं – जिनमें 'हरविजय' के रचयिता रत्नाकर, 'धर्मशर्माभ्युदय' के प्रणेता हरिश्चन्द्र आदि विशेष प्रसिद्ध हैं । इन दोनों अतिरिक्त नेमिचरित' 'चन्द्रप्रभचरित' जैसे अनेक काव्यों में माघ का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । संस्कृत महाकाव्यों की परम्परा में कालिदास के बाद सशक्त व्यक्तित्व माघ का है। प्रस्तुत व्याख्या शिशुपालवध महाकाव्य की प्रस्तुत टीका अनुसन्धानात्मक पद्धति का सुन्दर निदर्शन है । माघकाव्य के श्लोकों की सम्यग् व्याख्या टीकाकार की प्रतिभा, विद्वत्ता एवं साहित्य में अन्वेषण मनोवृत्ति का परिचय देती है । वस्तुतः काव्य के यथार्थ आलोचक तत्तत् लक्षण ग्रन्थकार हैं जिनके द्वारा प्रसृत काव्यानुशासन के प्रकाश में काव्य के शब्दार्थमय शरीर को सूक्ष्मेक्षिकया देखा जाता है । इस धारणा से अनुप्राणित व्याख्याकार ने तत्तत् लक्षणग्रन्थों में पर्यालोचित माघकाव्य विषयक विवरण को यथाशक्ति सम्मिलित करने का गरुतर प्रयास किया है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 77 ] महाकवियों के काव्यों को केवल शब्दार्थतः अथवा वाच्यार्थतः जान लेना काव्याध्ययन की इतिश्री नहीं है अपितु उनके काव्यों में अपलुत प्रतिभा के उन्मेषों की गवेषणा करने में हैं । जैसे - रस, अलंकार, गुण, छन्द, व्यङ्गय ध्वनि प्रकार, काव्यानुशासन, अनान्य शास्त्रान्तरों से प्राप्त सन्दर्भ आदि बहुत से ज्ञेय पदार्थ रहते हैं । _उपर्युक्त दृष्टि से अभी तक व्याख्याकारों का ध्यान गया हुआ प्रतीत नहीं हो रहा है । इस प्रकार के प्रयास की नितान्त आवश्यकता विगत ७५ वर्षों से थी, क्योंकि ऐसा करने से महाकाव्य के रहस्यों का एवं उसके शरीर विषयक समग्र अध्ययन अनुसन्धित्सु को युगपत् सहजतया संम्बद्धस्थल पर उपलब्ध हो जाता है । इस दृष्टि से प्रस्तुत व्याख्या माघकाव्य के पिपठिषु काव्यरसिक अध्येताओं को नितान्त उपादेय होगी, इसी आशा पुरस्सर । बसन्त पञ्चमी वि० सं० २०५५ इति शम् डॉ० (राजू) राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर एम० ए० साहित्याचार्य, पी-एच् डी० आई० सी० पी० आर० फेलो० दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी व्याख्या में सन्दर्भित ग्रंथसूची महर्षि व्यास अग्निपुराण ऋग्वेद संहिता ऋतुसहार औचित्य विचार चर्चा कात्यायन श्रौतसूत्र महाकवि कालिदास आचार्य क्षेमेन्द्र महर्षि कात्यायन महर्षि वात्सायन कामसूत्र कामन्दकनीति महर्षि कामन्दक काव्यप्रकाश राजानक मम्मट आचार्य दण्डी काव्यादर्श आचार्य राजशेखर महाकवि भारवि काव्यमीमांसा किरातार्जुनीय कुमारसम्भव कुवलयानन्द कौटिल्यार्थशास्त्र महाकवि कालिदास श्रीमदप्पय्य दीक्षित आचार्य चाणक्य चरक संहिता महर्षि चरक चाणक्य सूत्र चित्र मीमांसा तर्कभाषा तंत्रसिद्धान्तरत्नावली दशरूपक धनुर्वेद संहिता ध्वन्यालोक आचार्य चाणक्य श्रीमदप्पय्य दीक्षित पण्डित केशव मिश्र म० म० पा० पं० चित्रस्वामी आचार्य धनञ्जय महर्षि वसिष्ठ आचार्य आनन्दवर्धन आचार्य भरत महाकवि श्रीहर्ष महर्षि पतञ्जल २२. २३. २४. नाट्यशास्त्र नैषधीयचरित पातञ्जलयोगसूत्र २५. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [79] आचार्य मतङ्ग २६. २७. २८. २९. ३०. बृहदृदेशी भगवद्गीता भवभूति भागवतपुराण मनुस्मृति महाभारत मेघदूत यजुर्वेदसंहिता याज्ञवल्क्य स्मृति रघुवंश वक्रोक्तिजीवित हिन्दी - डॉ० केशवराव मुसलगांवकर महर्षि व्यास महर्षि मनु महर्षि व्यास महाकवि कालिदास ३२. ३३. ३४. महर्षि याज्ञवल्क्य ३५. ३६. ३७. वेदान्तसार वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी सरस्वतीकण्ठाभरण संगीतरत्नाकर संगीतशास्त्र का दार्शनिक अनुशीलन संस्कृत महाकाव्य की परम्परा सांख्यकारिका साहित्यदर्पण हर्षचरित महाकवि कालिदास आचार्य कुन्तक आचार्य सदानन्द योगीन्द्र भट्टोजी दीक्षित आचार्य भोजराज आचार्य शाङ्गदेव डॉ. विमला मुसलगांवकर डॉ० केशवराव मुसलगांवकर आचार्य ईश्वरकृष्ण आचार्य विश्वनाथ हिन्दी - डॉ० केशवराव' मुसलगांवकर ४४. ४५. Page #82 --------------------------------------------------------------------------  Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 eft: 11 श्रीमन्माघकविप्रणीतं शिशुपालवधम् 'सर्वङ्कषा' मल्लिनाथकृतया व्याख्यया हिन्दीव्याख्यया चोपेतम् प्रथमः सर्गः सर्वङ्कषा इन्दोवरदलश्याममन्दिरानन्दकन्दलम् । वन्दारुजनमन्दारं वन्देऽहं यदुनन्दनम् ॥ दन्ताश्चन धरणीतल मुन्नमय्य पातालकेलिषु धृतादिवराहलीलम् । उल्लाघनोत्फणफणाधरगीयमानक्रीडावदानमिभराजमुखं नमामः ॥ शारदा शारदाम्भोजवदना वदनाम्बुजे । सर्वदा सर्वदास्माकं संनिधि संन्निधि क्रियात् ॥ वाणी कणभुजीमजीगणदवाशासीच्च वैयासिकी मन्तस्तन्त्र मस्त पन्नगगवीगुम्फेषु चाजागरीत् । वाचामाकलचद्रहस्यमखिलं यश्चाक्षपादस्फुरां लोकेऽभूद्यदुपज्ञमेव विदुषां सोजन्यजभ्यं यशः ॥ मल्लिनाथः सुधीः सोऽयं महोपाध्यायशब्दभाक् । विधत्ते माघकाव्यस्य व्याख्यां सर्वङ्कषाभिधाम् ॥ शब्दार्थपरीक्षणप्रणयिनो ये वा गुणालङ्क्रिया शिक्षाको किन विहर्तुमनसो ये च ध्वनेरध्वनि । क्षुभ्यद्भावतरङ्गिते रससुधापूरे मिमङ्क्षन्ति ये तेषामेव कृते करोमि विवृति माघस्य सर्वङ्कषाम् ॥ नेताऽस्मिन् यदुनन्दनः स भगवान्वीरः प्रधानो रसः 2 शृङ्गारादिभिरङ्गवान् विजयते पूर्णा पुनर्वर्णना । इन्द्रप्रस्थगमाद्युपायविषयश्चैद्यावसादः फलं धन्यो माघकविवयं तु कृतिनस्तत्सूक्तिसंसेवनात् ॥ इहान्वयमुखेनैव सर्वं व्याख्यायते मया । नामूलं लिख्यते किञ्चिन्नानपेक्षितमुच्यते ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् अथ तत्रभवान्माघकविः 'काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिर्वृतये कान्तासंमिततयोपदेशयुजे' ॥ (का. प्र. ११२) इत्यालङ्कारिकवचनप्रामाण्यात्काव्यस्यानेकश्रेयःसाधमतां, 'काव्यालापांश्च वर्जयेत्' इति निषेधस्यासत्काव्यविषयतां च पश्यच्छिशुपालवधाख्यं काव्यं चिकीर्षु श्चिकोषितार्थाविध्नपरिसमाप्ति संप्रदायाविच्छेदलक्षणफलसाधनत्वात् 'आशीर्नमस्क्रियावस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्' इत्याशीराद्यन्यतमस्य प्रबन्धमुखलक्षणत्वाच्च काव्यफलं शिशुपालवधबीजभूतं भगवतः श्रीकृष्णस्य नारददर्शनरूपं वस्तु आदौ श्रीशब्दप्रयोगपूर्वकं निदिशन् कथामुपक्षिपतिश्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगजगन्निवासो वसुदेवसम्मनि । वसन् ददर्शावतरम्तमम्बराद्धिरण्यगर्भागभुवं मुनिं हरिः ॥१॥ श्रिय इति ॥ तत्रादौ श्रीशब्दप्रयोगाद्वर्णगणादिशुद्धेरभ्युच्चयः । तदुक्तम् - ____ 'देवतावाचकाः शब्दा ये च भद्रा दिवाचकाः । ते सर्वे नव निन्द्याः स्युलिपितो गणतोऽपि वा' । इति । श्रियो लक्ष्म्याः पतिः । अनेन रुक्मणीरुपया श्रिया समेत इति सूचितम् । राघवत्वेऽभवत्सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि' इति विष्णुपुराणात् । जगन्निवासो जगतामाधारभूतः । कुक्षिस्थाखिलभुवन इति यावत् । तथापि जगत् लोकं शासितुं दुष्टनिग्रहशिष्टानुग्रहाभ्यां नियन्तुं श्रीमति लक्ष्मीयुक्तं वसुदेवसद्मनि सुदेवरूपिणः कश्यपस्य वेश्मनि वसन् कृष्णरूपेण तिष्ठन् हरिविष्णुरम्बारदवतरन्तम् । इन्द्रसन्देशकथनार्थ मिति भावः । हिरण्यस्य गर्भो हिरण्यगर्भो ब्रह्मा ब्रह्माण्डप्रभवत्वात्, तस्याङ्गभुवं तनूजम् । अथ वा तस्याङ्गादवयवादुत्समाख्याद्भवतीति हिरण्यगर्भाङ्गभूस्तं मुनिम् । नारदमित्यर्थः । 'उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयंभुव" इति भागवतात् । ददर्श । कदाचिदिति शेषः । अत्राल्पीयसि वसुदेवसपनि सकलजगदाश्रयतया महीयसो हरेराधेयत्वकथनादधिक प्रभेदोऽर्थालङ्कारः। तदुक्तम् –'आधाराधेययोरानुरूप्याभावोऽधिको मतः' इति । जगन्निवासस्य जगदेकदेशनिवासित्व मिति विरोधश्च । तथा तकारसकारादेः केवलस्यासकृदावृत्या जगज्जगदिति सकृव्यञ्जनद्वयसादृश्याच्च वृत्त्यनुप्रासभेदी शब्दालङ्कारी । एषां चान्योन्यनरपेक्ष्येणकत्र समावेशात् तिलतण्डुलवत्संसृष्टिः । सर्गेऽस्मिन्वंशस्थं-वृत्तम् । 'जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ' इति लक्षणात् ॥ १ ॥ अन्वयः-श्रियः पतिः जगन्निवासः जगत शासितुं श्रीमति वसुदेवसद्मनि बसन् हरिः अम्बरात् अवतरन्तं हिरण्यगर्भाङ्गभुवं मुनिं ददर्श ॥ ५ ॥ हिन्दी अनुबाद-लपमी के पति, जगत् के निवासस्थान ( या जगत् के Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ३ आधार-स्वरूप ) तथा जगत् को शासित करने के लिये अर्थात् शिष्टों पर अनुग्रह करने और दुष्टों को दण्ड देने के लिए, वसुदेव जी के समृद्धिशाली ( या रुक्मिणी रूपिणी लक्ष्मी से युक्त ) घर में निवास करते हुए ( श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण ) विष्णु ने आकाश से उतरते हुए ब्रह्मा के अङ्ग से उत्पन्न (नारद) मुनि को देखा || १|| विशेष - भारतीय संस्कृति के अनुसार कविगण प्रन्थारम्भ के पूर्व अपने ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए अपने इष्ट देवता का स्मरण मङ्गलाचरण के रूप किया करते हैं । इसी परम्परा का पालन करते हुए कवि माघ ने यहाँ माङ्गलिक “श्री” शब्द से अपने काव्य-ग्रन्थ का आरम्भ करके "वस्तुनिर्देशात्मक” मङ्गलाचरण किया है । मल्लिनाथ लिखते हैं- "आशीराद्यन्यतमस्य प्रबन्ध-मुखलक्षणत्वाच्च काव्यफलं शिशुपालवधबीजभूतं भगवतः श्रीकृष्णस्य नारद-दर्शनरूपं वस्तु आदौ श्री. शब्द प्रयोगपूर्वकं निर्दिशन् कथामुपक्षिपति ।" श्री वल्लभदेव लिखते हैं— "अभिलषितसिद्धयर्थं मङ्गलादि काव्यं कर्तव्यमिति स्मरणात्तु कविः "श्री" शब्दमादौ प्रयुङ्कते । ” प्रसङ्ग - सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण ने मुनि नारद को आकाश मार्ग से भूतल की ओर आते हुए देखा । तत्पश्चात् नगरवासी उन्हें विस्मयपूर्वक देखने लगे । तदानीं जनै विस्मयादीक्षितुं प्रवृत्तमित्याह गतं तिरश्चीनमनूरुसारथेः प्रसिद्धमूर्ध्वज्वलनं हविर्भुजः । पतत्यधो धाम विसारि सर्वतः किमेतदित्याकुलमीक्षितं जनैः ॥ २ ॥ गतमिति ॥ अविद्यमानावूरू यस्य सोऽनूरुः स सारथिर्यस्य तस्यानुरुसारथेः सूर्यस्य गतं गतिः । भावे क्तः । तिरश्चीनं तिर्यग्भूतम् । 'विभाषाऽञ्चेर दिस्त्रियाम् ' (५।४।८) इति तिर्यक्शब्दादश्वत्यन्तात्प्रातिपदिकात्स्वार्थे खप्रत्ययः । हविर्भुजोऽग्नेरुर्वज्वलन मूर्ध्वस्फुरणं प्रसिद्धम् । इदं तु सर्वतो विसारि धामाऽधः पतति । किमेतदिति सूर्याग्निविलक्षणमदृष्टपूर्वमिदं धाम किमात्मकं स्यादित्याकुलं विस्मयात्संभ्रान्तं यथा तथा जनैरीक्षितमीक्षणं कृतम् । सकर्मकादप्यविवक्षिते कर्मणि भावे क्तः । ' प्रसिद्धेरविवक्षातः कर्मणोऽकर्मिका क्रिया' इति वचनात् । केचित्कर्मणि क्तान्तं कृत्वा ईक्षितं मुनि ददर्शेति पूर्वेण योजयन्ति । अत्रोपमेयस्य मुनिधाम्नः सूर्याग्निभ्यामुपमानाभ्यामधः प्रसरणधर्मेणाधिक्य वर्णनाद्व्यतिरेकः । तदुक्तं काव्यप्रकाशे'उपमानाद्यदन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः' इति । 'धाम रश्मौ गृहे देहे स्थाने जन्मप्रभावयोः' इति हेमचन्द्रः । दिवाकरस्तु वृत्तरत्नाकरटीकायां प्रथमपठितेन 'द्विधाकृतात्मा किमयं दिवाकरो विधूमरोचिः किमयं हुताशनः' इति चरणद्वयेन Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् सहेममेव श्लोकं षट्पदच्छन्दस उदारणमाह । तत्राद्यचरणद्वयेन सन्देहाकारो गतमिति तन्निरासश्च बोध्य इत्युपरिष्टात् ॥ २ ॥ अन्वयः-अनूरुसारथेः गतं तिरश्वीनं प्रसिद्धम् , हविर्भुजः ऊर्ध्वज्वलनं (प्रसिद्धम्), सर्वतः विसारि ( इदं तु ) धाम अधः पतति, एतत् किम् इति जनैः आकुलं ( यथा तथा ) ईक्षितम् ॥ २॥ हिन्दी अनुवाद-सूर्य की गति ( सूर्य का गमन ) तिरछी प्रसिद्ध है और अग्नि की ज्वाला का ऊपर ( की ओर ) जाना (प्रसिद्ध है) किन्तु चारों ओर अपने तेज को फैलाने वाला ( यह ) तेज (ऊपर से ) नीचे आ रहा है। यह क्या है ? इस प्रकार लोगों ने ( उस तेज विशेष को ) व्याकुलता पूर्वक देखा ॥ २ ॥ विशेष-'सूरसूतोऽरुणोऽनूरुः काश्यपिर्गरुडाग्रजः ।' इत्यमरः; कोष के अनुसार सूर्य के सारथी के लिए सूर्यसूत, अरुण, अनूरु, काश्यप और गरुड़ाग्रज-ये शब्द हैं । पौराणिक कथा के अनुसार विनता अरुण और गरुड़ की माता है । जङ्घा न होने के कारण अरुण को 'अनूरु' कहा जाता है। वेदों में अरुण को ही 'उषा' का प्रतीक माना जाता है। अथ भगवान्निरणषीदित्याह चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरस्ततः शरीरीति विभाविताकृतिम् । विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः ॥३॥ चय इति ॥ विभुर्वस्तुतत्त्वावधारणसमर्थः स हरिः पुरा प्रथमं त्विषां चय इत्यवधारितं तेजःपुञ्जमात्रत्वेन विनिश्चितम् । ततः प्रत्यासन्ने विभाविता विमृष्टा आकृतिः संस्थानं यस्य तं तथोक्तम् । अत एव शरीरी चेतन इत्यवधारितम् । ततो विभक्ता विविच्य गृहीता अवयवा मुखादयो यस्य तं तथोक्तम् । अत एव पुमानित्यवधारितम् । अमुमागच्छन्तं व्यक्तिविशेषं नारदं, वास्तवाभिप्रायेणेति पुंलिङ्गनिर्वाहः। क्रमात्पूर्वोक्तसामान्य विशेषज्ञानक्रमेण । लोकदृष्टयदमुक्तम् , हरिस्तु सर्व वेदैवेति तत्त्वम् । नारद इत्यवोधि । नारदं बुद्धवानित्यर्थः। नारदस्य कर्मत्वेऽपि निपातशब्देनाभिहितत्वान्न द्वितीया, तिङामुपसंख्यानस्योपलक्षणत्वात् । यथाह वामनः-'निपातेनाभिहिते कर्मणि न कर्मविभक्तिः, परिगणनस्य प्रायिकत्वात् (का. सू. ५।२।२२) इति । बुध्यतेः कर्तरि लुङ् । 'दीपजन (३।१।६१)-' इत्यादिना चिण् । 'चिणो लुक्, (६।४।१०४) इति तस्य लुक् । अत्र विभाविताकृति विभक्तावयवमित्यादिना आकृतिविभावनावयव विभावनयोः पदार्थयौविशेषणवृत्त्या शरीरित्वपुंस्त्वावधारणहेतुत्वेनोपन्यासात्पदार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमलङ्कारः । 'हेतोवाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गमुदाहृतम्' इति लक्षणात् ॥ ३ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः अन्वयः-विभुः सः पुरा विषां चय इति अवधारितम् । ततः विभाविताकृति शरीरी इति, विभक्तावयवं पुमान् इति, क्रमात् अमुं नारद इति अबोधि ॥ ३ ॥ हिन्दी अनुवाद-प्रसङ्ग-लोगों के द्वारा आकाश से भूतल की ओर आने वाले तेज को व्याकुलता पूर्वक देखे जाने पर भगवान् कृष्ण ने उसे क्रमशः यह नारद है समझा। संसार के समस्त वस्तुतत्व के ज्ञाता भगवान् श्रीकृष्ण ने पहले उसे (आकाश से भूतल की ओर आने वाले तेज को ) तेजों का समूह समझा, तत्पश्चात् आकृति का ( हस्तपादादि का ) निश्चय होने पर उसे ( तेज को) देहधारी ( समझा ) और (हस्तपादादि ) अवयवों के स्पष्टरूप से दिखलाई देने पर-'यह पुरुष है' ऐसा समझा और इस प्रकार क्रम से उसे 'यह नारद है' ऐसा जाना ॥ ३ ॥ अथ सप्तभिर्मुनि विशिन ष्टि नवानधोऽधो बृहतः पयोधरान् समूढकर्पूरपरागपाण्डुरम् । क्षणं क्षणोत्क्षिप्तगजेन्द्रकृत्तिना स्फुटोपमं भूतिसितेन शम्भुना ॥ ४॥ नवानिति॥ कीदृश ममुम् । नवान् सद्यःसंभृतसलिलान् । अतिनीलानिति यावत् । बृहतो विपुलान् पयोधरान् मेघानधोऽधः मेघानां समीपाधःप्रदेशे । स्थितमिति शेषः । 'उपर्यध्यधसः सामीप्ये' (८।२।७) इति द्विर्भावः, तद्योगे द्वितीया । 'उभसर्वतसोः कार्या धिगुपर्यादिषु त्रिषु' इत्यादिवचनात् । समूढः पुजीकृतः । 'समूढः पुञ्जिते भुग्ने' इति विश्वः। कर्पूरस्य परागश्चूर्णं तद्वत्पाण्डुरम् । अतः एव क्षणं मेघसमीपावस्थानक्षणे । अत्यन्तसंयोगे द्वितीया । क्षणेषु ताण्डवोत्सवेषु । 'निापारस्थितौ कालविशेषोत्सवयोः क्षणः' इत्युभयत्राप्यमरः । उत्क्षिप्ता उपरि धारिता गजेन्द्रस्य कृत्तिश्चर्म येन तेन । 'अजिनं चर्म कृत्तिः स्त्री' इत्यमरः। भूत्या भस्मना सितेन । 'भूतिर्भस्मनि सम्पदि' इत्यमरः। शम्भुना स्फुटा उपमा सादृश्य यस्य तं स्फुटोपमम् । स्फुटशम्भूपममित्यर्थः । सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात्समासः । सदृशपर्याययोस्तुलोपमाशब्दयोः 'अतुलोपमाभ्याम्-'इति निषेधात्सादृश्यवाचित्वें तृतीयेत्याहुः । केचिदिमं श्लोकं चयस्त्विषामित्यतः प्राग्लिखित्वा व्याचक्षते । तेषां पुंस्त्वावधारणात्प्राक् तेजःपिण्डमात्रस्य शम्भूपमौचित्यं चिन्त्यम् ।। ४ ।। अन्वय-नवान् बृहतः पयोधरान् अधोऽधः ( स्थितं) समूठकर्पूरपरागपाण्डुरम्-क्षण-क्षणोक्षिप्तगजेन्द्रकृत्तिना भूतिसितेन शम्भुना स्फुटोपमम् ( अमुं नारद इत्यबोधि ) ॥ ४॥ प्रसङ्ग-इस श्लोक-(१।४-१०) से सात श्लोकों तक (श्लोक १० तक) महर्षि नारद का वर्णन किया गया है। सर्वप्रथस उनकी उपमा शिव से दी गई है Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् हिन्दी अनुवाद - नवीन और विशाल ( काले-काले ) बादलों के नीचे वे नारद जी कर्पूर-चूर्ण के ढेर की तरह अत्यन्त श्वेत वर्ण के परिलक्षित हो रहे थे उस समय ( काले-काले बादलों के अधिक निकट होते समय ) - क्षण भर के लिए उनकी ( नारद जी की ) - शोभा ताण्डव नृत्य के अवसर पर हाथी के काले चर्म को ऊपर ओढे हुए एवं शरीर पर श्वेत भस्म लपेटे हुए शङ्कर के समान दृष्टिगोचर हो रही थी ॥ ४ ॥ विशेष- ब्रह्माण्डपुराण - २ ९ ६९, ३-२५-१४, ७२ १८४, मत्स्य - १८१-१४ और वायु - २१-५१, पुराणों के अनुसार भगवान् शङ्कर ने गजासुर का वध किया और उसकी प्रार्थना के अनुसार उसके शरीरचर्म को अपने इसीलिए भगवान् शङ्कर को 'कृत्तिवासस' कहा जाता है । ऊपर धारण किया प्रसङ्ग - इस श्लोक में नारद की तुलना हिमालय से की गई है । कमलकेसर के समान पीत कान्तिवाली जटाओं को धारण करने वाले नारद जी यहाँ पीले वर्ण की लता समूहों को धारण करने वाले हिमालय के समान परिलक्षित होते हैं । दधानमम्भोरुहकेसरघुतीर्जटाः शरश्चन्द्रमरीचिरोचिषम् । विपाकपिङ्गास्तुहिनस्थलीरुहो धराधरेन्द्रं व्रततीततीरिव ॥ ५ ॥ दधानमिति । पुनः । अम्भोरुहकेसरद्युतीः पद्मकिञ्जल्कप्रभापिशङ्गीरित्यर्थः । जटादधानम्, स्वयं तु शरच्चन्द्रमरीचिरिव रोचियंस्य तम् । धवलमित्यर्थः । अत एव विपाकेन परिणामेन पिङ्गाः पिङ्गलाः तुहिनस्थल्यां तुषारभूमौ रोहन्तीति तुहिनस्थलीरुहः व्रततीततीलता व्यूहान् । 'वल्ली तु व्रततिलंता' इत्यमरः । दधानम् । धराधरेन्द्रो हिमवान् तुहिनस्थलीति लिङ्गान्नारदोपमानत्वाच्च तमिव स्थितम् ।। ५ ।। " अन्वयः - अम्भोरुह केशरघुतीः जटाः दधानम् शरच्चन्द्रमरीचिरोचिषम् ( अतएव ) विपांकपिङ्गाः तुहिनस्थलीरुहः व्रततीततीः ( दधानं ) धराधरेन्द्रम् इव ॥ ५ ॥ हिन्दी अनुवाद - कमल के 'केशर की सी ( पीली ) कान्तिवाली जटाओं को धारण करते हुए, शरद् ऋतु के चन्द्रमा की किरणों की सी कान्तिवाले, ( शुभ्र नारद को ) तुषार भूमि में उत्पन्न, परिपाक से पीत वर्ण की लताओं के समूहों को धारण करने वाले हिमालय के समान ( इस व्यक्ति को श्रीकृष्ण ने नारद जाना ) ॥ ५ ॥ प्रसङ्ग - इस श्लोक में नारद मुनि का साम्य बलराम से प्रदर्शित किया गया है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः पिशङ्गमौ श्रीयुजमर्जुनच्छवि वसानमेणाजिनमञ्जनद्युति । सुवर्णसूत्राकलिताधराम्बरां विडम्बयन्तं शितिवाससस्तनुम् ॥ ६॥ पिशङ्गेति । पुनः कीदृशम् । मुञ्जस्तृणविषेषः तन्मयी मेखला मौञ्जी, पिशङ्गया मौञ्ज्या युज्यत इति पिशङ्गमौञ्जीयुक् तम् । 'सत्सूद्विष ( ३।२।५१ ) – ' इत्याfना क्विप् । 'स्त्रियाः पुंवत् ( ६।३।३४ ) - इति पिशङ्गशब्दस्य पुंवद्भावः । अर्जुनच्छवि धवलकान्तिम् । 'वलक्षो धवलोऽर्जुनः' इत्यमरः । अञ्जनद्युत्यञ्जनवर्ण मेणाजिनं कृष्णमृगचर्म वसानमाच्छादयन्तम् | 'वस आच्छादने' इति धातोः शानच् । सुवर्णसूत्रेण कनकमेखलया आकलितं बद्धमधराम्बरमन्तरीयं यस्यास्तां शितिवाससो नीलाम्वरस्य रामस्य तनुं विडम्बयन्तम् अनुकुर्वाणमित्यर्थः । आर्थीयमुपमा ॥ ६ ॥ अन्वयः - पिशङ्गौ श्रीयुजम् अर्जुनच्छविम् अञ्चनद्युति एणाजिनं वसानम् ( अतएव ) सुवर्णसूत्राकलिताघराम्बरां शितिवाससः तनु विडम्बयन्तम् ॥ ६॥ हिन्दी अनुवाद - पीतवर्ण की मुंज की मेखला को ( करधनी ) धारण किये हुए, ( तथा स्वयं ) गौरवर्णवाले, अञ्जन के समान कान्तिवाले कृष्ण मृग चर्म को धारण किये हुए, (अतएव ) सोने की करधनी से बँधे हुए, नीले अधोवस्त्र वाले ( गौर वर्ण ) बलराम के शरीर का अनुकरण करते हुए ( उस व्यक्ति को श्रीकृष्ण ने नारद जाना ) ।। ६ ।। प्रसङ्ग - इस श्लोक में शरद्कालीन विद्युत् समूहों से युक्त ऊँचे मेघ से महर्षि नारद का साम्य प्रदर्शित किया गया है । विहङ्गराजाङ्गरुहैरिवायतैर्हिरण्मयोर्वीरुद्दवल्लितन्तुभिः । कृतोपवीतं हिमशुभ्रमुच्चकैर्घनं घनान्ते तडितां गणैरिव' ॥ ७ ॥ विहङ्गेति ॥ पुनः । विहङ्गराजाङ्गरुहैरिव गरुत्मल्लोमतुल्य राय तैर्दीर्घः । हिरण्यस्य विकारो हिरण्मयी । 'दाण्डिनायन ( ६ |४११०४ ) - इत्यादिना मयटि योपनिपातः । तस्यामुव्य रुहा रूढाः । इगुपधलक्षणः कप्रत्ययः । तासां वल्लीना तन्तुभिस्तुल्यः उपादानगुणात् हिरण्मयः कृतोपवीतं शोभार्थं कल्पितयज्ञसूत्रं स्वयं हिमशुभ्रम् । अत एव घनान्ते शरदि तडितां गणैरुपलक्षितम् । 'तडित्सौदामिनी विद्युत्' इत्यमरः । उच्च रेवोच्चकै रुन्नतं घनं मेघमिव स्थितम् ॥ ७ ॥ श्रन्वयः– विहङ्गराजाङ्गरुहैः इव भायतैः हिरण्मयोर्वीरुहवल्लितन्तुभिः कृतोपवीतं हिमशुभ्रम् (अतएव ) घनान्ते तडितां गणैः ( उपलक्षितम् ) उच्चकैः घनमिव ॥ ७ ॥ १. गणैरिव । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् हिन्दी अनुवाद-पक्षिराज (गरुड़) के रोमों के समान लम्बे, सुवर्णमयी भूमि पर उत्पन्न लताओं के तन्तुओं से निर्मित यज्ञोपवीत धारण किये हुए, (स्वयं) हिम के समान शुभ्रवर्ण, (अतएव ) वर्षाकाल के पश्चात् ( शरद ऋतु के ) विद्युत् समूहों से युक्त ऊँचे मेघ के समान ( दृष्टिगोचर होने वाले महर्षि नारद को श्रीकृष्ण ने देखा । ) ॥७॥ प्रसङ्ग-मूल से सुशोभित इन्द्रवाहन ऐरावत से महर्षि नारद का साम्य प्रदर्शित करते हुए माघ कवि कहते हैंनिसर्गचित्रोज्ज्वलसूक्ष्मपक्ष्मणा लसद्विसच्छेदसिताङ्गसङ्गिना । चकासतं चारुचमूरुचर्मणा कुथेन नागेन्द्रमिवेन्द्रवाहनम् ॥ ८॥ निसर्गेति ॥ पुनः । निसर्गात्स्वभावादेव चित्राणि शबलान्युज्ज्वलानि भास्वराणि सूक्ष्माणि पक्ष्माणि लोमानि यस्य तेन, लसन् यो बिसच्छेदो मृणालखण्डः । 'छेदः खण्डोऽस्त्रियाम्' इति त्रिकाण्डशेषः । तद्वत्सितेऽङ्गे वपुषि सङ्गिना सक्तेन चारुणा मनोहरेण चमूरुचर्मणा मृगत्वचा कुथेन पृष्ठास्तरणेन । 'प्रवेण्यास्तरणं वर्णः परिस्तोमः कुथो द्वयोः' इत्यमरः । इन्द्रवाहनं नागेन्द्र मरावतमिव चकासतं शोभमानम् । इन्द्रस्य वाहन मिति स्वस्वामिभावमात्रस्य विवक्षितत्वात् 'वाहनमाहितात्' (८।४।८) इति न णत्वम् । यथाह वामन:-'नेन्द्रवाहनशब्दे णत्वमाहितत्वस्याविवक्षितत्वात्' ( ५।२।६१ ) इति । चकासतेः शतरि नाभ्यस्ताच्छतुः (७।१७८ ) इति नुमभावः । 'जक्षित्यादयः षट्र'( ६।११६ ) इत्यश्यस्तसंज्ञा ।। ८ ॥ ____अन्वयः-निसर्गचित्रोज्ज्वलसूश्मपक्ष्मणा लसद्बिसच्छेदसिताङ्गसङ्गिना चारुचमूरुचर्मणा कुथेन नागेन्द्रम् इन्द्रवाहनम् इव चकासतम् ॥ ८ ॥ हिन्दी अनुवाद-स्वभावतः चितकबरे तथा उज्ज्वल और सूचम ( महीन) रोमोवाले, शोभायमान मृणाल खण्ड के समान गौराङ्ग पर (धवल शरीर पर) स्थित सुन्दर चमरुमृग के चर्म से, झूल से इन्द्र वाहन ऐरावत की तरह शोभायमान-(नारद को श्रीकृष्ण ने देखा)॥८॥ प्रसङ्ग-नारद मुनि के हाथ में स्थित स्फटिक की अक्षमाला पर अंगुष्ट का रक्तिम प्रकाश पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि मानों वह मूंगे की माला ही हो । अजनमास्फालितवल्लकीगुणक्षतोज्ज्वलाङ्गुष्ठनखांशुभिन्नया। पुरः प्रवालैरिव पूरितार्धया विभान्तमच्छस्फटिकाक्षमालया ॥९॥ अजस्रमिति ॥ पुनः । अजस्रं प्राचुर्येणास्फलितास्ताडिताः । सौष्ठवपरीक्षार्थ न्युब्जाङ्गुष्ठेन तन्त्रीताडनं प्रसिद्धम् । तेषां वल्लकीगुणानां वीणातन्त्रीणां क्षतेन संघर्षणेनोज्ज्वलरगुष्ठनखांशुभिभिन्नया मिश्रया । तद्रागरक्तयेत्यर्थः । अत एव Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः पुरः पुरोभागे प्रवालविद्रुमैः । 'अथ विद्रुमः पुंसि प्रवालं पुनपुंसकम् इत्यमरः । पूरितार्धयेव स्थितया अच्छस्फटिकाक्षमालया स्वच्छस्फटिकानां मालया। जपमालयेत्यर्थः । 'अच्छो भल्लू के स्फटिकेऽमलेऽच्छाभिमुखेऽव्ययम्' इति हेमचन्द्रः। तथा प्रसिद्ध स्फटिकग्रहणादृषेर्मोक्षार्थित्वं व्यज्यते । 'स्फटिको मोक्षदः परम्' इति मोक्षार्थिनां स्फटिकाक्षमामालाभिधानात् । विभान्तं भासमानम् । भातेः शतृप्र. त्ययः । अत्र नखांशुभिन्नयेति स्वगुणत्यागेनान्य गुणस्वीकारलक्षणस्तद्गुणालङ्कार उक्तः । तद्गुणः स्वगुणत्यागात्' इति ।। ६ ।। ___अन्वयः-अजस्रम् आस्फालित वल्लकीगुणक्षतोज्ज्वलाांगुष्ठनखांशुभिन्नया पुरः प्रवालैः पूरितार्धया इव अच्छस्फटिकाक्षमालया विभान्तम् ॥ १॥ हिन्दी अनुवाद-वीणा के तारों को निरन्तर ताडित करते रहने के कारण घर्षित हुए उज्ज्वल अंगूठे के नख की कान्ति से मिश्रित, रक्तिम आभा से, अग्रिम अर्धभाग को मानों प्रवालों से पूरित करने वाली निर्मल स्फटिक की जपमाला से शोभायमान (आकाश से भूतल की ओर आनेवाले उस व्यक्ति को श्रीकृष्ण ने नारद समझा ) ( निरन्तर वीणा को बजाते रहने से वीणा के तारों से अंगूठा घिसकर कुछ रक्तिम हो गया है। और निसर्गतः निर्मल नख की कान्ति भी उससे रक्तिम होकर स्फटिक माला पर प्रतिबिम्बित हो रही है, ( स्फटिक की माला फेरते समय उसपर अंगूठा रखने से उसकी कान्ति स्फटिक के अगले भाग में प्रतिबिम्बत हुआ करती थी) इससे ऐसा मालूम होता था कि मानों स्फटिक के आधे भाग में लाल-मूङ्गा जड़ा हुआ है । उस स्फटिक की माला से महर्षि नारद शोभायमान हो रहे थे । ९ ।। विशेष-स्फटिक की जपमाला ग्रहण करने से नारद मुनि का मोक्षार्थिव अभिव्यक्त होता है। क्यों कि मोक्षार्थियों के लिए स्फटिक माला का विधान है'स्फटिको मोक्षदः परम् ।' प्रसङ्ग-भगवान् कृष्ण ने महती नामक वीणा का (जिसमें ग्राम और मूर्च्छनाएँ ध्वनित हो रही हैं ) पुनः पुनः अवलोकन करने वाले नारदमुनि को देखा । रणद्भिराघट्टनया नभस्वतः पृथग्विभिन्नश्रुतिमण्डलैः स्वरैः। म्फुटीभवद्रामविशेषमूर्छनामवेक्षमाणं महती मुहुर्मुहुः॥१०॥ रणद्भिरिति ॥ पुनः । नभस्वतो वायोराघट्टनया आघातेन पृथगसङ्कीर्णरद्भिर्वनद्भिः। अनुरणनोत्पद्यमान रित्यर्थः । 'श्रुत्यारब्धमनुरणनं स्वरः' इति लक्षणात् । तदुक्तं रत्नाकरे 'श्रुत्यनन्तरभावी यः स्निग्धोऽनुरणनात्मकः । स्वतो रञ्जयति श्रोतुश्चित्तं स स्वर उच्यते' । ( सं. र. १।३।२४-२५) इति । श्रुति म स्वरारम्भकावयवः शब्दविशेषः । तदुक्तम् -- Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् 'प्रथमश्रवणाच्छब्दः श्रूयते ह्रस्वमात्रकः । सा श्रुतिः संपरिज्ञेया स्वरावयवलक्षणा' । ____ इति । विभिन्नानि प्रतिनियतसंख्यया व्यवस्थितानि श्रुतीनां मण्डलानि समूहा येषां तविभिन्नश्रुतिमण्डलैः । श्रुतिसंख्यानियमश्च दशितः 'चतुश्चतुश्चतुश्चैव षड्जमध्यमपञ्चमाः । द्वे द्वे निषादगान्धारी त्रिभि ऋषभधवतो' । (चतुर्दण्डिप्रकाशिका) षड्जादयः सप्तोक्तलक्षणाः । तदुक्तम् 'श्रुतिभ्यः स्युः स्वराः षड्जर्षभगान्धारमध्यमाः। पञ्चमो धैवत श्चाथ निषाद इति सप्त ते ॥ तेषां संज्ञाः सरिगमपधनीत्यपरा मताः' । (सं. र. ३।३।२३-२४) इति । तैः स्वरः स्फुटीभवन्त्यो ग्रामविशेषाणां षड्जाद्यपरनाम कानां स्वरसंघातभेदानां त्रयाणां मूर्छनाः स्वरारोहावरोहक्रमभेदा यस्यां तां महती महतीनाम्नी निजवीणाम् । 'विश्वावसोस्तु बृहती तुम्बुरोस्तु कलावती। महती नारदस्य स्यात्सरस्वत्यास्तु कच्छपी' ॥ इति वैजयन्ती । मुहुर्मुहुरवेक्षमाणम् । तन्त्रीयोजनाभेदलक्षणमहिम्ना पुरुषप्रयत्नमन्तरेणवाविसंवादं ध्वनतीति कौतुकादनुसन्धानमित्यर्थः । अथ ग्रामलक्षणम् 'यथा कुटुम्बिनः सर्वेऽप्येकीभूता भवन्ति हि । तथा स्वराणां सन्दोहो ग्राम इत्यभिधीयते ।। (वृह. दे. १।३४।८६) षड्जग्रामो भवेदादी मध्यमग्राम एव च । गान्धाराम इत्येतद् ग्रामत्रयमुदाहृतम्' । इति । तथा 'नन्द्यावतॊऽथ जीमूतः सुभद्रो ग्रामकास्त्रयः । षड्जमध्यमगान्धारास्त्रयाणां जन्महेतवः' ।। इति । मूर्छनालक्षणं च - 'क्रमात्स्वराणां सप्तानामारोहश्चावरोहणम् । सा मूर्छत्युच्यते ग्रामस्था एताः सप्त सात च' । ग्रामत्रयेऽपि प्रत्येक सप्त सप्त मूर्छना इत्येकविंशतिर्मूछना भवन्ति । तत्रेह नामानि तु 'नानपेक्षितमुच्यत' इति प्रतिज्ञाभङ्गभयान्न लिख्यन्ते इति सर्वमवदातम् । अत्र 'व्यापारमन्तरेण स्वराद्याविर्भावोक्त्या कोऽपि लोकातिक्रान्तोऽयं शिल्पसौष्ठवातिशयो वीणायाः प्रतीयते । तेन सह स्वतःप्रसिद्धातिशयस्याभेदेनाध्यवसितत्वात्तन्मूलातिशयोक्तिरलङ्कारः । सा च महत्याः पुंव्यापारं विना मूर्खाद्यसम्ब ऽपि सम्बन्धाभिधानादसम्बन्धे सम्बन्धरूपतया व्यापाराख्यरूपकारणं विनापि मूर्छनादिकार्योत्पत्तिद्योतनाद्विभावना व्यज्यत इत्यलङ्कारध्वनिरिति संक्षेपः ॥१०॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः अन्वयः--नभस्वतः आघटनया पृथक् रणद्भिः विभिन्नश्रुतिमण्डलैः स्वरैः स्फुटीभवद्ग्रामविशेषमूर्च्छनां महतीं मुहुर्मुहुः अवेक्षमाणम् ॥ १० ॥ हिन्दी अनुवाद--वायु के भाघात से उत्पन्न वीणा के तारों की झनझनाहट में पृथक् पृथक् मालूम होने वाले अनेक श्रुतिसमूहात्मक--सा-रि-ग-म-प-ध-नी आदि सात स्वरों द्वारा भारोहावरोह क्रमभेद को ( विभिन्न ग्रामों की मूर्च्छनाओं को ) व्यक्त करने वाली महती नामक निज वीणा को बारंबार (सकौतुक ) देखते हुए ( उस व्यक्ति को श्रीकृष्ण ने नारद समझा ॥ १० ॥ (नारद मुनि आकाश से भूतल की ओर आ रहे थे। वे हाथ में अपनी महती' नाम की वीणा लिये थे । वायु के आघात से वीणा के तार झंकृत हो रहे थे। जिनसे षडजऋषभ आदि सात-स्वर वनित हो रहे थे और उनसे ग्राम-विशेष की मर्छनायें भी स्पष्ट व्यक्त हो रही थीं। ऐसी वीणा को देखते हुए नारद जी आ रहे थे। ) विशेष--उपर्युक्त श्लोक में कवि ने अपने सङ्गीत ज्ञान का अच्छा परिचय दिया है । उक्त श्लोक में वर्णित स्वरों के ग्राम का अर्थ है-स्वरों का समूह । सङ्गीत शास्त्र के अनुसार-'यथा कुटुम्बिनः सर्वेऽप्येकीभूता भवन्ति हि । तथा स्वराणां सन्दोहो ग्रामं इत्यभिधीयते' ग्राम तीन, स्वर सात तथा मूर्च्छना इक्कीस होती हैं। स्वरों के उतार चढ़ाव तथा भारोह अवरोह को मूर्च्छना कहते हैं । एक-एक ग्राम की सात-सात मूर्च्छनायें कुल मिलाकर इक्कीस हैं-- 'सप्तस्वरास्त्रयो ग्रामा मूच्छनाश्चैकविंशतिः।' प्रसङ्ग--महर्षि नारद अनुगमन करते हुए देवों को लौटाकर श्रीष्कृण के निवासस्थान पर पहुँचते हैं। निवर्त्य सोऽनुवजतः कृतानतीनतीन्द्रियज्ञाननिधिनभासदः । समासदत् सादितदैत्यसम्पदः पदं महेन्द्रालयचारु चक्रिणः ॥ ११ ।। निवत्यति ।। अतीन्द्रिया इन्द्रियमतिकान्ता देशकालस्वरूपाद्विप्रकृष्टार्थाः। 'अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया' (वा. १३३६ ) इति समासः । 'द्विगुप्राप्तापन्नालंपूर्वगति समासेषु परलिङ्गताप्रतिषेधो वक्तव्यः' इति विशेष्यलिङ्गत्वम् । तेषा ज्ञानं तस्य निधिः । सर्वार्थद्रष्टत्यर्थः। कृतानतीन् कृतप्रामाननुव्रजतोऽनुगच्छतः नभस्याकाशे सीदन्ति गच्छन्तीति नभःसदः सुरान् । 'सत्सद्विष'-(३।२।६१) इत्यादिना क्विप् । निवर्त्य प्रतिषिध्य स मुनिः सादितदैत्यसम्पदः सादिता: विध्वस्तीकृताःदैत्यानां सम्पदो येन तस्य चक्रिणः कृष्णस्य पदं स्थानं महेन्द्रालयचारु इन्द्रभवनमिव भासमानं समासदत् । समापरिषद्धातोर्लुङ् । 'पुपादि'-(३।१।५५) इत्यङ् । अत्र नतीनती पदः पदमिति च द्वयोय॑जनयुग्मयोरसकृदावृत्त्या छेकानुप्रासः । अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास इत्यनयोः संमृष्टिः ॥ ११ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् अन्वयः -- अतीन्द्रियज्ञाननिधिः सः कृतानतीन् अनुव्रजतः नभःसदः निवर्त्य सादितदैत्यसम्पदः चक्रिणः महेन्द्रालयचारु पदं समासदत् ॥ ११ ॥ १२ हिन्दी अनुवाद -- अतीन्द्रिय ज्ञान के निधि ( अर्थात् सर्वद्रष्टा ) वे ( नारद ) नमस्कार किये हुये तथा पीछे-पीछे आनेवाले ( अनुगामी) देवताओं को लौटाकर असुरों की सम्पत्ति को नष्ट करने वाले श्रीकृष्ण के इन्द्रभवन के समान सुन्दर (निवास) स्थान में पहुँचे ॥ ११ ॥ प्रसङ्ग - शिष्टाचार का पालन करते हुए श्रीकृष्ण ने अपने आसन से उठकर नारद का स्वागत किया । पतत्' पतङ्गप्रतिमस्तपोनिधिः पुरोऽस्य यावन्न भुवि व्यलीयत । गिरेस्तडित्वानिव तावदुच्चकैर्जवेन पीठादुदतिष्ठदच्युतः ॥ १२ ॥ पतदिति ॥ पतन् यः पतङ्गः सूर्यः स प्रतिमोपमानं यस्य सः ।' पतङ्गी पक्षिसूर्यौ च' इत्यमरः । तपोनिधिर्मुनिरस्य हरेः पुरो भुवि पुरः प्रदेशे यावन्न व्यलीयत नातिष्ठत् । 'लीङ् गतौ' इति धातोर्देवादिकात्कर्तरि लङ् । तावदच्युतो हरिगिरेः शैलात् । तडितोऽस्य सन्तीति तडित्वान्मेघ इव । 'मादुपधायाश्च मतोर्वोऽयवादिभ्यः' ( 11 ) इति मतुपो मकारस्य वकारः । ' तसौ मत्वर्थे (१|४|१६ ) इति भसंज्ञायामेकसंज्ञाधिकारेणापदत्वान्न जश्त्वम् । उच्चकैरुन्नतात्पीठादासनाज्जवेनोदतिष्ठत् । मुनिचरणस्य भूस्पर्शात्प्रागेव स्वयमुत्थितवान् । 'ऊर्ध्वं प्राणा ह्यत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति । प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते ॥ ( मनु. २।१२० ) इति शास्त्रमनुस्मरन्निति भावः । 'उदोऽनूर्ध्वकर्मणि' ( १ । ३ । २४ ) इति नियमादिहोधर्वकर्मणि नात्मनेपदम् । पतत्पतङ्ग इत्यत्र पतनासम्भवादियमभूतोपममेत्याचार्यदण्डभृतयो बभणुः । अत एवाप्रसिद्धस्योपमानत्वायोगादुत्प्रेक्षेत्याधुनिकालङ्कारिकाः सर्वे वर्णयन्ति ।। १२ ।। अन्वयः -- पतत्पतङ्गप्रतिमः तपोनिधिः अस्य पुनः भुवि यावत् न व्यलीयत, तावत् अच्युतः गिरेः तडित्वान् इव उच्चकैः पीठात् जवेन उदतिष्ठत् ॥ १२ ॥ के हिन्दी अनुवाद -- गिरते हुए सूर्य इनके ( श्रीकृष्ण के सामने भूमि पर रक्खा या नहीं कि ) श्रीकृष्ण पर्वत से उठ खड़े हुए ।। ९२ । समान ( तेजस्वी ) तपोनिधि ( नारद ) अवस्थित हुए नहीं कि तबतक ( पैर मेघ की तरह ऊँचे आसन से वेगपूर्वक विशेष - ( १ ) इस श्लोक में कवि माघ १. पतन् पतङ्ग० । ने मनु के उस वचन की ओर ध्यान Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः १३ आकर्षित किया है जिसके अनुसार वृद्ध पुरुष या महान् पुरुष के आने पर युवकों को उठकर खड़ा हो जाना चाहिए और अभ्यागत पुरुष को नमस्कार करके उच्चासन पर उसे बैठाना चाहिये। 'ऊर्ध्व प्राणा पत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति । प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते ॥' इतिमनुः ॥ (२) इस श्लोक में 'पतत्पतङ्गप्रतिमः' पद में सूर्य का पतन असंभव होने के कारण आचार्य दण्डी ने अभूत उपमा अलंकार माना है, किन्तु उत्तरवर्ती आचार्यों ने अप्रसिद्ध उपमानत्व का योग न होने के कारण उत्प्रेक्षा का वर्णन किया है-- _ 'पतत्पतङ्ग इत्यत्र पतङ्गस्य पतनासम्भवादियमभूतोपमेत्याचार्य दण्डी प्रभृतयो बभणुः । अत एवाप्रसिद्धस्योपमानत्वायोगादुत्प्रेक्षेत्याधुनिकालंकारिकाः सर्वे वर्णयन्ति । प्रसङ्ग--इस श्लोक में माघ कवि नारद मुनि के पृथ्वी पर चरण-न्यास के प्रभाव का वर्णन करते हैं। अथ प्रयत्नोन्नमितानमत्फणैधृते कथञ्चित्फणिनां गणैरधः। न्यधायिषातामभिदेवकीसुतं सुतेन धातुश्चरणौ भुवस्तले ॥ १३ ॥ अथेति ॥ अथाच्युताभ्युत्थानानन्तरं धातुः सुतेन नारदेन प्रयत्नोन्नमितास्त्रथापि मुनिपादन्यासभारादानमन्त्यः फणा येषां तैः फणिनां गणरधोऽधःप्रदेशे कथञ्चित् धृते स्थापिते भुवस्तले भूपृष्ठे । अभिदेवकीसुतं देवकीसुतमभि । लक्ष्यीकृत्येत्यर्थः । 'लक्षणेनाभिप्रती आभिमुख्ये'-(२।१।१४ ) इत्यव्ययीभावः । चरणीपादौ । 'पदघ्रिश्चरणोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः। न्यधायिषातां निहिती। दधातः कर्मणि लुङ् । 'स्यसिचसी ( ६।४।६२)-' इत्यादिना चिण्वदिटि युक् । अत्र फणानां नमनोन्नमनासम्बन्धेऽपि मुनिगौरवाय तत्सम्बन्धाभिधानादतिशयोक्तिभेदः ।। १३ ॥ मन्वया--अथ धातुः सुतेन प्रयत्नोन्नमितानमत्फणैः फणिनां गणैः अधः कथञ्चित् ते भुवः तले अभिदेवकीसुतं चरणौ न्यधायिषाताम् ॥ १३ ॥ हिन्दी अनुवाद--इस (श्रीकृष्ण के अभ्युत्थान करने ) के पश्चात् ब्रह्मा के पुत्र (नारद जी) ने प्रयत्नपूर्वक उठाई और ( नारद मुनि के चरणों के भार के कारण) झुकती हुई फणों वाले सर्प-समूहों द्वारा नीचे बढ़ी कठिनाई से धारण किए गए भूतल पर देवकी-पुत्र ( श्रीकृष्ण ) के सन्मुख चरणों को रखा। प्रसङ्ग-इसके पश्चात् आदि पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण ने पूज्य नारद का विधिपूर्वक पूजन किया। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ शिशुपालवधम् तमर्घ्य दियाऽऽदिपूरुषः सपर्यया साधु स पर्यपूपुजत् । गृहानुपैतुं प्रणयादभीप्सयो भवन्ति नापुण्यकृतां मनीषिणः ॥ १४ ॥ 1 तमिति ॥ आदिपूरुषः पुराणपुरुषः । 'अन्येषामपि दृश्यते' ( ६ | ३|१३७ इति वा दीर्घः । स कृष्णः अर्धं पूजामहंतीत्यर्ध्यः । दण्डादिभ्यो यः (५।१।६६ ) । तं नारदम् । अर्घार्थं द्रव्यमध्यंम् । पादार्घाभ्यां च ' ( ५।४।२५ ) इति यत्प्रत्ययः । 'मूल्ये पूजाविधावधं : ' 'षट् तु त्रिष्वर्ध्य मर्घायें' इति चामरः । अर्घ्य मादिस्यास्तयार्थ्यादिकया । ' शेषाद्विभाषा' (५२४ । १५४ ) इति विकल्पेन कप्रत्ययः । सपर्यया पूजया । पूजा नमस्याऽपचितिः सपर्यार्णाः समाः' इत्यमरः । साधु यथा तथा पर्य पूजत्परिपूजितवान् । ण चडन्तं कर्तव्यम् । युक्तं चैतदित्यर्थान्तरं न्यस्यति - गृहानिनि । मनस ईषिणो मनीषिणः सन्तः । पृषोदरादित्वात्साधुः । अपुण्यकृतां पुण्यमकृतवताम् । 'सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः' इति भूते क्विप् । गृहान्प्रणयादुपैतुमभीप्सवः प्राप्तुमिच्छ्वः । आप्नोतेः सन्नन्तादुप्रत्ययः । 'आप्ज्ञप्यृधामीत्' (७।४।५५) इतोकारः । न भवन्ति किन्तु पुण्यकृतामेव । अतः कृच्छ्लभ्याः सन्तः पूज्या इत्यर्थः ।। १४ ।। अन्वयः - आदि पुरुषः सः अयं तत् अर्ध्यादिकया सपर्यया साधु पर्यपुजत् । मनीषिणः अपुण्यकृतां गृहान् प्रणया उपैतुम् अभीप्सवः न भवन्ति ॥ १४ ॥ हिन्दी अनुवाद -आदि पुरुष उन श्रीकृष्ण ने पूज्य नारदजी की अर्ध्या आदि पूजन सामग्री से यथोक्त विधि से (अच्छी तरह ) पूजा की। विद्वान् लोग ( सन्त पुरुष ) पुण्य कर्म न करने वालों के ( अपुण्यात्मा के ) घर प्रेम से आना नहीं चाहते हैं ।। १४ । प्रसङ्ग — श्रीकृष्ण ने स्वयं दिये हुए आसन पर नारद मुनि को बैठाया । न यावदेतावदपश्यदुत्थितौ जनस्तुषाराञ्जनपर्वताकृती | स्वहस्तदत्ते मुनिमासने मुनिश्चिरन्तनस्तावदभिन्यवीविशत् ॥ १५ ॥ न यावदिति । उत्थितावेतौ मुनिकृष्णौ जनस्तुषाराञ्जनयोः पर्वताविव यावन्नोदपश्यन्नोत्प्रेक्षितवान्, तावच्चिरन्तनः पुराणो मुनिः कृष्णः । 'पुरा किल भगवान् बदरिकारण्ये नारायणावतारेण तपसि स्थितवान्' इति पुराणात् । 'सायंचिरम् - (४।३।२३) ' इत्यादिना ट्युप्रत्ययस्तुडागमश्च । स्वहस्तेन दत्ते आसने मुनि नारदमभिन्यवीविशत् स्वाभिमुखेनोपवेशितवान् । अभितिपूर्वाद्विशतेर्ण्यन्ताल्लुङि 'णि' - ( ३।१।४८ ) इति च ।। १५ ।। अन्वयः - जनः उत्थितौ एतौ तुषाराञ्जनपर्वतौ इव यावत् न उदपश्यत् तावत् चिरन्तनः मुनिः स्वहस्तदत्ते आसने मुनिम् अभिन्यवीविशत् ।। १५ ।। १. ० मर्धादिकया । २. पर्वताविव ! Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी अनुवाद--( वहाँ पर उपस्थित ) लोग, खड़े हुए, हिम और अञ्जन के पर्वत के समान इन दोनों ( नारद और श्रीकृष्ण ) को देख ही रहे थे कि पुराण मुनि ( श्रीकृष्ण ) ने अपने हाथ से दिये हुये भासन पर मुनि ( नारद ) को बैठाया ॥ १५ ॥ विशेष-इस श्लोक में गौरवर्ण नारद की तुलना हिम पर्वत तथा श्याम वर्ण श्रीकृष्ण की समता अञ्जन पर्वत से की गई है ।। १५ ॥ प्रसङ्ग-माघ कवि कहते हैं कि कृष्णवर्ण श्रीकृष्ण के सम्मुख आसन पर स्थित नारदमुनि ने उदयाचल पर आरूढ़ चन्द्रमा की शोभा को प्राप्त किया। महामहानीलशिलारुचः पुरो निषेदिवान् कंसकृपः स पिष्टर। श्रितोदयाद्रेरभिसायमुच्चकैरचूचुरश्चन्द्रमसोऽभिरामताम् ॥ १६ ॥ महामहेति ॥ महत्या महानीलशिलायाः सिंहलद्वीपसंभवेन्द्रनीलोपलस्य रुगिव रुग् यस्य तस्येत्युपमाङ्कारः । 'सिंहलस्थाकरोद्भूता महानीलास्तु ते स ताः' इति भगवानगस्त्यः । कंसकृषो हरेः पुरोऽग्रे उच्चकै रुन्नते विष्टर आसने । वृक्षासनयोविष्टरः' (८।३।१६) इति षत्वम् । निषेदीवानुपविष्टवान् । 'भाषायां सदवसश्रुवः'-(३।२।१०८) इति क्वसुः । स मुनिरभिसायं सायंकालाभि मुखम् । अव्ययीभावसमासः । सायंकालस्य कांत्कृिष्णोपमानत्वम् । श्रित आश्रित उदयाद्रिरुदयाचलो येन तस्य चन्द्रमसोऽभिरामतां शोभामचूचुरच्योरितवान् । प्राप्तवानित्यर्थः । 'चुर स्तेये' णिश्रि-( ३।१।३८ ) इति च । अन्यस्यायधर्मसम्बधासम्भवाच्चःद्रमसोऽभिरामतामिवाभिरामतामित्यौपम्यपर्यवसानादसम्भवद्वस्तुसम्बाधरूपो निर्दशनाभेदः, स चोक्तोपमयाङ्गाङ्गिभावेन चङ्कीर्यते ॥ १६ ।। __ अन्वयः--महामहानीलशिलारुचः कंसकृषः पुरः उच्चकैः विष्टरे निषेदिवान् सः अभिसायं श्रितोदयाद्रेः चन्द्रमसः अभिरामताम् अचूचुरत् ।। १६ ।। हिन्दी अनुवाद--विशाल इन्द्रनीलमणि की-सी कान्तिवाले और कंस का संहार करनेवाले (श्रीकृष्ण ) के सम्मुख ऊँचे आसन पर स्थित नारद मुनि ने सायंकाल में (उन्नत) उदयाचल पर आरूढ़ चन्द्रमा की शोभा को चुराया अर्थात् प्राप्त किया॥१६॥ (श्यामवर्ण श्रीकृष्ण के सम्मुख ऊँचे आसन पर बैठे हुए गौरवर्ण नारद मुनि सायंकाल के समय में उदयाचल पर स्थित शुभ्रवर्ण चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे।) प्रसङ्ग--इस श्लोक में महाकवि माघ, नारद मुनि के पूजन के पश्चात् श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का वर्णन करते हैं । विधाय तस्यापचितिं प्रसेदुषः प्रकाममप्रीयत यज्वनां प्रियः। ग्रहीतुमार्यान् परिचर्यया मुहुर्महानुभाषा हि नितान्तमर्थिनः ॥ १७ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् विधायेति ॥ यज्वानो विधिनेष्ट वातः । 'यज्वा तु विधिनेष्टवान्' इत्यमरः । 'सुयजोः-' (३।२।१०३) इति यजिधातोङ्वनिप् । तेषां प्रियो हरिः प्रसेदुषः प्रसनस्य । सदेः क्वसुः इत्युक्तम् । तस्य मुनेरपिचिति पूजाम् । 'पूजा नमस्याऽपचितिः' इत्यमरः । विधाय विशेषेण मनोवाक्कायकर्मभिस्तत्परतया कृत्वा प्रकाममत्यर्थमप्रीयत प्रीतोऽभूत् । प्रीयतेर्देवादिकाकर्तरि लङ् । मुनिपूजायाः प्रीति हेतुत्वेऽर्थान्तरं न्यस्यति-महानुभा वा महात्मान आर्यान् पूज्यान् परिचर्यया मुहुर्ग्रहीतुं वशीकर्तुम् । 'अहोऽलिटि दीर्घः (७।२।३७ ) इतीटो दीर्घः । नितान्तमथिनोऽभिलाषवन्तो हि भवन्ति । अर्थनमर्थोऽभिलापः स एपामस्तीति मत्वर्थ इनिर्न तु णिनिः । कृद्वतेस्तद्धितवृत्तिबलीयसी' इति भाष्यात् ॥ १७ ॥ अन्वयः--यज्वनां प्रियः प्रसेदुषः तस्य अपचितिं विधाय प्रकामम् अप्रीयत् । हि महानुभावाः आर्यान् परिचर्यया मुहुः ग्रहीतुम् नितान्तम् अर्थिनः (भवन्ति)॥१७॥ हिन्दी अनुवाद--शास्त्रोक्त विधिवत् यज्ञकर्ताओं के प्रिय (श्रीकृष्ण भगवान् ) प्रसन्न हुए नारद मुनि की पूजाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। क्योंकि महात्मा लोग पूज्य जनों को सेवा द्वारा अपने वश में करने के लिए विशेष इच्छुक रहते हैं ॥ १७ ॥ प्रसङ्ग--नारद मुनि ने सकल तीर्थों से संगहीत जल से श्रीकृष्ण का अभिषेक किया, और भगवान् श्रीकृष्ण ने उसे ग्रहण किया। अशेषतीर्थोपहृता कमण्डलोनिधाय पाणावृषिणाभ्युदीरिताः। अघौघविध्वंसविधौ पटीयसीनतेन मूर्ना हरिरग्रहीदपः ॥ १८ ॥ अशेषेति ॥ अशेषेभ्यस्तीर्थेभ्य उपहृता आहृतास्तथा पाणी निधाय । कमण्डलोरुदकपात्रादुद्धृत्य पाणी निधायैत्यर्थः । क्रियान्तराक्षिप्तक्रियापेक्षया कमण्डलोरपादानत्वम् । 'अस्त्री कमण्डलुः कुण्डी' इत्यमरः। ऋषिणाभ्युदीरिता आक्षिप्ता अत एवाघौघानां पापसमूहानां विध्वंसविधी विनाशकरणे पटीयसीः समर्थतराः। पटुशब्दादीयसुनि 'उगितश्च' (४।१।६) इति ङीप् । अपो जलानि हरिनंतेन मूर्नाऽग्रहीत्स्वीकृतवान् । ग्रहेर्लुङ् ॥ १८ ॥ ___ अन्वयः--अशेषतीर्थोपहृताः ऋषिणा कमण्डलोः पाणौ निधाय अभ्युदीरिताः; अद्यौघविध्वंसविधौ पटीयसीः अपः हरिः नतेन मूर्ना अग्रहीत् ॥ १८ ॥ हिन्दी अनुवाद--समस्त तीर्थों से संगृहीत, नारद मुनि के द्वारा कमण्डलु से (निकाल कर ) हाथ में रखकर अभिमंत्रित किए गये तथा पाप-समूह को नष्ट करने में अत्यधिक समर्थ जल को श्रीकृष्ण मे नतमस्तक से ग्रहण किया ॥ १८ ॥ प्रसङ्ग--जब श्यामवर्ण श्रीकृष्ण नारद मुनि की आज्ञा से सुवर्ण सिंहासन पर बैठे। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः स काञ्चने यत्र मुनेरनुज्ञया नवाम्बुदश्यामवपुर्यविक्षत । जिगाय जम्बूजनितश्रियः श्रियं सुमेरुशृङ्गस्य तदा तदासनम् ॥ १९ ।। स काञ्चन इति ॥ नवाम्बुदश्यामतनुः स हरिर्मुनेरनुज्ञया काञ्चने काञ्चनविकारे । वैकारिकोऽण्प्रत्ययः । यत्रासने न्यविक्षतोपविष्टवान् । निपूर्वविशो लुङि 'नेविशः' इत्यात्मनेपदे शल इगुपधादनिट: क्सः । (३।१।४५) तदासनं तदा हर्युपवेशनसमये, जम्वूर्नीलफल विशेषः । 'जम्बः सुरभिपत्रा च राजजम्बर्महाफला' इत्यभिधानरत्नमालायाम् । तयाजनिता श्रीर्यस्य तत्तथोक्तस्य । भाषितपुंस्कत्वात्पक्षे पुंवद्भावान्नुमभावः । सुमेरुशृङ्गस्य श्रियं जिगाय । अभिभावितवानित्यर्थः । 'सन्लिटोर्जः (७।३।५७) इति कुत्वम् । उपमानुप्रासयोः संसृष्टि: ॥ १६ ॥ अन्वय-नवाम्बुदश्यामतनुः सः मुनेः अनुज्ञया काञ्चने यत्र न्यविक्षत तत् आसनं तदा जम्बूजनितश्रियः समेरू शृङ्गस्य श्रियं जिगाय ॥ १९ ॥ हिन्दी अनुवाद -नवीन मेघ के समान श्याम शरीरवाले वे (श्रीकृष्ण) नारद मुनि की आज्ञा से सुवर्ण के जिस (आसन ) पर बैठे, उस आसन ने उस समय जामुन के वृक्ष के द्वारा उत्पन्न की गई शोभावाले सुमेरु पर्वत के शिखर की शोभा को जीत लिया ॥ १९ ॥ (सुमेरू पर्वत के शिखर पर उत्पन्न जामुन के वृक्ष से जैसे उसकी अलौकिक शोभा होती है, उसी तरह श्यामवर्ण श्रीकृष्ण ने भी नारद मुनि की आज्ञा से सुवर्ण सिंहासन पर बैठकर उस आसन की शोभा को बढ़ा दिया 1) प्रसङ्ग--इस श्लोक में कवि माघ सुवर्णासन पर बैठे हुए कृष्ण की समुद्र से समता वर्णित करते हुए कहते हैं । स ततकार्तस्वरभास्वराम्बरः कठोरताराधिपलाञ्छनच्छविः । विदिद्युते वाडवजातवेदसः शिखाभिराश्लिष्ट इवाम्भसां निधिः ॥ २० ॥ स तप्तेति ॥ तप्तं पुटपाकशोधितं कार्तस्वरं सुवर्णम् । 'रुक्म कार्तस्वरं जाम्बूनदमष्टापदोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः (२।१०।१८६७ )। तद्वद्भास्वरं दीप्यमानमम्बरं यस्य सः । पीताम्बर इत्यर्थः । कठोरताराधिपस्य पूर्णेन्दोर्लाञ्छनस्य छविरिव छविर्यस्य स इत्युपमानपूर्वपदो बहुबिहिरुत्तरपदलोपश्च । स हरिडिवजातवेदसो वाडवाग्नेः शिखाभिर्वालाभिराश्लिष्टो व्याप्तोऽम्भसा निधिरिव समुद्र इव विदिद्युते बभौ ॥ २० ॥ अन्वयः–तप्तकार्तस्वरभास्वराम्बरः कठोरताराधिपलाञ्छनच्छविः सः वाडवजातवेदसः शिखाभिः आश्लिष्टः अम्भसा विधिः इव विदिद्युते ।। २० ॥ हिन्दी अनुवाद-तपे हुए सुवर्ण के समान दीप्यमान वनवाले (पीताम्बर२शि०व० Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ शिशुपालवधम् धारी और पूर्ण चन्द्र के लान्छन के समान कान्तिवाले श्याम वर्ण के ( श्रीकृष्ण ) वाढवा की ज्वालाओं से व्याप्त समुद्र के समान सुशोभित हुए ॥ २० ॥ ( पीताम्बर धारण किये श्याम वर्ण श्रीकृष्ण वाडवानि की ( पीली ) ज्वाला से युक्त समुद्र की शोभा को प्राप्त हुए । ) विशेष- ब्रह्माण्ड पुराण २, १८, ८० ३७२, १७, मत्स्य. २, ५, वायु. ४७, ७६, पुराण के अनुसार — क्षत्रियों के अत्याचार से पीड़ित एक भृगुवंशी अपने गर्भ की रक्षा हेतु पहाड़ों की कन्दरामें जा छिपी, पर क्षत्रियों ने इसका वह भी पीछा किया। भयवश वह भागी और भागते समय ऊरू से एक तेजस्वा पुत्र हुआ, अतः इसका नाम 'और्व' पड़ा। इन्होंने क्रोधवश सम्पूर्ण पृथ्वी को भस्म करना चाहा, पर पूर्वजों ने इन्हें रोका तब इन्होंने अपने क्रोध को समुद्र में डाल दिया । इसी कारण बडवानल को 'और्वानल' भी कहते 11 ( श्लोक १।२० ) प्रसङ्ग — इस श्लोक में कवि माघ श्यामवर्ण श्रीकृष्ण की और गोरवर्ण नारद की मिश्रित शोभा का वर्णन करते हैं । रथाङ्गपाणेः पटलेन रोचिषामृषित्विष संवलिता विरेजिरे । चलत्पलाशान्तरगोचरास्तरोस्तुषारमूर्तरिय नक्तमंशवः ॥ २१ ॥ रथाङ्गपाणेरिति । रथाङ्गं चक्रं पाणौ यस्य तस्य हरेः । 'प्रहरणार्थेभ्यः परे निष्ठा सप्तम्यौ भवतः' इति पाणेः परनिपातः । रोचिषां छवीनां पटलेन समूहेन संवलितामिलिता ऋपित्विषो नक्तं रात्रौ । सप्तम्यर्थेऽव्ययम् । तरोश्चलतां पलाशानां पत्राणामन्तराणि गोचर आश्रयो येषां ते, तुषारा मूर्तिर्यस्य तस्येन्दोरंशव इव विरोजिरे चकाशिरे ।। २१ ।। अन्वयः - रथाङ्गपाणेः रोचिषां पटलेन संवलिताः ऋषित्विषः नक्तं तरो चलत्पलाशान्तगोचराः तुषारमूर्ते अंशवः इव विरेजिरे ।। २१ ।। हिन्दी अनुवाद - सुदर्शन चक्रधारी ( श्रीकृष्ण ) के प्रभा-पुन्ज से मिली हुई मुनि की ( शुभ्रवर्ण) छवि - किरणें रात्रि में हिलते हुऐ पत्तो के मध्य से आनेवाली चन्द्र-किरणों की तरह सुशोभित हुई ।। २१ ।। ( चन्द्रमा का रात में वृक्षों के पत्तों के मध्य से नीचे गिरा हुआ प्रकाश और पत्तों की काली छाया परस्पर मिल जाने से जैसे चितकबरी शोभा उत्पन्न होती है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण के श्याम वर्ण के तेज से नारद मुनि का शुभ्र तेज मिलकर सुशोभित हुआ ।। २१॥ प्रसङ्ग — इस श्लोक में कवि माघ श्रीकृष्ण और नारद मुनि के श्यामल और शुभ्र वर्ण के किरणों के सम्मिश्रण से होनेवाले एकवर्णत्व का वर्णन करते हैं । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः प्रफुल्लतापिच्छनिभैरभीषुभिः शुभैश्च सप्तच्छदपांसुपाण्डुभिः । परस्परेणच्छुरितामलच्छवी तदैकवर्णाविव तौ बभूवतुः ॥ २२ ॥ १९ प्रफुल्लेति प्रफुल्लतीति प्रफुल्लं विकसितम् । 'फुल्ल विकसने' इति धातोः पचाद्यजन्तम् । फलेर्निष्ठायाम् 'अनुपसर्गात्फुल्लक्षीबकृशोल्लाघा:' इति निपातनास्प्रफुल्लमित्येवेति क्षीरस्वामी । तापिच्छस्य तमालस्य पुष्पं तापिच्छम् । ‘फले लुक्' (४।३।१६३) इति तद्धितलुक् । 'द्विहीनं प्रसवे सर्वम्' इति नपुंसकत्वम् । 'कालस्कन्धस्तमालः स्यात्तापिच्छोऽपि ( २५। ७२५ ) इत्यमरः । तेन सदृशैः प्रफुल्लतापिच्छनभः । नित्यसमासत्वादस्वपदविग्रहः अत एव ' स्युत्तरपदेत्वमी' इति 'निभसङ्काशनीकाशप्रतीकाशोपमादयः' (२।११।२००४ ) इत्यमरः । सप्त छदाः पर्णानि पर्वसु अस्येति सप्तच्छदो वृक्षभेदः । 'सप्तपर्णो विशालत्वक्शारदो विषमच्छदः' (२।५।६६४) इत्यमरः । संख्याशब्दस्य वृत्तिविषये वीप्सार्थत्वं सप्तपर्णादिवदित्युक्तं भाष्ये । शेषं तापिच्छ्वत् । तस्य पुष्पाणि सप्तच्छ्दानि तेषां पांसुवत्पाडुभिः शुभ्रैरभीषुभिरन्योन्यरश्मिभिः 'अभीषुः प्रग्रहे रम्भो इति शाश्वतः । परस्परेण छुरिते रूषिते अमले छवी अन्योन्यकान्ती ययोस्ती । छव्योरभीषूणामवयवा - वयविभावाद्भेदनिर्देशः । तो हरिनारदौ तदेकवर्णाविव बभूवतुः । उभयप्रभामेलनादुभयोरपि सर्वाङ्गीणो गङ्गायमुनासङ्गम इव स्फटिकेन्द्रनीलमणिप्रभामेलन प्रायः कश्चिदेको वर्णः प्रादुर्वभूव । तन्निमित्ता चेयमनयोरेकवर्णत्वोत्प्रेक्षा ॥ २२ ॥ अन्वय - प्रकुल्लतापिच्छनिभैः सप्तच्छदपांशुपाण्डुभिः शुभैश्च अमीषुभिः परस्परेणच्छुरितामलच्छवी तौ तदाएकवर्णौ इव बभूवतुः ॥ २२ ॥ हिन्दी अनुवाद - विकसित तमाल-पुष्प के सदृश (श्याम) तथा सप्तछद के पराग के समान शुभ्र और मनोहर प्रभा किरणों से एक दूसरे से मिश्रित हुई निर्मल आभाबाले वे दोनों (श्रीकृष्ण और नारद ) उस समय एकवर्ण की तरह हो गए ।। २२ ।। ( श्रीकृष्ण की श्यामता और नारद मुनि की शुभ्रता परस्पर मिल जाने से दोनों समान वर्ण की तरह प्रतीत होने लगे । ) प्रसङ्ग - नारद मुनि के आगमन से श्रीकृष्ण को इतना हर्ष हुआ कि वह उनके शरीर में समा न सका । युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो जगन्ति यस्यां सविकासमासत । तनौ मुस्तत्र न कैटभद्विषस्तपोधनाभ्यागमसम्भवा मुदः ॥ २३ ॥ युगान्तेति । युगान्तकाले प्रतिसंहृतात्मनः आत्मन्युपसंहृता आत्मानो जीवा येन तस्य कंठभद्विषो हरेर्यस्यां तनौ जगन्ति सविकास सविस्तरमासताऽतिष्ठन् । 'आस उपवेशने' लङ् । तत्र तनौ देहे तपोधनाभ्यागमेन सम्भवन्तीति सम्भवाः Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 शिशुपालवधम् सम्भूताः । पचाद्यच् । मुदः सन्तोषा न ममुः। अतिरिच्यन्ते स्मेत्यर्थः । चतुर्दशभवनभरणपर्याप्ते वपुषि अन्तर्न मान्तीति कविप्रौढोक्तिसिद्धातिशयेन स्वतः सिद्धस्याभेदेनाध्यवसितातिशयोक्तिः । सा च मुदामन्तः सम्बन्धेऽप्यसम्बन्धोक्त्या सम्बन्धासम्बन्धरूपा ॥ २३ ॥ अन्वय-युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनः कैटभद्विपः यस्यां तनौ जगन्ति सविकासम् आसत तत्र तपोधनाभ्यागमसंभवाः मुदः न ममुः ॥ २३ ॥ हिन्दी अनुवाद-युगों के अन्त में (कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के अन्त में) जीवों को अपने आप में लीन करने वाले कैटभारि ( श्रीकृष्ण) के जिस शरीर में ( चौदहों ) भुवन विस्तार के साथ रहते थे, उसी ( शरीर ) में तपोधन (नारद ) के आने से उन्पन्न हर्ष नहीं समा सका ॥ २३ ॥ विशेष-प्रलयकाल में जब अखिल विश्व जलमग्न था और भगवान विष्णु शेष शय्या पर योगनिद्रा में थे, उस समय उनके कान के मैल से दो असुरों (मधु और कैटभ ) का जन्म हुआ। उन दोनों ने विष्ण के नाभिकमल पर स्थित ब्रह्मा का वध करना चाहा। इस पर ब्रह्मा जी ने योगमाया की स्तुति की। योगमाया की प्रेरणा से भगवान् शेष शय्या से उठे और उन दोनों असुरों के साथ पाँच हजार वर्षों तक युद्ध किया। अन्त में उन असुरों की इच्छानुसार भगवान् विष्णु ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रख कर चक्र से काट दिये। इसीलिए विष्णु को 'कैटभारि' कहा जाता है । ११२३ प्रसा-इस श्लोक में श्रीकृष्ण के 'पुण्डरीकाक्ष' नाम की सार्थकता का वर्णन किया गया है। निदाघधामानमिवाधिदीधितिं मुदा विकास मुनिमभ्युपेयुषी। विलोचने विभ्रदधिश्रितश्रिणी स पुण्डरीकाक्ष इति स्फुटोऽभवत् ॥२४॥ निदाघेति । निदाघमुष्णं धाम किरणो यस्य तथोक्तम् । 'निदाघो ग्रीष्मकाले स्यादुष्णस्वेदाम्बुनोरपि' इति विश्वः । अर्क मिवाधिदीधितिमधिकतेजसं मुनिमभिलक्ष्य । 'अभिरभागे' इति लक्षणे कर्मवचनीयसंज्ञा कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया ( २।३।८ ) । मुदा विकासमभ्युपेयुपी उपगते । क्वसुप्रत्ययान्तो निपातः । अत एव अधिश्रिता प्राप्ता श्रीर्याभ्यां ते तयोक्ते । 'इकोऽचि विभक्तो' (७।११७३ ) इति नुमागमः । विलोचने बिभ्रत् । 'नाभ्यस्ताच्छतु (७।१।७८) इति नुमभावः । स हरिः पुण्डरीकाक्ष इत्येवं स्फुटोऽभवत् , सूर्यसन्निधाने श्रीविकासभावादक्षणां पुण्डरीकसाधात् । पुण्डरीके इवाक्षिणी यस्येत्यवयवार्थलाभे पुण्डरीकाक्ष इति व्यक्तम् । अन्वर्थसंज्ञोऽभूदित्यर्थः । विभ्रत्स्फुटोऽभवदिति पदार्थहेतुकस्य काव्यलिङ्गस्य निदाघधामानमिवेत्युपमासापेक्षत्वादनयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः ॥ २४ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः २१ अन्वयः--निदाद्यधामानम् इव अधिदीधितिं मुनिम् अभिमुदा विकासम् उपयुषी अधिश्रितश्रिणी विलोचने विभ्रत् सः पुण्डरीकाक्षः इति स्फुटः अभवत् ॥२४॥ हिन्दी अनुवाद--उष्ण तेजवाले सूर्य के समान अत्यन्त तेजस्वी नारदमुनि के सामने हर्ष से प्रफुल्लित एवं शोभासम्पन्न नेत्र द्वय को धारण करते हुए वे (श्रीकृष्ण) स्पष्ट रूप से 'पुण्डरीकाक्ष' (कमल नयन ) हो गये ॥ २४ ॥ । प्रसङ्ग-कविमाघ श्रीकृष्ण का नारदमुनि से वार्तालाप का वर्णन करते हैं। सितं सितिना सुतरां मुनेर्वपुर्विसारिभिः सौधमिवाथ लम्भयन् । द्विजावली' व्याजनिशाकरांशुभिः शुचिस्मितां वाचमवोचदच्युतः ॥ २५ ॥ सितमिति । अथोभयोरूपवेशनानन्तरमच्युतो हेतुकर्ता विसारिभिरभीक्ष्णं प्रसरद्भिः। 'बहुलमाभीक्ष्ण्ये' ( ३।२।८१) इति णिनिः। द्विजावलिदन्तपङ्क्तिः । 'दन्तविप्राण्डजा द्विजाः' इत्यमरः। संव व्याजः कपट यस्य सः । तद्रूप इत्यर्थः । स चासो निशाकरश्च तस्यांशुभिः किरणः सितं स्वभावशुभ्रं मुनेर्वपुः सौधं प्रासादमिव सुतरामत्यन्तम् । अव्ययाद्धादाम्प्रत्ययः। सितिम्ना धावल्येन प्रयोज्यका लम्भयन्व्यापारयन् । अतिधवलयन्नित्ययः । लभेरत्र गत्युपसर्जनप्राप्त्यर्थत्वेनागत्य. थत्वात् 'गतिबुद्धि-' इत्यादिना अणि कर्तुनं कर्मत्वम् । तथाह वामनः-'लभेर्गत्यर्थत्वाणिच्यणो कर्तु: कर्मत्वाकर्मत्वे' इति (।२६) । प्राप्त्युपसर्जनगत्यर्थत्वे तु कर्मत्वमेवेति रहस्यम् । 'लभेश्व' (७।११६४) इति नुमागमः । शुचिस्मितां वाचमवोचदुक्तवान् । ब्रुवो वच्यादेशः लुङ्, 'वच उम्' इत्युमागमे गुणः । अत्र सौधमिवेत्युपभायाः सितिम्ना लम्भयन्नित्यसम्बन्धरूपातिशयोक्तेः द्विजावलिव्याजनिशाकरेति च्छलादिशब्दरसत्यत्वप्रतिपादनरूपापह्नवस्य च मिथो नरपेक्ष्यात्संसृष्टिः ॥ २५ ॥ ___ अन्वयः-अथ अच्युतः विसारिभिः द्विजावलिव्याजनिशाकरांशुभिः सितं मुनेः वपुः सौधमिव सुतरा सितिम्ना लम्भयन् शुचिस्मितां वाचम् अवोचत् ॥ २५ ॥ हिन्दी अनुवाद--इस (श्रीकृष्ण और नारद मुनि के बैठने ) के पश्चात् श्रीकृष्ण फैलनेवाली दन्तपंक्तिरूपी चन्द्रमा की किरणों से मुनि के धवल-शरीर को (चूने से पुते हुए) प्रासाद की तरह अत्यन्त धवलित करते हुए स्वच्छ ( एवं) स्मित युक्त वचन बोले ।। २५॥ (नारद मुनि निसर्गतः गौर वर्ण के (शुभ्र) थे ही, पर श्रीकृष्ण के बोलने के समय उनकी स्वच्छदन्तपंक्ति की कान्ति नारद के शरीर पर गिरने से वे और भी अधिक शुभ्र प्रतीत होने लगे, जैसे पूर्व से ही शुभ्र राजमहल पर फिर चूने की सफेदी कर दी हो ।। २५ ॥ १.द्विजावलि०। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् प्रसङ्ग — इस श्लोक में नारद मुनि के दर्शन का महत्व बतलाया गया है । हरत्यवं सम्प्रति हेतुरेष्यतः शुभस्य पूर्वाचरितैः कृतं शुभैः । शरीरभाजां भवदीयदर्शनं व्यनक्ति कालत्रितयेऽपि योग्यताम् ॥ २६ ॥ हरतीति । भवदीयदर्शनं शरीरभाजाम् । द्रष्टृणामित्यर्थः । भजो ण्विः ( ३।२६२ ) | कालत्रितये भूतादिकालत्रितयेऽपि योग्यतां पवित्रतां व्यनक्ति गमयति । कुतः - सम्प्रति दर्शनकाले अघं पापं हरति । एष्यतो भाविनः शुभस्य यसो हेतुः । तथा पूर्वाचरितः प्रागनुष्ठितः शुभः सुकृतः कृतम् । एवं काल्येऽपि कार्यत्वेन कारणत्वेन च पुंसि सुकृतसमवायमवगमयते । अत एतादृशं दर्शनं कस्य न प्रायमिति भावः । अत्र हरतीत्यादिवाक्यत्रयस्यार्थस्य शरीरेत्यादिवाक्य त्रयोक्त्या वाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमलङ्कारः ।। २६ ।। २२ अन्वयः -- भवदीय दर्शनं शरीरभाजां कालत्रितये अपि योग्यतां व्यनक्ति, सम्प्रति अर्घ हरति, एष्यतः शुभस्य हेतु:, पूर्वा चरितैः शुभैः कृतम् ॥ २६ ॥ हिन्दी अनुवाद - आप का दर्शन शरीरधारियों की त्रिकाल में भी योग्यता ( पवित्रता ) को प्रकट करता है । वर्तमानकाल में पाप को नष्ट करता है, (भविष्यत् काल में ) आनेवाले मंगल का कारण होता है, और ( वह स्वयं ) पूर्व (जन्म) में किए हुए पुण्यों का फल होता है ॥ २६ ॥ प्रसङ्ग -- प्रस्तुत श्लोक में कविमाघ श्रीकृष्ण के शब्दों में नारद मुनि के तेज को सूर्य के तेज से अधिक प्रभावशाली बताते हैं । जगत्य पर्याप्तसहस्रभानुना न यन्नियन्तुं समभावि भानुना । प्रसह्य तेजोभिरसंख्यतां गतैरदस्त्वया नुन्नमनुत्तमं तमः ॥ २७ ॥ जगतीति । जगत्य पर्याप्ता अपरिच्छिन्नाः सहस्रं भानवोंऽशवो यस्य तेन भानुनाऽर्केण । 'भानवोऽकंहरांशवः' इति वैजयन्ती । यत्तमो नियन्तुं निवारयितुं समभाविन शेके । भावे लुङ् । अविद्यमानमुत्तमं यस्यात्तदनुत्तमं सर्वाधिकमदस्तमो मोहात्मकम संख्यतां गतस्तेजोभिः प्रसह्य बलात्त्वया नुन्नं छिन्नम् । अतः श्लाध्यदर्शनो भवानिति भावः । ' नुदविद -' इत्यादिना विकल्पान्निष्ठानत्वभावः । अत्रोपमानाद्भानोर्मुनेराधिक्यप्रतिपादनाद्वयतिरेकालङ्कारः ॥। २७ ॥ 리 अन्वयः - जगति अपर्याप्तसहस्रभानुना यत् तमः नियन्तुं न समभावि, अनुत्तमम् अदः श्वया असंख्यतां गतैः तेजोभिः प्रसह्य नुन्नम् ॥ २७ ॥ हिन्दी अनुवाद -- संसार में अपरिमित सहस्र किरणों वाले सूर्य भी जिस ( अज्ञानरूपी ) अंधकार को नष्ट करने में समर्थ न हो सके, उस सर्वाधिक अंधकार को आपने अगणित किरणों से बलपूर्वक दूर कर दिया ।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः २३ (समस्त संसार के अन्धकार को दूर करनेवाला सूर्य अपने असंख्य किरणों से रहते हुए भी जिस तम को ( अज्ञान रूपी मोह) को दूर न कर सका उसे आपने दूर कर दिया ।। २७॥ प्रसङ्ग--इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने नारद जी को वेदों का अक्षय निधि कृतः प्रजाक्षेमकृता प्रजासृजा सुपात्रनिक्षेपनिराकुलात्मना । सदोपयोगेऽपि गुरुस्त्वमक्षयो निधिः श्रुतीनां धनसम्पदामिव ॥ २८॥ कृत इति । प्रजानां जनानामपत्यानां च क्षेमकृता कुशलकारिणा। 'प्रजा स्यात्सन्तती जने' इत्यमरः । सुपात्रे योग्यपुरुषे कटाहादिदृढभाजने च निक्षेपेण निधानेन निराकुलात्मना स्वस्थचित्तेन । 'योग्यभाजनयोः पात्रम्' इत्यमरः। प्रजासृजा ब्रह्मणा पुत्रिणा च त्वं घनसम्पदामिव श्रुतीनां वेदानां सदोपयोगे दानभोगाभ्यां व्ययेऽप्यक्षयः । एकत्राऽऽम्नानादन्यत्रानन्त्याच्चेति भावः । गुरुरुपदेष्टा संप्रदायप्रवर्तक इति यावत् , अन्यत्र महान् । निधीयत इति निधिः निक्षेपः कृतः। उपसर्गे घो: कि ( ३।३।६२)। श्रुतिसंप्रदायद्वारा धर्माऽधर्मव्यवस्थापकतया जगप्रतिष्ठाहेतूनां भवादृशां दर्शनं कस्य न श्लाघ्यमिति भावः। अत्र शब्दमात्रसाघात् श्लेषोऽयं प्रकृतविषय इत्याहुः ।। २८ ।। __ अन्वयः-प्रजाक्षेमकृता सुपात्रनिक्षेपनिराकुलात्मना प्रजासृजा स्वं धनसम्पदाम् इव श्रुतीनां सदा उपयोगे अपि अपयः गुरुः निधिः कृतः ।। २८॥ हिन्दी अनुवाद--प्रजाओं के ( पक्षान्तर में-सन्तानों के ) कल्याणकर्ता (रक्षक) तथा योग्य पात्र (धातु भादि की निमित दृढपात्र) में स्थापित करने के कारण निश्चिन्त चित्त वाले ब्रह्मा (पक्षान्तर में-सन्तान वाले) ने आपको धनसम्पत्तियों की तरह वेदों का सदा उपयोग करते रहने पर भी ( व्यक्त करते रहने पर भी) कभी समाप्त न होनेवाली निधि बनाया है ॥ २८ ॥ (जैसे आगे की पीढ़ी की सहायता के लिये कल्याण कामना से उनके पूर्वज लोहे की बड़ी-बड़ी सन्दूकों में असीम धनसम्पत्ति की धरोहर रखकर निश्चिन्त हुआ करते हैं, उसी तरह सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भी सत्पात्ररूप आपको अध्ययन-अध्यापनादि में सदा उपयोग करते रहने पर भी कभी क्षय न होनेवाला वेदों का महान् निधि बनाकर सदा के लिये स्वयं को निश्चिन्त बना लिया है)॥२८॥ प्रसङ्ग-इस श्लोक में श्रीकृष्ण नारद मुनि से कहते हैं कि आपके दर्शन से कृतार्थ होने पर भी मैं आपके सारगर्भित वचन सुनना चाहता हूँ। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् मुनेवंचनावकाशप्रदर्शनायाह विलोकनेनैव तवामुना मुने! कृतः कृतार्थोऽस्मि निहितांहसा। तथापि शुश्रूषुरहं गरीयसीर्गिरोऽथ वा श्रेयसि केन तृप्यते ॥२९॥ विलोकनेनेति ॥ हे मुने ! निहितांहसाऽपहृतपाप्मना अत एवामुना तव विलोकनेनैव कृतार्थः कृतोऽस्मि, तथाप्यहं गरीयसीरर्थवत्तराः । द्विवचन-' (५॥३॥५७ ) इत्यादिना ईयसुन्प्रत्ययः 'उगितश्च' इति डीप 'प्रियस्थिर-' (६।४।१५७ ) इत्यादिना गुरोगरादेशः । गिरस्तव वाचोऽपि शुश्रूषुः श्रोतुमिच्छुरस्मि । शृणोतेः सन्नन्तादुप्रत्ययः । न चैतद् वृषेत्याह-अथ वा, तथा हीत्यर्थः । अथ वेति पक्षान्तरप्रसिद्धयोरिति गणव्याख्यानात् । श्रेयसि विषये केन तृप्यते । न केनापीत्यर्थः । कृतार्थताया इयत्ताभावादिति भावः । भावे लिट् ॥ २६ ॥ ___ अन्वयः-मुने ! निबर्हितांहसा अमुना तव विलोकनेन एवं कृतार्थः कृतः अस्मि । तथापि अहं गरीयसीः तव गिरः शुश्रूषुः । अथवा श्रेयसि केनतृप्यते ? ॥२९॥ हिन्दी अनुवाद-हे मुने ! आपके पापविनाशक इस दर्शन से ही मैं कृतार्थ हो गया हूँ । तथापि मैं कल्याण करनेवाली आपकी वाणी सुनना चाहता हूँ। अथवा, कल्याण के विषय में कौन सन्तुष्ट होता है । ? (अर्थात् कोई नहीं)॥ २९ ।। प्रसङ्ग-श्रीकृष्ण नारद मुनि से उनके आगमन का उद्देश्य (प्रयोजन) पूछते हैं। आगमनप्रयोजनं पिपृच्छिषुराह-- गतस्पृहोऽप्यागमनप्रयोजनं वदेति वक्तुं व्यवसीयते यया। तनोति नस्तामुदितात्मगौरवो गुरुस्तवैवागम एष धृष्टताम् ॥ ३० ॥ गतस्पृहोऽपीति ॥ गतस्पृहो विरक्तोऽपि त्वमागमनप्रयोजन वदेति वक्तु यया धृष्टतया व्यवसीयते उद्यम्यते । स्यतेर्भावे लट् । उदितमुत्पन्नमुक्तं वा आत्मनो मम गौरवं येन स गुरुः श्लाघ्य एष तवागमः आगमनमेव नोऽस्माकं धृष्टतां तनोति विस्तारयति । तनु विस्तारे लट् । भवतो निःस्पृहत्वेऽपि प्रेक्षावत्प्रवृत्तः प्रयोजनव्याप्त्या सावकाशः प्रश्न इति भावः ॥ ३० ॥ अन्वयः--गतस्पृहः अपि आगमन प्रयोजनं वद इति वक्तुं यया व्यवसीयते, उदितात्मगौरवः गुरुः एषः तव आगमः एव नः तां पृष्टतां तनोति ॥ ३० ॥ हिन्दी अनुवाद-'आप विरक्त होते हुए भी (आप) अपने आनेका प्रयोजन बताइए।' (निःस्पृह होने के कारण आपके आगमन का कोई कारण नहीं हो १. निहितांहसा। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः २५ सकता । ) यह कहने के लिए ( पूछने के लिए ) जो ( धृष्टता ) मुझे प्रेरित कर रही है, हमारी उस धृष्टता को, मेरे आत्मगौरव को बढ़ानेवाला, आपका लाध्य आगमन ही बढ़ावा दे रहा है ॥ ३० ॥ ( आप विरक्त हो, आपको किसी वस्तु को स्पृहा नहीं है, फिर भी मेरे यहाँ आपके आगमन मात्र से दृष्ट हुआ मैं आपके आगमन का कारण जानना चाहता हूँ ।। ३० ।। ) प्रसङ्ग - नारद मुनि श्रीकृष्ण के प्रश्न का इस प्रकार उत्तर देते हैं । इति ब्रुवन्तं तमुवाच स व्रती न वाच्यमित्थं पुरुषोत्तम ! त्वया । त्वमेव साक्षात्करणीय इत्यतः किमस्ति कार्य गुरु योगिनामपि ॥ ३१ ॥ इतीति ॥ इति ब्रुवन्तं तं हरिं स व्रती मुनिरुवाच । किमिति । हे पुरुषोत्तम ! पुरुषेषु श्रेष्ठ ! 'न निर्धारणे' इति पष्ठीसमासप्रतिषेधः । त्वया इत्थं 'गतस्पृहोऽपि ' इति न वाच्यम्, निस्पृहस्याप्यत्र प्रयोजनसम्भवादिति भावः । तदेवाह योगिनामपि त्वमेव साक्षात्करणीयः प्रत्यक्षीकर्तव्य इत्यतोऽस्मादन्यद् गुरु कार्यं किमस्ति । न किञ्चिदित्यर्थः । तस्मान्न प्रयोजनान्तरप्रश्नावकाश इति भावः ॥ ३१ ॥ अन्वयः -- इति ब्रुवन्तं तं सव्रती उवाच- पुरुषोत्तम ! श्वया इथं न वाच्यम् । योगिनाम् अपि त्वमेव साक्षात्करणीयः, इत्यतः गुरु कार्य किम् अस्ति ? ॥ ३१ ॥ हिन्दी अनुवाद -- यह कहते हुए उनसे ( श्रीकृष्ण को ) नारदमुनि बोलेहे पुरुषोत्तम ! आपको ऐसा ( गतस्पृहोऽपि ) नहीं कहना चाहिए। ( क्योंकि ) योगियों को भी आपका ही साक्षात्कार करना है । ( अतः ) इस ( आपके दर्शन ) से बड़ा कौन सा कार्य ( प्रयोजन ) है ? ( अर्थात् कोई नहीं । ) ॥ ३१ ॥ भी आप आने का प्रयोजन ( इस तरह कहते हुए, अर्थात् 'निस्पृह रहते हुए कहें' - श्रीकृष्ण को नारद मुनि ने कहा कि हे पुरुषोत्तम ! आप ऐसा न पूछें, क्योंकि बड़े योगी भी आप ही के दर्शनाभिलाषी रहते हैं। आपके दर्शन से बढकर और कोई अन्य काम ( हमें, इस समय, यहाँ आने का ) नहीं है । ) विशेष - गीता में पुरुषोत्तम की व्याख्या इस प्रकार है"यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ " ( १५/१८ ) प्रसङ्ग -- नारदजी अपने पूर्वोक्त (१1३१) वचन पर ही बल देते हुए कहते हैं । त्वमेव साक्षात्करणीय इत्येतदेव साधयितुमाह उदीर्णरागप्रतिरोधकं जनैरभीक्ष्णमक्षुण्णतयाऽतिदुर्गमम् | उपेयुषो मोक्षपथं मनस्विनस्त्वमग्रभूमिनिरपायसंश्रया ॥ ३२ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् यदुक्तं योगिनामपि त्वमेव साक्षात्करणीय इति, तदेव द्रढयति उदीर्णेति ॥ उदीर्ण उद्रिक्तो रागो विषयाभिलाषः स एव प्रतिरोधकः प्रतिबन्धकः पाटच्चरश्व यस्मिन् । 'प्रतिरोधिपरास्कन्दिपाटच्चरमलिम्लुचाः' इत्यमरः। अभीक्षणमक्षुणतयाऽनभ्यस्तत्वेनाप्रतिहतत्वेन च जनैरतिदुर्गमं मोक्षपथमवर्गमार्ग कान्तारं चोपेयुषः प्राप्तवतः। 'उपेयिवान्'-इत्यादिना क्वस्वन्तो निपातः। मनस्विनः सुमनसः धीरस्य च । प्रशंसायां विनिः । त्वमेव निरपायः पुनरावृत्तिरहितः संश्रयः प्राप्तिर्यस्याः सा तथोक्ता । 'न स पुनरावर्तते' इति (छां. ८।१५।१) श्रुतेः । अग्रभूमिः प्राप्यस्थानम् । 'अग्रमालम्बने प्राप्ये' इति विश्वः। 'सोऽहम्' इत्यादिश्रुतेस्तत्प्राप्तेरेवमोक्षत्वादिति भावः । तस्मान्मुमुक्षूणामपि त्वमेव साक्षात्करणीय इति सिद्धम् । 'तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' इति श्रुतेः । यथा कस्यचित्कुतश्चित्सङ्कटान्निर्गतस्य केनचिकान्तारेण गतस्य किश्चिन्निधिस्थान प्राप्तिरभयाय कल्पते, तथा त्वमपि मुमुक्षोरिति ध्वनिः ॥ ३२ ॥ __ अन्वयः--उदीर्णरागप्रतिरोधकम् अभीयम् अक्षुण्णतया जनैः अति दुर्गम मोक्ष पथम् उपेयुषः मनस्विनः त्वं निरपायसंश्रया अग्रभूमिः ( असि)॥ ३२॥ हिन्दी अनुवाद--वढा हुआ (सांसारिक विषयों के प्रति) अभिलाष (आसक्ति) ही जिसमें अवरोधक है, अभ्यस्त न होने के कारण जनसाधारण के लिए अत्यन्त दुर्गर मोक्ष-मार्ग को प्राप्त हुए मनस्वी पुरुष के लिए पुनरावृत्ति रहित आप ही प्राप्य स्थान हैं ॥ ३२ ॥ ___पक्षान्तर में—जिसमें सांसारिक विषयों के प्रति बढ़ा हुआ अनुराग ही चोरलुटेरे हैं, तथा जो यातायात से रहित होने के कारण अत्यन्त दुर्गम है, ऐसे निर्जन वनादि को पहुँचे हुए धीर पुरुष के लिए पुनः जहाँ से लौटना नहीं पड़ता, वह गन्तव्य स्थान आप ही है ॥ ३२ । विशेष--इस श्लोक में निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है। नारद मुनि श्रुति के इस वचन "तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय" के शब्दों को अपने शब्दों में कहते हैं कि आपको (श्रीकृष्ण भगवान् ) ही प्राप्त करना मोक्ष है। योगियों को भी-'कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्' ( कृष्ण का ही) आपका साक्षात्कार करना अभीष्ट है। इसीलिए मैं यहाँ आया हूँ। मल्लिनाथ ने अपनी 'सर्वकषा' में लिखा है कि जिस प्रकार कोई पुरुष किसी संकट से निकलकर किसी निर्जन-गहन वन से यात्रा करता हुआ किसी निर्वाध-शान्त-स्थान को अभय के लिए पहुँचने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार सांसारिक विषयवासनादि कण्टकाकीर्ण तथा आवागमनादि से रहित-और अनभ्यस्त होने के कारण अत्यन्त दुर्गम मोक्ष मार्ग को पहुंचे हुए मुमुक्षु-जनों के आप ही प्राप्य हैं । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः प्रसङ्ग-नारद जी श्रीकृष्ण को कहते हैं कि-पुराविद कपिल आदि आप को सांख्योक्त मूल प्रकृति से पृथक् और उदासीन आदि मानते हैं। इदानीं सांख्यदर्शनेन भगवतो निःक्रियत्वमाहउदासितारं निगृहीतमानसैहीतमध्यात्मशा कथञ्चन । बहिर्विकारं प्रकृतेः पृथग्विदुः पुरातनं त्वां पुरुषं पुराविदः ॥ ३३ ॥ ननु प्रकृतिविविक्तपुरुषसाक्षाकारान्मोक्षो नास्मत्साक्षात्कारादित्याशङ्कय सोऽपि त्वमेवेत्याह__उदासितारमिति ॥ पुराविदः पूर्वज्ञाः कपिलादयस्त्वां निगृहीतमानसरन्तनिबद्धचित्तर्योगिभिः । आत्मनि अधि इत्यध्यात्मम् । विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः 'अनश्च' (५।४।१०८१) समासान्तष्टच् । अध्यात्म या दृक् ज्ञानं तयाध्यात्मदृशा प्रत्यग्दृष्टया कथञ्चन गृहीतं साक्षात्कृतम् । केन रूपेण गृहीतमित्यत आह-उदासितारमुदासीनम् । प्रकृती स्वार्थप्रवृत्तायामपि स्वयमप्राकृतत्वादस्पृष्टमित्यर्थः । आसेस्तृन् । विकारेभ्यो बहिः वहिबिकारन् । महदादिभ्यः पृथग्भूतमित्यर्थः । 'अपपरिबहिरञ्चवः पञ्चम्या' (२।१।१२) इत्यव्ययीभावः । किञ्च प्रकृतेस्त्रगुण्यात्मनो मूलकारणात्पृथग्भिन्नम् । 'प्रकृतिः पञ्चभूतेषु प्रधाने मूलकारणे' इति यादवः । पुराभवं पुरातनमनादिम् । 'सायंचिरम्-( ४।३।२३ ) इत्यादिना ट्युप्रत्ययः । पुरुषं पुरुषपदवाच्यं विज्ञानघनं विदुर्विदन्ति । 'विदो लटो वा' ( ३।४।८३ ) इति झेरुसादेशः। यथाहुः 'मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ।। (सां. का. ३) इति 'अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णाम्' इत्यादिश्रुतिश्च । सोऽपि त्वमेव, 'तत्त्वमसि' इत्यादिवाक्यरैक्यश्रवणात् । तस्मात्त्वमेव साक्षात्कर गीय इति सुष्ठुक्तमिति भावः ।। ३३ ॥ अन्वयः-पुराविदः त्वां निगृहीतमानसः अध्यात्मदृशा कथञ्चन गृहीतम् उदासितारं वहिर्विकारं प्रकृतेः पृथक् पुरातनं पुरुषं विदुः ।। ३३ ॥ हिन्दी अनुवाद-प्राचीन इतिहास को जाननेवाले ( कपिल आदि) आपको, चित्त की वृत्तियों को रोक कर समाधि द्वारा अन्तर्मन से किसी तरह देखे गए, उदालीन, विकार से बहिर्भूत, मूल प्रकृति से पृथक्, अनादि और परमपुरुष मानते हैं ॥ ३३॥ विशेष-इस श्लोक में सांख्यमतानुसार श्रीकृष्ण को मुक्ति के लिए साक्षात्कारकरने योग्य माना गया है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् "मूलप्रकृतिरविकृतिमहदायाः प्रकृतिविकृतयः सप्तः । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥" 'उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार आप ही साक्षात्कार करने योग्य है'-नारद जी ने कहा। __ प्रसङ्ग-श्रीकृष्ण के निर्गुणस्वरूप का वर्णन करने के पश्चात् आगे के ६ श्लोकों में ३४-३९ उनके सगुणरूप का वर्णन करते हैं। सर्वप्रथम वराहावतार में पृथ्वी के उद्धार का वर्णन किया गया है। सांख्यदर्शनेन हि निःक्रियत्वं प्रतिपाद्याधुना पञ्चरात्रदर्शनेन कर्तृत्वमाहनिवेशयामासिथ हेलयोद्धृतं' फणाभृतां छादनमेकमोकसः। जगत्तयैकस्थपतिस्त्वमुच्चकैरहीश्वरस्तम्भशिरम्सु भूतलम् ॥ ३४॥ एवं भगवतो निर्गुणस्वरूपमुक्त्वा सम्प्रति प्रस्तुतोपयोगितया सगुणमाश्रित्य षड्भिः स्तौति निवेशयामासिथेति॥ जगत्रयस्यैकस्थपतिरेकाधिपतिरेकशिल्पी च। 'स्थपतिरधिपती तक्षिण बृहस्पतिसचिवयोः' इति वैजयन्ती। त्वं हेलयोद्धृतम् । वराहावतारे इति भावः । फणाभृतामोकसः आश्रयस्य समनश्च । 'ओकः सद्मनि चाश्रये' इति विश्वः । एक छादनमावरणं भूतलमुच्चकैरुनतेषु अहीश्वरः शेष एव स्तम्भस्तस्य शिरःसु मूर्धसु अग्रेषु च । फणासहस्रष्विति भावः । निवेशयामासिथ निवेशितवानसि । विशतेय॑न्ताल्लिटि थल् । 'कृञ्चानुप्रयुज्यते लिटि' ( ३३११४०) इत्यस्तेरनुप्रयोगः । अत्र श्लिष्टाश्लिष्टरूपकयोर्हेतुहेतुमद्भावात् श्लिष्टं परम्परितरूपकम् ॥ ३४॥ अन्वयः-जगस्त्रयकस्थपतिः स्वम् हेलया उद्धृतम् फणाभृताम् ओकसः एक छादनम् भूतलम् उच्चकैः अहीश्वरस्तम्भशिरःसु निवेशयामासिथ ॥ ३४ ॥ हिन्दी अनुवाद-लोकत्रय के प्रधान शिल्पी आपने, अनायास उठाए हुए सर्पगृह के (पाताल ) एकमात्र आवरण भूतल को नागराज रूपी ऊँचे खंभों के अग्रभागों पर रख दिया था ॥ ३४ ॥ विशेष-वराहावतार में भगवान् विष्णु ने एकार्णव जल में मग्न पृथ्वी का उद्धार किया था । (महाभा. सभा. ३८-२९ के बाद) प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण की अपूर्व महिमा का वर्णन किया गया है। १. हेलयोद् धृतम् । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ प्रथमः सर्गः अनन्यगुास्तव' केन केवलः पुराणमूर्तेर्महिमावगम्यते। मनुष्यजन्मापि सुरासुरान्गुणैभवान्भवोच्छेदकरः करोत्यधः ॥ ३५॥ अनन्येति ॥ न विद्यतेऽन्यो गुरुय॑स्यास्तस्या अनन्यगुर्वाः इत्यनीकारान्तः पाठः । समासात्प्राङ्ङीषि 'नवृतश्च' (२४।१५३ ) इति कप्प्रसङ्गः स्यात्, पश्चात्त्वनुपसर्जनाधिकारात् 'वोतो गुणवचनात्' (४।१।४४ ) इति न प्राप्नोति । "ङिति ह्रस्वश्च' (१।४।६) इति वा नदीसंकात्वात् 'आपनद्याः' इत्याडागमः । केचित्तु समासान्तविधिरनित्य इति कपं वारयन्ति । तस्याः सवोत्तमायास्तव पुराणमूर्तरमानुषस्वरूपस्य केवलः कृत्स्नः । 'केवलः कृत्स्न एकः स्यात्केवलश्वावधारणे' इति विश्वः । महिमा केनावगम्यते । न केनापीत्यर्थः । कुतः-मनुष्याज्जन्म यस्य स मनुष्यजन्मा भवान् । 'अवयॊ हि बहुव्रीहिय॑धिकरणो जन्माद्युत्तरपदः' (२०१६) इति वामनः। भवच्छेदकरः संसारनिवर्तकर्गुणज्ञानादिभिः सुरासुरान् । सुरासुरविरोधस्य कार्योंपाधिकत्वेनाशाश्वतिकत्वात् 'येषां च विरोधः शाश्वतिकः' (२०४६) इति न द्वन्द्वकवद्भाव इत्याहुः। अधः करोति । 'शेषे प्रथमः' (१।४।१०८) इति प्रथमपुरुषः, भवच्छब्दस्य युष्मदस्मदन्यत्वेन शेषत्वादिति। मानुष एव ते महिमा दुरवगाहः, अमानुषस्तु किमिति तात्पर्यार्थः। द्वितीयार्थेऽसकृव्यञ्जनावृत्त्या छेकानुप्रासः ॥३५।। __अन्वयः-अनन्यगुाः तव पुराणमूर्तेः केवलः महिमा केन अवगम्यते ? मनुष्य जन्मा अपि भवान् भवच्छेदकरैः गुणैः सुरासुरान् अधः करोति ॥ ३५॥ हिन्दी अनुवाद-सबके गुरु ( अर्थात् सर्व श्रेष्ठ) आपके सनातन रूप की सम्पूर्ण महिमा को कौन जानता है ? क्योंकि नरदेहधारी आप संसारनिवर्तक (जन्ममृत्यु के बन्धनों को नष्ट करनेवाले ) गुणों (ज्ञान आदि) से सुर तथा असुरों को नीचा करते हैं (मानव होनेपर भी आप अपने ज्ञानादि गुणों से देवों तथा असुरों को तिरस्कृत कर रहे हैं, तब सर्वश्रेष्ठ सनातनरूप की सम्पूर्ण महिमा को कौन जान सकता है ? अर्थात् आपकी महिमा दुर्जेय है।)॥३५॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में नारदमुनि श्रीकृष्ण से कहते हैं कि पृथ्वी का भार हलका करने के लिए आप अवतीर्ण हुए हैं, किन्तु आप ही उसे अधिक भारवती बना रहे हैं। मनुष्यजन्माऽपीत्युक्तम्, किमर्थमसो देवदेवो मनुष्येष्ववतीर्ण इति भङ्गया दर्शयति लघूकरिष्यन्नतिभारभङ्गुराममूं किल त्वं त्रिदिवादवातरः । उदूढलोकत्रितयेन साम्प्रतं गुरुर्धरित्री क्रियतेतरां त्वया ॥ ३६॥ १. • गुर्वास्तव। २. भवच्छेदकरः । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् लघूकरिष्यनिति ॥ त्वमतिभारेणोजन स्वरूपेण भङ्गुरां स्वयं भज्यमानाम् । भञ्जभासमिदो घुरच् (३।२।१६१) भङ्गुरः कर्मकर्तरि इति (५।२।३८) वामनः । अमूम् । भुवमित्यर्थः । लघूकरिष्यन्निर्भारां करिष्यन् किल । 'कुभ्वस्ति' - इत्यादिना अभूततद्भावे च्चिः 'च्वौ च' (७।४।२६) इति दीर्घः । तृतीया द्योस्त्रिदिवः स्वर्गस्तस्मात् । घञर्थे कविधानम् । वृत्तिविषये संख्याशब्दस्य पूरणार्थत्वं त्रिभागादिवत् । अवातरः अवतीर्णोऽसि । साम्प्रतं सम्प्रत्युद्ढलोकत्रितयेन । कुंक्षाविति शेषः । त्वया धरित्री गुरुः पूज्या, भारवती च क्रियतेतरामतिशयेन क्रियते । 'तिङश्र्व' इति तरप् । 'किमेत्तिङव्ययघात् ' - इत्यादिना आमुप्रत्ययः । लघुकर्ता गुरुकर्तेति विरोधाभासोऽलङ्कारः । 'आभासत्वे विरोधस्य विरोधाभास उच्यते' इति लक्षणात् ॥ ३६ ॥ ३० अन्वयः - त्वम् अतिभारभङ्गुराम् अमूं लघूकरिष्यन् किलत्रिदिवात् अवातरः । साम्प्रतम् उदूढलोकत्रितयेन त्वया धरित्री गुरुः क्रियतेतराम् ॥ ३६ ॥ हिन्दी अनुवाद -- अत्यधिक भार से टूटती हुई इस पृथ्वी को हल्की बनाने के लिए आप स्वर्ग से अवतीर्ण हुए हैं, किन्तु इस समय ( कुक्षि में ) लोकत्रय को वहन ( धारण करनेवाले आप पृथ्वी को भारयुक्त ( पूज्य ) बना रहे हैं । ३६ ॥ विशेष - ( यहाँ एक ओर श्रीकृष्ण का अवतार पृथ्वी का भार हल्का करने के लिए, हुआ है, कहा गया है और दूसरी ओर श्रीकृष्ण को त्रैलोक्य का भार धारण करनेवाले कहकर पृथ्वी को भारवती बनानेवाले कहा गया है, अतः विरोध प्रतीत होता है । अतएव पृथ्वी पर अवतार लेने से उसे अधिक पूज्य बना रहे हैं, ऐसा अर्थ करने से उस विरोध को दूर किया जा सकता है | ) प्रसङ्ग -- प्रस्तुत श्लोक में कधिमाघ श्रीकृष्ण के अवतार का महत्त्व प्रतिपादित करते हैं। निजौज सोजासयितुं जगद्गुहामुपाजिहीथा न महीतलं यदि । समाहितैरप्यनिरूपितस्ततः पदं दृशः स्याः कथमीश ! मादृशाम् ॥ ३७ ॥ निजौजसेति ॥ निजौजसा स्वतेजता जगद्भघो द्रुह्यन्तीति जगदृद्रुहः कंसादयः । सत्सूद्विष' (३।२।६१) इत्यादिना क्विप् । तेषामुज्जासयितुम् । तान् हिंसितुमित्यर्थः । 'जासिनिप्रहण' ( २|३|५६ ) इत्यादिना कर्मणि शेषे षष्ठी । 'जसु हिंसायाम्' इति चरादिः । महीतलं नोपाजिहाथा: यदि नावतरेश्चेत् । ओहाङ् गतौ लङि थासि रूपम् । ततस्तर्हि समाहितैः समाधिनिष्ठैरपि । सकर्मकादाप्याशितादिवदविवक्षिते कर्मणि कर्तरि क्तः । अथ वा समाहितः । समाहितचित्तैरित्यर्थः । विभक्तधनेषु 'विभक्ता भ्रातरः' इतिवदुत्तरपदलोपो द्रष्टव्यः । गम्यमानार्थस्याप्रयोग एव लोप इति कैयटः | अनिरूपितोऽगृहीतस्त्वमशी ! मादृशाम् । चर्मचक्षुषामिति भावः । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्ग विनयोक्तिरियम्। दृशो दृष्टेः पदं गोचरः कथं स्याः। न कथञ्चिदित्यर्थः। तस्मात्त्वसाक्षात्कार एवागमन प्रयोजनमिति भावः ।। ३७ ॥ अन्वयः--निजौजसा जगद्रुहाम् । उज्जासयितुं यदि महीतलं न उपाजिहीथाः ततः ईश ! समाहितः अपि अनिरूपितः (स्वम् ) मादृशां दृशः पदं कथं स्याः ॥३७॥ हिन्दी अनुवाद-अपने तेजसे, संसार के द्रोहियों (कंसादिको ) का नाश करने के लिए यदि आप पृथ्वीपर अवतीर्ण न हुए होते तो हे प्रभो! समाधिस्थ (योगियों ) के द्वारा भी दृष्टिगत न होनेवाले आप मुझ जैसे पुरुष को दृष्टिगोचर कैसे होते ? ॥ ३७ ॥ (पृथ्वी पर अवतीर्ण होने के कारण ही हम जैसे साधारण-जन भी आपका दुर्लभ दर्शन कर सकते हैं, अतएव आपके दर्शन के अतिरिक्त मेरे यहाँ आनेका कोई दूसरा प्रयोजन नहीं है।) प्रसङ्ग-नारदजी ने श्रीकृष्ण से कहा कि आप के बिना इस विश्व की रक्षा कौन कर सकता है । ___ ननु यतिरसमाहितः, ननु च शिशुपालवधे भवान् समर्थ इति स्तुतिमुखेन सूचयितुमाह उपप्लुतं पातुमदो मदोद्धतैस्त्वमेव विश्वम्भर ! विश्वमीशिषे । ऋते रवः क्षालयितुंक्षमेत कःक्षपातमस्काण्डमलीमसं नभः॥ ३८॥ ननु कोऽयं नियमो यन्ममैवायं दुष्टनिग्रहाधिकार इत्याशङ्कयानन्यसाध्यत्वमेवाह__ उपप्लुतमिति ॥ विश्वं बिभर्तीति विश्वम्भरस्तत्सम्बुद्धौ हे विश्वम्भर ! विश्व - त्रातः ! 'संज्ञायां भृतवृजि' ( ३।२।४६ ) इत्यादिना खच्प्रत्यये मुमागमः । मदोद्धतः कंसादिभिरुपप्लुतं पीडितम् अदो विश्वं पातुं त्वमेव ईशिषे शक्तोऽसि । विश्वम्भरत्वादिति भावः। ईश ऐश्वर्ये लटि थासि रूपम् । अत्र वैधयण दृष्टान्तमाह-क्षपायास्तमस्काण्डस्तमोवगैः । 'काण्डोऽस्त्री दण्डबाणार्ववर्गावसरवारिषु' इत्यमरः। कस्कादिषु च' (८।३।४२) इति विसर्जनीयस्य सत्वम् । मलोमस मलिनम् । 'मलीमसंतु मलिनं कच्चरं मलदूषितम्' इत्यमरः । 'ज्योत्स्नातमिस्रा' (५।२।११४) इत्यादिना मत्वर्थीयो निपातः । नभः क्षालयितुं रवेः ऋते रवि विना। 'अन्यारादितरतें-' इति पञ्चमी । कः क्षमेत शक्नुयात् । न कोऽमीत्यर्थः । अत्र वाक्यद्वये समानधर्मस्यैकस्य ईशिषे क्षमेतेति शब्दद्वयेन वस्तुभावेन निर्देशात्तत्रापि व्यतिरेकमुखत्वाद्वधर्येण प्रतिवस्तूपमालङ्कारः । तदुक्तम्-सर्वस्य वाक्यार्थगतत्वेन सामान्यस्य वाक्यद्वयेन पृथनिर्देशे प्रतिवस्तूपमा ॥ ३८ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ शिशुपालवधम् अन्वयः-विश्वम्भर ! मदोद्धतैः उपप्लुतम् अदः विश्वं पातुं त्वम् एव ईशिषे, क्षपातमस्काण्डमलीमसं नभः क्षालयितुं रवेः ऋते कः समेत ? हिन्दी अनुवाद--हे विश्व के पालनकर्ता ! मद से उद्धत (गर्व से उद्धत कंस, शिशुपाल आदि ) दैत्यों से पीड़ित इस विश्व की रक्षा करने के लिए आप ही समर्थ हैं, क्योंकि, रात्रि के अन्धकार समूह से मलिन आकाश को निर्मल करने ( स्वच्छकरने ) के लिए सूर्य के बिना कौन समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥ ३८ ॥ प्रसङ्ग-नारदजी ने कहा-हे श्रीकृष्ण ! आपने जो कंस आदि क्षद् राजाओं का वध किया है, वह आपकी अवमानना है। करोति कंसादिमहीभृतां वधाजनो मृगाणामिव यत्तव स्तवम् । हरे ! हिरण्याक्षपुरःसरासुरद्विपद्विषः प्रत्युत सा तिरस्क्रिया ॥ ३९ ॥ करोतीति॥ किञ्च जनो मृगाणामिव कंसादिमहीभृतां वधा हेतोः स्तवं स्तोत्रम्। स्तवः स्तोत्रं स्तुति तिः' इत्यमरः । करोतीति यत् । हे हरे ! हे कृष्ण ! हे सिंहेति च गम्यते । सा स्तुतिक्रिया हिरण्याक्षपुरःसरा हिरण्याक्षप्रभृतयो येऽसुरास्त एव द्विपास्तेषां द्विषः । हन्तुरित्यर्थः । तस्य तव प्रत्युत वैपरीत्येन । 'प्रत्युतेत्युक्तवैपरीत्ये' इति गणव्याख्यानात् । तिरस्क्रिया अवमानः। यदिति सामान्ये नपुंसकम् । सेति विधेयलिङ्गम् । गजघातिनः सिंहस्य मृगवधवर्णनमिव महासुरहन्तुस्तव कंसादिक्षुद्रनृपवधवर्णनं तिरस्कार एवेत्यर्थः । अत्रासुरद्विपानामिति हरिवद्धरिरिति श्लिष्टपरम्परितरूपकं मृगाणामिवेत्युपमयाऽङ्गाङ्गिभावेन सङ्कीर्यते ।। ३६ ॥ अन्वयः-हे हरे ! जनः मृगाणाम् इव कंसादिमहीभृतां वधात् यत् तव स्तवं करोति, सा हिरण्याक्षपुरः-सरासुर द्विपद्विषः (तव ) प्रत्युत तिरस्क्रिया ॥ ३९ ॥ हिन्दी अनुवाद-हे हरे ! (पक्षा, सिंह ! ) लोग मृग तुष्य कंस आदि (क्षुद्र) राजाओं के वध के कारण जो आपकी स्तुति करते हैं, वह हिरण्याक्ष आदि असुर रूपी गजों के मारनेवाले आपकी स्तुति नहीं अपितु निन्दा है ॥ ३९ ॥ प्रसङ्ग--इस प्रकार श्रीकृष्ण की स्तुति करने के पश्चात् नारदमुनि अपने आगमन के प्रयोजन को बतलाते हैं इदानीं प्रकटमेव कार्य विवक्षुराहप्रवृत्त एव स्वयमुज्झितश्रमः क्रमेण पेष्टुं भुवनद्विषामसि । तथापि वाचालतया युनक्ति मां मिथस्त्वदाभाषणलोलुपं मनः ॥४०॥ एवं स्तुत्या देवमभिमुखीकृत्यागमनप्रयोजनं वक्तुमुपोद्धातयति प्रवृत्त इति ॥ त्वमुज्झितश्रमस्त्यक्तश्रमः सन् क्रमेण भुवनानि द्विषन्तीति भुवनद्विषो दुष्टास्तेषां पेष्टुम् । तान् हिंसितुमित्यर्थः । 'जासिनिप्रहण-' Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ प्रथमः सर्गः ( २।३।५६ ) इत्यादिना कर्मणि शेषे पष्ठी। स्वयमपरप्रेरित एव प्रवृत्तोऽसि । एवं तहि पिष्टपेषणं किमिति चेत्तत्राह-तथापि स्वतः प्रवृत्तेऽपि मिथो रहसि त्वदाभाषणे स्वया सह संलापे लोलुपं लुब्धम् । 'लुब्धोऽभिलाषुकस्तृष्णक्समौ लोलुपलोलुभौ' इत्यमरः। मनो मां वाचालतया मह युनक्ति । वाचालं करोतीत्यर्थः । वाचो बह्वयोऽस्य सन्तीति वाचालः। 'आलजाटचौ बहुभाषिणि' (२२१२५) इत्यालच् । 'स्याज्जल्पाकस्तु वाचालो वाचाटो बहुगडवाक्' इत्यमरः ॥ ४० ॥ अन्वयः-उझितश्रमः (सन् ) क्रमेण भुवनद्विषां पेष्टुं स्वयम् एव प्रवृत्तः असि, थापि मिथः त्वदाभाषणलोलुपं मनः मां वाचालतया युनक्ति । हिन्दी अनुवाद-आप परिश्रम को त्याग कर (परिश्रम की चिन्ता न कर) लोक द्रोहियों को नष्ट करने के (पीस डालने के लिए स्वयं ही प्रवृत्त हैं, तथापि एकान्त में आप के साथ भाषण करने के लिये लोभी मेरा मन मुझे वाचालता से युक्त कर रहा है (मैं विशेष उत्कण्ठित हो रहा हूँ )। प्रसङ्ग-नारदमुनि श्रीकृष्ण से इन्द्र का सन्देश सुनने के लिए प्रार्थना करते हैं तदिन्द्रसन्दिष्टमुपेन्द्र ! यद्वचः क्षणं मया विश्वजनीनमुच्यते। समस्तकार्येषु गतेन धुर्यंतामहिद्विषस्तद्भवता निशम्यताम् ॥ ४१ ॥ अथ स्ववाक्यश्रवणं सहेतुकं प्रार्थयते तदिन्द्रेति ॥ तत्तस्मादिन्द्र मुपगतः उपेन्द्र इन्द्रावरजः । अत एवेन्द्रसन्दिष्टम्श्रोतव्यमिति भावः । किञ्च विश्वस्मै जनाय हितं विश्वजनीनम् । आत्मविश्वजनभोगोत्तरपदात्खः (१६) यद्वचः क्षणं नतु चिरं मयोच्यते तद्वचोऽहिद्विषो वृत्रघ्नः। 'सर्षे वृत्रासुरेऽप्यहिः' इति वैजयन्ती। समस्तकार्येषु धुर्यतां धुरन्धरत्वं गतेन । अतोऽपि भवता निशम्यताम् । प्रार्थनायां लोट् । धुरं वहतीति धुर्यः । 'धुरो यड्ढको' (४।४७७ ) इति यत्प्रत्ययः । स्फुटमत्र पदार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमलङ्कारः ।। ४२॥ अन्वया-तत् उपेन्द्र ! इन्द्र-सन्दिष्टं विश्वजनीनं यत् वचः क्षणं मया उच्यते तत् अहिद्विषः समस्तकार्येषु धुर्यतां गतेन भवता निशम्यताम् ॥४१॥ हिन्दी अनुवाद-अतः, हे उपेन्द्र ! (इन्द्र के छोटे भाई, श्रीकृष्ण !) इन्द्र द्वारा कथित लोक-हितकारक जो वचन मैं ,क्षणभर कहता हूँ, इन्द्र के समस्त कार्यभारको प्रधानरूप से करनेवाले आप उसे सुनिये ॥ ४१ ॥ प्रसङ्ग-नारदमुनि श्रीकृष्ण से शिशुपाल का वध करने के लिये आग्रह करते ३शि०३० Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ शिशुपालवधम् है, क्योंकि वह अवश्य है, केवल आपके द्वारा ही उसका वध संभव है। प्रथम उसके पूर्वजन्म के पराक्रम का वर्णन प्रारम्भ करते हैं तदेव वक्तुमाहअभूदभूमिः प्रतिपक्षजन्मनां भियां तनूजस्तपनद्युतिर्दितेः। यमिन्द्रशब्दार्थनिषूदनं हरे हिरण्यपूर्व कशिपुं प्रचक्षते ॥ ४२ ॥ अथ शिशुपालो हन्तव्य इति वक्तुं तस्यावश्यवध्यत्वेऽनन्यवध्यत्वज्ञापनौपयिकतया औद्धत्यप्रकटनाथं जन्मान्तरवृत्तान्तं तावदुदाटयति-- अभूदिति ॥ प्रतिपक्षाच्छत्रोः जन्म यासां तासां भियामभूमिरविषयः। निर्भीकइत्यर्थः। तपनद्युतिः सूर्यतापोदितेस्तनूजो दैत्योऽभूत् । कोऽसावत आह-हरेरिन्द्रस्य इन्द्रशब्दार्थनिषूदनम्, इन्दतीति इन्द्रः इदि परमेश्वयें। 'ऋजेन्द्र'-इत्यादिना रत्प्रत्ययान्त औणादिकनिपातः। तस्य इन्द्रइतिशब्दस्य इन्द्रइति-संज्ञापदस्य योऽर्थः परमैश्वर्यलक्षणस्तस्य निषूदनं निवर्तकम्। कर्तरि ल्युट् । हरेरैश्वर्यनिहन्तारमित्यर्थः । यं दैत्यं हिरण्यशब्दपूर्व कशिपुशब्दं प्रचक्षते । हिरण्यकशिपुमाहुरित्यर्थः । अत्र हिरण्यशब्दपूर्वकत्वं कशिपुशब्दस्यैव न तु स ज्ञिनस्तदर्थस्येति शब्दपरस्य कशिपुशब्दस्यार्थगतत्वेनाप्रयोज्यस्य प्रयोगादवाच्यवचनाख्यार्थदोषमाहुः । 'यदेवावाच्यवचनमवाच्यवचनं हि तत्' इति । समाधान मेव विधविषये शब्दपरेणार्थलक्षणेति कथञ्चित्सम्पाद्यमित्युक्तमस्माभिः 'देवपूर्व गिरि ते' (मेघदूते पूर्व ४२) इति 'धनुरुपपदमस्मै वेदमभ्यादिदेश' (किरातार्जुनीये १८४४ ) इत्येतद्व्याख्यानावसरे सञ्जीविन्यां घण्टापथे च । विशेषश्चात्राऽयम्-दैत्यमुद्दिश्य हिरण्यपूर्व कशिपुं प्रचक्षते संज्ञात्वेन प्रयुङ्क्ते ॥ ४२ ॥ ___ अन्वयः-प्रतिपक्षजन्मनां भियाम् अभूमिः तपनद्युतिः दितेः तनूजः अभूत् यम् इन्द्रशब्दार्थनिषूदनं हिरण्यपूर्व कशिपुं प्रचक्षते ॥ ४२ ॥ हिन्दी अनुवाद-शत्रुजन्य भय से मुक्त अर्थात् प्रतिपक्ष से सदा निर्भय तथा सूर्य के समान तेजःपुंज दिति का पुत्र (देश्य ) हुआ, जिसे इन्द्र शब्द के परमैश्वर्य रूप अर्थ को नष्ट करनेवाला 'हिरण्यकशिपु' कहते हैं ॥ ४२ ॥ प्रसन्न-नारदमुनि ने श्रीकृष्ण से कहा कि हिरण्यकशिपु ने देवों के मन में सर्वप्रथम भय उत्पन्न किया। समत्सरेणाऽसुर इत्युपेयुषा चिराय नाम्नः प्रथमाभिधेयताम् । भयस्य पूर्वावतरस्तरस्विना मनस्सु येन धुसदा न्यधीयत ॥४३॥ समत्सरेणेति ॥ समत्सरेणान्यशुभद्वेषसहितेन । 'मत्सरोऽन्यशुभद्वे' इत्यमरः। अस्यतीत्यसुरः । असेरुरन् । असुर इति नाम्नः चिराय चिरकालेन । 'चिराय Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः चिररात्राय चिरस्याद्याविरार्थकाः' इत्यमरः। प्रथमाभिधेयतामुपेयुषा अन्वर्थतया मुख्यार्थतां गतेन तरस्विना बलवता । 'तरसी बलरंहसी' इति विश्वः । येन हिरण्यकशिपुना दिवि सीदन्तीति द्युसदां देवानां मनस्सु भयस्य पूर्वावतारः प्रथमप्रवेशः । ऋदोरप् ( ३।३।५७ ) न्यधीयत निहितः। धानः कर्मणि लङ् । अस्मादेव देवानां प्रथमं भयस्योत्पत्तिरभूदित्यर्थः ॥ ४३ ॥ अन्वयः-समत्सरेण चिराय असुर इति नाम्नः प्रथमाभिधेयताम् उपेयुपा तरस्विना येन घुसदां मनःसु भयस्य पूर्वावतारः न्यधीयत ॥ ४३ ॥ हिन्दी अनुवाद-दूसरों के अभ्युदय (शुभ ) को न सह सकनेवाले, तथा दीर्घकाल से सर्वप्रथम 'असुर' इस नाम से कहे जाने वाले जिस ( हिरण्यकशिपु) बलशाली ने देवों के मन में सर्वप्रथम भय का संचार कर दिया। (भयको उत्पन्न कर दिया)॥ ४३ ॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में कविमाव हिरण्यकशिपु द्वारा दिक्पालों को जीतने का वर्णन करते हैं। दिशामधीशांश्चतुरो यतः सुरानपास्य तं रागहृताः सिपेविरे ॥ अवापुरारभ्य ततश्चला इति प्रवादमुच्चैरयशस्करं श्रियः ॥४४॥ दिशामिति ॥ श्रियः सम्पदो यतः यदेत्यर्थः, दिशामधीशान् दिक्पतीनपि चतुरः सुरानिन्द्रवरुणयमकुवेरानपास्य त्यक्त्वा तं हिरण्यकशिपु रागहृताः रागकृष्टाः सत्यः। न तु बलादिति भावः । सिषेविरे । यतो वीरप्रियाः श्रिय इति भावः । तत आरभ्य तदाप्रभृति अयशः करोतीत्ययशस्करम् । दुष्कीतिहेतुमित्यर्थः। 'कुञो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु' ( ३।२।२०) इति टप्रत्ययः । 'अतः कृकमि ( ८।६।४६ ) इत्यादिना विसर्जनीयस्य सत्वम् । उच्चः प्रचर चला अस्थिरा इति प्रवादं जनापवादमवापुः। दिगीशानामपि सर्वस्वहारित्वात्तदौद्धत्यस्य प्राकटयमिति भावः ॥ ४४ ॥ अन्वयः-श्रियः यतः दिशाम् अधीशान् चतुरः सुरान् अपास्य तं रागहृताः (सत्यः) सिपेविरे ततः आरभ्य चलाः इति अयशस्करम् प्रवादम् उच्चैः अवापुः ॥ ४४ ॥ हिन्दी अनुवाद-सम्पत्तियों ( लक्ष्मी) जब से दिशाओं के स्वामी चार देवताओं (इन्द्र, वरुण, यम तथा कुबेर ) को छोड़कर उस (हिरण्यकशिपु) के अनुराग द्वारा आकृष्ट होकर सेवा करने लगी तभी से (दिक्पालों की अपेक्षा यह हिरण्यकशिपु वीर हैं, इस विचार से ) ( लक्ष्मी) चञ्चला है, इस महान् दुष्कीर्तिकर लोकापवाद को उसने प्राप्त किया ॥४४॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ शिशुपालवधम् प्रसङ्ग — प्रस्तुत श्लोक में माघकवि, हिरण्यकशिपु के भय से देवों ने दुर्ग आदि का निर्माण किया, इसका वर्णन करते हैं । पुराणि दुर्गाणि निशातमायुधं बलानि शूराणि घनाश्च कञ्चुकाः ॥ स्वरूपशोभैकगुणानि' नाकिनां गणैस्तमाशङ्कय तदादि चक्रिरे ॥ ४५ ॥ पुराणीति ॥ किश्व नाकिनां सुराणां गणैः यं हिरण्यकशिपुमाशङ्कय वाधकत्वेनोत्प्रेक्ष्य स कालः आदियंस्मिस्तदादि तदाप्रभृति स्वरूपशोभव कफलं मुख्यं प्रयोजनं येषां तेषां सुरादीनां तानि तथोक्तानि । प्रागीदृगसाध्यशत्रोरभावादिति भावः । नपुंसकमनपुंसकेन - ( ११२६६ ) इत्यादिना नपुंसकशेषः । पुराणि दुर्गाणि प्राकारपरिखादिना अगम्यानि चक्रिरे । 'सुदुरोरधिकरणे' इति गमेर्ड: । आयुधं निशातं निशितं चक्रे इति विभक्तिविपरिणामेनान्वयः । ' शो तनूकरणे' इति धातोः क्तः । 'शाच्छोरन्यतरस्याम् ' ( ७१४१४१ ) इतीत्वविकल्पात्पक्षे आत्वम् । बलानि सैन्यानि शूराणि शौर्यवन्ति चक्रिरे सम्पादितानि । कच्चुका वारवाणाः । लोहवर्माणीत्यर्थः । कञ्चुको वारबाणोऽस्त्री' इत्यमरः । घना दुर्भेदाश्चक्रिरे । इत्यं नित्यसन्नद्धा जाग्रति स्मेत्यर्थः ॥ अन्वयः - नाकिनां गणः यम् आशड्क्य तदादि स्वरूपशोभैक- फलानि पुराणि दुर्गाणि चक्रिरे, आयुधं निशातम् ( चक्रे ) वलानि शूराणि ( चक्रिरे ), चकचुकाः घनाः ( चक्रिरे ) । हिन्दी अनुवाद - उस हिरण्यकशिपु के समय से ही देवताओं ने उससे आशंकित होकर स्वरूप की शोभा मात्र फलवाले, (अर्थात् दिखावटी नगरों को दुर्गम ( खाई, परकोटा आदि से सुसज्जित कर दुर्गम एवं अजेय किले का रूप दे दिया ) बनाया । ( जंग लगे हुए ) शस्त्रों को ( सानपर चढ़वाकर ) तेज बनाया, सेना को पराक्रमी और कवचों को सुदृढ़ बनवाया ॥ ४५ ॥ प्रसङ्ग - हिरण्यकशिपु जिस दिशा में जाता था, उस दिशा को देव नमस्कार करते थे। स सञ्चरिष्णुर्भुवनान्तरेषु यां यदृच्छयाऽशिश्रियदाश्रयः श्रियः ॥ २ अकारि तस्यै मुकुटोपलस्थलत्करैस्त्रिसन्ध्यं त्रिदशैर्दिशे नमः ॥ ४६ ॥ स इति ॥ अन्येषु भुवनेषु भुवनान्तरेषु । 'सुप्सुपा' इति समासः । सञ्चरिष्णुः सञ्चरणशीलः । 'अलंकृञ् - ' ( ३।२।१३६ ) इत्यादिना चरिष्णुच् । श्रियो लक्ष्म्या आश्रयः स हिरण्यकशिपुः यदृच्छया स्वरवृत्त्या । 'यदृच्छा स्वरवृत्तिः' इत्यमरः । १. फलानि नाकिनां गर्णयं ० । २. श्रिताम् - इतिपा० । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्ग यां दिशमशिश्रियदगमत् । श्रयतेर्लुङ् 'मिश्रि- ( ३।११४८) इत्यादिना चङि विर्भावः इयङादेशः । मुकुटोपलेषु मौलिरत्नेषु स्खलन्तः करा येषां तः। शिरसि वद्धाञ्जलिभिरि यर्थः । उपलः प्रस्तरे रत्ने' इति विश्वः । तिस्रो दशा बाल्यकौमारयौवनानि जन्मसत्तावृद्धयो वा येषां तस्रिदशैर्देवैः । यद्वा त्रिर्दश परिमाणमेषामिति 'वहुव्रीही संख्येये डजबहुगणात्' (५।४।७३) इति समासान्तः। तिस्रः सन्ध्याः समा. हतास्त्रिसन्ध्यम् । 'तद्धितार्थोत्तरपद -' इत्यादिना समाहारे द्विगुः, द्विगुरेकवचनम् । (२४१) वा टावन्त इति पक्ष नपुंसकत्वम् । अत्यन्तसंयोगे द्वितीया । तस्य दिशे करहस्तः। 'नमः स्वस्ति-' (२।३।१६) इत्यादिना चतुर्थी । नमः नमस्कारोऽकारि कृतम् । कृञः कर्मणि लुङ् । 'चिण भावकर्मणोः ( ३।११६६) इति चिण् । सन्ध्यावन्दनेऽपि दिनियम परित्यज्य तदागमनभयात्तस्य दिशे नमस्कारः कुत इति भावः ।। ४६ ॥ अन्वयः-भुवनान्तरेषु सञ्चरिष्णुः श्रियः आश्रयः सः यहच्छ्या यो (दिशम् ) अशिश्रियत् तस्य दिशे मुकुटो पलस्खलस्करैः त्रिदशैः त्रिसन्ध्यं नमः अकारि ॥ ४६॥ हिन्दी अनुवाद-भुवनों में भ्रमग करनेवाला तथा लक्ष्मी का आधारभूत वह (हिरण्यकशिपु) अपनी इच्छा से जिस दिशा में जाता था, (सन्ध्या वन्दन के समय शान-निर्दिष्ट दिशा के नियम को छोड़कर ) उसी दिशा को, मुकुटों की मणियों पर गिरते हुए हाथों वाले ( अर्थात् सिर पर हाथ जोड़े हुए ) देवगण तीनों काल के सन्ध्या समय में नमस्कार किया करते थे ।। ४६ विशेष-देवों को 'त्रिदश' कहा जाता है। क्योंकि देवों की तीन ही अवस्थाएँ होती हैं-(१) बाक्य, (२) कौमार्य, (३) और यौवन । “तिम्रः दशाः बाल्यकौमार. यौवनानि येषां ते, अथवा त्रिर्दश परिमाणमेषाम् इति त्रिदशाः।" (उनकी वृद्धावस्था नहीं होती है।) प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में नारद मुनि ने श्रीकृष्ण को कहा कि आपने ही नृसिहावतार लेकर हिरण्यकशिपु का वध किया था। सटाच्छटाभिन्नघनेन विभ्रता नृसिंह ! सैहीमतनुं तनं त्वया ॥ स मुग्धकान्तास्तनसङ्गभङ्गुरैरुरोविदारं प्रतिचस्करे नखैः॥४७॥ अथ सोऽपि त्वयंव हत इत्याह सटाच्छटेति ।। हे नृसिंह ! नरः सिंह इवेत्युपमितसमासः। ना चासो सिंहश्चेत्यपि, प्रस्तावात् । सिंहस्येमां सही तर्ने कार्य विभ्रता । नृसिंहावतारभाजेत्यर्थः । किंभूताम् अतनुं विस्तीर्णाम् । अत एव सटाच्छटाभिः केसरसमूहैः भिन्ना घना मेघा येन । अभ्रदूषविग्रहत्वादिति भावः । 'सटा जटाकेसरयोः' इति, 'तनुः काये Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ शिशुपालवधम् कृशेऽल्पे च' इति च विश्वः । त्वया स दैत्यः मुग्धौ नवौ । 'मुग्धः सौम्ये नवे मूढे' इति वैजयन्ती। यो कान्तास्तनो तयोः सङ्गेनापि भगुरैः कुटिल खैरुरोविदारमुरो विदार्य । 'परिक्लिश्यमाने च' ( ३।४।५५ ) इति णमुल्प्रत्ययः । प्रतिचस्करे हतः । किरतेः कर्मणि लिट् । 'ऋच्छत्यताम्' (७।४।११ ) इति गुणः। "हिंसायां प्रतेश्च' (६।१११४१ ) इति सुडागमः । वज्रकठिनोऽपि नखंविदारित इति वाङ्मनसयोरगोचरमहिम्नस्ते कि मसाध्यमिति भावः ।। ४७ ॥ अन्वयः-नृसिंह ! अतनुं सैंही तनुं विभ्रता सटाच्छटाभिन्नघनेन त्वया सः मुग्धकान्तास्त नसङ्गभगुरैः नखै; उरोविदारं प्रतिचस्करे ॥ ४७ ॥ हिन्दी अनुवाद--हे नृसिंह ! ( नर तथा सिंहरूपधारी भगवन् श्रीकृष्ण !) विशाल (विस्तीर्ण होने के कारण आकाशस्पर्शी) सिंह-शरीर को धारण करते हुए, तथा केसरों-(आयाल गर्दन के केशों के) समूहों से मेघों को विदीर्ण करनेवाले आपने उस (हिरण्यकशिपु ) का नवीन कामिनी के स्तनद्वय के सम्पर्कजनित टेढ़े नखों से वक्षःस्थल फाड़कर ( उस हिरण्यकशिपु का ) वध किया था ॥ ४७ ॥ विशेष-श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध के तृतीय अध्याय में वर्णित कथा के अनुसार हिरण्यकशिपु ने घोर तपस्या कर ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया कि नर, देव, राक्षस नागादि से वह अवध्य रहे। भीतर, बाहर, दिन में, रात्रि में पृथ्वी या आकाश में किसी प्राणी के द्वारा उसकी मृत्यु न हो । युद्ध में कोई उसका सामना न कर सके। सम्पूर्ण-प्राणियों का वह सम्राट् बनें तथा उसे अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त हो । परिणामस्वरूप वह अतुलनीय शक्ति प्राप्त कर अखिल विश्व को त्रस्त करने लगा। अतः भगवान् विष्णु ने नृसिंहरूप धारण कर जंघा पर उसे बैठाकर संध्या समय उसके वक्षःस्थल को अपने नखों से विदीर्ण कर डाला ॥ ४७ ॥ प्रसङ्ग--प्रस्तुत श्लोक में कविमाघ हिरण्यकशिपु का दूसरे जन्म में रावण होने का वर्णन करते हैं। विनोदमिच्छन्नथ दर्पजन्मनो रणेन कण्ड्डास्त्रिदशैः समं पुनः॥ स रावणो नाम निकामभीषणं बभूव रक्षःक्षतरक्षणं दिवः॥४८॥ अथास्य जन्मान्तरचेष्टितान्याचष्टे विनोदमिति ॥ अथ स हिरण्यकशिपुः पुनर्भूयोऽपि त्रिदर्शः सम सह । साक साधं समं सह' इत्यमरः। रणेन दर्पादन्तःसाराज्जन्म यस्यास्तस्याः कण्ड्वाः भुजकण्डूतेविनोदमपनोदमिच्छन् । प्राग्भवनखक्षतस्तदपनोदाभावादित्यर्थः । दिव: स्वर्गस्य क्षतं नष्टं रक्षणं रक्षा येन तत् । क्षतधुरक्षणमित्यर्थः । सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात्समासः । अनेन देवसर्वस्वापहारित्वमुक्तम् । भीषयत इति भीषणम । नन्द्या Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः दित्वात् ल्युः । 'भियो हेतुभये षुक्' ( ७।३।४० ) इति पुक् । निकामं भीषणम् । 'सुप्सुपा' इति समासः । रावणो नाम रावण इति प्रसिद्धं रक्षो बभूव । राक्षसयोनी जात इत्यर्थः । विश्रवसोऽपत्यं पुमान् रावण इति विग्रहः । 'तस्यापत्यम्' (४११६२) इत्यणि कृते 'विश्रवसो विश्रवणरवणौ' इति प्रकृते रवणादेशः पौराणिकास्तु रावयतीति व्युत्पादयन्ति । तदुक्तमुत्तरकाण्डे 'यस्माल्लोकत्रयं चैतद्रावितं भयमागतम् । तस्मात्त्वं रावणो नाम नाम्ना वीरो भविष्यसि' ॥ १६॥३८ इति । रौतेय॑न्ताकर्तरि ल्युट् । रावणरअसोनियतलिङ्गत्वाद्विशेषणविशेष्यभावेऽपि स्वलिङ्गता ॥ ४८ ॥ अन्वयः-अथ स पुनः त्रिदशैः समम् रणेन दर्पजन्मनः कण्वा विनोदम् इच्छन् दिवः सतरक्षणं निकामभीषणं रावणो नाम रतः बभूव ।। ४८ ॥ हिन्दी अनुवाद-अनन्तर (हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात् ) वह (हिरण्यक शिपु) पुनः देवों के साथ युद्ध के द्वारा, अभिमानजन्य खुजली को दूर करने की इच्छा करता हुआ स्वर्ग की रक्षा को नष्ट कर देने वाला अत्यन्त भयंकर रावण नामक राक्षस हुआ॥४८॥ नृसिंह भगवान् ने अपने नखों द्वारा हिरण्यकशिपु की छाती फाड़कर उसका वध किया था। अतः ( देवों के साथ युद्ध करने की इच्छा पूर्ण न होने के कारण वही हिरण्यकशिपु अब इस जन्म में रावण के नाम से उत्पन्न होकर अभिमान से उत्पन्न खुजली को युद्ध के द्वारा दूर करना चाहना है ) ॥ ४ ॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक से ४९-६६ क्रमांक तक रावण के आतंक का वर्णन किया गया है । यहाँ सर्वप्रथम उसके तपः शौर्य का वर्णन किया गया है। कीदृशोऽसाविति इदानीं तद्वर्णनमाह प्रभुभूषुर्भुवनत्रयस्य यः शिरोऽतिरागाहशमं चिकर्तिषुः॥ अतर्कयद्विघ्नमिवेष्टसाहसः प्रसादमिच्छासदृशं पिनाकिनः ॥ ४९ ॥ अथास्योद्धत्य मष्टादशश्लोक्याऽऽचष्टे प्रभुरिति ॥ यो रावणः भुवनत्रयस्यः प्रभुः स्वामी बुभूषुभं वितुमिच्छुः । भुवः सन्नान्तादुप्रत्ययः । अतिरागादुत्साहात्, न तु फलविलम्वननिर्वेदादिति भावः । दशमं शिरः चितिषुः कतितुं छेत्तुमिच्छुः । 'कृती छेदने' इति धातोः सन्नन्तादुप्रत्ययः। इष्टसाहसः प्रियसाहसः अत एवेच्छासदृश मिच्छानुरूपं पिनाकिनः प्रसादं वरं विघ्नमिवातर्क यदुत्प्रेक्षितवानिति परमसाहसिकत्वोक्तिः। इत आरभ्य श्लोकषट्कोऽपि यच्छब्दस्य स रावणो नाम रक्षो बभूवेति पूर्वेणान्वयः । रङ्गराजस्तु' न चक्रमस्याक्रमताधिकन्धरम्' इति उपरिष्टादन्वय इत्याह । तदसत् । 'गुणानां च परार्थत्वात्' Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् इति न्यायादारुण्यादिवत्प्रत्येकं प्रधानान्वथिनां मिथः सम्बन्धायोगादित्यल शाखाचङक्रमणेन । पुरा किल रावणः काम्ये कर्मणि पशुपतिप्रीणनाय नव शिरांस्यग्नो हुत्वा दशमारम्भे सन्तुष्टात्तस्मात्रैलोक्याधिपत्यं ववे इति पौराणिकी कथात्रानुसन्धेया ॥ ४६॥ ___ अन्वयः-भुवनत्रयस्य प्रभुः बभूपुः अतिरागात् दशमं शिरः चिकर्तिपुः इष्टसाहसः यः इच्छासदृशं पिनाकिनः प्रसादं विघ्नम् इव अतर्कयत् ॥ ४९ ।। हिन्दी अनुवाद-त्रैलोक्य का स्वामी होने की इच्छा करनेवाले, ( भगवान् शंकर के प्रति ) अत्यधिक भक्ति होने के कारण अपने दसवें मस्तक को काटने का इच्छुक तथा साहस-प्रिय जिसने ( रावण ने ) शंकर के भभीष्ट वरदान को विघ्न की तरह समझा ॥ ४९ ।। प्रसन--प्रस्तुत श्लोक में कविमाघ रावण द्वारा कैलासपर्वत के उठाने की घटना का वर्णन करते हैं। समुत्क्षिपन् यः पृथिवीभृतां वरं वरप्रदानस्य चकार शूलिनः ॥ प्रसत्तुषाराद्रिसुताससम्भ्रमस्वयङ्ग्रहालेपसुखेन निष्क्रयम् ॥ ५० ॥ अथ कैलासोत्क्षेपणवृत्तान्तमाह__ समुत्क्षिपन्निति ॥ यो रावणः पृथिवीभृतां पर्वतानां वरं श्रेष्ठं कलासं समु. क्षिपन् । दादिति शेषः । शूलिनो वरप्रदानस्य पूर्वोक्तस्य । असन्त्याः शं नचलनेन विभ्यत्यास्तुपाराद्विसुतायाः पार्वत्याः ससम्भ्रमो यः स्वयङग्रहः प्रियप्रार्थनां विना कण्ठग्रहणम् । 'सुप्सुपा-' इति समासः। तेन आश्लेपः सम्मेलनं तेन यत्सुखं तेन । लोक्याधिपत्यसुखादुत्कृष्टेनेति भावः। निष्क्रय प्रत्युपकारनिर्गतिं चकार । 'निष्क्रयो बद्धियोगे स्यात्सामर्थ्य निर्गतावपि' इति वैजयन्ती। यद्वा निष्क्रयं चकार क्रयेण व्यवहारेण याच्यादोपदैन्यं ममार्जेत्यर्थः। अत्र सुखवरदानयोविनिमयात्परिवृत्तिरलङ्कारः ॥५॥ अन्वयः--यः पृथ्वीभृतां वरं समुरिक्षपन् शूलिनः वरप्रदानस्य सत्तुपारादिसुताससम्भ्रमस्वयं ग्रहाश्लेपसुखेन निष्कयं चकार ॥ ५० ॥ हिन्दी अनुवाद-जिस ( रावग) ने पर्वतों में श्रेष्ठ (कैलास) को उपर उठाते हुए, शङ्कर के द्वारा दिये गये वरदान का, (पर्वत के हिलने डुलने से ) डरतो हई पार्वती के, घबराहट के साथ स्वयं किये हुए आलिङ्गनजन्य सुख के द्वारा (मानो) बदला चुका दिया ॥ ५० ॥ (रावण द्वारा कैलास पर्वत के ऊपर उठाए जाने पर उसके कंपन से भयभीत होकर पार्वती ने शंकर भगवान् का स्वयमेव ही आलिङ्गन कर लिया, शिवजी को Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः इस अकस्मात् प्राप्त हुए आलिंगन सुख के द्वारा रावण ने शंकर के दिये हुए वरदान का (मानो) बदला चुका दिया ॥)॥५०॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में ऋवि रवर्ग में रावणकृत उपद्रवों का वर्णन करता है । पुरीमवस्कन्द लुनीहि नन्दनं मुषाण रत्नानि हराऽमराङ्गनाः ।। विगृह्य चक्रे नमुचिद्विषा वशी य' इत्थमस्वास्थ्यमहर्निशं दिवः॥५१॥ पुरीमिति ॥ यो वली बलवानरावणो नमुचिद्विषा इन्द्रेण विगृह्य विरुध्य पुरीममरावतीमवस्कन्दादरुरोध । नन्दन मिन्द्रवनम् । 'नन्दनं वनम्' इत्यमरः। लुनीहि चिच्छेद । 'ई हल्यघोः' (६।४।११३ ) इतीकारः । रत्नानि श्रेष्ठवस्तूनि मणीन्वा । 'रत्नं श्रेष्ठ मणावपि' इति विश्वः । मुषाण मुमोष । मुष स्तेये, 'हलः श्नः शानज्झौ' (३।१।८३ ) इति श्नः शानजादेशः । अमराङ्गनाः हर जहार । सर्वत्र पौनःपुन्येनेत्यर्थः । इत्थमनेन प्रकारेण अहनि च दिवा चाहदिवम् । अहन्यहनीत्यर्थः । अचतुर(५।४।७७) इत्यादिना सप्तम्यर्थवृत्ती द्वन्द्व समासान्तो निपातः। दिवः स्वर्गस्यास्वास्थ्यमुपद्रवं चक्रे। अत्रावस्कन्देत्यादौ "क्रियासमभिहारे लोट् लोटो हिस्वी वा च तध्वमोः' ( ३।४।२) इत्यनुवृत्ती 'समुच्चयेऽन्यतरस्याम्' इति विकल्पेन कालसामान्ये लोट् । तस्य यथोपग्रहं सर्वतिङादेशो हिस्वी च । प्रकरणादिना त्वर्थविशेपावसानम् । 'अतो हेः' ( ६।४।१०५ ) इति यथायोग्यं हिलुक् । पौनपुन्यं भृशार्थो वा क्रियासमभिहारः । अवस्कन्दनादिक्रियाविशेषाणां समुच्चयः क्रियासमभिहारः । तत्सामान्यस्य करोतेः समुच्चये सामान्यवचनस्य' (३।४।५) इत्यनुप्रयोगः चक्र इति । 'अत्र ति_चित्यात्सौशब्दाख्यो गुणः । 'सुपां तिङां परावृत्तिः सौशब्दम्' इति लक्षणात् । समुच्चयालङ्कारः ।। ५१ ॥ ___ अन्वयः--बली यः नमुचिद्विषा विराह्य पुरीम् अवस्कन्द नन्दनं लुनीहि रत्नानि मुषाण अमराङ्गनाः हर इत्थम् अहदिवं दिवः अस्वास्थ्य चक्रे ॥ ५१ ॥ हिन्दी अनुवाद-जिस वलवान् रावण ने नमुचिशत्रु (इन्द्र ) के साथ विरोध कर (शत्रुताकर ) पुनः पुनः पुरी को (अमरावती को) घेर लिया, 'नन्दन' वन (इन्द्रवन ) को काट डाला, रनों को चुरा लिया और देवाङ्गनाओं का अपहरण कर लिया, इस प्रकार ( उसने ) प्रतिदिन स्वर्ग में उपद्रव किया ॥ ५१ ॥ विशेष-उक्त श्लोक से माघ कवि के व्याकरण ज्ञान की सूचना मिलती है । सिद्धान्त कौमुदी की लकारार्थ प्रक्रिया में-'क्रियासमभिहारे लोट् लोटो हिस्वौ वा च तध्वमोः' सूत्र की व्याख्या के अवसर पर कौमुदीकार ने उक्त श्लोक को ही उपन्यस्त किया है ।। ५१॥ १. बली महर्दिवम् । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ शिशुपालवधम् प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में नारदजी युद्ध में इन्द्र के भागने की सूचना देते हैं । सलीलयातानि न भर्तुरभ्रमोर्न चित्रमुच्चैःश्रवसः पदक्रमम् ॥ अद्भुतः संयति येन केवलं बलस्य शत्रुः प्रशशंस शीघ्रताम् ॥ ५२ ॥ सलीलेति ॥ संयति युद्धे । 'समुदायः स्त्रियां संयत्समित्या जिसमिद्युधः ' इत्यमरः । येन रावणेन अनुद्रुतोऽनुधावितः बलस्य शत्रुरिन्द्रः अग्रमोर्भर्तुरैरावतस्य सलीलयातानि सभङ्गीकगमनानि न प्रशशंस तथा उच्चैःश्रवसः स्वाश्वस्य चित्रं नानाविधं पदक्रमं पादविक्षेपम् । अर्धपुलायिता दिगतिविशेषमित्यर्थः । न प्रशशंस । किन्तु केवलं शीघ्रतां शीघ्रगामित्वमेव प्रशशंस । अन्यथा शीघ्र मामास्कन्द्य ग्रहीष्यतीति भयादिति भावः ॥ ५२ ॥ अन्वयः -- संयति येन अनुद्भुतः बलस्य शत्रुः अभ्रमोः भर्तुः सलीलयातानि न ( प्रशशंस ), उच्चैः श्रवसः चित्रं पदक्रमम् न ( प्रशशंस ), केवलं शीघ्रताम् प्रशशंस ।। ५२ ।। हिन्दी अनुवाद - युद्ध में जिसके द्वारा ( रावण के द्वारा ) अनुद्भुत ( पीछाकर भगाये गये ) शत्रु ( बल नामक असुर के शत्रु इन्द्र ) ने ऐरावत के लीला पूर्ण गमन की ( प्रशंसा नहीं की ) तथा उच्चैःश्रवा घोड़े के विविध प्रकार के चरणविन्यास की भी ( आश्चर्य जनक चित्र विचित्र घोड़े की चाल ) ( प्रशंसा ) नहीं, ( की ) अपितु केवल शीघ्रता ( तेजी से भागने की ) की ( ही ) प्रशंसा की ॥ ५२ ॥ ( युद्ध में पराजित होनेपर भी इन्द्र को ऐरावत और उच्चैःश्रवा की शीघ्र गति के कारण रावण न पकड़ सका, इसलिए इन्द्र ने ऐरावत और उच्चैःश्रवा की उत्तमोत्तम गतियों की प्रशंसा न कर केवल उनके शीघ्र गमन की ही प्रशंसा की ) ।। ५२ ।। प्रसङ्ग — रावण से भयभीत होकर इन्द्र ने सुमेरुपर्वत की शरण ली । अशक्नुवन् सोढुमधीरलोचनः सहस्ररश्मेरिव यस्य दर्शनम् ॥ प्रविश्य हेमाद्रिगुहागृहान्तरं निनाय बिभ्यद्दिवसानि कौशिकः ॥ ५३ ॥ अशक्नुवन्निति ॥ अधीरलोचनोऽस्थिरदृष्टिः कौशिको महेन्द्रः उलूकश्च । 'महेन्द्र गुग्गुलूलू कन्यालग्राहिषु कौशिकः' इत्यमरः । सहस्ररश्मेः सूर्यस्येव यस्य रावणस्य विक्रमकर्मणो दर्शनं सोढुमशक्नुवन् । हेमाद्रेर्गुहैव गृहं तस्यान्तरं प्रविश्य बिभ्यत्तत्रापि वेपमान एव । विभेतेः शतरि 'नाभ्यस्ताच्छतुः' (७।१।७८) इति नुम - भावः । दिवसानि वासराणि निनाय । 'वा तु क्लीबे दिवसवासरी' इत्यमरः । यथा पेचकः सूर्योदये भीतः सन् तिष्ठति तथा सोऽपीति भावः । कौशिक इत्यभिधायाः Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः प्रस्तुतकगोचरत्वेनोभयश्लेषेऽपि विशेष्यश्लेषासम्भवादुलकविषयशब्दशक्तिमूलो ध्वनिः । सहस्ररश्मेरिवेत्युपमाननिर्वाहकत्वाद्वाच्यसिद्धयङ्गम् ।। ५३ ।। अन्धयः-अधीरलोचनः कौशिकः सहस्ररश्मः इव यस्य दर्शनं सोढुम् अशक्नुवन् हेमाद्रिगुहागृहान्तरं प्रविश्य बिभ्यत् दिवसानि निनाय ॥ ५३ ॥ हिन्दी अनुवाद-चञ्चल नेत्रों वाले इन्द्रने ( उल्लूने ) सूर्य के सदृश (अत्यन्त तेजस्वी ) जिस ( रावण ) का दर्शन सहन करने में असमर्थ होते हुए, हिमालय की गुफा रूपी घर के भीतर प्रविष्ट होकर डरते हुए, दिन व्यतीत किये ॥ ५३ ॥ प्रसन-प्रस्तुत श्लोक में रावण के कठोर कंठ के छेदन में विष्णु के चक्र की विफलता वर्णित की गई है। वृहच्छिलानिष्ठुरकण्ठघट्टनाद्विकीर्णलोलाग्निकणं सुरद्विषाम्॥ जगत्प्रभोरप्रसहिष्णु वैष्णवं न चक्रमस्याक्रमताधिकन्धरम् ।। ५४ ।। वृहच्छिलेति । बृहति शिलेव निष्ठुरे कण्ठे घट्टनादभिघाताद्विकीर्णा विक्षिप्ताः लोलावाग्निकणाः स्फुलिङ्गा यस्य तत्। अत एवाप्रसहिष्णु अनभिभावकम् । प्रसहनमभिभव इति वृत्तिकारः । 'अलंकृञ्-' ( ३।२।१३६ ) इत्यादिना इष्णुच् । वैष्णवं चक्रं सुदर्शनं जगत्प्रभोः सकललोकैकस्वामिनः अस्य सुरद्विषो रावणस्य कन्धरायामधि अधिकन्धरमधिग्रीवम् । विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः । 'अव्ययीभावश्च' ( २।४।१८ ) इति नपंसकत्वात् 'ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य' (१।२।४७ ) इति ह्रस्वत्वम् । 'कण्ठो गलोऽय ग्रीवायां शिरोधिः कन्धरेत्यपि' इत्यमरः। नाक्रमताप्रतिहतं न क्रमते स्म । न प्रवर्ततेस्म । किन्तु प्रतिहतमेवेत्यर्थः । 'वृत्तिसर्गतायनेषु क्रमः' (१।३।३८ ) इति वृत्तावात्मनेपदम् । वृत्तिरप्रतिबन्धः ।। ५४ ॥ _ अन्वयः-वृहच्छिलानिष्ठुरकण्ठघट्टनात् विकीर्णलोलाग्निकणम् अप्रसहिष्णु वैष्णवं चक्रं जगत्प्रभोः अस्य सुरद्विषः अधिकन्धरं न अक्रमत । हिन्दी अनुवाद--विशाल चट्टान के समान कठोर (रावण के ) कण्ठ से टक्कर लगने से उत्पन्न चञ्चल चिनगारियों वाला अजेय, विष्णु का चक्र लोकाधिपति इस देवशत्रु की गर्दन पर आक्रमण नहीं कर सका ॥ ५४॥ (भगवान् विष्णु ने रावण को मारने के लिये अपना सुदर्शन चक्र छोड़ा, किन्तु पत्थर की तरह अत्यन्त कठोर रावग के गले से उसके टकराने पर केवल अग्नि के कण चारों ओर छिटक गये, उससे रावण का गला नहीं कर सका।) प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में कविमाघ ने कुबेर को प्रकम्पित करने का वर्णन किया है। १. ० द्विकीर्ण ... द्विषः । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ शिशुपालवधम् विभिन्नशङ्खः कलुषीभवन्मुहुर्मदेन दन्तीव मनुष्यधर्मणः || निरस्त गाम्भीर्यमपास्तपुष्पकं प्रकम्पयामास न मानसं न सः ॥ ५५ ॥ विभिन्नेति ॥ स रावणो मदेन दर्पेण इनदानेन च । 'मदो दर्जे भदानवो:' इति विश्वः । दन्तीव गज इत्र विभिन्नो विघट्टितः शङ्खी निधिभेदः कम्बुश्च येन सः तन् । 'शङ्खो निध्यन्तरे कम्बुललाटास्थिनखेषु च' इति विश्वः । अकलुषं कलुषं क्षुब्धमाविलं च भवत्कलुषीभवत् । निरस्तं गाम्भीर्यमविकारित्वमगाधत्वं च यस्य तत् । अवास्तानि पुष्पाणि पुष्पकं विमानं च यस्मात्तत् । पुप्पपक्षे वैभाषिकः कप्प्रत्ययः । मनुष्यस्येव धर्मः श्मश्रुलत्वादिर्यस्येति स्वामी । तस्य मनुष्यधर्मणः । धर्मादनिच् केवलात्'- ( ५।४।१२४ ) इत्यनिच् । मानसं चित्तं तदीयं सरश्च । 'मानसं सरसि स्वान्ते' इति विश्वः । मुहुनं कम्पयामास न क्षोभयामासेति न । किन्तु कम्पयामासंवेत्यर्थः । कुबेरस्य महामहिमतया सम्भाविताप्रकम्पित्वनिवारणाय नद्वयम् । 'सम्भाव्य निषेधनिवर्तने नद्वयम्' ( ५१६ ) इति वामनः । अत्र दन्तिरावणयोः प्रकृताकृतयोः श्लेपः ।। ५५ ।। अन्वयः -- सः मदेन दन्ती इव विभिन्नशङ्खः कलुषीभवन् निरस्तगाम्भीर्यम् अपास्तपुष्पकम् मनुष्यधर्मणः मानसं सुहुः न प्रकम्पयामास ( इति ) न ॥ ५५ ॥ हिन्दी अनुवाद - उस ( रावण ) ने मद ( अहंकार, गजपक्ष में, मदजल जो हाथी की कनपटी से झरता है । ) के कारण हाथी की तरह ( कुबेर कं ) शंख नामक निधि को (गजपत्र में, शङ्खों को ) नष्ट करके ( मन में ) क्षुब्ध, ( मान सरोवर पक्ष में मलिन ) होते हुए गम्भीरता ( सरोवर पक्ष में, अगाधता ) को नष्ट किये हुए और पुष्पक (सरोवर पक्ष में, पुष्पों का समूह ) विमान को छीनते हुए, क्या कुबेर के मनको पुनः पुनः कम्पित नहीं किया ? अर्थात् अवश्य किया ।। ५५ ।। विशेष – 'नन्द्वयं प्रकृतार्थं द्रढयति ।' इस नियम के अनुसार उक्त श्लोक में दो 'न' के प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि कुबेर के मन को अवश्य कम्पित कर दिया || ( जिस प्रकार मदजल से उन्मत्त हाथी सरोवर में प्रविष्ट होकर उसके जल को कलुषित कर देता है और शंख पुष्पादि को नष्ट करता है, उसी प्रकार रावण ने अभिमान से क्षुब्ध होकर कुबेर के शंखनिधि को नष्ट कर डाला, उसके पुष्पक विमान को छीन लिया और कुबेर के मन की तथा मानसरोवर की गंभीरता को नष्टकर उसे बार-बार प्रकम्पित कर दिया ) ॥ ५५ ॥ प्रसङ्ग - कविमाघ वरुण पर रावण की विजय का वर्णन करते हैं । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः रणेषु तस्य प्रहिताः प्रचेतसा सरोषहुङ्कारपराङमुखीकृताः॥ प्रहर्तुरेवोरगराजरजवो जवेन कण्ठं सभयाः प्रपेदिरे ॥५६ ॥ रणेष्विति ॥ किञ्च रणेषु प्रचेतसा वरुणेन प्रहिताः प्रयुक्ता उरगराजा महासस्तेि रज्जव इव उरगराजरज्जवः । नागपाशा इत्यर्थः । तस्य रावणस्य सरोषहुङ्कारेण पराङ्मुखाकृना व्यावर्तिताः अत एव सभयाः सत्यः जवेन वेगेन प्रहर्तः प्रयोक्तुः प्रचेतस एव कण्ठं प्रपेदिरे प्राप्ताः । अत्र परहिंसाप्रयुक्तस्यायुधस्य वैपरीत्येन स्वकण्ठग्रहणादनर्थोत्पत्तिरूपो विषमालङ्कारः । “विरुद्धकार्यस्योत्पत्तिर्यत्रानर्थस्य वा भवेत्' इति लक्षणात् ॥ ५६ ।। ___ अन्धयः-रणेषु प्रचेतसा प्रहिताः उरगराज़रजवः तस्य सरोपहुङ्कारपराङमुखीकृताः ( अतएव ) सभयाः ( सत्यः) जवेन प्रहर्तुः एव कण्ठं प्रपेदिरे ।। ५६ ॥ हिन्दी अनुवाद-युद्धों में वरुण के द्वारा फेंके गए नागपाश उस (रावण) के क्रोधयक हुशार से लौटाये जाकर भय के साथ वेग से आकर फेंकनेवाले ( प्रहार करनेवाले ) के ही ( वरुण के ) कण्ठ में लिपट गए ।। ५६ ॥ प्रसन-प्रस्तुत श्लोक में रावण कृत यमविजय वर्णित है। परेतभर्तुमहिषोऽमुना धनुर्विधातुमुत्खातविषाणमण्डलः॥ हृतेऽपि भारे महतस्त्रपाभरादुवाह दुःखेन भृशानतं शिरः॥ ५७ ॥ परतभर्तुरिति ।। अमुना रावणेन धनुः शाङ्गं विधातुं निर्मातुमुत्खातमुत्पाटितं विषाणयोः शृङ्गयोमण्डलं वलयं यस्य सः परेतभर्तुर्य मस्य महिषः । वाहनभूत इति भावः । भारे विषाणरूपे । भृत्रो घञ् । हृतेऽपि महतस्त्रपंव भरस्तस्मात् । ततोऽपि दुर्भरादिति भावः । भृधातोः क्रमादिकात्' ऋदोरप् ( ३।३।५७ ) इत्यप्प्रत्ययः । भृशमत्यर्थमानतं नम्र शिरो दुःखेनोवाह वहति स्म। 'असंयोगास्लिट् कित्' (१।२।५) इति कित्त्वात् 'वचिस्वपि-' (६।१।१५) इत्यादिना सम्प्रसारणम् । हृतेऽपि भारे नतमिति विरोधः तदनुप्राणिता चेयमवनतिहेतुत्वसाधात्त्रपाभरत्वोत्प्रेक्षा ॥५॥ __ अम्वयः-अमुना धनुः विधातुम् उत्स्वातविषाणमण्डलः परेतभर्तुः महिषः भारे हृते अपि महतः पाभरात् भृशानतं गिरः दुःखेन उवाह ॥ ५७ ॥ हिन्दी अनुवाद-उस ( राघण) के द्वारा धनुष निर्मित करने के लिए उखाड़े गये सींगों के मण्डलवाला यमराज का महिष (शृङ्गः) भार दूर कर दिये जानेपर भी लज्जा के महान् भार से अत्यन्त नत हुए मस्तक को दुःख के साथ वहन करने लगा ॥ ५७॥ (रावण ने अपना धनुष बनाने के लिये यमराज के वाहन महिप के शृङ्ग उखाड़ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ शिशुपालवधम् लिये, फलतः लज्जा के भार से अत्यन्त झुके हुए अपने मस्तक को वह किसी तरह धारण कर सका । ) प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में रावणकृत सूर्यविजय का वर्णन है । स्पृशन्सशङ्कः समये शुचावपि स्थितः कराभैरसमप्रपातिभिः ॥ अधर्म धर्मोदक बिन्दुमौक्तिकैरलञ्चकाराऽस्य वधूरहस्करः ॥ ५८ ॥ स्पृशनिति ॥ अहः करोतीत्यहस्करः सूर्यः । ' दिवाविभानिशा -- इत्यादिना प्रत्ययः । कस्कादित्वात्सत्वम् । शुचौ समये प्रीष्मकाले अनुपहते आचारे च स्थितोऽपि । 'शुचिः शुद्धेऽनुपहते वङ्गाराषाढयोरपि । ग्रीष्मे हुतवहेऽपि स्यात् —' इति विश्वः । 'समयाः शपथाचारकालसिद्धान्त संविदः' इत्यमरः । असमग्रपातिभिः । सङ्कुचित वृत्तिभिरित्यर्थः । कराणामशूनां हस्तानां चायैः । 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः । सशङ्कः स्पृशन् । अविश्वासभयादिति भावः । अघर्मा अनुष्णा धर्मोदकबिन्दवः । 'मन्धोदन - ' ( ६ । ३६० ) इत्यादिना विकल्पादक शब्दस्योदादेशाभावः । तैरेव मौक्तिकरस्य वधूरलयकार | ग्रीष्मे तद्भवान्नासह्यं तपतीत्यर्थः । अत्र प्रस्तुत सूर्य विशेषणमात्र साम्यादप्रस्तुत प्रसाधकप्रतीतेः समासोक्तिरलङ्कारः ॥१६८॥ अम्ययः - अहस्करः शुचौ समये स्थितः अपि असमप्रपातिभिः हरायैः सशङ्कं स्पृशन् अधर्मधर्मोदक बिन्दुमौक्तिकैः अस्य वधूः अलञ्चकार ॥ ५८ ॥ हिन्दी अनुवाद - सूर्य ग्रीष्मकाल में स्थित होकर भी संकुचित किरणों के अग्र भागों से ( रावण के भय के कारण ) सशङ्क होकर स्पर्श करते हुए शीतल स्वेदबिन्दु रूपी मोतियों से रावण की स्त्रियों को अलंकृत करता था ॥ ५८ ॥ ( जैसे कोई राज-सेवक मर्यादा में रहता हुआ भी इस शंका से कि कहीं मैं चपलेन्द्रिय न समझा जाऊँ, अधिक हाथ बढ़ाते हुए देखकर राजा कहीं रुष्ट न हों, अतः संकुचित तथा हलके हाथों के अग्रभाग से राज-पत्नियों का शृंगार करता है, उसी प्रकार सूर्य ग्रीष्मऋतु होते हुए भी इस आशंका से कि कहीं रावण रुष्ट न हो जाय, अत्यन्त कोमल किरणों से उसकी पत्नियों के शरीर को स्वेद बिन्दुरूपी मोतियों से अलंकृत करता था ) । प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में नारदजी ने कहा कि चन्द्रमा भी रावण की सेवा में रत था । कलासमग्रेण गृहानमुञ्चता मनस्विनीरुत्कयितुं पटीयसा । विलासिनस्तस्य वितन्वता रतिं न नर्मसाचिन्यमकारि नेन्दुना ॥ ५९ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः कलासमग्रेणेति ॥ कलाभिः षोडशांशः शिल्पविद्याभिश्च समग्रेण सम्पूर्णेन । 'काले शिल्पे वित्तवृद्धौ चन्द्रांशे कलने कला' इति वैजयन्ती। गृहानमुञ्चता सदा तगृहेष्वेव वसता। दण्डभयात्सेवाधर्मत्वाच्चेति भावः। मनस्विनीर्मानिनीरुत्का उत्सुकाः कर्तुम् उत्कयितुम् । 'उत्क उन्मनाः' (शरा० ) इति निपातनादुत्कशब्दात 'तत्करोति -' इति ण्यन्तात्तुमुन् । पटीयसा । मानभेदचतुरेणेत्यर्थः। कुतः-रति वितन्वता चन्द्रिक्राभिश्चतुरोक्तिभिश्च रागं वर्धयता इन्दुना विलासिनो विलसनशीलस्य । 'वो कषलस-' (३।२।१४३) इत्यादिना घिनुण्प्रत्ययः । तस्य रावणस्य नमसाचिव्यं क्रीडासम्बन्ध्यधिकारित्वे सचेष्टत्वम् । 'लीला क्रीडा च नर्म च' इत्यमरः। नाकारीति न । किन्त्वकार्यवेत्यर्थः । अनौचित्यात्प्राप्सनर्मसाचिव्यनिषेधनिवारणा नद्वयम् । 'सम्भाव्यनिषेधनिवर्तने नदयम्' (१६) इति घामनः । अनेन्दोः प्रकृतस्याप्रकृतेन नर्मसचिवेन श्लेषः ॥ ५६ ।। अन्धयः-इलासम्प्रेण गृहान् अमुशता मनस्विनीः उस्कयितुं पटीयसा रतिं वितन्त्रता इन्दुना विलासिनः तस्य नर्मसाचिव्यं न अकारि (इति ) न ॥ ५९॥ हिन्दी अनुवाद-सम्पूर्ण कलाओं से (सोलह कलाओं से) घरों को न छोड़ते हुए (रावण के प्रासादों में सदा रहते हुए, अर्थात् उन्हें सदा प्रकाशित करते हुए) मानिनियों को उस्कष्ठिर करने में अत्यन्त चतुर तथा विलासी रावण के अनुराग को बढ़ाते हुए चन्द्रमा ने उसके नर्मसचिव का कार्य नहीं किया, ऐसी बात नहीं, अर्थात् अवश्य किया ।। ५९ ।। विशेष-(प्राचीनकाल में राजाओं के यहाँ सम्पूर्णकलाओं का ज्ञासा एक नर्मसचिव रहता था। जिसका कार्य राजा की विलासिता में कामोद्दीपक वचनों (6) से तथा क्रियाकलापों से हाथ बँटाना, तथा मानिनियों का मानभंग करना रहता था। चंद्रमा भी सम्पूर्णकलाओं में निष्णात तथा विलासी रावण की रति वधक क्रीडाओं में सहायक था । अतः यहाँ उसे रावण का नर्मसचिव कहा गया है।) (२) जहाँ दो नत्र का प्रयोग-न अकारि इति न किया जाता है, वहाँ निषेधार्थक अर्थ न होकर सकारात्मक अर्थ होता है। जैसा कि आचार्य वामन ने कहा है 'संभाव्यनिषेधनिवर्तने नम्दयम् ।' प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में रावण कृत गणेश जी के दन्तोरपाटन का वर्णन किया गया है। विदग्धलीलोचितदन्तपत्रिकाचिकीर्षया नूनमनेन मानिना॥ न जातु घेनायकमेकमुद्धृतं विषाणमद्यापि पुनः प्ररोहति ॥ ६॥ १. विधित्सया। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् विदग्धेति ॥ मानिनाऽहङ्कारिणा अनेन रावणेन विदग्धलीलाः । चतुरविलासिन्य इत्यर्थः । तासामुचिताश्च ता दन्तपत्रिकाश्च कर्णभूषणानि । 'विलासिनीविभ्रमदन्त. पत्रिका' इति साधीयान् पाठः । अन्यथा विप्रकृष्टार्थप्रतीतिकत्वेन कष्टाख्यार्थदोषापत्तेः। 'कष्टं तदर्थावगमो दूरायत्तो भवेत्' इति लक्षणात् । विलासिनीनां या विभ्रमार्थानि यानि दन्तमयपत्राणि । विभ्रमदन्तशमयोः षष्ठीसमासपर्यवसानात्तादर्यलाभः । तासां विधित्सया विधातुमिच्छया। विपूर्वाद्दधातेः 'सनि मीमा(७।४।५४ ) इत्यादिना अच इम् । 'सः सि' इति तकारः । 'अत्र लोपोऽभ्यासस्य' (७५४१५८ ) इत्यभ्यासलोपः । ततः 'स्त्रियाम' (४।१०२) इत्यनुवृत्ती 'अप्रत्ययात्' (२।३।१०२) इत्यकारप्रत्यये टाप् । नूनं निश्चित जातु कदाचिदपि । 'कदानिज्जातु' इत्यमरः। उद्धृतमुत्याटितं विनायकस्य गणेशस्येदं वनायकमेकं विषाणं दन्तः । 'विषाणं पशुश्रङ्ग स्यात्क्रीडाद्विरददन्तयोः' इति विश्वः । अद्यारि पुनर्न प्ररोहति न प्रादुर्भवति । प्रपूर्वात् 'रुह प्रादुर्भावे इत्यस्माल्लट् । किमन्यदकार्य मस्येति भावः । एतदन्यथा कथं गजाननस्पकदन्तत्वमुत्प्रेक्ष्यते नूनमिति ॥ ६॥ __ अन्वयः-मानिना अनेन विदग्धलीलोचितदन्तपत्रिका निधिरपणा जातु उद्धृतम् एक वैनायकं विपाणम् अद्यापि पुनः न प्ररोहति नूनम् ॥ ६ ॥ हिन्दी मनुषाद--अहंकारी रावण द्वारा, चतुर विलासिनियों के योग्य कर्णाभूषण निर्मित करने की इच्छा से कदाचित् उखाया गया गणेशजी का एक दाँत आज भी नहीं उत्पन्न होता है । ( हो रहा है) यह निश्चित है ।। ६० ॥ (मानी इस रावण ने एक समय चतुरविलासिनियों के योग्य हाथी दांत का कर्णभूषण बनाने की इच्छा से विनायकका एक दाँत उखाद डाला, जो आजतक पुनः उत्पन्न नहीं हुआ और वे सदा के लिये एक दन्त विनायक के नाम से प्रसिद्ध हो गये ॥६०॥) विशेष-पुराणों में गणेश जी का एक दन्तस्व प्रसिद्ध होने से कवि माघ ने उक्त कल्पना की है। प्रसन-प्रस्तुत श्लोक में कविमाघ वायु द्वारा स्वीकृत रावण की अधीनता का वर्णन करते हैं। निशान्तनारीपरिधानधूननस्फुटागसाऽप्यूरुषु लोलचक्षुषः ।। प्रियेण तस्यानपराधयाधिताः प्रभअनेना' नुचकम्पिरे सुराः ॥ ६१ ।। निशान्तेति ॥ निशान्तं गृहम । 'निशान्तं गृहशान्तयोः' इति विश्वः । तत्र या नार्यः । शुद्धान्तस्त्रिय-इत्यर्थः । तासां परिधानान्यन्तरीयाणि । 'अन्तरीयोपसंव्यानपरिधानान्यधोंऽशुके' इत्यमरः । तेषां धूननं चालनम् । धूनो ण्यन्ताल्ल्युट् । 'धूञ् १. प्रकम्पनेना। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ४९ प्रीमोर्नु ग्वक्तव्य' इति नुक् । तेन स्फुटागसा व्यक्तापराधेनापि । अन्तःपुरद्रोहस्य महापराधत्वादिति भावः । ऊरुषु तासां सक्थिषु लोलचक्षुषः सतृष्णदृष्टेः। 'सक्थि क्लीवे पुमानूरुः' इति, 'लोलश्चलसतृष्णयोः' इति चामरः । अत एव रावणस्य प्रियेण प्रमोदास्पदभूतेन । अङ्गीकृता म्लानिने दोषायेति न्यायादिति भावः। प्रकम्पनेन वायुना अनपराधेऽपराधाभावेऽपि बाधिताः। राजपुरुषरिति शेषः। सुरा अनुचकम्पिरे। स्वयमुपायेनान्तः प्रविश्यानपराधबाधानिवेदनेन मोचयता वायुनाऽनुकपिता इत्यर्थः । एकस्य वैदग्ध्यावहवो जीवन्तीति भावः ॥ ६१ ॥ अन्वयः-निशान्तनारीपरिधानधूननस्फुटागसा अपि ऊरुषु लोलचक्षुषः तस्य प्रियेण प्रकम्पनेन अनपराधबाधिताः सुराः अनुचकम्पिरे ॥ ६ ॥ हिन्दी अनुवाद-अन्तःपुर की सुन्दरियों के अधोवर (साडियों ) को उदाने के कारण स्पष्ट अपराधी ( होनेपर) भी (उन सुन्दरियों की खुली हुई ) जाँघों पर सतृष्ण (ललचायी हुई) दृष्टि टोलने वाले रावण के प्रिय पात्र वायु ने बिना अपराध के ही सताए हुए देवों को अनुगृहीत किया ॥ ६ ॥ (अन्तःपुर की सुन्दरियों की साड़ियाँ वायु जब उदाता था, तब विलासी रावण उनकी खुली जाँघों को देखकर प्रसन्न होता था, और इसी कारण, यद्यपि वायु रानियों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करने से स्पष्ट अपराधी था, तथापि वह रावण का प्रिय हो चुका था। फलतः जब-जब राजपुरुषों द्वारा अनपराधी देव सताये जाते थे, तब-तब रावण का कृपापात्र वायु देवों को राजपुरुषों के त्रास से मुक्त करा देता था)॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में अग्निपराजय का वर्णन हैतिरस्कृतस्तस्य जनाभिभाविना मुहुर्महिम्ना महसां महीयसाम् ।। बभार वाप्पैर्द्विगुणीकृतं तनुस्तनूनपाधूमवितानमाधिः ॥ ६२॥ तिरस्कृत इति ॥ किञ्च तस्य रावणस्य जनाभिभाविना लोकतिरस्कारिणा महीयसामतिमहतां महसा तेजसां महिम्ना महत्त्वेन । 'पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा' (५२१११२२ ) इतीमनिच् । मुहुस्तिरस्कृतः अत एव तनुः कृशः। तनुं न पातयति जाठररूपेण शरीरं धारयतीति तनूनपादग्निरिति स्वामी । 'नभ्राट् -' (६।३।७५) इत्यादिसूत्रेण निपातनान्नजो नलोपाभावः। आधिजदुःखोत्थबाष्पः निःश्वासोष्मभिः । 'बाष्पो नेत्रजलोष्ममोः' 'पुंस्याधिर्मानसी व्यथा' इति विश्वामरौ । द्वौ गुणावावृत्ती यस्य स द्विगुणः। ततश्चिः । द्विगुणीकृतं द्विरावृत्तम्। 'गुणस्त्वावृत्ति शब्दादिज्येन्द्रियामुख्यतन्तुषु' इति वैजयन्ती । धूमवितानं धूममण्डलं बभार । अग्निरपि तत्सन्निधौ निस्तेजस्को धूमायमान आस्त इत्यर्थः। धूमद्वैगुण्यासम्बन्धे सम्बन्धाभिधानादतिशयोक्तिः ।। ६२॥ ४शि०व० Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् ___ अन्धय - तस्य जनाभिभाविना महीयसा महसां महिम्ना मुहुः तिरस्कृतः तनुः तनूनपात् आधिजैः वाष्पैः द्विगुणीकृतं धूमवितानं धभार ।। ६२॥ हिन्दी अनुवाद-उस (रावण) के लोकोत्तर ( लोक को अभिभूत करनेवाले) अत्यन्त महान् तेजों के महत्व से पुनः पुनः तिरस्कृत हुए (अतएव) कृश हुए अग्नि ने मानसिक पीड़ा-जन्य आसुओं से द्विगुणित धूमपुञ्ज को धारण किया ।। ६२ ।। (रावण के लोकोत्तर तेज से पराभूत अग्नि ने मानसिक पीड़ा से उत्पन्न निःश्वास की उपमा छोड़ते हुए द्विगुणित धूवे को धारण किया। रावण के तेज के सामने अग्नि का तेज क्षीण हो गया था, केवल धूआ ही शेष रह गया था।) प्रसन्न--प्रस्तुत श्लोक में रावण के हाथियों द्वारा दिग्गजों के पराजित होने का वर्णन किया गया है। 'तदीयमातङ्गघटाविघट्टितैः कटस्थलपोषितदानवारिभिः ॥ गृहीतदिक्कैरपुनर्निवर्तिभिश्चिराय याथायमलम्भि दिग्गजेः॥ ६३॥ तदीयेति ॥ तदीयमातङ्गानां घटाभिर्दू हैः विघट्टितरभिहतः । 'गजानां घटना घटा' इत्यमरः। अतएव कटस्थलेभ्यः प्रोषितान्यपगतानि दानवारीणि येषां तः। गृहीताः पलाय्य संश्रिता दिशा यस्तैगृहीतदिक्कः । 'शेषाद्विभाषा' (२४१५४ ) इति कप् । अपुननिवतिभिर्भयात्तत्रैव स्थित दिग्गजः चिराय याथायं दिक्षु स्थिता गजा दिग्गजा इत्यनुगतार्थनामकत्वमलम्भि लब्धम् । लभेय॑न्तात्कर्मणि लुङ । 'विभाषा चिण्णमुलोः' (७.११६६) इति विकल्पान्नुमागमः ॥ ६३ ॥ अग्वयः-तदीयमातङ्गघटाविघट्टितैः कटस्थलप्रोषितदानवारिभिः गृहीतदिक्कैः अपुनर्निवर्तिभिः दिग्गजैः चिराय याथार्यम् अलम्भि ।। ( ६३ ) ॥ हिन्दी अनुवाद-उस रावण के गज-समूह से आहत, (अतः) गण्डस्थलों से लुप्तमदजलवाले, (भय के कारण भागकर) दिशाओं का आश्रय लेनेवाले और पुनः (अपने पूर्वस्थानों को) न लौटनेवाले दिशाओं के गजों ने चिरकाल के लिएभिन्न-भिन्न दिशाओं में रहनेवाले इस यथार्थ नाम को प्राप्त किया है ।। ६४ ॥ विशेष-आठों दिशाओं में रहनेवाले आठ दिग्गजों के नाम इसप्रकार हैं"ऐरावतः पुण्डरीको वामनः कुमुदोऽञ्जनः। पुष्पदन्तः सार्वभौमः सुप्रतीकश्च दिग्गजाः॥" पूर्व दिशाका दिग्गज 'ऐरावत', दक्षिण-पूर्व का 'पुण्डरीक' दक्षिण का 'वामन', दक्षिणपश्चिम का 'कुमुद', पश्चिम का 'अञ्जन', उत्तर-पश्चिम का 'पुष्पदन्त', उत्तर का 'सार्वभौम' पूर्व-उत्तर का 'सुप्रतीक' है ।। ६४ ॥ प्रसङ्ग--कविमा यहाँ रावणकृत सर्प और चुगुलखोरों के पराजय का वर्णन करते हैं परस्य मर्माविधमुज्झतां निजं द्विजिह्वतादोषमजिह्मगामिभिः ॥ तमिद्धमाराधयितुं सकर्णकः कुलैर्न भेजे फणिनां भुजङ्गता ॥ ६४ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ५१ परस्येति । किञ्च इदं दीप्तम् उग्रमित्यर्थः। इन्धी दीसी कतरिक्तः । तं रावण माराधयितुं सेवितुं परस्य स्वेतरस्य मर्माणि हृदयादिजीवस्थानानि कुलाचारप्रतानि च विध्यति भिनत्तीति मर्मावित् । विध्यतेः क्विप् 'अहिज्या-' ( ६।१।१६) इति सम्प्रसारणम् । 'नहिवृति-' इत्यादिना पूर्वस्य दीर्घः । तं मर्माविधं निजं स्वीयं द्विजिबतायां सर्पत्वे यो दोषो दृष्टिविषत्वादिस्तम् । अन्यत्र द्विजिह्वता पिशुनता । "द्विजिह्वी सर्प सूचकौ' इत्यमरः। सैव दोषस्तमुज्झतां त्यजतां फणिनां सम्बन्धिभिरजिह्मगामिभिः करचरणादिमद्विग्रहधारित्वादृजुगतिभिस्तैः । अकपटचारिभिश्च । तथा कर्णाभ्यां सह वर्तन्त इति सकर्णकास्तैः । चक्षुःश्रवस्त्वं विहाय आविष्कृतकर्णरित्यर्थः । 'तेन सहेति तुल्ययोगे' इति बहुव्रीहिः । 'शेषाद्विभाषा' इति कप् । अन्यत्र कर्णयति सर्व शृणोतीति कर्णको नियन्ता। कर्णयतेवुल् । ततः पूर्ववत्समासे सकर्णकः। सनियामकरित्यर्थः । फणिनां सर्पा गां कुलवंगर्भुजङ्गता सर्पता विटत्वं च । 'भुजङ्गो विटसर्पयोः' इति हलायुधः। न भेजे त्यक्ता। भुर्गच्छन्तीति भुजङ्गाः। गमेः सुपि खच् च डिद्वा वाच्यः । तस्मिन्नियन्तरि खलः खलत्वमपि सर्पः सत्वमपि विहाय वेषभावक्रियाभिः सौम्यत्वं श्रितमित्यर्थः । अत्र प्रस्तुतसर्पविशेषणसाम्यादप्रस्तुतखलव्यवहारप्रतीतेः समासोक्तिः ॥ ६४ ॥ अन्वयः-इद्धं तं आराधयितुं परस्य मर्माविधं निजं द्विजिह्नतादोपं उज्झतां फणिनां अजिह्मगामिभिः सकर्णकः कुलैः भुजङ्गता न भेजे ।। ६४ ॥ ( नारदजी श्रीकृष्ण से कहते हैं-) हिन्दी अनुवाद--सर्प पक्ष में-उस उग्रस्वभाव वाले रावण को प्रसन्न करने के लिए सर्पो ने दूसरों के हृदयादि मर्मस्थलों में भेदन ( काटने ) रूप अपने द्विजिह्वता दोष का परित्याग कर दिया है और वे अपनी वक्रगति को छोड़कर सरल गति से चलने लगे हैं। तथा चक्षुःश्रवत्व का त्यागकर उन्होंने कानों को धारण कर लिया है। खल पक्ष में-उस उग्रस्वभाव वाले रावण को प्रसन्न करने के लिए खलों ने अपने दुष्टस्वभाव का त्याग कर दिया है। उन्होंने कुलाचारादि को नष्ट करनेवाले छिद्रान्वेषण तथा द्विजिह्वता (चुगलखोरी) आदि दोषों का परित्याग कर दिया है। कपटभाव का त्यागकर (अब) वे सरलमार्ग से चलने लगे हैं और नियन्त्रण में रहने के कारण उन्होंने खलभाव ( दुष्टता) का परित्याग कर दिया है ॥ १४ ॥ प्रसंग-रावण की लंका में षड् ऋतुओं ने अपने-अपने निर्धारित काल को छोड़कर, सतत पुष्पोत्पादन करना प्रारम्भ किया तपेन वर्षाः शरदा हिमागमो वसन्तलक्ष्म्या शिशिरः समेत्य च ॥ प्रसूनक्लप्तिं 'दधतः सदर्तवः पुरेऽस्य वास्तव्यकुटुम्बितां ययुः ॥६५॥ १. क्लुप्तं ददतः। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् तपेनेति । सदा नित्यं नतु यथाकालं प्रसूनक्लृप्ति कुमुमसम्पत्तिम् । 'प्रसूनं कुसुमं सुमम्' इत्यमरः । दधतो धारयन्तः ऋतवो वर्षाः प्रावृट् तपेन ग्रीष्मेण । 'उष्ण ऊष्मागमस्तपः' इति 'स्त्रियां प्रावृट् स्त्रियां भूम्नि वर्षा अथ शरत्स्त्रियाम् ' इति चामरः । तथा हिमागमो हेमन्तः शरदा, तथा शिशिरो वसन्तलक्ष्म्या च समेत्य मिथुनीभावेन मिलित्वा अस्य रावणस्य पुरे वसन्तीति वास्तव्या वस्तारः । 'वसेस्तव्यत्कर्तरि णिच्च' इति तव्यत्प्रत्ययः । ते च कुटुम्विनश्च तेषां भावः तत्ताम् । प्रतिवासित्वमित्यर्थः । ययुः । समेत्य युयुरिति समुदायसमुदायिनोरभेदविवक्षया समानकर्तृत्वम् । अत्र पुरे युगपत्सर्वर्तु सम्बन्धाभिधानादसम्बन्धे सम्बन्धरूपातिशयोक्तिः ॥ ६५ ॥ ५२ अन्वयः - सदा प्रसून क्लृप्तिं दधतः ऋतवः वर्षाः तपेन, हिमागमः शरदा, शिशिरः बसन्त लक्ष्या च समेत्य अस्य पुरे वास्तव्य कुटिम्बितां ययुः ॥ ६५ ॥ हिन्दी अनुवाद - सदा ( अपने-अपने निर्धारित समय को छोड़कर पुष्पों की समृद्धि को धारण करती हुई ( षड्) ऋतुएँ, वर्षा; ग्रीष्म के साथ, हेमन्त; शरद् के साथ और शिशिर वसन्त-लक्ष्मी के साथ मिलकर ( दाम्पत्यभाव में ) इस (रावण) की नगरी में निवासिव तथा कुटुम्बित्व को प्राप्त हुई । ( नगर निवासी एवम् कुटुम्बी बन गईं ) ॥ ६५ ॥ विशेष - प्रस्तुत श्लोक में नारद मुनि श्रीकृष्ण से कहते हैं कि पड् ऋतुओं ने भी रावण के वश में होकर घर के सदस्यों के समान मिलकर रावण की सेवा करना प्रारंभ कर दिया है । प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में बन्दीकृत सुराङ्गनाओं के साथ रावण के विलासी जीवन का वर्णन है— अभीक्ष्णमुष्णैरपि तस्य सोष्मणः सुरेन्द्र बन्दीश्वसितानिलैर्यथा ॥ सचन्दनाम्भःकणकोमलैस्तथा वपुर्जलार्द्रापवनैर्न निर्ववौ ॥ ६६ ॥ अभीक्ष्णमिति ॥ ऊष्मणा स्मरज्वरेण सहितः सोष्मा तस्य सोष्मणस्तस्य रावणस्य वपुरभीक्ष्णं भृशमुष्णैरपि । शोकादिति भावः । सुरेन्द्रस्य बन्धः स्त्रियः तासां श्वसिता निर्लेनिःश्वास मारुतथा निर्ववौ निर्वृतम् । निर्वाण निर्वृतो मोक्षं' इति वैजयन्ती । तथा सचन्दनाम्भःकणाः चन्दनोदक बिन्दुसहिताः ते च ते कोमला मृदुलाश्च तैर्जलार्द्राणां जलोक्षिततालवृन्तानां पवनैर्न निर्ववौ । 'घवित्रं तालवृन्तं स्यादुत्क्षेपव्यजनं च तत् । जनार्द्र जलार्द्रा स्यात् - ' Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः इति वैजयन्ती। अत्र सन्तप्तस्योष्णोपचारान्नितिरिति कारणविरुद्धकार्योत्प त्तिरूपो विषमालङ्कारः ॥ ६६ ॥ अन्वय-सोप्मणः तस्य वपुः अभीक्ष्णम् उष्णः अपि सुरेन्द्रवन्दीश्वसितानिलैः यथा निर्वौ तथा सचन्द नाम्भ:-कणकोमलैः जला पवनैः न ( निर्ववौ)॥६६॥ हिन्दी अनुवाद--कैद की हुई देवेन्द्र की सुन्दरियों के अत्यन्त उष्ण निःश्वास वायु से काम-ज्वर के कारण सतत सन्तप्त रावण के शरीर को जितनी शान्ति मिलती थी, उतनी-शान्ति चन्दन-मिश्रित कोमल जलकों से आई ताड़-पंखे की शीतल हवा से मी नहीं मिटती थी ।। ६५॥ प्रसङ्ग-आगे के दो श्लोकों (क्र० सं० ६७-६८ ) में नारद जी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि आपको अपना भावी विनाशक जानते हुए भी अभिमानी रावण ने सीताजी को नहीं लौटाया अमानवं जातमजं कुले मनोः प्रभाविनं भाविनमन्तमात्मनः ॥ मुमोच जानन्नपि जानकी न यः सदाभिमानकधना हि मानिनः ॥ ७॥ स चायमासन्नविनाशस्तुभ्यमपि द्रुग्ध्वा पुनस्त्वयंव हत इति युग्मेनाह____ अमानवमिति ॥ मनोरयं मानवः । तस्येदम्' (४।१।२०) इत्याप्रत्यये पर्यवसानाज्जातावेकवचनम् । अन्यथा मनोतिमित्येव स्यात् । अमानवममानुषम् । न जायत इत्यजम् । 'अन्येष्वपि दृश्यते' ( ३।२।१०१ ) इति डप्रत्ययः । तथापि मनोः कुले जातं रामस्वरूपेणोत्पन्न मिति विरोधः। स चाभासत्वादलस्वार इत्याहप्रभाविन मिति । महानुभावे तस्मिन्न कश्चिद्विरोध इति भावः । 'माभीक्ष्ण्ये णिनिः' इति णिनिः । इनिर्वा मत्वर्थीयः। भवन्तमिति शेषः । आत्मनः स्पस्यान्तम् । अन्तं करोतीत्यन्तम् । अन्तशब्दात् 'तत्करोति-' इति ण्यन्तात्पचाद्यच् । भाविनं भविष्यन्तम् । भविष्यति गम्यादयः । जानन्नपि यो रावणः जनकस्यापत्यं स्त्री जानकी सीता तां न मुमोच नामुञ्चदित्यन्वयः । जानतोऽप्यमोचने कारणमाह-मानिनः सदा प्राणात्ययेऽप्यभिमानएवैकं मुख्यं धनं येषां ते । प्राणात्ययेऽपि न मानं मुञ्चन्तीत्यर्थः। कारणेन कार्यसमर्यनरूपोऽर्थान्तरन्यासः ॥ ६७ ॥ अन्वयः--अमानवम् अजं मनोः कुले जातं प्रभाविनम् (भवन्तम् ) आत्मनः अन्तं भाविनं जानन् अपि यः जानकी न मुमोच । हि मानिनः सदा अभिमानकधनाः (भवन्ति)॥ ६७॥ हिन्दी अनुवाद--मानवेतर, अजन्मा और (फिर भी) मनु के वंश में प्रादुर्भूत.. प्रभावशाली (आप) को अपना भावी संहारक जानते हुए भी (जिस ) रावण ने Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ शिशुपालवधम् जानकीजी को नहीं छोड़ा, वस्तुतः मानीजनों का सदा एकमात्र अभिमान ही धन होता है ।। ६७ ।। ( उस रावण ने मनु के वंश में विष्णु के अवतार भगवान् — श्रीरामचन्द्रजी को अपना संहारक जानते हुए भी भगवती सीताजी को नहीं छोड़ा, ठीक ही है- वचन के धनीमानी पुरुष प्राण भले ही व्याग दें पर अपनी टेक नहीं छोड़ते ) ॥ ६७ ॥ विशेष -- 'मनोः कुले जातम्' मनु के कुल में उत्पन्न । पुराणों के अनुसार सूर्यवंशियों के पूर्वज कोई मनुनामक राजा हुए थे । उन्हीं के वंश में राम का प्रादुर्भाव हुआ था । कवि कालिदास ने 'रघुवंश' महाकाव्य में रघुवंश के आदि पुरुष का वर्णन इस प्रकार किया है "वैवस्वतो मनुर्नाम माननीय मनीषिणाम् । आसीन्महीक्षितामाद्यः प्रणवश्छन्दसामिव ॥” प्रसङ्ग - पूर्व श्लोक क्र० ६७ के साथ | स्मरत्यदो दाशरथिर्भवन्भवानमुं वनान्ताद्वनितापहारिणम् ॥ पयोधिमाषद्ध' चलजलाविलं विलङ्घ्य लङ्कां निकषा हनिष्यति ॥ ६८ ॥ स्मरतीति ॥ भातीति भवान् । भातेर्डवतुः । दशरथस्यापत्यं पुमान्दाशरथिः । 'अत इन्' ( ४।१।१५ ) इतीञ्प्रत्ययः । भवन् रामः सन्नित्यर्थः । भवतेलंटः शत्रादेशः । वनान्ताद्दण्डकारण्याद्वनितापहारिणं सीतापहर्तारममुं रावणम् । आबद्धः प्रक्षिप्ताद्रिभिवंद्ध सेतुः अत एव चलन्ति जलानि यस्य स च । अत एव आविलश्च तमाबद्धचलज्जलाविलं पयोधि विलङ्घय लङ्कां निकषा लङ्कासमीपे । 'समयानिकपाशब्द सामीप्ये त्वव्यये मतो' इति हलायुधः । 'अभितः परितः समयानिकपाहाप्रतियोगेऽपि' इति द्वितीया । हनिष्यति अवधीत् । 'अभिज्ञावचने लृट् ' ( ३।२।११२) इति भूते लृट् । अदो हुननं भवान्स्मरतीति काकुः । प्रत्यभिजानासि किमित्यर्थः । शेषे प्रथमः ॥ १८ ॥ अन्वयः - भवान् दाशरथिः भवन् वनान्तात् वनितापहारिणम् अमुम् आबद्धजलाविलं पयोधिं विलङ्य लङ्कां निकषा हनिष्यति, अदः स्मरति (कच्चित् ) ॥ ६८ ॥ हिन्दी अनुवाद - ( नारदजी - श्रीकृष्ण को स्मरण कराते हुए कहते हैं कि ) आपने दशरथपुत्र ( रामचन्द्र ) होकर, दण्डकारण्य से स्त्री ( सीताजी ) का अपहरण करनेवाले उस ( रावण ) को, ( सेतु ) बँध जाने के कारण चञ्चल एवं क्षुब्ध जल से पंकिल बने हुए समुद्र को लाँघकर लङ्कां के निकट मारा था, यह ( आप ) स्मरण करते हैं ? ।। ६८ ॥ १. ० माविद्ध० । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः (नारदजी ने श्रीकृष्ण से कहा कि आपने रामावतार में दशरथ के यहाँ जन्म लेकर पत्नी का हरण करने वाले उस रावण को समुद्र पर पुल बाँधकर लता के पास मार। था, क्या यह आपको स्मरण है !॥) विशेष-विवाहोपरान्त राजा दशरथ रामचन्द्रजी को राजगद्दी देना चाहते थे, पर कैकेयी के कहने से उन्हें १४ वर्षों का वनवास दिया गया। वन में रहते समय रावण छल से सीताजी को हर ले गया । तब सुग्रीव के साथ मैत्री कर वानरों की सेना के साथ रामने नल-नील द्वारा निर्मित पुल के मार्ग से समुद्र को पार कर लंकाधिपति रावण का वध किया और विभीषण को लंका का राज्य देकर सीताजी के साथ १४ वर्ष पूर्ण होनेपर रामचन्द्रजी अयोध्या वापस आ गये। (वाल्मी० रामायण ) प्रसङ्ग-वही रावण शिशुपाल के रूप में उत्पन्न हुआ हैअथोपपत्ति छलनापरोऽपरामवाप्य शैलूष इवैष भूमिकाम् ॥ तिरोहितात्मा शिशुपालसंशया प्रतीयते सम्प्रति सोऽप्यसः परैः ॥६९।। अथेति ॥ अथ राक्षसदेहत्यागानन्तरं सम्प्रति छलनापरः परप्रतारणापरः एष रावणः शैलूषो नटः तस्य भूमिकां रूपान्तरमिव । 'शैलषो नटभिल्लयोः। भूमिका रचनायां स्यान्मूय॑न्तरपरिग्रहे' ॥ इति विश्वः । अपरामुपपत्तिम् । जन्मान्तरमित्यर्थः । अवाप्य शिशुपालसज्ञया तिरोहितात्मा तिरोहितस्वरूपः सन् सोऽपि रावण एव सन्नपि पररितरैः स न भवतीत्यसः तस्मादन्य एव । 'नत्र' इति नञ्समासः । अत एव 'एतत्तदोः सुलोपो०-' (६।१।१३२ ) इत्यादिना न सुलोपः। प्रतीयते ज्ञायते इति प्रतिपूर्वादिणः कर्मणि लट् । यर्थक एव शैलूषो रूपान्तरमास्थाय तद्देशभाषादिभिरन्य एव प्रतीयते तद्वदयमपि मानुषदेहपरिग्रहादन्य इव भाति । दीजन्यं तु तदेवेत्यवश्यं संहायं इति भावः ॥६६॥ अन्वयः-अथ सम्प्रति छलनापरः एषः शैलूपः भूमिकाम् इव अपराम् उपपत्तिम् अवाप्य शिशुपालसंज्ञया तिरोहितारमा (सन् ) सोऽपि परैः असः प्रतीयते ॥ ६९ ॥ हिन्दी अनुवाद-इस ( रावण का शरीर त्यागने ) के पश्चात् दूसरे को वश्चित करने में निपुण (तस्पर ) यह (रावण) नटकी तरह दूसरे जन्मको पाकर (अभिनय के लिये दूसरे पात्र की वेषभूषा धारण कर) शिशुपाल इस नाम से (अपने मूल) स्वरूप को छिपाए हुए वही (रावण ) होता हुआ भी इस समय दूसरों द्वारा उससे मिन ज्ञात होता है ६९ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् (नारदजी श्रीकृष्ण को कहते हैं कि अब उस रावणने नाटक के पात्र की तरह अपनी वेष-भूषा बदलकर अपना नाम शिशुपाल रक्खा है। यह वही रावण है, किन्तु देखने में उससे भिन्न ज्ञात होता है।) प्रसन्न-अप नारदजी श्रीकृष्ण को तीन श्लोकों (फ्र. ७०-७२ ) में शिशुपाल को दुष्टता को बतला रहे हैं स बाल आसीद्वपुषा चतुर्भुजो मुखेन पूर्णेन्दुनिभस्त्रिलोचनः ।। युवा कराक्रान्तमहीभृदुश्चकैरसंशयं सम्प्रति तेजसा रविः ।। ७० ॥ अर्थत द्दौजन्यं विभिराविष्करोति स याल इति ॥ स शिशुपालो बालः सन् वपुपा चतुर्भुजो भुजचतुष्टयवानासीत् । विष्णुरिति ध्वनिः । मुखेन पूर्णेन्दुनिभस्तत्तुल्यः त्रिलोचनो लोचनत्रयवानासीत् । स्यम्बक इति ध्वनिः । बालविशेषणात्सम्प्रति तत्सर्वमन्तहित मिति भावः । सम्प्रति तु युवा सन् करेण बलिना आक्रान्तमहीभृदधिष्ठित राजकः सन् अन्यत्रांशुव्याप्तशैलः । 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्यमरः । उच्चस्तेजसा रविरसंशयम् । संशयो नास्तीत्यर्थः। अर्थाभावेऽव्ययीभावः । वपुषा मुखेन चेति 'येनाङ्गविकारः' ( २।३।२०) इति सृतीया, हानिवदाधिक्यस्यापि विकारत्वात् । तथा च वामनः'हानिवदाधिक्यमप्यङ्गविकारः' (५।२।२४ ) इति । तेजसेति 'प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्' इति तृतीया । कराक्रान्तेत्यादिना श्लेषानुप्राणितेयमुत्प्रेक्षा । रविरसंशयमिति तस्य पूर्णेन्दुनिभ इत्युपमया संसृष्टिः । हरिहरादितुल्यमहिमत्वादतिदुर्धर्षः स इति भावः ॥ ७० ॥ ___ अन्वयः-सः वालः (सन् ) वपुषा चतुर्भुजः भासीत्, मुखेन पूर्णेन्दुनिभः त्रिलोचनः (आसीत् ) सम्प्रति युवा (सः) कराक्रान्तमहीमृत् उच्चकैः तेजसा असंशयं रविः (अस्ति) ॥ ७० ॥ हिन्दी अनुवाद-(मारदमुनिने भीकृष्ण से कहा कि ) यह शिशुपाल बाल्यावस्था में शरीर से चार भुजाओं वाला, (अर्थात् विष्णु के सहश था) मुख से पूर्ण चन्द्रमा के समान और तीन नेत्रों वाला था (अर्थात् शङ्करजी की तरह था) इस समय तारुण्यावस्था में वह करों ( हाथों, सूर्यपक्ष में किरणों) से राजाओं (सूर्यपत में, पर्वतों) को आक्रान्त करके तीन तेज से निःसन्देह सूर्य है ॥ ७० ॥ (अर्थात् वह अनेक देवमय है।) - विशेष-महाभारत के अनुसार शिशुपाल चेदि देशका राजा था। वह दमघोप का पुत्र तथा श्रीकृष्ण का मौसेरा भाई था। (महाभा. आदि. ६७-५, १८५. २३) इसके तीन नेत्र और चार हाथ थे। इसके रूप से डरकर माता-पिता ने इसे त्यागना चाहा, पर आकाशवाणी हुई कि उसे पालो । अतः इसका नाम शिशुपाल रखा गया। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः ५७ प्रसङ्ग-नारदमुनि ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा कि शिशुपाल ने अपनी शक्ति से देवों और दानवों को अपने वश में कर लिया है स्वयं विधाता सुरदैत्यरक्षसामनुग्रहावग्रहयो' यदृच्छया ॥ दशाननादीनभिराद्धदेवतावितीर्णवीर्यातिशयान्हसत्यसौ ॥ ७१ ॥ स्वयमिति ॥ यदृच्छया स्वेच्छया स्वयं सामयन । न तु देवताप्रसादबलादिति भावः । सुरदैत्यरक्षसां देवदानवयातुधानानामनुग्रहावग्रहयोः प्रसादनिग्रहयोर्विधाता कर्ता असौ शिशुपाल: अभिराद्धाभिराराधिताभिर्देवताभिरीश्वरादिभिवितीर्णो दत्तो वीर्यातिशयः प्रभावातिशयो येषां तान्दशाननादीन्हसति । अनन्यप्रसादलब्धश्वयें मयि कथं याचकस्तुल्यतेति गर्वाद्धसतीत्यर्थः ।। ७१ ॥ अन्वयः-यदृच्छया स्वयं सुरदैत्यरतसाम् अनुग्रहावग्रहयोः विधाता असौ अभिराद्धदेवता-वितीर्णवीर्यातिशयान् दशाननादीन् हसति ।। ७१ ॥ हिन्दी अनुवाद-स्वेच्छासे (देवताओं के वरदान से नहीं, अपितु अपने पुरुषार्थ से ) देव-दानघों और राक्षसों पर दया करनेवाला या उनको दण्ड देनेवाला यह ( शिशुपाल) देवताओं की कृपा से प्राप्त अतिशय शक्तिवाले रावणादिका उपहास करता है ॥ ७१॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में महाकविमाघ शिशुपालकृत जगत्-उत्पीडन का वर्णन करते हैं बलावलेपादधुनापि पूर्ववत्प्रवाध्यते तेन जगजिगीषुणा ॥ सतीव योषित्प्रकृतिः सुनिश्चला पुमांसमभ्येति भवान्तरेष्वपि ।। ७२॥ बलेति ॥ जिगीषुणा नित्योत्साहवतेत्पर्थः । तेन शिशुपालेन बलावलेपावलगर्वादधुनापि पूर्ववत्पूर्वजन्मनीव जगत्प्रपाध्यते । तथा हि-सती पतिव्रता योषिदिव सुनिश्चलाऽतिस्थिरा प्रकृतिः स्वभावो भवान्तरेषु जन्मान्तरेष्वपि पुमांसमभ्येति । 'पति या नाभिचरति मनोवाक्कायसंयता। सा भर्तुर्लोकमाप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते ॥ इति मनुः । उपमोपमेयपुरस्कृतोऽर्थान्तरन्यासः ॥ ७२ ॥ अन्वयः-जिगीषुणा तेन बलावलेपात् अधुना अपि पूर्ववत् जगत् प्रवाध्यते, सुनिश्चला प्रकृतिः, सती योषित् इव भवान्तरेषु अपि पुमांसमभ्येति ॥ ७२ ॥ हिन्दी अनुवाद-जयाभिलाषी वह (शिशुपाल) बल के दर्प से इस समय भी, अपने पूर्व जन्म की भाँति ( अर्थात् रावण जन्म की तरह) जगत् को त्रस्त कर १. ०पग्रहयो। २. सुनिश्चिला पुमांसमन्वेति । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ शिशुपालवधम् रहा है। क्योंकि पतिव्रता स्त्री जिस प्रकार भावी जन्म में भी पूर्व जन्मके पति को ही प्राप्त करती है, उसी प्रकार सुनिश्चला प्रकृति ( स्वभाव ) भी दूसरे जन्म में पुरुष को प्राप्त होती है ।। ७२ ।। विशेष - पतिव्रता के विषय में मनु ने कहा है-५-१६५ " पतिं या नाभिचरति मनोवाक्कायसंयता । सा भर्तुर्लोकमाप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते ॥ " ( मनुस्मृति ) अर्थात् जो स्त्री मन, वचन तथा शरीर से पतिपरायणा है, परपुरुष को स्वप्न में भी नहीं चाहती उसे पतित्रता कहा जाता है । प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में नारदजी भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं कि उक्त कारणों 'दुष्ट शिशुपाल का वध करना आपका कर्तव्य है से - तदेनमुल्लङ्घितशासनं विधेर्विधेद्दि कीनाशनिकेतनातिथिम् ॥ शुभेतराचारविपक्तिमापदो विपादनीया' हि सतामसाधवः ॥ ७३ ॥ देनमिति ॥ तत्तस्माद्विधेविधातुरप्युल्लङ्घितशासनम् । स्वयं विधातेत्याद्युक्तत्यातिक्रान्तदेवशासनमित्यर्थः । सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात्समासः । एनं शिशुपालं कीनाशनिकेतनातिथि कीनाशो यमस्तस्य निकेतनं गृहं तत्रातिथि प्राघुणिकं विधेहि कुरु । यमगृहं प्रेषयेत्यर्थः । कीनाशः कर्षके क्षुद्रे कृतान्तोपांशुघातिनोः' इति विश्वः । न चैतत्प्राघणिकहस्तेन सर्पमारणं, भवादृशामवश्य कर्तव्यत्वादित्याह - शुभेतराचारेण दुराचारेण विपक्त्रिमाः परिपाकेन निर्वृताः कालपरिपाकेन प्राप्ता आपदो येषां ते तथोक्ताः । द्वितः क्त्रि:' ( ३३८८ ) इति पचेः त्रिप्रत्ययः । क्त्रमं नित्यम्' इति तद्धितो मम्प्रत्ययः । असाधवो दुष्टाः सतां भवादृशां जगन्नियन्तॄणां विपादनीयाः वध्या हि । न च नर्घुण्यदोषः । स्वदोषेणैव तेषां विनाशे निमित्तमात्रत्वादस्माक मित्याशयेन शुभेतराचारेत्यादिविशेषणोक्तिः । सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः ॥ ७३ ॥ अन्वयः -- तत् विधेः उल्लङ्घितशासनम् एवं कीनाशनिकेतनातिथिं विधेहि । हि शुभेतराचारविपक्त्रिमापदः असाधवः सतां विपादनीयाः खलु ।। ७३ । हिन्दी अनुवाद - इसलिए विधाता के शासन का उल्लंघन करनेवाले ( अर्थात् अपने पुरुषार्थ से देव, दानवों और राक्षसों पर दया करनेवाले या उनको दण्ड देनेवाले) इस शिशुपाल को आप यमराज के यहाँ का अतिथि बनाएँ । क्योंकि १. निपातनीयाः । इतिपाठः Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः निरन्तर दुष्टता करते रहने से भरे हुए पापके घड़ेवाले असाधुओं को सत्पुरुषों के द्वारा दण्ड अवश्य दिया जाना चाहिए ॥ ७३ ।। विशेष-गीता में कहा भी है "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।" धर्मसंस्थापनार्याय संभवामि युगे युगे ॥ ४॥८॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में नारदजी, दुष्ट शिशुपाल का वध करके इन्द्र के हृदय को दृढ़ करने की प्रार्थना-श्रीकृष्ण से करते हैं हृदयमरिवधोदयादुदूढ'-द्रढिम दधातु पुनः पुरन्दरस्य ॥ घनपुलकपुलोमजाकुचाग्रद्रुतपरिरम्भनिपीडनक्षमत्वम् ॥७४॥ किञ्चैवं दुष्टनिग्र हे शिष्टानुग्रहः स्यादित्याह हृदयमिति॥ अरिवधोदयाद्रिपुनाशलाभात् उदूढद्रढिम नैश्चिन्त्याद् धृतदाढर्यम् । स्वस्थमिति यावत् । पृथ्वादित्वाद् दृढशब्दादिमनिच्प्रत्ययः । 'र ऋतो हलादेलघोः' (६।३।१६१ ) इति ऋकारस्य रेफादेशः । पुरः शत्रुपुराणि दारयतीति पुरन्दर इन्द्रः । 'पू:सर्वयोर्दारिसहोः' ( ३।२।४१ ) इति खच्प्रत्ययः । 'खचि ह्रस्वः' इत्युपधाह्रस्वः । 'वाचंयमपुरन्दरी च' (६।३।६६) इति निपातनाददन्तत्वंमुमागमश्च । तस्य हृदयं पुनर्भूयोऽपि। पूर्ववदेवेति भावः। घनपुलकयोः सान्द्ररोमाञ्चयोः, पुलोम्नो जाता पुलोमजा शची तस्याः कुचाग्रयोतपरिरम्भ औत्सुक्याच्छीघ्रालिङ्गनं तत्र यत्पीडनं तस्य क्षमत्वं सहत्वं दधातु । प्राक्चित्तविक्षेपात्त्यक्तभोगेन शक्रेण सम्प्रति त्वत्प्रसादानिष्कण्टकं स्वकीयं राज्यं भुज्यतामित्यर्थः । अत्र दाढर्यपदार्थस्योदूढद्रढिमेति विशेषणगत्या निपीडनक्षमत्वं प्रति हेतुत्वोक्त्या पदार्थहेतुकं काव्यलिङ्गम् । हृदयनिपीडनक्षमत्वसम्बन्धेऽप्यसम्बन्धोक्त्या सम्बन्धेऽसम्बन्धरूपातिशयोक्तिरित्यर्थालङ्कारो वृत्त्यनुप्रासश्च तरन्योन्यं संसृज्यते । पुष्पिताग्रा वृत्तम् । 'अयुजि नयुगरेफतो यकारो युजि च नजो जरगाश्च पुष्पिताग्रा' इति लक्षणात् ॥ ७४ ॥ अन्धयः- अरिवधोदयात् उदूढढिम पुरन्दरस्य हृदयं पुनः घनपुलकपुलोमजाकुचाग्रदुतपरिरम्भनिपीडनचमत्वं दधातु ॥ ७४ ॥ हिन्दी अनुवाद-शत्रु के (शिशुपाल के ) वध से हताधारण करनेवाला इन्द्र का हृदय ( कामसे) पर्याप्त रोमांचवाले इन्द्राणी के स्तनाग्रों का आलिंगन करने में पुनः सामर्थ्य प्राप्त करे ॥ ४ ॥ विशेष-अर्थात्, नारदमुनि ने श्रीकृष्ण से कहा--(१) पूर्व में शिशुपाल कृत १. ०दवाप्त । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० शिशुपालवधम् विविध उत्पीड़न-जनित अशान्त चित्त के कारण इन्द्रने राज्य-सुखों का उपभोग करना त्याग दिया था। अब आपके कृपा प्रसाद से वह अपने निष्कण्टक राज्यसुखों का उपभोग करने में पुनः समर्थ होगा ॥ ७४ ॥ (२) इन्द्राणी पुलोमा असुर की पुत्री थी । पुलोमा इन्द्रका श्वशुर था । इस असुर की पुत्री का नाम शची था । ( मत्स्य पुराण- ६.२० - १ ) यह इन्द्र द्वारा मारा गया और शची इन्द्रको व्याही गयी । ( ब्रह्मां २.२० ४९, ३.६.७, २४, वायु ५० - ३७ ) (३) नारदमुनि द्वारा कथित इन्द्रका यह सन्देश था कि जिसने पूर्व जन्म में रावण होकर कठिन तपस्या से शंकर को प्रसन्न किया और अभीष्ट वर प्राप्त कर इन्द्रकी पुरी 'अमरावती' और 'नन्दन वन' को उजाड़ दिया । अप्सराओं के रल बलपूर्वक हरण किये । कुबेर, वरुण, यम, सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, शेष और स्वर्गीय सुन्दरियों तथा देवों को अपने यहां दासदासों के रूप में बन्दीकर रक्खा, उसका आपने रामके अवतारमिव से वध किया था। अब इस समय भी वहीं शिशुपाल के रूप में उत्पन्न होकर पूर्व-जन्म की तरह पुनः जगत् को उत्पीडित कर रहा है, अतः आप पुनः पूर्व की तरह इसका भी वधकर के हम ( इन्द्रादि देवों ) को सुखी करें । प्रसङ्ग - ( प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण के क्रोध का वर्णन है ) -- जब नारदमुनि उपर्युक्त इन्द्रका सन्देश कहकर स्वर्ग को चले गये तव श्रीकृष्ण को शिशुपाल के प्रति क्रोध हुआ, जिसका महाकवि माघ इस प्रकार वर्णन कर रहे हैं ओमित्युक्तवतोऽथ शार्ङ्गिण इति व्याहृत्य वाचं नभ स्तस्मिन्नुत्पतिते पुरः सुरमुनाविन्दोः श्रियं बिभ्रति ॥ शत्रूणामनिशं विनाशपिशुनः क्रुद्धस्य चैद्यम्प्रति व्योम्नीव भ्रुकुटिच्छलेन वदने केतुश्चकारास्पदम् ।। ७५ ।। इति श्रीमाघकृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये कृष्णनारदसम्भाषणं नाम प्रथमः सर्गः ॥ १ ॥ ब ओमिति ॥ तस्मिन्सुरमुनौ नारदे इति इत्थंभूतां वाचं व्याहृत्योक्त्वा नभ उत्पतिते समुद्गते पुरोऽग्रे इन्दोः श्रियं विभ्रति सति । अय मुनिवाक्यानन्तरमोमित्युक्तवतस्तथास्त्वित्यङ्गीकृतवतः । 'ओम्प्रश्नेऽङ्गीकृतो रोषे' इति विश्वः । चेदीनां जनपदानामयं चैद्यः शिशुपालः। ‘वृद्धेत्कोसलाजादाञ् यङ्' (४।१।१७१) इति ञ्यप्रत्ययः । तम् प्रतिक्रुद्रस्य शाङ्गिणो वदने व्योम्नीवानिशं सर्वदा । अव्यभिचारेणेत्यर्थः । शत्रूणां विना १. शत्रूणां नितराम् । २. कति संयति । 'दुपोढद्रढिम' इति च पाठः ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्ग शस्य पिशुनः सूचकः। 'चन्द्रमभ्युत्थितः केतुःक्षितीशानां विनाशकृत्' इति शास्त्रादिति भावः। केतुरुत्पातविशेषः। 'केतुर्युतो पताकायां ग्रहोत्पातारिलक्ष्मसु' इत्यमरः। भ्रुकुटिच्छलेन भ्रूभङ्गव्याजेनास्पदं प्रतिष्ठां स्थितिं चकार । 'आस्पदं प्रतिष्ठायाम्' ६।१।१४६ इति निपातनात्सुडागमः। अनेन वाक्यार्थभूतस्य वीररससहकारिणो रौद्रस्य स्थायी क्रोधःस्वानुभावेन भृकुट्या कारणभूतोऽनुमेय इत्युक्तम् । तथा तदविनाभूतस्य स्थायी प्रयत्नोपनेय उत्साहोऽप्युत्पन्न एवेत्यनुसन्धेयम् । इन्दोः श्रियं विभ्रतीत्यत्र मुनेरिन्दुश्रियोऽयोगात्तत्सादृश्याक्षेपादसम्भवद्वस्तुसम्बन्धरूपो निदर्शनालङ्कारः। वदने व्योम्नीवेत्युपमा । भृकुटिच्छलेन केतुरिति छलादिशब्देनासत्यत्वप्रतिपादनरूपोऽपह्नवः । तत्र शत्रुविनाशसूचके त्वपेक्षितेन्दुसान्निध्यव्योमावस्थानसम्पादकत्वे निदर्शनोपमयोरपह्नवोपकारसत्त्वादङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः। चमत्कारकारितया मङ्गलाचरणरूपतया च सर्गान्त्यश्लोकेषु श्रीशब्दप्रयोगः । यथाह भगवान् भाष्यकार:-मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि शास्त्राणि प्रथन्ते, वीरपुरुषाण्यायुष्मत्पुरुषाणि च भवन्ति' इति । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । 'सूर्याश्वमसजस्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम्' इति लक्षणात् । सर्गान्तत्वावृत्तभेदः । यथाह दण्डी 'सर्गरनतिविस्तीर्णः श्राव्यवृत्तैः सुसन्धिभिः । सर्वत्र भिन्नसर्गान्तरुपेतं लोकरञ्जकम्' ॥ इति ॥ ७५ ॥ (काव्यादर्श १।१८-१९) अथ कविः कविकाव्यवर्णनीयाख्यानपूर्वकसर्गसमाप्ति कययति-इतीति । इतिशब्दः समाप्तौ । माघकृताविति कविनामकथनम् । महाकाव्ये इति महच्छब्देन लक्षणसम्पत्तिः सूचिता। शिशुपालवध इति काव्यनामकथनम् । प्रथमः सर्ग इति । समाप्त इतिशेषः । एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम् ॥ इति श्रीमहोपाध्यायकोलाचलमल्लिनाथसूरिविरचिते शिशुपालवध काव्यव्याख्याने सर्वङ्कषाख्ये प्रथमः सर्गः ॥१॥ अन्वयः-तस्मिन् सुरमुनी इति वाचं व्याहृत्य नभः उत्पतिते पुरः इन्दोः श्रियं बिभ्रति ( सति ) अथ ओम् इति उक्तवतः चैद्यं प्रति क्रुद्धस्य शाह्मिणः वदने ब्योम्नि इव अनिशं शत्रूणां विनाशपिशुनः केतुः भ्रुकुटिच्छलेन आस्पदं चकार ॥ ७५ ॥ हिन्दी अनुवाद--उन नारदमुनिके द्वारा यह (१॥३१-७४ ) कहने के बाद आकाश में उड़नेपर और सामने चन्द्रमा की शोभा को धारण करने पर, 'ओम्'(नारदमुनि की बात स्वीकार करनेवाले) ठीक है, ऐसा कहनेवाले तथा शिशुपाल के प्रति क्रुद्धहोनेवाले श्रीकृष्ण के मुखमण्डलपर आकाशपटल की तरह अविरत शत्रुओं के Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ शिशुपालवधम् विनाश-सूचक केतु नामक तारे ने भृकुटि के चढ़ने के बहाने अपना स्थान ग्रहण कर लिया ॥ ७५॥ तात्पर्य यह है कि-- नारदमुनि इन्द्रका पूर्वोक्त सन्देश सुनाकर जब आकाश में उड़ गये तब वे चन्द्रमा की तरह प्रतीत होने लगे और इधर भगवान् श्रीकृष्ण का मुख क्रोध से अत्यन्त लाल हो गया मौर उन्होंने शिशुपाल का वध करना स्वीकार कर लिया। श्रीकृष्ण के मुखपर भृकुटि इस तरह चढ़ गई थी कि जिस तरह आकाश में शत्रु विनाश का सूचक 'केतु' उदित हुआ हो। शुभ्र होने से नारदमुनि चन्द्रमा के समान थे और श्रीकृष्ण का मुखमण्डल आकाश था और उनकी वक्र भृकुटि 'केतु' का तारा था। आकाश में चन्द्रमा के समीप धूमकेतु के उदय होने से राजाओं का नाश होता है। अतः शिशुपाल का वध अवश्य होगा, यह सूचित होता है। कहा भी है "चन्द्रमभ्युत्थितः केतुः क्षितीशानां विनाशकृत् ।" ॥ ७५॥ विशेष-कवि माघने चमत्कार उत्पन्न करने तथा मंगलान्त करने के लिए सर्ग के अन्तिम श्लोक में भी प्रथम श्लोक की तरह 'श्री' शब्द का प्रयोग किया है। मंगलाचरण के विषय में भाष्यकार भगवान् पतञ्जलि ने इस प्रकार कहा है__'मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ने, वीरपुरुषाण्यायुष्मत्पुरुषाणि च भवन्ति, अध्येतारश्च प्रवक्तारो भवन्ति ।' ॥ इति केशवसदाशिवशास्त्रिमुसलगांवकरेण विरचितायां रहस्यबोधिनी. व्याख्यायां नारदागमनं नाम प्रथमः सर्गः ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः प्रसङ्ग-नारदमुनि के द्वारा इन्द्र का सन्देश सुन लेने के पश्चात्, एक ओर तो राजसूय यज्ञ के लिए युधिष्ठिर द्वारा आमन्त्रित किये गये तथा दूसरी ओर शिशुपाल पर अभियान करने के इच्छुक श्रीकृष्ण द्विविधा में पढ़कर व्याकुल हो उठते हैं । अतः ऐसे अवसर पर मन्त्रणा की आवश्यकता होती है। तदर्थ महाकविमाघ 'मन्त्रवर्णनात्मक' सर्ग प्रारम्भ करते हैं। यियक्षमाणेनाहूतः पार्थेनाऽथ मुरं द्विषन् ॥ अभिचैद्यं प्रतिष्ठासुरासीत्कार्यद्वयाकुलः॥१॥ अस्मिन्सर्गे मन्त्रवर्णनाय बीजं वपति यियिक्षमाणेनेति ॥ अथेन्द्रसन्देशश्रवणानन्तरं यियक्षमाणेन यष्टुमिच्छता । यजतेः सन्नन्ताल्लटः शानच् । पार्थेन पृथापुत्रेण युधिष्ठिरेण । 'तस्येदम्' (४॥३॥१२०) इत्यण् । अन्यथा स्त्रीभ्यो ढक् (४।१।१२०) स्यात् । ततः पार्थेय इति स्यात् । आहूत आकारितः । ह्वयतेः कर्मणिक्त सम्प्रसारणदी? । तथा अभिचा शिशुपालं प्रति । 'लक्षणेनाभिप्रती आभिमुख्ये' (२।१।१५) इत्यव्ययीभावः । 'अमिरभागे' (१।४।६१) इति कर्मप्रवचनीयत्वे तद्योगे द्वितीया वा। प्रतिष्ठासुः प्रस्थातुमिच्छुः । तिष्ठतेः सन्नन्तादुप्रत्ययः। मुरं द्विषन्मुरारिः। द्विषोऽमित्रे (३।२।१३१) इति शतृप्रत्यये 'न लोका-' (२।३।६९) इत्यत्र 'द्विषः शतुर्वा' इति वैकल्पिकः षष्ठीप्रतिषेधः । कार्यद्वयेन सुरकार्य सुहृत्कार्यरूपेणाकुलो विप्रतिषेधादावश्यकत्वाच्च द्वयोः सन्दिहान आसीत् । अतो मन्त्रस्यायमवसर इति भावः ॥ १॥ अन्वयः-अथ यियक्षमागेन पार्थेन आहूतः अभिचैद्यं प्रतिष्ठासुः मुरं द्विषन् कार्यद्वयाकुलः आसीत् ॥ १॥ हिन्दी अनुवाद-इस (नारदमुनि के द्वारा कथित इन्द्रका सन्देश सुनने तथा तदनुरूप कार्य करने की स्वीकृति श्रीकृष्ण से पाकर नारदमुनि के चले जाने ) के पश्चात् यज्ञ करने के इच्छुक पृथापुत्र युधिष्ठिर के द्वारा निमन्त्रित तथा शिशुपाल पर १. द्विषन्मुरम् । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ शिशुपालवधम् अभियान करने के लिए तत्पर श्रीकृष्ण (परस्पर विरोधी) दो कार्यों ( के एक ही समय पर उपस्थित होने ) से व्याकुल थे ॥१॥ (नारदमुनि के द्वारा इन्द्र का सन्देश सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने शिशुपाल पर चढ़ाई करने का निश्चय किया, उसी समय धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ में पधारने के लिये निमंत्रण भी मिला--इस तरह परस्पर विरुद्ध दोनों आवश्यक कार्यों के एक ही समय उपस्थित होने से भगवान् श्रीकृष्ण बड़ी चिन्ता में पड़ गये ॥३॥) प्रसङ्ग-उपर्युक्त विषम विषय पर विचार करने के लिये श्रीकृष्ण, उद्धव और बलदेवजी के साथ मंत्रणागृह में जाते हैं-- गुरुकाव्यानुगां विभ्रश्चान्द्रीमभिनभः श्रियम् ॥ सार्धमुद्धवसीरिभ्यामथाऽसावासदत्सदः ॥२॥ एवं मन्त्रबीजसन्देहमुपन्यस्य मन्त्रोचितं देशमाह___ सामिति ॥ अथ सन्देहानन्तरमसो हरिः अभिनभः । पूर्वपदव्ययीभावः। कर्मप्रवचनीयत्वे वा द्वितीया । गुरुकाव्यो वृहस्पतिशुक्रावनुगावनुयायिनो यस्यां ताम् । 'गीष्पतिधिषणो गुरुः' इति, 'शुक्रो दैत्यगुरुः काव्यः' इति चामरः। चन्द्रस्येमां चांद्रीं श्रियं बिभ्रत् । अत्र श्रीतुल्यां श्रियमिति निदर्शनाभेदः । उद्धवसीरिभ्यां सार्धमुद्धवरामाभ्यां सह सदः सभामासददगमत् । राजसदसः प्रासादत्वादिति भावः । सदेर्लुडि 'पुषादि-' (३।११५५) इति च्लेरङादेशः । अत्र मनुः 'गिरिपृष्ठ समारुह्य प्रासादं वा रहो गतः। अरण्ये निःशलाके वा मन्त्रयेद्भावभा विनो' ॥ (७।१७४) इति ॥२॥ अन्वयः-अथ असौ अभिनभः गुरुकाव्यानुगां चान्द्रीं श्रियं विभ्रत् उद्धवसीरिभ्यां साद्ध सदः आसदत् ॥ २॥ हिन्दी अनुवाद-इस ( परस्पर विरुद्ध दो कार्यों के एक साथ उपस्थित हो जाने के कारण, श्रीकृष्ण के व्याकुल होने) के पश्चात् उपस्थित विषयपर विचार करने के लिये उद्धव और बलदेव के साथ श्रीकृष्ण मंत्रणा गृह में भाये, उस समय भगवान् श्रीकृष्ण की शोभा आकाश में गुरु और शुक्र के सहित चन्द्रमा की-सी प्रतीत हो रही थी॥२॥ विशेष-मन्त्रणा स्थल के विषय में मनुने कहा है-"गिरिपृष्ठं समारुह्य प्रासादं वा रहोगतः । अरण्ये निःशलाके वा मन्त्रयेद्भावभाविनौ ॥" (मनुः ७।१७४) १, व्याख्यान्तरे च श्लोकोऽयं पूर्वोत्तरार्धन्यत्यासेन पठितः । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ६५ प्रसङ्ग--प्रस्तुत श्लोक से (३-५) ती। श्लोकों में कवि माध; सभा-वेदीपर उपस्थित श्रीकृष्ण, बलराम और उद्धव की शोभा का वर्णन करते हैं। जाज्वल्यमाना जगतः शान्तये समुपेयुषी ॥ व्यद्योतिष्ट सभावेद्यामसौ नरशिखित्रयी ॥३॥ जाज्वल्यमानेति ॥ जगतः शान्तयेऽनुपद्रवाय समुपेयुषी मिलिता जाज्वल्यमाना भृशं ज्वलन्ती । धातोरेकाचो हलादेः क्रियासमभिहारे यङ् । ( ३।१।२२) ततो लटः शानजादेशे टाप् । असो नराः पुरुषा एव शिखिनोऽग्रयस्तेषां त्रयी। "द्वित्रिभ्याम् -' (५।२।४३) इत्यादिना तयस्यायजादेशे कृते "टिड्ढाण-' (४।१।१५) इत्यादिना डीप् । सभा आस्थानी सैव वेदिः । 'वेदिः परिष्कता भूमिः' इत्यमरः। तस्यां व्यद्योतिष्ट दीप्यते स्म । 'युद्भयो लुङि' ( १।३।६१) इति वा तङ् । रूपकालङ्कारः ॥ ३ ॥ अन्वयः--जगतः-शान्तये समुपेयुपी जाज्वल्यमाना असौ नरशिखित्रयी समावेयां व्ययोतिष्ट ॥ ३ ॥ हिन्दी अनुवाद-जगत् के उपद्रवों को शांत करने के लिये एकत्र हुए, माहवनीय, दक्षिण और गार्हपत्यरूप अग्नि के समान ये तीनों (श्रीकृष्ण, उद्धव और बराम) महापुरुष समारूप वेदीपर सुशोभित हुए ॥ ३॥ प्रसङ्ग-तत्पश्चात् श्रीकृष्ण, उद्धव और बलराम को साथ लेकर तात्कालिक निर्णय लेने के लिए रवजटित सभा-भवन में गये । रत्नस्तम्भेषु संक्रान्तप्रतिमास्ते चकाशिरे॥ एकाकिनोऽपि परितः पौरुषेयवृता इव ॥४॥ रनेति ॥ रत्नानां स्तम्भा इति षष्ठीसमासविशेषे पर्यवसानाद्विकारार्थत्वम् । तेषु संक्रान्तप्रतिमाः संक्रान्तप्रतिबिम्बाः। 'प्रतिमानं प्रतिबिम्ब प्रतिमा-'इत्यमरः। ते त्रय एकाकिनोऽसहाया अपि । 'एकादाकिनिच्चासहाये' (२३३५२) इत्याकिनि. प्रत्ययः। परितोऽभिंतः सर्वतः। पर्यभिभ्यां च ( २३३३६ ) इति तसिल्प्रत्ययः । स च सर्वोभयार्थाभ्यामिष्यते । पौरुषेयेण प्रतिबिम्बभूयस्त्वात्पुरुषसमूहे नावृता इवेत्युस्प्रेक्षा। चकाशिरे । सर्वपुरुषाभ्यां णढनो ( ५:१।१०) पुरुषाद्वधविकारसमूहतेनकृतेविति वक्तव्यम्' इति समूहे ढप्रत्ययः । एतेन विजनत्वमुक्तम् । यद्यपि 'निःस्तम्भे निर्गवाक्षे च निभित्त्यन्तरसंश्रये । प्रासादाने त्वरण्ये वा मन्त्रयेद्भावभाविनी ॥ इति कामन्दकीये मन्त्रभूमेः स्तम्भप्राचुर्यनिषेधो गम्यते, तथापि तस्यापि विजनोपलक्षणत्वाददोष इति भावः ॥ ४ ॥ ५शि०३० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् अन्वयः—– रत्नस्तम्भेषु सङ्क्रान्तप्रतिमाः ते एकाकिनः अपि परितः पौरुषेयवृताः इव चकाशिरे ॥ ४ ॥ हिन्दी अनुवाद - (यद्यपि वे तीनों वहाँ अकेले ही थे, इनके साथ और कोई न था, तथापि ) समामण्डप के रतनजटित स्तम्भों में उनका प्रतिबिम्ब पड़ने पर एकएक भी वे अनेक से मालूम होते थे ॥ ४ ॥ ६६ विशेष - यद्यपि राजनीति के शास्त्रकारों के मत में मन्त्रमा के लिये ऐसा स्थान होना चाहिए "निस्तम्भे निर्गवाचे च निर्मित्यन्तरसंश्रये । प्रासादा स्वरण्ये वा मन्त्रयेद्भावभाविनौ ॥" इस प्रकार कामन्दक आचार्य के मत में मन्त्रगागृह में स्तम्भप्राचुर्य का निषेध है, अर्थात् इस काव्य में सनागृह में एनजटित स्तम्भों का वर्णन होने से इस स्थान का मन्त्र के अयोग्य होना सूचित होता है, तथापि उक्त वर्णन एकान्त स्थान का उपलक्षण होने से यहाँ भी एकान्त स्थान होने से कोई दोष प्रतीत नहीं होता ॥ ४ ॥ मनु ने -- पर्वतपर चढ़कर, एकान्त प्रासाद में या निर्जनवन में दूसरे से अज्ञात होते हुए मन्त्री के साथ मन्त्रमा करने के लिये कहा है | मनु ७१४७ प्रसङ्ग — प्रस्तुत श्लोक में कविनाघ उचत ( ऊँचे ) स्वर्ग -सिंहासन की शोमा का वर्णन करते हैं । मध्यासामासुरुत्तुङ्गहेमपीठानि यान्यमी ॥ तैरूहे केसरिक्रान्तत्रिकूटशिखरोपमा ॥ ५ ॥ अध्यासामासुरिति ॥ बभी त्रयो यान्युतुंङ्ग हेमपीठान्यासनानि वस्याचामासुषितष्ठः । येषूपविष्टा इत्यर्यः । 'वधिशीङस्यानां कर्म ( ११४१४६ ) इजि कर्मत्वम् । ‘आसउपवेशने' लिट् । 'दयावान' (३।१।३७) इत्याम्प्रत्ययः । कृचानुप्रयुज्यते लिटि' ( ३|११४० ) इत्यस्वेरनुप्रयोगः । ' आम्प्रत्ययवत्कृत्रोऽनुप्रयोगस्व' ( ११३६३ ) इति कृञ एवेति नियमादस्वेर्नात्मनेपदम् । तंः पीठः केसरिभिः निः कान्तानां त्रिकूटस्य त्रिकूटाद्रेः शिखराणामुपमा सादृश्यमुहे ऊढा । वहेः कर्मनि लिड् सम्प्रसारणम् । त्रीणि कूटान्य प्रेत्यन्वर्थसंज्ञा । 'कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गम्' इत्यमरः । उपमालङ्कारः ॥ ५ !! अन्वयः—अमी यानि उत्तमपीठानि अध्यासामासुः तैः केसरिकान्तत्रिकूटशिखरोपमा उहे ॥ ५ ॥ हिन्दी अनुवाद – तीनों (श्रीकृष्ण, उद्धव और बलराम ) जिन ऊंचे-ऊंचे Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्ग सोने के सिंहासनों पर बैठे थे, उन सिंहासनों को त्रिकूट पर्वत के तीनों शिखरों पर तीन सिंह धैठने जैसी शोभा प्राप्त हुई ॥ ५॥ (अर्थात् वे सिहासन तीन सिंहों से अधिष्ठित त्रिकूट के शिखर जैसे प्रतीत होते थे।) प्रसङ्ग-सभागृह में बैठने के पश्चात् श्रीकृष्ण, बलराम और उद्धव के सामने अपने कार्य को विचारार्थ प्रस्तुत करते हैं। 'गुरुद्वयाय गुरुणोरुभयोरथ कार्ययोः॥ हरिविप्रतिषेधं तमाचचक्षे विचक्षणः ॥ ६॥ गुरुद्वयायेति ॥ अथोपवेशनानन्तरं विचष्टे इति विचक्षणो वक्ता ।. कर्तरि ल्युडिति न्यासकारः। 'असनयोश्च प्रतिषेधो वक्तव्यः' इति चक्षिङः ख्याआदेशाभावः। हरिगुर्वोरुद्धवरामयोः पितृव्यज्येष्ठभ्रात्रोईयाय । द्वाभ्यामित्यर्थः। गुरुणोमहतोस. भयोः कार्ययोः पूर्वोक्तयोः तं विप्रतिषधं विरोधमाचचक्षे आख्यातवान् । तुल्यबलविरोधो विप्रतिषेधः ॥ ६ ॥ अन्वयः-अथ विचक्षणः हरिः गुरुद्वयाय गुरुणोः उभयोः कार्ययोः तं विप्रतिषेधं आचचक्षे ॥ ६ ॥ हिन्दी अनुवाद-इस (सभागृह में बैठने) के पश्चात् व्यवहारकुशल श्रीकृष्ण ने बड़े-बड़े उन दो कार्यों (एक ओर मित्रकार्य और दूसरी ओर शत्रुनाश ) के विप्रतिषेध (पारस्परिक विरोध ) को दोनों गुरुजनों (चाचा उद्धवजी तथा ज्येष्ठभाई बलराम ) से कहा ॥ ६ ॥ (अर्थात् श्रीकृष्ण ने सिंहासनपर बैठते ही इन दोनों गुरुजनों से इन दोनों महान् आवश्यक कार्यों के परस्पर विरोध की बात कही।) प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में महा कवि माघ श्रीकृष्ण की वाणी-सौन्दर्य का वर्णन करते हैं। द्योतितान्तः सभैः कुन्दकुड्मलाग्रदतः स्मितैः॥ स्नपितेवाभवत्तस्य शूद्धवर्णा सरस्वती ।। ७॥ द्योतितेति ॥ कुन्दं माघभवः पुष्पविशेषः । 'माध्यं कुन्दम्' इत्यमरः। कुन्दकुड्मलाग्राणीव दन्ता यस्य तस्य कुन्दकुड्मलाग्रदतः । 'अग्रान्तशुद्धभ्रषवराहेभ्यश्च' (२४१४५) इत्यग्रान्तपूर्वपदबहुव्रीहेः समासान्तो वैभाषिको दतादेशः । तस्य हरेः सरस्वती अन्तःप्रधाना सभा अन्तःसभा। सभाभ्यन्तरमित्यर्थः। सा द्योतिता प्रकाशिता यस्तैः स्मितः स्नपितेव क्षालितेव । स्नातेण्यंन्तात् क्तः। अतिह्री-' १. गुरुभयस्म' इति पाठः। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् (३६३६ ) इत्यादिना पुगागमः । मिना हवः । शुद्धवर्णा स्फुटाक्षरत्वात्स्वच्छकान्तिरमवत् । अत्र स्वाभाविकवर्णशुद्धः स्नान हेतुकत्वमुत्प्रेक्ष्यते । स्मितपूर्वाभिभाषी हरिरिति भावः ॥ ७ ॥ यन्वयः-कुन्दकुमलाप्रदनः तस्य सरस्वती चोनितान्तः सभः स्मितः पिता इघ शुद्धवर्णा अमवत् ॥ ७ ॥ हिन्दी अनुवाद-कुन्दपुष्पकी कलिक अग्रभाग की तरह दतियाले उनकी (श्रीकृष्णकी ) मन्दहास्ययुक्त पाणी समान्तरमाग को प्रकाशित करनेवाले मन्दस्मित मे स्नान की हुई की तरह शुद्ध-निर्मल और स्पष्टाचरोवाली थी ।। ७ ।। प्रसन-प्रानुन श्लोक में श्रीकृष्ण, गुरुजनों के भाषण के पूर्व अपने कथन (करने ) का कारण बनाते हैं। भवद्दिरामवसरप्रदानायबसि नः॥ पूर्वरप्रसाराय नाटकीयस्य यस्तुनः ॥ ८॥ कार्यविप्रतिषधं निवेद्य तत्र स्वमतमावदयिष्यन्पण्डिामानित्वं तावत्परिहरति भवद्रािमिति ॥ भवेदिगरां युष्मद्वाचामवसर प्रदानाय । प्रसञनायेत्यर्थः । नोऽस्माकं वांमि सिद्धान्तोनयनाथ मुच्यन्ते । न तु मिदान्तःवेनेत्ययः । तया हिपूर्व रज्यने स्मिन्निति पूर्वरङ्गः नाट्यगाला, तत्स्यं कर्माधि पूर्वरङ्ग इति दशरूपके। अतः पूर्वरही नाम रङ्गप्रधानाम्यो रङ्गविघ्नणान्तिकारी नान्दीपाटगीतवादित्राद्यनेफाङ्गविशेषो नाट्यादी कर्तव्यः कर्मविशेषः । तदुक्तं वसन्तराजीये 'यनाट्यवस्तुनः पूर्व रङ्गविघ्नोपशांतये । कुणीलवाः प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः प्रकीर्तितः ॥ इनि । म पूर्वरता, नाटके भवं नाटकीयम् । तत्र वयं मित्यर्थः। वृद्धाच्छः (४।२।११४)। तस्य 'आयनेयी-(७०२) इतीयादेशः । तस्य वस्तुनः प्रवृत्तस्य प्रमनाय प्रमजनाय । प्रवर्तनायेति यावत् । अतः प्रथमवादी न दीपायेति भावः । पूर्वरङ्गः प्रस्तावनेति रजराजः । तच्चिन्त्यम् । 'पूर्वरनं विधायादौ मूत्रधार विनिर्गते । प्रविश्य तद्वदपरः काव्यमास्थापयेनटः ।। प्रथमं पूवरङ्गश्च ततः प्रस्तावनेति च । भारम्भे सर्वनाट्यानामेतत्सामान्यमिप्यते' ॥ इति दशरूपकायुक्तभेदविरोधादिति । अत्र हरिवाक्यपूर्वरङ्गयोः प्रसञ्जकत्वस्वरूपसामान्यस्य वाक्यद्वये शब्दान्तरे पृपनिर्देशात्प्रतिवस्तूपमालङ्कारः। तल्लक्षणं तूक्तम् ॥८॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ६९ अन्वयः - भवद्गिरां अवसरप्रदानाय नः वचांसि । पूर्वरङ्गः नाटकीयस्य वस्तुनः प्रसङ्गाय ( एव भवति ) ॥ ८ ॥ हिन्दी अनुवाद - ( श्रीकृष्णने अपने गुरुजनों से कहा कि ) मेरा कहना केवल आपलोगों के कथन को अवसर देने के लिये है, जैसे पूर्वरङ्ग ( नाटक के आरम्भ में किया जानेवाला मंगलाचरण ) नाट्य-कथा के आरंभ करने के लिये होता 11 2 11 ( मन्द हास्य करते हुए श्रीकृष्ण ने आगेकी कथावस्तुका विकास होता है, दोनों को अपनी विवेकपूर्ण सम्मति ( मिलेगा । ) ॥ ८ ॥ कहा कि नाटक में जिस भाँति पूर्वरङ्ग से उसी भाँति मेरे आरम्भिक वचनसे आप निर्णीत सिद्धान्त ) प्रस्तुत करने का अवसर विशेष - पूर्वरङ्ग :- नृत्यस्थानस्य विघ्नोपशान्तये नाटकेतिवृत्तप्रस्तावात् पूर्व सूत्रधारः प्रधानो नटः यन्मङ्गलादिकमाचरति सः पूर्वरङ्गः । तथा च विश्वनाथः, "यन्नाट्य वस्तुनः पूर्वं रङ्गविघ्नोपशान्तये । कुशीलवाः प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः स उच्यते ।" रङ्गराजस्तु – पूर्वरङ्गम् प्रस्तावनेति कथयामास, परं नैतरसमीचीनं, यतः "पूर्वर विधायादौ सूत्रधारे विनिर्गते । प्रविश्य तद्वदपरः काव्यमास्थापयेन्नरः ॥” इति, तथा "प्रथमं पूर्वरङ्गश्च ततः प्रस्तावनेति च । आरम्भे सर्वनाट्यानामेतत्सामान्यमिष्यते । " इति दशरूपकाद्युक्तभेदविरोधात् । पूर्वरङ्ग शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- 'पूर्व रज्यतेऽस्मिन् ' -- जिसमें सामाजिकों को पहले आनन्द मिले । नाट्यशाला में नाटकादि रूपक के आरम्भ में जो औपचारिक क्रियाएँ - मङ्गलाचरण, देवतास्तवनादि की जाती हैं, उन्हें पूर्वरङ्ग कहते हैं । प्रसङ्ग — उपस्थित समस्यापर श्रीकृष्ण अपने विचार व्यक्त करते हैं । करदीकृतभूपालो भ्रातृभिर्जित्वरैर्दिशाम् ॥ विनाऽप्यस्मदलं भूष्णुरिज्यायै तपसः सुतः ॥ ९॥ सम्प्रति स्वमतमाह करदीकृतेति - दिशां जित्वरैर्जयनशीलः । इन्शजिसतिभ्यः क्वरप् ( ३।२।१६३ ) कृद्योगात्कर्मणि षष्ठी । भ्रातृभिर्भीमादिभिर्हेतुभिः करदाः षष्ठभागप्रदाः । ' भागधेयः करो बलिः' इत्यमरः । ततश्च्चिः । 'ऊर्यादिचिचडाचश्च' इति गतिसंज्ञायां 'कुगतिप्रादयः' ( २।२।१८ ) इति नित्यसमासः । अकरदाः करदाः सम्पद्यमानाः कृताः करदीकृता भूपालाः यस्य सः वशीकृत राजमण्डलः तपसः सुतो धर्मपुत्रः । तपश्चान्द्रायणादी स्याद्धर्मे लोकान्तरेऽपि च' इति विश्वः । भस्मद्विना । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् अस्माभिवनापीत्यर्थः । ‘पृथग्विनानाना ( २३३२ ) इत्यादिना तृतीयाविकल्पातू पञ्चमी इज्यायं यागाय । यजेर्भावेऽपिक्यप् । 'वचिस्वपि' । इत्यादिन ( ६।१।१०५ ) सम्प्रसारणम् ।' नमःस्वस्ति - ' इत्यादिना चतुर्थी । अलं समर्थो भूष्णुभं वनशीलः । 'भूष्णुभं विष्णुर्भविता' इत्यमरः । ' ग्लाजिस्थश्च ग्स्नुः' इति ग्स्नुप्रत्ययः । क्ङिति च' इत्यत्र गकारप्रश्लेषाद् गुणाभावः । तथा च जयादित्यः -- तत्रैव गकारोऽपि च तत्त्वभूतो निर्दिश्यते । अतो जैत्रयत्रिव कार्या न यज्ञयात्रेति भावः ॥ ६ ॥ ७० अन्वयः -- दिशां जिवरैः भ्रातृभिः करदीकृतभूपालः तपसः सुतः अस्मत् विना अपि इज्यायै अलम्भूष्णुः ॥ ९ ॥ हिन्दी अनुवाद - श्रीकृष्ण कहते हैं कि -दिग्विजयी भाइयों की सहायता से राजाओं को करदाता बनानेवाले धर्मराज युधिष्ठिर अपना यज्ञ पूर्ण करने में समर्थ हैं। '( मेरे वहां न जानेसे उनकी कोई हानि नहीं होगी । इसलिये शिशुपाल पर चढाई करना ही ठीक है । ) ॥ ९ ॥ प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण अपने कथन का औचित्य प्रतिपादित करते हैं । उत्तिष्ठमानस्तु परो नोपेक्ष्यः पथ्यमिच्छता ॥ समौ हि शिष्टेराम्नातौ वर्त्स्यन्तावामयः स च ॥ १० ॥ ननु यज्ञान्ते जैत्रयात्रायामुभयानुसरणं स्यात्तत्राह - उत्तिष्ठमान इति ॥ उत्तिष्ठमानो वर्धमानः । 'उदोऽनुध्वं कर्मणि' १ ३ ९२ इत्यात्मनेपदम् । परः शत्रुः पथोऽनपेतं पथ्यं हितमारोग्यं चेच्छता । पुंसेत शेषः । नोपेक्ष्यो नोदासीन्येन द्रष्टव्यः । कुतः - हि यस्माद्वत्स्यंन्तो वधिष्यमाणो । 'लृटः सद्वा ( ३।३।१४ ) इति सदादेशे 'वृद्भयः स्यसनो:' ( १।३।२ इति विभाषया परस्मैपदम् । 'न वृद्भश्चतुर्भ्यः' (७/२/५६ ) इतीङभाव: । आमयो व्याधिः । 'रोगव्याधिगदामयाः' इत्यमरः । सः शत्रुश्च शिष्टैर्नीतिज्ञः समो तुल्यवृत्ती. बाम्बातावाख्याती । 'अल्पीयसोऽप्यरेवृद्धिर्भमहानर्थाय रोगवत् । अतस्तस्यानुपेक्ष्यत्वादुभयानुसृतिः कुतः ॥ इति भावः । उपमालङ्कारः ॥ १० ॥ अन्वयः -- उत्तिष्ठमानः परः पथ्यं इच्छता न उपेच्यः, हि वयन्तौ आमयः सः व शिष्टैः समौ आम्जातौ ॥ १० ॥ हिन्दी अनुवाद - ( श्रीकृष्ण ने कहा कि धर्मराज के यज्ञ में सम्मिलित होकर उसके पूर्ण होने के पश्चात् शिशुपाल पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करना उचित (१) छत्र वाक्यांशस्त्रुटितः प्रतिभाति । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयःसर्गः प्रतीत नहीं होता, क्योंकि) हित चाहनेवाले व्यक्ति को बढते हुए'शत्रु की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वदते हुए रोग और शत्रु को राजनीतिज्ञों ने समान (बराबर) कहा है ॥ १०॥ प्रसन-श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोक कल्याणार्थ शिशुपाल का वध करना चाहिये। न दूये सात्वतीसूनुर्यन्मह्यमपराध्यति ॥ यतु दन्दह्यते लोकमतो (१) दुःखाकरोति माम् ॥११॥ नम्वेवं स्वार्थपरत्वदोषः स्यादिति चेन्न, लोकानुग्रहार्थत्वादस्याः प्रवृत्तरित्याशयेनाह नेति ॥ सत्वतोऽपत्यं स्त्री सात्वती नाम हरेः पितृष्वसा। उत्सादिभ्योऽन् (४।१८६) तस्याः सूनुश्चंद्यः । बन्धुरपि खलो न मृष्यत इति भावः । यन्मद्यामपराध्यति दुह्यतीति यावत् । क्रुधद्रुह ( १॥४॥३७ ) इत्यादिता चतुर्थी । ततइति शेषः, यत्तदोनित्यसम्बन्धात् । न दूये न परितप्ये दूङो देवादिकांत् कर्तरिलट् । उत्तमपुरुषकवचनम् । किन्तु लोकं दन्दह्यते । गहितं यथा स्यादेवं दहतीति यावत् । 'लुपसदचरजप-३।१।२४ इत्यादिना गर्दायां यङ् । 'जपजभदहदशभजपशा च' (७४।८६) इत्यभ्यासस्य नुगागमः । अदो लोकदहनं मां दुःखाकरोति । दुःखमनुभावयतीत्यर्थः । 'दुःखाप्रातिलोम्ये' ५।४।६४ इति डान्प्रत्ययः। अतश्चैद्य एवाभियातव्यः, पार्थस्तु प्रार्थनयापि पश्चात्समाधेष इत्यर्थः ॥ ११ ॥ अन्वयः-सात्वतीसूनुः मह्यं अपराध्यति यत् (ततः) न दूये । तु लोकं दन्दह्यते ( इति, यत्) अदः मां दुःखाकरोति ॥ १५ ॥ हिन्दी अनुवाद-(श्रीकृष्ण कहते हैं कि ) सात्वती का पुत्र-शिशुपाल मुझसे द्वेष करता है, इसका मुझे किंचित् भी दुःख नहीं है, परन्तु वह संसार को पीड़ित करता है, उसका लोक-उत्पीड़न हो मुझे विशेष दुःखी करता है ॥ ११ ॥ प्रसङ्गः-प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण अपना विचार व्यक्तकर गुरुजनों से अपना मत अभिव्यक्त करने के लिए कहते हैं मम तावन्मतमदः (२) श्रूयतामङ्ग ! वामपि ॥ शातसारेऽपि (३) स्वल्वेकः सन्दिग्धे कार्यवस्तुनि ॥१२॥ स्वमतं निगमयत् परमतं शुश्रूषुः पृच्छति ममेति । तावत् । भवन्मतश्रवणपर्यन्तमित्यर्थः । मम मतमिदम् । अङ्गेत्या Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ शिशुपालवधम् मन्त्राणेऽव्ययम् । 'अथसंबोधनार्थकाः । स्युः प्याट् पाडङ्ग हे है भोः' इत्यमरः। वां युवयोः । 'युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थी-'८।१।२० इत्यादिना वामादेशः। मतं श्रूयताम् । विधौ लोट् । तदिदं मया श्रोतव्यम् । अन्यथा सन्देहाऽनिवृत्तरिति भावः । विदुषस्ते कुतः सन्देहस्तत्राह-ज्ञातसारः ज्ञाततत्त्वार्थोऽप्येक एकाकी कार्यवस्तुनि कर्तव्यार्थे सन्दिग्धे संशेते । खलु निश्चये । अतो मयापि सन्दिह्यत इत्यर्थः । दिह उपचये कर्तरि लट् । घत्वधत्वे । सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्यान्तरन्यासः ॥ १२ ॥ अन्वयः-तावत् मम इदं मतं, अङ्ग वाम् अपि श्रूयतां । ज्ञातसारः अपि एकः कार्यवस्तुनि सन्दिग्धे खलु ॥ १२ ॥ हिन्दी अनुवाद-(श्रीकृष्ण कहते हैं कि ) मेरा यह मत है, हे भङ्ग । अब आपका भी मत मुझे सुनना चाहिये, तत्वज्ञानी भी यदि अकेला है, तो वह वादग्रस्त विषय में ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर कता। (क्योंकि तत्वज्ञानी भी कर्तव्य कार्य में सन्देह-युक्त रहता है।)॥ १२ ॥ प्रसा-प्रस्तुत श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अपना मत प्रकट कर चुप हो गये। यावदर्थपदां वाचमेवमादाय माधवः ॥ विरराम महीयांसः प्रकृत्या मितभाषिणः ॥१३॥ यावदिति | माधवो हरियवानों यावदर्थम् । 'यावदवधारणे' (२।१।८) इत्यव्ययीभावः। यावदर्थ पदानि यस्यास्ताम् । अभिधेयसंमिताक्षरा मित्यर्थः । एव मुक्तप्रकारेण वाचमादाय गृहीत्वा । उक्त्वेत्यर्थः। विरराम तूष्णीमास । 'व्याङ् परिभ्यो रमः' ( ११३८३) इति परस्मैपदम् । तथा हि-महीयांसः उत्तमः प्रकृत्या स्वभावेन मितभाषिणः भवन्तीति शेषः । वृथालापनिषेधादिति भावः । पूर्ववदलङ्कारः ॥१३॥ अन्वयः-माधव : यावदर्थपदां वाचं एवं आदाय विरराम । महीयांस: प्रकृत्या मितभाषिणः (भवन्ति ) ॥ १३ ॥ हिन्दी अनुवाद--(इस प्रकार श्लो० ऋ० ८-१३) परिमित अर्थ-पद युक्त वचन कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गये, क्योंकि उत्तम लोग स्वभाव से ही कम बोलते हैं। (वे वृथा आलाप नहीं करते । ) ॥ १३ ॥ प्रसङ्ग-यहां से ( श्लोक क्र. १४ से २१ तक आठ श्लोकों में ) बलराम जी अपने विचार व्यक्त करते हैं। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः अष्टाभिःकुलकम् - ततः सपत्नापनयस्मरणानुशयस्फुरा ॥ ओष्ठेन रामो रामोष्टबिम्ब चुम्बनचुचुना ॥ १४ ॥ अष्टभिः कुलकेन रामं वर्णयंस्तद्वाक्यमवतारयति - तत इति ॥ ततो रामो जगादेत्युत्तरेणान्वयः । सपत्नो रिपुः 'रिपो वैरिसपत्नारि - इत्यमरः । तस्यापनयोऽपकारः तस्य स्मरणेन योऽनुशयः पश्चात्तापः । 'भवेदनुशयो द्वेषे पश्चात्तापानुबन्धयोः' इति विश्वः । तेन स्फुरतीत्यनुशयस्फू: तेन स्फुरा । ओष्ठो बिम्बमिवेत्युपमितसमासः । रामाया ओष्ठबिम्बस्य चुम्बनेन वित्तो रामोष्ठबिम्बचुम्बनचुञ्चुः ।' तेन वित्तश्चञ्चुप्चणपी' ५।२।२६ इति चञ्चुप्प्रत्ययः । ओबोष्ठयोः समोस वा पररूपं वक्तव्यम् । तेनौष्ठेनोपलक्षितः । समरसुरतयोः समरस इति भावः । उपमानुप्रासयोः संसृष्टिः ॥ १४ ॥ अन्वयः -- ततः सपत्नापनयस्मरणानुशयम्फुरा रामौष्ठबिम्बचुम्बन चुम्चुना ओष्ठेन ( उपलक्षितः ) रामः जगाद ॥ १४ ॥ हिन्दी अनुवाद - उसके पश्चात् (श्रीकृष्ण के विचार व्यक्त होने के पश्चात् ) शत्रु ( शिशुपाल ) की दुष्टता का स्मरण होने के कारण उत्पन्न क्रोध से काँपते हुए, रेवती के ओष्ठ - बिम्ब के चुम्बन में प्रसिद्ध ओष्ठ से बलराम ( बोले ) ॥ १४ ॥ ७३ विशेष - प्रस्तुत श्लोक में कर्ता 'राम' है और २१ वे श्लोक में क्रिया 'जगाद ' है । अतः आठवें श्लोक में क्रिया होने से यह 'कुलक' कहा जाता है । कहा भी है -- द्वाभ्यां युग्ममिति प्रोकं त्रिभिः श्लोकैर्विशेषकम् | कलापकं चतुभिः स्यात्तदूवं कुलकं स्मृतम् ॥ (२) प्रस्तुत श्लोक में महा कवि माघ ने बलराम जी का शूरवीर होना तथा विलासी होना व्यक्त किया है ॥ १४ ॥ प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी कहते हैं । विवक्षितामर्थविदस्तत्क्षणं 'प्रतिसंहृताम् ॥ प्रापयन्पवनव्याधेर्गिरमुत्तरपक्षताम् ॥ १५ ॥ विवक्षितामिति ॥ विवक्षितां वृद्धत्वाभिमानादग्रे वक्तुभिष्टाम् । बचेब्रूनो वा -सन्नन्तात्कर्मणि क्तः । तत्क्षणे विवक्षाक्षणे एव । इत्यविलम्बोक्तिः । प्रतिसंहृतां १. तत्क्षुणप्रति । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ शिशुपालवधम् रामानुरोधानुरुद्धाम् अर्थविदः कार्यज्ञस्य अत एव पवनव्याधेरुद्धवस्य गिरमुत्तरपक्षता सिद्धान्त पक्षतां प्राषयन् । स्वयमसत्पक्षावलम्बित्वादिति भावः । अनेन रामस्य व्यग्रतोक्ता ॥१५॥ अन्वयः--विवक्षितां तत्क्षणप्रतिसंहृता अर्थविदः पवनव्याधेः गिरं उत्तरपक्षता प्रापयन् (रामः जगाद) ॥ १५॥ हिन्दी अनुवाद-कहने के लिये उत्सुक (किन्तु बलराम जी को बोलते हुए देखकर ) तरक्षण ही रोकी गई कार्यज्ञ (म्यवहारदक्ष) उद्धवजी की वाणी को उत्तरपक्ष में स्थापित करते हुए ( बलराम जी बोले)। ( उद्धवजी इसी विषय पर बलराम के पूर्व कुछ कहना चाहते थे, पर यलराम ने सिद्धान्तपत में कहने का महत्व देकर उन्हें उस समय रोक दिया)॥ १५॥ प्रसन-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जो अपने लाल आँखों को घुमाते हुए अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। घूर्णयन्मदिरास्वादनदपाटलितद्युती ॥ रेवतीदशनो' -च्छिष्टपरिपूतपुटे दृशौ ॥ १६ ।। घूर्णयन्निति ॥ पुनः। मदिरास्वादेन मद्यपानेन यो मदस्तेन पाटलिता ईषद्रक्तीकृता द्युतिययोस्ते, रेवत्या देव्याः वदने यदुच्छिष्टं मद्यलेपताम्बूलादि । अक्षिचुम्बनसंक्रान्तमिति भावः । तेन परिपूते शुद्ध पुटे ययोस्ते दृशौ घूर्णयन् भ्रामयन्निति मद्यविकारोक्तिः । उच्छिष्टपरिपूते इत्यत्र 'रतिकाले मुखं स्त्रीणां शुद्धमाख्नेटके शुनाम्' इति स्मरणात् उच्छिष्टस्य पावित्र्यजनकत्वविरोधस्याभासत्वाद्विरोधाभासोऽलङ्कारः । आभासत्वे विरोधस्य विरोधाभास उच्यते' इति लक्षणात् ॥ १६॥ अन्वयः-मदिरास्वादमदपाटलितद्युती, रेवतीपदनोच्छिष्टपरिपूतपुटे दृशौ घूर्णयन् ( रामो जगाद)॥१६॥ हिन्दी अनुवाद-मद्यपान-जनित नशे से कुछ-कुछ रक्तवर्णवाले तया रेषती के उच्छिष्ट (मद्यपानादि ) से शुद्ध प्रान्तों वाले दोनों नेत्रों को घुमाते हुए (बलराम जी बोले)॥ १६ ॥ ( नेत्र-चुम्बन के समय रेवतो के मुख का उच्छिष्ट ताम्बूल आदि के लगने से पवित्र और मदिरा पान से लाल-लाल आखां को घुमाते हुए--) (बलराम बोले)॥१६॥ विशेष-रतिकाल में नेत्र का चुम्बन करना कामशास्त्र में वर्णित है। और कहा भी है १. वदनो। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ७५ केलिमन्दिरे रतौ कामिनीनां, मृगयायां शुनाश्च आननं पवित्रमिति नीतिविदः "रतिकाले मुखं स्त्रीणां शुद्धमानेटके. शुनाम् ॥" अन्यच्च गवां पश्चाद् द्विजस्याझी योगिनां हृस्कवेर्वचः । परं शुचितमं विद्यान्मुखं स्त्रीवन्हिवाजिनाम् ॥ प्रसंङ्ग-यहां महाकवि माघ बलराम की उष्ण मुखवायु द्वारा उनके क्रोध का वर्णन करते हैं। आश्लेषलोलुपवधूस्तनकार्कश्यसाक्षिणीम् ॥ म्लापयन्नभिमानोष्णैवनमालां मुखानिलः ॥ १७ ॥ आश्लेषेति ।। पुनः । आश्लेषे लोलुपाया आलिङ्गनलुग्धाया वध्वाः स्तनयोः कार्कश्यस्य काठिन्यस्य साक्षिणीमुपद्रष्ट्रोम् । नित्यं पीडनादिति भावः । 'साक्षाद्रष्टरि संज्ञायाम्' (५।२।६१) इति साक्षाच्छन्दादिनिप्रत्ययः । वनमालामभिमानोष्णरहङ्कारतप्त मुखानिलः निश्वासमारुतापयन् ग्लापयन् । म्लायतेय॑न्ताल्लट: शत्रादेशः । 'आदेच' (६।१।४५) इत्यात्वे पुगागमः । अम्लाने म्लानसम्बन्धादतिशयोक्तिः ॥ १७ ॥ __ अन्वयः-आश्लेषलोलुपवधूस्तनकार्कश्यसाक्षिणीं वनमालां अभिमानोष्णैः मुखानिलैः ग्लापयन् (जगाद) ॥ १७ ॥ हिन्दी अनुवाद-आलिङ्गन करने के लिए (सक्ष उत्सुक) वधू (रेवती) के स्तनों की कठोरता का अनुभव कराने वाली वनमाला को अभिमान जनित तप्त निःश्वास वायु से म्लान करते हुए ( बलराम बोले) ॥ १७ ॥ विशेष-----श्लोक ऋ० १७ व १८ में कवि ने वीररस के अनुभावों का वर्णन किया है। उष्णवायु, तथा शरीर पर पसीने की बुन्दे चमकना आदि। प्रसंङ्ग-यहाँ शिशुपाल के प्रति क्रोध के कारण बलराम के शरीर पर होने वाले परिणाम का वर्णन किया गया है। दधत्सन्ध्याऽरुणव्योमस्फुरत्तारानुकारिणीः ॥ द्विषद्वेषोपरक्ताङ्गसङ्गिनीः स्वेदविपुषः ॥१८॥ दधदिति ॥ पुनः। सन्ध्यायामरुणे व्योम्नि स्फुरन्तीस्तारा अनुकुर्वन्तीति तथोक्ताः। कुतः-द्विषतः शत्रोषेण क्रोधेनोपरक्तेऽङ्गे वपुषि सङ्गिनीः सक्ताः स्वेदविपुषः स्वेदबिन्दून । 'पृषन्ति बिन्दुपृषताः पुमांसो विपुषः स्त्रियाम्' इत्यमरः । दधद्दधानः । 'नाभ्यस्ताच्छतुः' ( ७११७८) इति नुयभावः। उपमालङ्कारः ॥ १८ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ शिशुपालवधम् ___ अन्वयः-सन्ध्यारुणव्योमस्फुरत्तारानुकारिणीः विषद्वेषोपरक्ताङ्गसङ्गिनीः स्वेदविपुषः दधत् (रामः जगाद)॥१८।। हिन्दी अनुवाद-सायंकालीन लाल आकाश में चमकते तारागणों की तरह शत्रु पर (शिशुपाल पर ) किये क्रोध से लालशरीर पर उत्पन्न पसीने की बिन्दुओं को धारण करते हुए, (बलराम बोले )। प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलरामजी के कुण्डलों में जटित पद्मराग मणियों की कान्ति का वर्णन किया गया है। प्रोल्लसत्कुण्डलप्रोतपद्मरागदलत्विषा ॥ कृष्णोत्तरासगरुचं विदधच्चूतपल्लवीम्' ॥ १९ ॥ प्रोल्लसदिति ॥ पुनः । प्रकर्षेणोल्लसतां कुण्डलयोः प्रोतानां स्यूतानां पद्मरागदलानां माणिक्यशकलानां त्विषा कान्त्या। प्रोतेति प्रपूर्वाद्वजः कर्मणि क्तः । यजादित्वात्सम्प्रसारणम् । कृष्पत्तरासङ्गो नीलोतरीयम् । 'दो प्रावारोत्तरासङ्गो समौ बृहतिका तथा। संव्यानमुत्तरीय च-' इत्यमरः । तस्य रुचं चूतपल्लवस्येमा चौतपल्लवीं विदधत् । कृष्णलोहितमिश्र वर्णचूतपल्लववद् धूम्रांकुवन्नित्यर्थः 'धूम्रधूमलो कृष्णलोहिते' इत्यमरवचनात् । पत्रान्यरुचोऽन्यदीयत्वायोगात्सादृश्याक्षेपान्निदर्शनालङ्कारः ॥ १६ ॥ अन्वयः-प्रोल्लसत्कुण्डलप्रोतपद्मरागदलस्विषा कृष्णोत्तरासगरुचं चौतपल्लवीं विदधत् ॥ १९ ॥ (रामो जगाद) हिन्दी अनुवाद-अत्यधिक चमकते हुए कुण्डलों में जड़े हुए पद्मराग मणियों के टुकड़ों की (लाल) कान्ति से ( धारण किये हुए अपने ) नोले दुपट्टे के वर्ण को आम्रपरलव के समान अर्थात् धूम्र वर्ण का करते हुए, (बलरामजी बोले)॥ १९ ॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में रेवती के मुख-संसर्ग से सुवासित मदिरा-सौरभ का वर्णन किया गया है। ककुमिकन्यावक्त्रान्तर्वासलब्धाधिवासया ॥ मुखामोदं मदिरया कृतानन्याधमुद्वमन् ॥ २० ।। ककुद्मीति ।। पुनः । कुकुद्मिकन्याया रेवत्या बक्त्रस्थान्तरभ्यन्तरे वासेन स्थित्या लब्धोऽधिवासो वासना यया तया। तन्मुखसौरभवासितयेत्यर्थः संस्कारो गन्ध १. चूतपल्लवीम् । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः माल्याद्यैरधिवासनमुच्यते । मदिरया कृतानुव्याधं कृतसंसर्गम् । प्रियागण्डूषगन्धिमित्यर्थः । 'व्यधनपोरनुपसर्ग - ( ३|१|६१ ) इत्यनुपसृष्टादप्प्रत्यय विधानादुपसृष्टादृव्यधेर्घञ्प्रत्ययः । मुखामोदं स्वमुखगन्ध विशेषम् । 'आमोदः सोऽतिनिर्हारी' इत्यमरः । उद्वमन्नुद्विरन् । अत्र मदिराराममुखगन्धयोः स्वगन्धतिरोधानेन रामामुखतद्गण्डूषमद्यगन्ध स्वीकारात्तद्गुणयोस्तत्रोत्तरस्यात्म विशेषकत्वेन पूर्णसापेक्षत्वादङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः । ' तद्गुणः स्वगुणत्यागादन्योत्कृष्ट गुण हृतिः' इति लक्षणात् ॥ २० ॥ अन्वयः - ककुद्मिकन्यावक्त्रान्तर्वासन्धाधिवासया, मदिरया कृतानुष्याधं मुखामोदं उद्यमन् (रामः जगाद ) ॥ २० ॥ हिन्दी अनुवाद - रेवती के मुख में स्थित रहने से अत्यन्त सुवासित मदिरा से मिले हुए सुवास को बोलने के समय बाहर फैलाते हुए, ( बलराम ७७ बोले ) ॥ २० ॥ । विशेष - नायिका भेद की दृष्टि से 'रेवती' पद्मिनी नायिका है। ऐसी नायिका का निःश्वास सुगन्धित होना स्वाभाविक है किया, वह मदिरा भी उसके मुख-संसर्ग से उच्छिष्ट मदिरा का बलराम जी ने पान करने के सित हो गया था । पद्मिनीनायिका होने मुख- श्री एवं उनके निःश्वास को ११४३, ३।५६ ) ॥ रेवती ने जिस मदिरा का पान सुगन्धित हो गई थी, और उसकी कारण उनका निःश्वास भी सुवा-कारण पार्वती तथा शकुन्तला की पद्म का सौरभ प्राप्त था । ( कुमारसम्भव प्रसंग - प्रस्तुत श्लोक में बलरामजी के मुख- सौरभ का वर्णन किया गया है । जगाद वदनच्छद्मपद्मपर्यन्तपातिनः ॥ नयन्मधुलिहः श्वैत्यमुदंशु' दशनांशुभिः ॥ २१ ॥ ( कुलकम् ) जगादेति ॥ वदनमेव छद्म कपटं यस्य तत्पद्मम् । वदनमेव पद्ममित्यर्थः । छद्मशब्देनासत्यत्वप्रतिपादनरूपोऽपह्नवः । तस्य पर्यन्तपातिनः प्रान्तसञ्चारिणः मधु लिहन्तीति मधुलिहस्तान्मधुपान् । क्विप् । उदग्रेरुच्छ्रितैः दशनांशुभिः श्वत्यं धावल्यं नयन्नेवं जगाद । तद्गुणालङ्कारः । तस्य मधुपसन्निधापकवदनापह्नवसापेक्षत्वात्तेन सङ्करः । कुलकम् ॥ २१ ॥ अन्वय :- वदनच्छद्मपद्मपर्यन्तपातिनः मधुलिहः उदंशुदशनांशुभिः श्वैश्यं नयन् ( रामः जगाद ) ॥ २१ ॥ १. ० मुद्रय : " Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ शिशुपालवधम् हिन्दी अनुवाद-मुखरूपी कमल के चारों ओर उडनेवाले भ्रमरों को अपनी उज्ज्वल दशनकान्ति से श्वेत करते हुए बलराम बोले ॥ २१॥ विशेष-बलरामजी के मुखरूपी कमल के चारो ओर भ्रमरों के घूमने का तारपर्य केवल इतना ही है कि उन्होंने रेवती की उच्छिष्ट मदिरा का पान किया था ( और वह पद्मिनी नायिका होने के कारण, उसका निःश्वास स्वभावतः ही सुवासित था।) जिससे उनका मुख और निःश्वास भी उसके संसर्ग से सुवासित हो गया था।॥ २१ ॥ प्रसङ्ग-चलराम जी श्रीकृष्ण के मत का ही अनुमोदन करते हैं। किमुवाचेत्याह यद्वासुदेवेनाऽदीनमनादीनवमीरितम् । वचसस्तस्य सपदि क्रिया केवलमुत्तरम् ॥ २२ ॥ रामो जगादेत्युक्तम् । किं तदित्याकाङ्क्षायामाह यदिति ॥ वासुदेवेन न दीनमित्यदीनमकातरं नादीनवोऽस्येत्यनादीनवं निर्दोपम् । 'दोष आदीनवो मतः' इत्यमरः। यद्वच ईरितम् । 'उत्तिष्ठमानस्तु परः' इत्यादिपक्षमाश्रित्य यदुक्तमित्यर्थः तस्य सपदि क्रिया केवलं सद्योऽनुष्ठानमेवोत्तरम् । सिद्धान्तस्य वोक्तत्वादिति भावः ॥ २२ ॥ अन्वयः-वासुदेवेन अदीनं अनादीनवं यत् ईरितं तस्य वचसः सपदि क्रिया केवलं उत्तरम् ॥ २२ ॥ हिन्दी अनुवाद-(बलराम जी ने कहा कि) श्रीकृष्ण का यह कथन"हित चाहनेवाले व्यक्ति को बढ़ते हुए शत्रु की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये"(अत्यन्त ) ओजस्वी और निर्दोष है, तत्काल कार्य में परिणत करना ही उसका उत्तर है ॥ २२ ॥ प्रसङ्ग-बलरामनी पूर्वोक्त श्रीकृष्ण के कथन की विशेषता का उल्लेख करते हैं नैतल्लध्वपि भूयस्या वचो वाचाऽतिशय्यते ॥ इन्धनोघधगप्यग्निस्त्विषा नात्येति पूषणम् ॥ २३ ॥ अथ तदेव प्रतिपादयिष्यन्ननन्यातिशयतयोपस्करोति नैतदिति ॥ लघु संक्षिप्तमप्येतद्वचो भूयस्या बहुतरया। विस्तृतयाऽपीत्यर्थः । 'द्विवचनविभज्य-' (५।३।५७) इत्यादिना ईयसुनि 'बर्लोपोभू च बहोः'(६।४।१५८) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः इतकारलोपो बहो भूरादेशः । वाचा नातिशय्यते नातिरिच्यते । गुर्वर्थत्वादिति भावः । शीङः कर्मणि लटि यक् । 'अयङ् यि क्ङिति' (७१४।२२) इत्ययङादेशः । तथा हि-इन्धनौघान्दहतीतीन्धनोषधक् काष्ठराशिदाहकः । भूयानपीत्यर्थः । पित्वधत्वे भष्भावः । अग्निस्त्विषा प्रभया पूषणं सूर्यम् । अल्पीयांसमपीति भावः । न अत्येति नातिक्रामति । तेजसः प्रभावत्त्वमिव वचसोऽर्थवत्त्वमलङ्घयस्वहेतुरित्यर्थः अत्र समानधर्मविम्बितया दृष्टान्तालङ्कारः ॥ २३ ॥ अन्वय - लघु अपि एतत् वचः भूयसा वाचा न अतिशय्यते, इन्धनौघधक् अपि अग्निः त्विषा पूषणं न अत्येति ॥ २३ ॥ ७९ संक्षिप्त कथन कहा कि ) श्री कृष्ण का बातों ) से काटा नहीं जा सकता । हिन्दी अनुवाद - ( बलराम जी ने भी अत्यधिक विस्तृत कथन ( लम्बी चौड़ी ( क्योंकि ) इन्धन - समूह को जलानेवाली अग्नि भी ( अपने ) तेज से दबा नहीं सकती ॥ २३ ॥ सूर्य को प्रसंग :- श्रीकृष्ण के विचार को सिद्धान्तरुप में स्वीकार कर तथा उद्धवजी के निषेधात्मक विचार को मन में रखते हुए - उसका तीन श्लोकों में ( क्रमांक २५-२७ ) खण्डन करते हैं । उद्धवमुद्दिश्यात्मनो वाग्विभवस्यामसरदानाय सन्दानितकमाहविरोधिवचसो मूकान्वागीशानपि कुर्वते ॥ जडानप्यनुलोमार्थान्प्रवाचः कृतिनां गिरः ॥२४॥ इत्थं यानं सिद्धान्तयित्वा तत्रोद्धवप्रतिरोधं हृदिनिधाय त्रिभिः प्रत्याचष्टेयदि हरिवचो नातिशय्यते, अलं तर्हि तवापि बागारम्भरत आह— विरोधीति ॥ कृतिनां कुशलानां गिरः कल्यः विरोधिवचसः प्रतिकूलवादिनो वागीशान्वाक्पतीनपि । 'वागीशो वाक्पतिः समौ' इत्यमरः । मूकान्निर्वाचः कुर्वते । जङयन्तीत्यर्थः अनुलोमोऽनुकूलोऽर्थोऽभिधेयः येषां तेऽनुकूलार्थाः, अनुकूलवादिनः तान् जडान् मन्दानपि प्रवाचः प्रगल्भवाचः कुर्वते । अतोऽस्मदगिरः प्रवाच्या इति भावः । अत्र वागीशानां मूकीकरणाज्जडानां प्रवाक्त्वकरणाच्च शक्य वस्तुकरणरूपो विशेषोऽलङ्कारः असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्तिप्रतिभोत्थापित इति सङ्करः ॥ २४ ॥ अन्वय - कृतिनां गिर; विरोधिवचसः वागीशान् अपि मूकान् अनुलोमार्थान् जडान् अपि प्रवाचः कुर्वते । १. सर्वङ्कषायां तु 'संक्षिप्तस्य, विरोधिवचसः, षड्गुणः, अनिलडितकार्यस्य, सर्वकार्यशरीरेषु' श्लो० सं० (२५, २४, २७, २८) इत्येवं क्रमो दृश्यते । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् हिन्दी अनुवाद -- कुशल लोगों के वचन प्रतिपक्षी बृहस्पति को भी मूक बना देते हैं, तथा अनुकूल बोलने वाले मूर्को को भी प्रौढवका बना देते हैं ||२४|| ८० ( अर्थात् अच्छावक्ता अपनी वाणी से प्रतिपक्षी बृहस्पति को भी चुप करा सकता है, और अपने पक्ष के मन्दमतिवालों को प्रौढवक्ता बना सकता है । प्रसङ्ग - बलरामभी, श्रीकृष्ण के संक्षिप्त एवं अर्थपूर्ण कथन को विस्तृत करके समझा रहे हैं। संक्षिप्तस्याप्यतोऽस्यैव वाक्यस्यार्थगरीयसः ॥ सुविस्तरतरा वाचो भाष्यभूता भवन्तु मे ॥ २५ ॥ नन्वात्मनीनेन स्वामिना 'बुद्धेः फलमनाग्रहः' इति न्यायेन शास्त्रज्ञवचनं प्रतिकूलमपि ग्राह्यमेवेत्याशङ्कयाह संक्षिप्तस्येति ॥ अतो हरिवचसोऽनतिशयनीयत्वादेव सुविस्तरतराः प्रपञ्चतराः । ' प्रथने बावशब्दे' ( ३।३।३३) इति घञः प्रतिषेधः । 'ऋदोरम्' ३।३।५७ इत्यप् । मे वचसः संक्षिप्त माल्पाक्षरस्याप्पर्थेन गरीयसः । सूत्रकल्पस्येत्यर्थः । 'अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम् । अस्तोभमवनद्य च सूत्रं सूत्र विदो विदुः ॥ इति लक्षणात् । अस्यैव वाक्यस्य नान्यस्य भाष्यभूता भाष्यः समाः । नित्यसमासः । 'क्ष्मादी जन्ता भूतं क्लीबं समेऽतीते चिरे त्रिषु' इति वैजयन्ती । व्याख्यानरूपा भवन्त्वित्यर्थः । सूत्रव्याख्यान विशेषो भाष्यम् । 'सूत्रस्थं पदमादाय वाक्यैः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः ॥ इति । मया तु तदेव विशेषप्रकाशनाय व्याख्यायते नत्वतिशयाय प्रत्याख्यायते इत्यदोष इत्यर्थः । उपमालङ्कारः ॥ २५ ॥ अन्वयः - अतः सुविस्तराः में वाचा संक्षिप्तस्य अपि अर्थगरीयसः अस्य एव वाक्यस्य भाष्यभूता भवन्तु ।। २५ ॥ हिन्दी अनुवाद -- ( बलराम जी ने कहा कि ) वाणी, अतिसंचिप्त किन्तु अर्थगम्भीर श्रीकृष्ण के बने ॥ २५ ॥ इसलिए अत्यन्त विस्तृत मेरी ( पूर्वोक्त ) वाक्य का भाष्य ( सूत्रों में निहित अर्थ का ही विस्तृत रूप से प्रतिपादन करनेवाला भाष्य होता है | अतः मैं संक्षिप्त होते हुए भी अर्थयुक्त श्रीकृष्णोक्त कथन को ही विस्तृत रूप से कहूँगा ) ॥ २५ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः विशेष-सूत्र का लक्षण इस प्रकार है "अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम् । अस्तोभमनवा च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥" प्रसङ्ग-श्री कृष्ण के विचार को सिद्धान्तरूप में स्वीकार कर तथा उद्धव ज. के निषेधात्मक विचार को मन में रखते हुए उसका तीन श्लोकों में क्र. २६-२७ खण्डन करते हैं। इत्यं पाड्गुण्यादिपाठमानं न मन्त्र इति सिद्ध सम्प्रति स्वयं मन्त्रस्वरूपमाह सर्वकार्यशरीरेपु मुक्त्वाऽङ्गस्कन्धपञ्चकम् ॥ सौगतानामिवात्माऽन्यो नास्ति मन्त्रो महीभृताम् ॥ २६ ॥ सर्वेति ॥ सर्वाणि कार्याणि सन्ध्यादीनि तानि शरीराणीवेत्युपमितसमासः । सौगतानामिवेति । लिङ्गान्तेषु सर्वकार्यशरीरेषु सर्वेषु शरीरेष्विव । सर्वकार्येष्वित्यर्थः। अङ्गानि स्कन्धा इवेत्युपमितसमासः। तेषां पञ्चकं मुक्त्वा । स्कन्धपञ्चकमिवाङ्गपञ्चकं हित्वेत्यर्थः । पञ्च परिमाणमस्येति पञ्चकम् । 'संख्यायाः संज्ञासङ्घसूत्राध्ययनेषु' (४।१।५८) इति क प्रत्ययः । सुगतो भक्तिभंजनीय एषां सौगता बौद्धाः । 'भक्तिः (४।३।६५) इत्यण्प्रत्ययः। तेषामन्य आत्मेव महीभृतामन्यो मन्त्रो नास्ति । कर्मणामारम्भोपायः, पुरुषद्रव्यसम्पत् देशकालविभागः, विपत्तिप्रतीकारः कार्य सिद्धिन श्चेति पञ्चाङ्गानि । यथाह कामन्दकः 'सहायाः साधनोपाया विभागो देशकालयोः । __ विपत्तेश्च प्रतीकारः सिद्धिः पञ्चाङ्गमिष्यते' ॥ (११।५६) ___ इति । रूपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्काराः पञ्च स्कन्धाः। तत्र विषयप्रपञ्चो रूपस्कन्धः, तज्ज्ञानप्रपञ्चो वेदनास्कन्धः, आलयविज्ञानसन्तानो विज्ञानस्कन्धः, नामप्रपञ्चः संज्ञास्कन्धः, वासनाप्रपञ्चः संस्कारस्कन्धः । एवं पञ्चधा परिवर्तमानो ज्ञानसन्तान एवात्मा इति बौद्धाः। एवं यथा बौद्धानां सर्वेषु शरीरेषु स्कन्धपञ्चकातिरिक्त आत्मा नास्ति, तथा राज्ञामङ्गपञ्चकातिरिक्तो मन्त्रो नास्तीत्युपमालङ्कारः। तच्चास्माकं समग्रमेवेत्ययमेव यात्राकाल इति भावः ॥ २६ ॥ अन्वय-सर्वकार्यशरीरेषु अङ्गस्कन्धपञ्चकं मुक्त्वा सौगतानां आस्मा इव महीभृतां अन्यः मन्त्रः नास्ति ॥ २६ ॥ हिन्दी अनुवाद-जिस प्रकार बौद्धों के यहाँ रूपादि पांच स्कंधों ( रूप-स्कंध, वेदनास्कंध, विज्ञानस्कंध, संज्ञास्कन्ध और संस्कार-स्कंध ) के अतिरिक्त आत्मा कोई अन्य वस्तु नहीं है, उसी प्रकार राजाओं के यहाँ भी पांच अङ्गों के अतिरिक्त मन्त्र नाम की कोई अन्य वस्तु नहीं है ॥ २६ ।। ६शि०व० Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् विशेष-कविभाघ ने बौद्धदर्शनशास्त्र का अच्छा अध्ययन किया था। उक्त श्लोक में बौद्धदर्शन का उल्लेख है। बौद्ध दर्शन शरीर में आत्मा नाम की कोई वस्तु स्वीकार नहीं करता। वह शरीर में पांच स्कन्धों की स्थिति मानता है। वे स्कन्ध ये हैं-(१) रूपस्कन्ध, (२) वेदना स्कन्ध (३) विज्ञान स्कन्ध (४) संज्ञा स्कन्ध और (५) संस्कार स्कन्ध । इस जगत् में दृश्यमान सभी वस्तुओं का आकार रूपस्कन्ध है । धाराप्रवाहरूप ज्ञान विज्ञानस्कन्ध है। चैतन्य अथवा वस्तुसमूह का नाम संज्ञास्कन्ध है। नित्त पर पड़ी हुई छाया का नाम संस्कारस्कन्ध है। उक्त पांचों स्कन्धों के अतिरिक्त जिस प्रकार शरीर में आरमा नाम की कोई वस्तु बौद्धों के लिए नहीं है, उसी प्रकार राजाओं के लिए पंचाङ्ग युक्त मन्त्र के अतिरिक्त किसी भी कार्य में कोई अन्य मन्त्र नहीं है। आचार्य कामन्दक के अनुसार पंचांग मन्त्र ये हैं-"सहायाः साधनोपाया विभागो देशकालयोः । विपत्तेश्च प्रतीकारः सिद्धिः पञ्चाङ्गमिप्यते ॥" ११-५६ इति ॥ - प्रसङ्ग-बलराम जी अपने मत का तिपादन करते हुए कहते हैं कि मन्त्रणा के पश्चात् उसे कार्य में तत्काल परिणत करना चाहिये, क्रिया में विलम्प करना अहितकर होता है। षड्गुणाः शक्तयस्तिस्रः सिद्धयश्चोदयस्त्रयः॥ ग्रन्थानधीत्य व्याकर्तुमिति दुर्मेधसोऽप्यलम् ।। २७ ।। पडिति ॥ दुष्टा मेधा येषां ते दुर्मेधसः मन्दबुद्धयोऽपि । 'नित्यमसिच्प्रजामेधयोः (५।४।१२२)इति समासान्तोऽसिच्प्रत्ययः । ग्रन्थानौशनसादीन् अधीत्य पठित्वा, 'गुणः सन्धिविग्रहयानासनद्वैधीभावसमाश्रयाख्याः षट् । शक्तयः प्रभुत्वमन्त्रोत्साहाख्यास्तिनः । सिद्धयः पूर्वोक्तशक्तित्रयसाध्याः पुरुषार्थलाभात्मिकाः । ताश्च तिस्रः प्रभुसिद्धिमन्त्रसिद्धिरुत्साहसिद्धिश्चेति । उदयाः वुद्धिक्षयस्थानानि छत्रिन्यायेनोदया उच्यन्ते । तत्र वृद्धिक्षयो स्वशक्तिसिद्धयोः पूर्वावस्थानादुपचयापचयो स्थानं ते च त्रयः इति व्याकर्तुं व्याख्यातुमलं समर्थाः । 'पर्याप्तवचनेष्वलमर्थेषु' (३।४।६६) इति तुमुन् । पञ्चाङ्गनिर्णयशक्तिविकलानां सन्ध्यादिरूपसंख्यामात्रपाठकानामशास्रज्ञत्वादुद्धवादयो न ग्राह्य वचना इत्यभिसन्धिः। अत्रामर: 'संधिर्ना विग्रहो यानमासनं द्वैधमाश्रया । षड्गुणाः शक्तयस्तिस्रः प्रभावोत्साहमंत्रजाः ।। क्षयः स्थान च वृद्धिश्च त्रिवर्गो नीतिवेदिनाम् ॥ इति । तत्रारिविजिगीष्वोर्व्यवस्थाकरणमैक्यं सन्धिः । विरोधो विग्रहः । विजिगीषोररिं प्रति यात्रा यानम् । तयोमिथः प्रतिबद्धशक्तयोः कालप्रतीक्षया Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः तूष्णीमवस्थानमासनम् । दुर्बलप्रबलयोर्वाचिकमात्मसमर्पणं द्वधी भावः । अरिणा पीडयमानस्य बलवदाश्रयगं संभ्रयः। कोशदण्डोत्थं तेजःप्रभावः । कर्तव्यार्थेषु स्येयान्प्रयत्न उत्साहः । षड्गुण चिन्तनं मन्त्रः । गतमन्यदिति सङ्क्षपः ॥२७॥ प्रसङ्ग-बलराम जी कहते हैं कि केवल शास्त्र का ज्ञान रखना एक बात है, और कार्य कुशलता रखना दूसरी बात है, वह सभी में नहीं होती। अन्धय-दुर्मेधसः अपि ग्रन्थान् अधीस्य गुणाः षट्, शक्तयः तिस्रः सिद्धयः च उदयाः यः, इति व्याकर्तुं अलम् ॥ २७ ॥ हिन्दी अनुवाद-मन्द बुद्धिजन भी (शुक्रनीति आदि) ग्रन्थों का अध्ययन कर छः गुण, तीन शक्तियां, तीन सिद्धियाँ तथा तीन उदय आदि इनकी व्याख्या करने में समर्थ होता है ॥ २७ ॥ इस श्लोक में कवि ने राजनीति के पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है। विशेष-संधि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव -ये छः गुण हैं। प्रभुशक्ति, मंत्रशक्ति और उत्साहशक्ति-ये तीन सिद्धियाँ हैं। वृद्धि, क्षय, और स्थान-ये तीन उदय हैं ॥२७॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी पुनः उद्धवजी के मत को स्वीकार न करने के लिए संकेत करते हैं। ननु शास्त्रोक्तार्थव्याख्यातव शास्त्रज्ञः, स एव ग्राह्यवचनश्चेत्याशङ्कयाह-- अनिर्लोडित'-कार्यस्य वाग्जालं वाग्ग्मिनो वृथा ॥ निमित्तादपराद्धेषोर्धानुष्कस्येव वलिगतम् ॥ २८॥ अनिलोडितेति ॥ अनिलोडितं नालोकितं कार्य येन तस्य । कार्याकार्यमजानत इत्यर्थः । वाचोऽस्य सन्तीति वाग्मी वावदूकः। 'वाचोयुक्तिपटुर्वाग्मी वावदूकोऽतिवक्तरि' इत्यमरः । 'वाचो ग्मिनिः' (५।२।१२४) इति ग्मिनिप्रत्ययः। तस्य वाग्जालं वागाडम्बरो निमित्ताल्लक्ष्यात् । 'वेध्यं लक्ष्य निमित्तं च शख्यं च समं विदुः' इति वैजयन्ती । अपराद्धेषोः स्खलितबाणस्य । धनुः प्रहरणमस्येति धानुष्को धन्वी । 'प्रहरणम्' (४।४१५७) इति ठक् । इसुसुक्तान्तात्कः (७३५१)। 'अपराद्धपृषत्कोऽसो लक्ष्याधश्च्युतसायकः । धन्वी धनुष्मान्धानुष्कः १. अनिर्लोठित । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् इत्यमरः । तस्य वल्गितमिव वृथा निष्फलम् । कार्यज्ञस्य वचो ग्राह्यं न तु वाचलस्येति भावः ॥ २८ ॥ ८४ अन्वयः -- अनिलडितकार्यस्य वाग्मिनः वाग्जालं, निमित्तात् अपराद्धेपोः धानुष्कस्य वलितं इव वृथा ॥ २८ ॥ हिन्दी अनुवाद - कर्तव्य और अकर्त्तव्य को न जाननेवाले वक्ता की बातें निष्फलसी होती हैं, जैसे लक्ष्य से भ्रष्ट हुए बाणवाले धनुर्धारी की बढ़ी चढ़ी बातें ॥ २८ ॥ प्रसङ्ग - बलराम जी अपने मत का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि मन्त्रणा के पश्चात् उसे कार्य में तत्काल परिणत करना चाहिए, क्रिया में विलम्ब करना अहितकर होता है, अथ मन्त्रितार्थक्रियाविलम्बे दोषमाह मन्त्रो योध इवाधीरः सर्वाङ्गैः कल्पितैरपि ॥ चिरं न सहते स्थातु परेभ्यो भेदशङ्कया ॥ २९ ॥ मन्त्र इति ॥ संवृतगुप्तं सर्वाङ्गः पूर्वोक्तैरुपायादिभिरुरः स्थलादिभिश्चोपलक्षितोऽपि : सर्वाङ्गसंवृतोऽपीत्यर्थः । मन्त्रो विचारः अधीरो भीरुः, युध्यत इति योघो भट इव । पचाद्यच् । परेभ्योऽन्येभ्योऽरिन्यश्च । 'परं दूरान्यमुख्येषु परोऽरिपरमात्मनो:' इति वैजयन्ती । भेदो विदारणं तृतीयगामित्वं च नस्य शङ्कया चिरं स्थातुम् । विलम्वितुमित्यर्थः । न सहते न क्षमः । ' शकधूप ( ३/४/६५ ) इत्यादिना तुमुन्प्रत्ययः । अतो न विलम्बितव्यम्, अन्यथा मन्त्रभेदे कार्यहानिः स्यादिति भावः ॥ २६ ॥ अन्वयः -- संवृत्तैः अपि सर्वाङ्गै: ( उपलक्षितः ) मन्त्रः, अधीरः योधः इव परेभ्यः भेदशङ्कया चिरं स्थातुं न सहते ॥ २९ ॥ हिन्दी अनुवाद - जिस प्रकार लोहे के कवच से सर्वांग को बचाता हुआ भी भीरु योधा शत्रु के प्रहार के भय से दीर्घकाल तक रणभूमि में नहीं ठहर सकता, उसी प्रकार उपायादि पांचों भङ्गों से सुरक्षित भी मन्त्र, दीर्घकाल तक सुरक्षित नहीं रह सकता । अर्थात् हमारा निर्णय शत्रु के गुप्तचरों द्वारा ज्ञात हो सकता है || २९ ॥ प्रसङ्ग - वलराम जी संक्षेप में नीति की व्याख्या करते हैं । १. संवृत्तेरपि । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः किञ्च नीतिसर्वस्वपर्यालोचनयाऽपि न विलम्बः कार्य इत्यभिप्रेत्याह आत्मोदयः परज्यानिर्द्वयं नीतिरितीयती। तदूरीकृत्य कृतिभिर्वाचस्पत्यं प्रतायते ॥ ३०॥ आत्मोदय इति ॥ आत्मन उदयो वृद्धिः परस्य शत्रोानिर्हानिः । 'वीज्याहाज्वरिभ्योनिः' ( उ० ४८८ ) इत्यौणादिको निःप्रत्ययः । इति द्वयम् । इदं परिमाणमस्या इति इयती एतावती । 'किमिदंभ्यां वो घः' ( ५।२।४०) मतुपो वस्य घश्च । 'उगितश्च' (४।१।६ ) इति डीप् । नीतिर्नीतिसङ्ग्रहः । एतद्वयातिरिक्तो न काश्विनीतिपदार्थोऽस्तीत्यर्थः । यदन्यत्षाड्गुण्यादिवर्णनं तत्सर्वमस्यैव प्रपञ्च इत्याहतदिति । तद् द्वयमूरीकृत्याङ्गीकृत्य । 'ऊरीकृतमुररीकृतमङ्गीकृतम्' इत्यमरः । 'ऊर्यादिचिडाचश्च' १।४।६१ इति गतिसंज्ञायां 'कुगतिप्रादयः' ( २।२०१८) इति समासे क्त्वो ल्यप् । कृतिभिः कुशलः वाचस्पत्यं वाग्ग्मित्वम् । कस्कादित्वादलुक्सत्त्वे । 'पष्ठयाः पतिपुत्र' (८।३।५३ ) इत्यादिना सत्वमिति स्वामी तन्न, तस्य छन्दोविषयत्वात् । ब्राह्मणादित्वाद्भावे ज्यञ्प्रत्ययः । प्रतायते विस्तीर्यते । कर्मणि लट् । 'तनोतेय कि' (६।४।४४ ) इत्यात्वम् । तस्मादात्मोदयाथिभिरविलम्बाच्छत्रुरुच्छेत्तव्यः, तत्रान्तरीयत्वात्तस्येति भावः ॥ ३० ॥ अन्वयः-आलोदयः परज्यानिः इति द्वयं, इयती नीतिः, तत् ऊरीकृत्यं कृतिभिः वाचस्पत्यं प्रतायते ॥३०॥ हिन्दी अनुवाद-अपनी उन्नति-( अभिवृद्धि ) तथा शत्रु की हानि, बस इतनी ही राजनीति है, इसे (इस सिद्धान्त को) स्वीकार कर (राजनीति में) कुशलपुरुष ( व्याख्यानादि द्वारा) वाग्मिता का विस्तार करते हैं ॥ ३० ॥ (अर्थात् अपनी उन्नति और शत्रु का विनाश, ये ही दो नीति की बातें हैं। इन्हें ही विद्वान् विस्तृतरूप से बताते हैं )। प्रसा-बलराम जी कहते हैं कि राजाओं को अभ्युदय में कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये। ननु लब्धोदयस्य किं परोच्छित्त्येत्याह तृप्तियोगः परेणापि महिम्ना न महात्मनाम् । पूर्णश्चन्द्रोदयाकाङ्क्षी दृष्टान्तोऽत्र महार्णवः ॥ ३१ ॥ तृप्तियोग इति ॥ महीयसां महात्मनां परेणापि प्रभूतेनापि महिम्ना ऐश्वर्येण तृप्तियोगः सन्तोषलाभो न । अत्र तृप्त्यभावे पूर्णः सन् चन्द्रोदयाकाझी । वृद्ध्यर्थ १. ग्लानीति । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ शिशुपालवधम् मिति भावः । महार्णवो दृष्टान्तः। दृष्टः अन्तो निश्चयो यस्मिन् दृष्टान्तो निद. र्शनम् । उपमानमिति यावत् । राज्ञा वृद्धौ अलंबुद्धिर्न कार्या । 'असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभुजः । सल्लज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जा च कुलाङ्गना' ॥ इति न्यायादिति भावः । नायं दृष्टान्तालङ्कारः। बिम्बप्रतिबिम्बभावेनीपम्यस्य गम्यत्वे तस्योत्थानात् । किन्तु दृष्टान्तशब्देन तस्याभिधानादुपमालङ्कारः । अत एव दृष्टान्तोदाहरणनिदर्शनरूपाः शब्दा न प्रयोक्तव्याः पौनरुक्त्यापत्तेरित्येकावल्यलङ्कारः ॥ ३१ ॥ ___ अन्वयः-महीयसां परेणापि महिम्ना तृप्तियोगः न । अत्र पूर्णः चन्द्रोदयाकाक्षी महार्णवः दृष्टान्तः ॥३१॥ हिन्दी अनुवाद-राजाओं को अभ्युदय में कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये । इसमें दृष्टान्त रत्नाकर है। वह रत्नों से सम्पन्न होने पर भी अपनी वृद्धि के लिये चन्द्रोदय को चाहता ही है। (अतः वे प्रभूत धन सम्पन्न होने पर भी अपने अभ्युदय के लिये सदा प्रयत्नशील रहें । ) ॥ ३१ ॥ विशेष-राजाओं को अपनी समृद्धि में सन्तुष्ट होकर नहीं बैठना चाहिये। क्योंकि कहा गया है "असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभुजः । सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जा च कुलाङ्गना॥ प्रसन-बलराम जी कहते हैं कि सन्तोष करना हानिकर होता है। तथापि सन्तोष दोषमाह सम्पदा सुस्थितंमन्यो' भवति स्वल्पयाऽपि यः। कृतकृत्यो विधिर्मन्ये न वर्धयति तस्य ताम् ।। ३२ ॥ सम्पदेति ॥ यः स्वल्पयाऽपि सम्पदा सुस्थिरमात्मानं मन्यत इति सुस्थिर मन्यः स्वस्थमानी भवति । 'आत्ममाने खश्च' (३।२।८३ ) इति खप्रत्यये मुमागमः । तस्याल्पसन्तुष्टस्य तां स्वल्पसम्पदं कृतकृत्यस्तावतव कृतार्थो विधिदेवमपि न वर्धयति अहमिति मन्ये । पौरुषहीनावमपि जुगुप्सते, तत्प्रवृत्तेः परमद्धिप्राप्तिरिति भावः ॥ ३२ ॥ १. °सुस्थिरंमन्यो। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः अन्वय-यः स्घल्पया अपि सम्पदा सुस्थितं मन्यः भवति कृतकृत्यः विधि: तस्य तां, न वधयति इति मन्ये ॥ ३२॥ हिन्दी अनुवाद-जो (राजा) अल्प सम्पत्ति से भी अपने को सुस्थिर मानता है तो कृतकृत्य देय भी उसकी उस सम्पत्ति को नहीं बढ़ाता, ऐसा मैं मानता (जो नाम मात्र की सम्पत्ति प्राप्तकर सन्तुष्ट हो जाता है, उसका भाग्य भी उसकी इच्छानुसार ही स्वयं को कृतार्थ समझलेता है और पुनः उसकी सम्पत्ति में वृद्धि नहीं करता ॥) प्रसङ्ग-मानियों के स्वभाव के विषय में बलराम जी कहते हैं। किञ्च पराक्रमलब्ध एवोदयो नान्यलब्ध इत्याह समूलघातमघ्नन्तः परान्नोद्यन्ति मानिनः । प्रध्वंसितान्धतमसस्तत्रोदाहरणं रविः ॥ ३३ ॥ समलेति ॥ मानिनोऽभिमानिनः परान् शत्रून समूलं हत्वा समूलपातम् अनन्तः। अनुन्मूलयन्त इत्यर्थः 'समूलाकृतजीवेषु हन्कृग्रह। ( ३।४।३६ ) इति णमुल्प्रत्ययः । 'कषादिषु यथाविध्यनुप्रयोगः' ( ३४१४६ ) इति हन्तेरनुप्रयोगः । नोद्यन्ति । किन्तु हत्ववोद्यन्तीत्यर्थः। तत्र हत्वैवोदये, अन्धयतीत्यन्धं गाढं तमोऽन्धतमसम् । 'ध्वान्ते गाढेऽन्धतमसम्' इत्यमरः । 'अवसमन्धेभ्यस्तमसः' (४१५७९) इत्यच्प्रत्ययः। प्रध्वंसितमन्धतमसं येन सः । उदयात्प्रागिति भावः । रविरुदाहरणं दृष्टान्तः। अत्रापि 'दृष्टान्तोऽत्र महार्णवः ( २।३१) इतिवदुपमालङ्कारो न तु दृष्टान्त इति द्रष्टव्यम् ॥ ३३ ॥ ___ अन्वयः-मानिनः परान् समूलघातं अनन्तः न उद्यन्ति । तत्र प्रध्वंसितान्धतमसः रविः उदाहरणम् ॥ ३३ ॥ हिन्दी अनुवाद- आस्माभिमानी लोग शत्रुओं का समूल विनाश किये विना अभ्युदय को प्राप्त नहीं करते। इसमें उदाहरण सूर्य है, जो उदित होने के पूर्व रात्रि के प्रगाढ़ अन्धकार को नष्ट कर देता है ।। ३३॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी कहते हैं कि शत्रु का नाश किये विना प्रतिष्ठा प्राप्त करना कठिन है। किञ्च अनुच्छिन्नशत्रोः प्रतिष्ठव दुर्घटेत्याह विपक्षमखिलीकृत्य प्रतिष्ठा स्खलु दुर्लभा । अनीत्वा पङ्कतां धूलिमुदकं नावतिष्ठते ॥ ३४॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् विपक्षमिति ॥ विपक्षं शत्रुमखिलीकृत्य खिलमुत्सन्नमकृत्वा । अनुन्मूल्येत्यर्थः । प्रतिष्ठा दुर्लभा खलु । तथा हि-उदकं कर्तृ धूनिम् । स्वपरिभाविनीमिति भावः । पतामनीत्वा । नाधःकृत्येत्यर्थः। नावतिष्ठते । किन्तु नीत्वंव तिष्ठतीत्यर्थः । 'समवप्रविभ्यः स्थः' (१॥३॥२२ ) इत्यात्मनेपदम् । वाक्यभेदेन प्रतिबिम्बनापेक्षो दृष्टान्तालकारः ॥ ३४ ॥ ___अन्वयः-विपक्षं अखिलीकृत्य प्रतिष्ठा दुर्लभा खलु । उदकं धूलिं पङ्कता अनीत्वा न भवतिष्ठते ।। ३४ ॥ हिन्दी अनुवाद-शत्रु का विना समूल नाश किये प्रतिष्ठा प्राप्त करना कठिन है। जल धूलि को जब तक कीचड़ बनाकर नीचे नहीं दवा देता, तब तक वह अपने (शुद्ध) स्वरूप को प्राप्त नहीं करता ।। ३४ ।। प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जो कहते हैं कि एक शव का भी रहना कष्ट दायक होता है। नन्वयं शिशुपाल एकाकी नः किं करिष्यतीत्याशझ्याह ध्रियते यावदेकोऽपि रिपुस्तायत्कुतः सुखम् । पुरः क्लिश्नाति सोमं हि सँहिकेयोऽसुरदुहाम् ॥ ३५ ॥ धियत इति ॥ एकोऽपि रिपुर्यावद् ध्रियतेऽवतिष्ठते । 'धूङ अवस्थाने' इति धातोस्तौदा दिकाकर्तरि लट् । 'रिशयग्लिङ्घ' (५४।२८) इति रिङादेशः । तावत्तदवधि सुखं कुतः । 'यावत्तावच्च साकल्येऽवधौ' इत्यमरः । तथा हि सिंहिकाया अपत्यं पुमान्सँहिकेयो राहुः । 'तमस्तु राहुः स्वर्भानुः सैहिकेयो विधुन्तुदः' इत्यमरः। स्त्रीभ्यो ढक् ( ४।१।१२० ) असुरगृहां देवानां पुरोऽने सोमं क्लिश्नाति धावते । प्राचुर्यात्सोमग्रहणम् । सूर्य चेति भावः। तस्मादेकोऽपि शत्रुरुच्छेत्तव्य इति भावः । 'अग्रेः शेषमृणाच्छेषं शत्रोः शेषं न शेषयेत्' इति तात्पर्यम् । विशेषेण सामान्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः ॥ ३५ ॥ अन्वयः-एकः अपि रिपुः यावत् ध्रियते तावत् सुखं कुतः ? हि सैहिकेयः असुरगुहां पुरः सोमं क्लिश्नाति ॥ ३५ ॥ हिन्दी अनुवाद-जब तक एक भी शत्रु ( जीवित ) रहता है, तबतक सुख कहाँ ? क्योंकि राहु देवों के सामने चन्द्रमा को प्रसता ही है ॥ ३५॥ (एक शत्रु के होने पर भी उसका नाश कर देना चाहिये । कहा गया है ____ 'भग्नेः शेषमृणाच्छेषं शत्रोः शेषं न शेषयेत् । अतः शिशुपाल का नाश करना ही श्रेयस्कर है।) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी शत्रु और मित्र भेदों का निरूपण करते हैं । ननु क्षुद्रोऽयं चैद्यः किं नः करिष्यतीत्याशङ्कय तस्य बलवत्तां वक्तु मित्रामित्रबलावल विवेकं तावत्करोति सखा गरीयान् शत्रुश्च कृत्रिमस्तौ हि कार्यतः । स्याताममित्रौ मित्रे च सहजप्राकृतावपि ।। ३६ ।। सखेति ॥ क्रियया उपकारापकारान्यतररूपया निवृत्तः कृत्रिमः । वितः चित्र: ( ३३८८ ) वत्रेन्नित्यम् ( ४/४/२० ) सखा सुहृत् शत्रुश्च कृत्रिम गरीयान् । कुतः - हि यस्मात्तौ कृत्रिममित्रशत्रू कार्यंत उपकारापकाररूपकार्यं वशात् । निवृत्ताविति शेषः । उक्तकार्योपाधेर्यावज्जीवमनपायात् अनयोमित्रामित्रभावोऽप्यनपायीति गरीयस्त्वमिति भावः । सहजप्राकृतौ तु नैवमित्याह - स्यातामिति । सह जातः सहजः एकशरीरावयवत्वात् । तत्र सहजं मित्रं मातृष्वसेयपितृष्वसेयादि । सहजशत्रुस्तु पितृव्यतत्पुत्रादिः । प्रकृत्या सिद्धः प्राकृतः शत्रुः । पूर्वोक्तस हजकृत्रिमल - क्षणरहित इत्यर्थः । तत्र विषयानन्तरः प्राकृतः । तदनन्तरः प्राकृतं मित्रम् । अपि त्वर्थे । तौ सहजप्राकृतौ शत्रुमित्रे च स्यातां तावात्मकार्यवशादनियमेनोभयरूपतामापद्येते न कृत्रिमशत्रु मित्रे । कृत्रिमः शत्रुः शत्रुरेव मित्रं च मित्रमेवेति कृत्रिमादेव मित्रामित्रो गरीयांसी । न तु सहजी नापि प्राकृतावित्यर्थः । अनेन कृत्रिमत्वं सर्वापवादीति सिद्धम् ॥ ३६ ॥ अन्वयः - कृत्रिमः सखा शत्रुः च गरीयान् । हि तौ कार्यतः जाती । सहज प्राकृतौ अमित्रौ मित्रे च स्याताम् || ३६ || हिन्दी में अनुवाद - कृत्रिम मित्र और कृत्रिम शत्रु प्रधान होते हैं। क्योंकि वे (दोनों) कार्यवश होते हैं । सहज और प्राकृत मित्र भी कार्यवश मित्र तथा शत्रु होते हैं ( इनमें सहज मित्र - मौसी और फूल के लड़के, भाई और उनके लड़के, प्राकृत मित्र और प्राकृत शत्रु- ये हैं। इनकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है - 'प्रकृत्या सिद्धः प्राकृतः ।' सहज शत्रु- चचेरे प्रकृति से ही होते कृत्रिम शत्रु सदा शत्रु ही रहता है और कृत्रिम मित्र सदा मित्र ही रहता है, अतः ये ही दोनों प्रधान ( श्रेष्ठ ) है ॥ ३६ ॥ प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में चलरामजी, सन्धि किसके साथ करनी चाहिये ? बतलाते हैं । एवं चेदस्माकं पैतृष्वसेयः शिशुपालः सहजमित्रत्वात्सम्बन्धातव्यो न तु यातव्य इत्यत आह उपकरणा सन्धिर्न मित्रेणापकारिणा । उपकारापकारौ हि लक्ष्यं लक्षणमेतयोः ॥ ३७ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् ___ उपकर्त्रेति ॥ उपकोंपकारकारिणा अरिणापि सहजेन । प्राकृतेन चेति शेषः । सन्धिः कार्यः । अरित्वापवादेन कृत्रिममित्रताया बलीयस्या यावज्जीवभाविन्यास्तत्रोत्पन्नत्वादिति भावः । एवमपकारिणा मित्रेणापि । सहजेन प्राकृतेन वेति शेषः । सन्धिर्न कार्यः। मित्रत्वापवादेन कृत्रिमशत्रुताया बलीयस्या यावज्जीवभाविन्यास्तत्रोत्पन्नत्वादिति भावः । ननु साक्षादरिणा सन्दध्यात् मित्रेण कथं विरुध्यादित्याशक्य क्रियया तयोर्वपरीत्याददोष इत्याह-हि यस्मादुपकारापकारावेव तयोमित्रामित्रयोललणं स्वरूपं लक्ष्यं द्रष्टव्यम्। उपकर्ते मित्रम् अपकतैव शत्रुरित्यर्थः। तस्मात्सहजमित्रत्वेऽपि चैद्यः क्रिया शत्रुत्वाद्यातव्य एवेति भावः ॥ ३७॥ अन्वय-उपका अरिणा ( अपि) सन्धिः ( कार्यः) अपकारिणा मित्रेण (अपि ) सन्धिः न ( कार्यः) हि उपकारापकारौ एतयोः लक्षणं लक्ष्यम् ॥ ३७॥ हिन्दी अनुवाद-( बलराम जी कहते हैं कि) उपकार करने वाले शत्रु के साथ भी सन्धि कर लेनी चाहिये, अपकार करनेवाले मित्र से नहीं। इन दोनों (मित्र तथा शत्रु) के लक्षण उपकार और अपकार को लक्षित करना चाहिए । ( अर्थात्-उपकार करने वाला ही मित्र है और अपकार करने वाला ही शत्रु) है।)॥३७॥ विशेष-बलराम जी के मत में शिशुपाल के साथ, जो फूआ का पुत्र होने के कारण सहज मित्र है, सन्धि करना उचित नहीं है। प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक से चारश्लोकों में (श्लोक ३८-४१) शिशुपाल को कृत्रिम शत्रु प्रमाणित किया गया है । अथ चैद्यस्य कृत्रिमत्रुत्वं चतुभिराह त्वया विप्रकृतश्चैद्यो रुक्मिणी हरता हरे !। बद्धमूलस्य मूलं हि महद्वैरतरोः स्त्रियः ॥ ३८ ॥ त्वयेति ॥ हे हरे ! रुक्मिणी हरता। बन्धुभिस्तस्मै प्रदत्तां राक्षसधर्मेणोद्वहतेत्यर्थः। 'राक्षसो युद्धहरणात्' इति याज्ञवल्क्यः (आचाराध्याये ३।६१) 'गान्धर्वो राक्षसश्चव धो क्षत्रस्य तौ स्मृतौ' इति मनुः ( ३।२६ )। त्वया चैद्यो विप्रकृतः विप्रियं प्रापितः । तथा हि बद्धमूलस्य रूढमूलस्य वैरतरोः स्त्रियो महप्रधानं मूलम् । हि निश्चये । रूपकसंसृष्टोऽयं सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः ॥ ३८॥ अन्वयः-हे हरे ! रुक्मिणी हरता स्वया चैद्यः विप्रकृतः बदमूलस्य वैरतरोः स्त्रियः महत् मूलम् ॥ २ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः हिन्दी अनुवाद-हे कृष्ण ! रुक्मिणी का हरणकर आपने शिशुपाल को शत्रु बना लिया है। क्योंकि दृढमूलवाले वैररूपी वृक्ष की जड़ स्त्रियां ही होती हैं । (अर्थात् स्त्रियां वैर की जड़ हुआ करती हैं ) ।। ३८ ॥ विशेष-श्री कृष्ण ने रुक्मिणी का हरण किया, वह धर्मशास्त्र सम्मत या (1) "गान्धर्वो राक्षसश्चैव धम्यौं क्षन्नस्य तौ रमृती।" मनु. ३।२६ गान्धर्व और राक्षस विवाह सत्रिय के लिये धर्मयुक्त कहे गये हैं। (२) रुक्मिणी-भागवत ( ३. ३. ३.) और विष्णु पुराण (५. २६. १) के अनुसार रुक्मिणी विदर्भनरेश भीष्म की पुत्री थी। वह श्रीकृष्ण की पटरानियों में सबसे बडी रानी थी। हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण इनपर तथा रुक्मिणी श्री कृष्ण पर आसक्त थी। रुक्मिणी का विवाह जरासंध की प्रेरणा तथा रुक्मी की सहमति से शिशुपाल के साथ निश्चित हो गया था, किन्तु विवाह के एक दिन पूर्व रुक्मिणी का सन्देश प्राप्त होने के कारण, जब रुक्मिणी इन्द्राणी पूजा करने मन्दिर में गयी तभी श्रीकृष्ण भी वलराम के साथ रथ लिये वहाँ उपस्थित हो गये। उसके मन्दिर से बाहर आते ही रुक्मिणी को रथ पर बैठा श्रीकृष्ण चले आये । समाचार पाकर शिशुपाहादि श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगे पर सब परास्त हुए । तभी से शिशुपाल श्रीकृष्ण का विरोधी हो गया था। प्रसङ्ग-बलराम जी श्रीकृष्ण को शिशुपाल द्वारा किये गए अपकारों का स्मरणः कराते हैं। अथ तेनापि त्वं विप्रकृत इत्याह त्वयि भौमं गते जेतुमरौत्सीत्स पुरीमिमाम् । प्रोषितार्यमणं मेरोरन्धकारस्तटीमिव ॥ ३९ ॥ त्वयीति ॥ त्वयि भूमेरपत्यं पुमांसं भौमं नरकासुरं जेतु गते सति स चैद्य इमां पुरी द्वारकां प्रोषितोऽर्यमा सूर्यो यस्यास्तां मेरोस्तटीं सानुमन्धकार इवारीत्सीत् रुद्धवान् । रुधेरनिटो लुङि सिचि वृद्धिः । उपमालङ्कारः ॥ ३९ ॥ ___ अन्वयः-स्वयि भौमं जेतुं गते (सति) इमां पुरी प्रोषितार्यमणं मेरोः तटी अन्धकारः इव अरौत्सीत् ।। ३९॥ हिन्दी अनुवाद-( बलराम जी कहते हैं कि) भौमासुर को जीतने के लिए आपके (श्री कृष्ण के ) प्रस्थान करने (चले जाने ) पर उस (शिशुपाल ) ने इस नगरी (द्वारका) को उस प्रकार घेर लिया, जिस प्रकार सूर्य के अस्त हो जाने पर मेरु-पर्वत के शिखर को अन्धकार घेर लेता है ॥ ३९ ॥ विशेष-भौमासुर के वध की कथा का वर्णन भागवत के दशमस्कन्ध में देखना चाहिये। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •९२ शिशुपालवधम् प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलरामजी शिशुपाल के अन्य अपकार ( कुकृत्य ) का स्मरण श्री कृष्ण को कराते हैं। अपकारान्तरमाह आल याऽलमिदं बभ्रोर्यत्स दारानपाहरत् । कथाऽपि खलु पापानामलमश्रेयसे यतः॥४०॥ आलप्येति ॥ स चंद्यो बभ्रोर्यादवभेदस्य दारान्भार्याम् । 'भार्या जायाऽय 'भूम्नि दाराः स्यात्तु कुटुम्बिनी' इत्यमरः । अपाहरदिति यदिदं दारापहरणं आलप्योच्चार्याऽलम् । अनालपनीयमित्यर्थः। 'अलखल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा' ( ३।४।१८) इति क्त्याप्रत्यये समासे ल्यवादेशः । यतः पापानां पाप्मनां कथनमुच्चारणमपि । 'चिन्तिपूजिकथिकुम्बि' (३।३।१०५ ) इत्यङ्प्रत्ययः । अश्रेयसेऽ. नयालं समर्थ खलु । 'नमःस्वस्ति-' (२।३।१६ ) इत्यादिना चतुर्थी । अत्र निषिध्यमानालपननिषेधनसमर्थनात्कार्येण कारणसमर्थकोऽर्थान्तरन्यासः ॥ ४० ॥ ___ अन्वयः-सः बभ्रोः दारान् अपाहरत् (इति) यत् इदं आलप्य अलं, यतः पापानां कथा अपि अश्रेयसे भलम् ।। ४० ॥ हिन्दी अनुवाद-(बलराम जी कहते हैं कि) उस (शिशुपाल ) ने यभ्र यादव की स्त्री का अपहरण किया ४ादि बातें कहना भी व्यर्थ हैं, क्योंकि पापियों की कथा सुनने से भी पाप ही होता है ।। ४० ॥ __ प्रसङ्ग-बलरामजी ने पूर्वोक्त कारणों को बतलाने के पश्चात् कहा कि शिशुपाल इहम लोगों का कृत्रिम शत्रु हो गया है। फलितमाह विराद्ध एवं भवता विराद्धा बहुधा च नः। निर्वत्यतेऽरिः क्रियया स श्रुतश्रवसः सुतः॥४१॥ विराद्ध इति ॥ एवं भवता विराद्धो विप्रकृतः। राधेरनिटः कर्मणि क्तः । बहुधा नोऽस्माकं च विराद्धा विप्रकर्ता, श्रुतश्रवा नाम हरेः पितृष्वसा तस्याः सुतः। पैतृष्वसेयत्वात्सहजमित्रमपीति भावः । स चैद्यः क्रियया पूर्वोक्तान्योन्याऽपक्रियया अरिनिवर्त्यते कृत्रिमः शत्रुः क्रियते । अतो बलीयस्त्वादनुपेक्ष्य इति भावः ॥ ४१ ॥ ___ अन्वयः-एवं भवता विराद्धः बहुधा च नः विराद्धा श्रुतश्रवसः सः सुतः क्रियया अरिः निर्वय॑ते ।। ४१ ॥ हिन्दी अनुवाद-इस प्रकार (रुक्मिणी हरण से) आपके द्वारा अपकार किया गया और अनेक बार आपका अपकार करने वाला वह बुआ का पुत्र (शिशुपाल) हम लोगों का कृत्रिम शत्रु हो गया है ।। ४१॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयःसनः (१) विशेष-श्रुतश्रवा--सभापर्व (४३,१-२०, २४ ) के अनुसार श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की भार्या का नाम है। यह श्रीकृष्ण की बुआ और शिशुपाल की माँ थीं। इन्होंने अपने पुत्र शिशुपाल की जीवन रक्षा के निमित्त श्रीकृष्ण से प्रार्थना की थी। इस पर भगवान् ने कहा था-इसके मैं १०० अपराध क्षमा करूँगा। (२) वलरामजी ने श्रीकृष्ण से कहा कि आपने रुक्मिणी का हरण करते समय शिशुपाल को पराजित किया था, वही पराजय आपके प्रति उसको शत्रुता का मूल कारण है। नरकासुर को जीतने के लिए जब आप गये हुए थे तब शिशुपाल ने द्वारिकापुरी को घेर लिया और बभ्रु यादव की स्त्री का अपहरण कर लिया। इस प्रकार उसने अनेकबार हमारा अपकार किया है और इसीलिए फूआ का पुत्र होने पर भी, वह हमारा सहज मित्र न होकर, कृत्रिम शत्रु सिद्ध होता है। अतः उसके साथ सन्धि नहीं करनी चाहिए ।। ४१ ।। ' प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी कहते हैं कि कृत्रिम शत्रु शिशुपाल की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उपेक्षा करने से हानि होगी। अत्राप्युपेक्षायां दोषमाह विधाय वैरं सामर्षे नरोऽरौ य उदासते। प्रक्षिप्योदर्चिषं कक्षे शेरते तेऽभिमारुतम् ॥ ४२ ॥ विधायेति ॥ ये नरः पुमांसः । 'स्युः पुमांसः पञ्चजनाः पुरुषाः नरः' इत्यमरः । सामर्षे प्रागेव सरोषेऽरी वरं विधाय । स्वयं चाऽपकृत्येत्यर्थः । उदासते उपेक्षन्ते ते नरः कक्षे गुल्मे । 'कक्षस्तु .गुल्मे दोर्मूले पापे जीर्णवने तृणे' इति वैजयन्ती। उदचिषमधिकज्वालमग्नि प्रक्षिप्य अभिमारुतम् । वाभिमुख्येऽव्ययीभावः । शेरते स्वपन्ति । तद्वन्नाशहेतुरित्यर्थः । 'शीडो रुट (७।१६) इति रुडागमः । अत्र ये उदासते ते शेरते इति विशिष्टोदासीन्यशयनयोवियार्थयोनिर्दिष्टकत्वासम्भवात्सादृश्यलक्षणायामसम्भवद्वस्तुसम्बन्धो वाक्यार्थनिर्वृ तिरिति निदर्शनाभेदः। न चायं दृष्टान्तः । वाक्यभेदेन प्रतिविम्बकारणाक्षेपे तस्योत्थानात् । अत्र तु वाक्यार्थे वाक्यार्थसमारोपाद्वाक्यकवाक्यतायां तदभाव इत्यलङ्कारसर्वस्वकारः ।। ४२ ।। अन्वयः-ये नरः सामर्षे भरौ वरं विधाय उदासते ते कक्षे उदर्चिपं प्रक्षिप्य अभिमारुतं शेरते ॥ ४२ ॥ हिन्दी अनुवाद-जो अति क्रोधी शत्रु से वैर करके उसके प्रति उदासीन हो जाते हैं, वे सुखी घास की राशि में प्रज्वलित अग्नि को डालकर, हवा के रुख की ओर सोते हैं, अर्यात् वे अपने नाश को शीघ्र बुलाते हैं ।। ४२ ।।। प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी कहते हैं कि बहुत काल से पीड़ा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् पहुँचाते चले आते हुए शिशुपाल का बना रहना ही क्षमा की सीमा है। अब उसे क्षमा नहीं करना चाहिए। तथापि बान्धवत्वात्सोढव्य इत्याशङ्कयाह मनागनभ्यावृत्या वा कामं क्षाम्यतु यः क्षमी। क्रियासमभिहारेण विराध्यन्तं क्षमेत कः॥४३॥ मनागिति ॥ यः क्षमी सहनः । 'शमित्यष्टाभ्यो घिनुण' ( ३।२।१४१ ) इति घिनुण्प्रत्ययः। स सोढा मनागल्पम् । अभ्यावृत्तावपीति भावः । अनभ्यावृत्त्या सकृद्वा । अनल्पत्वेऽपीति भावः । विराध्यन्तमपकुर्वाणं कामं भृशं क्षाम्यतु क्षमताम् । सम्भावनायां लोट् । शमामष्टानां दीर्घः श्यनि (७१३।७४ ) । क्रियासमभिहारेण भृशं पौनः पुन्येन चेत्यर्थः। न च पुंवाक्येष्वनेकार्थत्वं दोषाय विराध्यन्तं कः क्षमेत सहेत सोढुं शक्नुयात् । न कोऽपीत्यर्थः। 'शकि लिङ्-' ( ३।३।१७२) इति शक्या. लिङ्ग । 'क्षमू प्रसहने' देवादिको भौवादिकश्च ॥ ४३ ॥ - अन्वया--यः क्षमी सः मनाक अनभ्यावृत्या वा (विराध्यन्तं ) कामं ज्ञाम्यतु । क्रियासमभिहारेण विराध्यन्तं का समेत ॥ ४३ ॥ हिन्दी अनुवाद-जो क्षमा शील है, वह थोड़े अथवा एक वार किये गये बड़े भी अपराध को भले ही क्षमा कर सकता है (क्षमा कर दे) किन्तु बार-बार किये गये अपराध को कौन क्षमा करेगा ? ( अर्थात् कोई नहीं)॥ ४३ ॥ प्रसङ्ग-बलरामजी के मत में साधारण अवस्था में ही क्षमा पुरुषों को भूपण है, किन्तु पराभव के अवसर पर पराक्रम ही उनका आभूषण है। ननु सर्वदा क्षमैव पुंसो भूषणम्, अतोऽपराधेऽपि क्षन्तव्यमत आह अन्यदा भूषणं पुंसः शमो' लज्जेव योषितः। पराक्रमः परिभवे वैयात्यं सुरतेष्विव ॥४४॥ अन्यदेति ॥ अन्यदा सुरतव्यतिरिक्त काले योषितो लज्जेव पुंसोऽन्यदा अपरिभवे क्षमा शमो भूषणम् । परिभवे तु योषितः सुरतेषु वैयात्यं धाष्टयमिव । 'धृष्टे धृष्णुवियातश्च' इत्यमरः । पराक्रमः पौरुषं भूष्यतेऽनेनेति भूषणमाभरणम् । एवं चाक्रियावचनत्वान्नियतलिङ्गत्वाद्विरोध इति वल्लभोक्तं प्रत्युक्तम् ॥ ४४ ॥ अन्वयः-अन्यदा योषितः लज्जा इव, पुंसः क्षमा भूषणम्, परिभवे "तु" सुरतेषु योपितः वैयात्यं इव पराक्रमः भूषणम् ॥ ४४ ॥ १. क्षमा। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्ग हिन्दी अनुवाद-रतिकाल से भिन्न अवसर पर स्त्रियों की लज्जा के समान, पराभव न होने पर पुरुषों के लिए क्षमा भाव रखना भूषण है ।। ४४॥ (अर्थात् लज्जा स्त्रियों के लिये सुरत काल में जैसे दूषण है और सुरतातिरिक्त काल में भूपण है, उसी तरह पुरुषों के लिये क्षमा पराभव के समय दूपण है और तदतिरिक्त समय में भूपण है)॥ ४५ ॥ प्रसङ्ग-बलरामजी पराभव होने पर भी क्षमा करने की प्रवृत्ति की तीन श्लोकों में (४५-४७) निन्दा करते हैं । क्योंकि इस अवसर पर क्षमा श्रीहत हो जाती है। अथ परिभवेऽप्यपराक्रमे त्रिभिनिन्दामाह मा जीवन् यः परावहादुःखदग्धोऽपि जीवति । तस्याऽजननिरेवास्तु जननीक्लेशकारिणः ॥ ४५॥ मा जीवनिति ॥ यः परस्यापकत्रज्ञया अवमानेन यद् दुःखं तेन दग्धस्तसोऽत एव मा जीवन् गहितजीवी सन् । 'माझ्याक्रोशे' इति लटः शत्रादेशः। जीवति प्राणान्धारयति । जनन्याः क्लेशकारिणो गर्भधारणप्रसवादिवेदनाकारिणः। तद्व्यतिरिक्तार्थक्रियाहीनस्येत्यर्थः। तस्या अजननमजननिरनुत्पत्तिरेवास्तु । जननीक्लेशनिवृत्त्यर्थमिति भावः । 'आक्रोशे नभ्यनिः' ( ३।३।११३ ) इति नपूर्वाजनिधातोरनिप्रत्ययः ॥ ४५ ॥ अन्वयः-यः परावज्ञादुःखदग्धः मा जीवन् "सन्" अपि जीवति, जननी क्लेशकारिणः तस्य अजननिः एव अस्तु ॥ ४५ ॥ हिन्दी अनुवाद--वलरामजी कहते हैं कि जो मनुष्य शत्रुकृत अपमानजन्य दुःख से जलता हुआ भी निन्दित जीवन व्यतीत करते हुए जीता है, माता को क्लेश देने वाले ऐसे (मनुष्य ) का जन्म ही न हो ॥ (अर्थात् माता को वृथा प्रसव की पीड़ा देने वाले ऐसे मनुष्य का उत्पन्न न होना ही श्रेष्ठ है।)।॥ ४५ ॥ विशेष-ऐसे पुरुष की निन्दा पं० नारायण ने भी हितोपदेश ग्रन्थ में की है दाने तपसि शौर्ये च यस्य न प्रथितं मनः । विद्यायामर्थलाभे वा मातुरुच्चार एव सः ॥ (मित्रलाभः श्लोक-१६) प्रसङ्ग-बलरामजी अपमानित होकर भी क्षमा करने की प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए कहते हैं कि पादाहतं यदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति । स्वस्थादेवापमानेऽपि देहिनस्तद्वरं रजः ॥ ४६॥ पादेति ॥ यद्रजो धूलिः पादेनाहतं सदुत्यायोड्दीय मूर्धानमाहन्तुरेव शिरोऽ: Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् धिरोहत्याक्रमति तद्रजः । अचेतनमपीति भावः। अपमाने सत्यपि स्वस्थात्सन्तुष्टादेहिनश्चेतनाद्वरं श्रेष्ठम् । व्यतिरेकालङ्कारः ॥ ४६ ॥ अन्वयः-यत् रजः पादाहतं सत् उत्थाय मूर्धानं अधिरोहति तत् अपमाने अपि स्वस्थात् देहिनः वरम् एव ॥ ४६॥ हिन्दी अनुवाद-जो धूलि पैर से ताडित होने पर आहतकर्ता के मस्तक पर चढ़ जाती है, वह धूलि अपमानित होने पर भी स्वस्थ (शान्त) रहने वाले व्यक्ति से अच्छी है ॥ ४६ ॥ विशेष-तात्पर्य यह है कि अपमानित अर्थात् पैरों से आहत धूल आहतकर्ता के सिर पर चढ़ जाती है, जब की वह धूल अचेतन. है, तब चेतन व्यक्ति यदि अपमानित हो कर भी निष्क्रिय रहता है तव तो उस व्यक्ति से धूल ही श्रेष्ठ है। प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में - बलराम जी कहते हैं कि साधनों के होते हुए भी जो व्यक्ति अपनी कार्य-सिद्धि नहीं कर लेता उसका जना, नाम मात्र का होता है अर्थात् निरर्थक होता है। असम्पादयतः कश्चिदर्थ जातिक्रियागुणैः। यदृच्छाशब्दवत्पुंसः संहाय जन्म केवलम् ॥४७॥ असम्पादयत इति ॥ किञ्च जाति ह्मणत्वादिः, क्रिया इज्याध्ययनादिः, गुणः शौर्यादिः तः साधनैः। करणे तृतीया। कश्चिदर्थ सुकृतकीर्त्यादिपौरुषार्थम्, अन्यत्र गोत्वपाचकत्वशौक्ल्यादिभिः स्वाभिधेयभूतैः करणः कश्चिदर्थ व्यवहाररूप प्रयोजनमसम्पादयतः । उभयत्र तादग्जात्याद्यसम्भवादिति भावः । पुंसो जन्म सत्तालाभः यदृच्छाशब्दवत् इच्छाप्रकल्पितस्य जात्यादिप्रवृत्तिनिमित्तशून्यस्य डित्यादिशब्दस्येव । 'तत्र तस्येव' (५१११११६ ) इति वतिप्रत्ययः । 'स्वेच्छा यदृच्छा स्वच्छन्दः स्वैरता चेति ते समाः' इति केशवः । संज्ञाय केवलं संज्ञार्थमेव । एकत्र पारिभाषिकं किञ्चिन्नाममात्रमनुभवितुम्, अन्यत्र तादृक्तामनुभवितुमित्यर्थः ॥ ४७ । अन्वयः-जातिक्रियागुणैः कश्चिदर्थ असम्पादयतः पुंसः जन्म यदृच्छाशब्दवत् संज्ञायै केवलम् ॥ ४७ ॥ हिन्दी अनुवाद-जो पुरुष अपनी जाति, गुण और क्रिया आदि साधनों के द्वारा कुछ भी कार्य-लाभ सम्पादित नहीं कर लेता है, उसका जन्म तात्पर्यहीन यहच्छाशब्द की तरह नाम मात्र के लिये है। अर्थात् जाति (गोत्वादि ) क्रिया (पाचकस्वादि) और गुण (शुक्लत्वादि) के द्वारा किसी व्यवहाररूप प्रयोजन को सम्पादन न करने वाले, (डिस्थ-डविस्थादि अर्थहीन ) रूढ शब्दों के समान, जाति (ब्राह्मणत्वादि ) क्रिया (यज्ञ-अध्ययनादि) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ द्वितीयः सग तथा गुण ( शौर्यादि ) के द्वारा किसी ( सुकृत, कीर्ति पुरुषार्थादि ) प्रयोजन या पुरुष का जन्म केवल ( यज्ञदत्तादि ) नाममात्र की लक्ष्य की सिद्धि न करने वाले पूर्ति के लिये है ॥ ४७ ॥ प्रसङ्ग - पुरुषार्थहीनता के दोषों को व्यक्त करने के पश्चात् प्रस्तुत श्लोक में पुरुषार्थ के गुणों का वर्णन किया जाता है । एवमपौरुषं दूषयित्वा पौरुषं भूषयति तुङ्गत्वमितरा नाद्रौ नेदं सिन्धावगाधता । अलङ्घनीयताहेतुरुभयं तन्मनस्विनि ॥ ४८ ॥ तुङ्गत्वमिति ॥ अद्री पर्वते तुङ्गत्वम् । औन्नत्यमस्तीति शेषः । अस्तिर्भवन्तीपरोऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्तीत्यादिभाष्यात् । भवन्तीति पूर्वाचार्याणां लटः संज्ञा । इतराऽगाधता नास्ति । सिन्धो समुद्रेऽगाधता गम्भीरताऽस्ति इदं तुङ्गत्वं नास्ति । मनस्विनि वीरे त्वलङ्घनीयता हेतु र लङ्घयत्व कारणं तदुभयं तुङ्गत्वमगाधता च । तस्मादद्रि सिन्धुभ्यामधिको मनस्वीति व्यतिरेकालङ्कारः ॥ ४८ ॥ अन्वयः -- भद्वौ तुङ्गत्वं इतरा न, सिन्धौ भगाधता, इदं न, मनस्विनि (तु) अलङ्घनीयता हेतुः तत् उभयम् ॥ ४८ ॥ हिन्दी अनुवाद - पर्वत में ऊँचाई है, अथाहपन ( अगाधता ) नहीं है, समुद्र में अगाधता है, पर ऊँचाई नहीं है, ( इसलिये ये दोनों ही लांघे जा सकते हैं ) परन्तु वीर पुरुष में गम्भीरता ( अगाधता ) है और आत्मगौरव से वह अत्यन्त उन्नत भी है, इस प्रकार इसमें ( तुंगत्व और गांभीर्य - - अगाधता ) भलङ्घनीयता के दोनों कारण उपस्थित हैं, प्रस्तुत श्लोक में व्यतिरेकालङ्कार है ॥ ४८ ॥ विशेष- उपर्युक्त श्लोक से बलराम जी कहते हैं कि मनस्वी ( वीर ) पुरुष उच्चता ( महत्ता = बढप्पन ) तथा गम्भीरता दोनों ही गुण होते हैं, ऐसी स्थिति में मनस्वी पुरुष का कोई अपमान करे और वह निष्क्रिय ( शान्त ) बैठा रहे, यह सर्वथा अनुचित है । इसलिए शिशुपाल से प्रताडित होकर हमें शान्त नहीं बैठे रहना चाहिए ॥ प्रसङ्ग — बलराम जी शान्त रहने के परिणाम को कहते हैं । सम्प्रति शत्रौ मार्दवमनर्था येत्याह तुल्येऽपराधे स्वर्भानुर्भानुमन्तं चिरेण यत् । हिमांशुमाशु ग्रसते तन्म्रदिम्नः स्फुटं फलम् ॥ ४९ ॥ तुल्ये इति ॥ स्वर्भानूराहुरपराधे तुल्येऽपि भानुमन्तं सूर्यं चिरेण ग्रसते, ७ शि० व० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ शिशुपालवधम् हिमांशुं चन्द्रमाशु शीघ्र प्रसते गिलतीति यत् । ' ग्रसिते गिलितं गीर्णम्' इत्यभिधानात् । तन्म्रदिम्नो मार्दवस्य फलं स्फुटम् । 'पृथ्वादिभ्य इमनिच्' (५।१।१२२) इतीमनिच्प्रत्ययः । तस्माद्विपक्षे तीव्रेण भवितव्यम्, अन्यथा मृदुः सर्वत्र बाध्यते इति भावः । एतच्च प्रस्तुतमप्रस्तुतार्केन्दुकथनेन सारूप्यात्प्रतीयते इत्यप्रस्तुतप्रशंसाभेदोऽयम् ॥ ४ε॥ 'अप्रस्तुतस्य कथनात्प्रस्तुतं यत्र गम्यते । प्रस्तुतप्रशंसेयं सारूप्याद्विनियन्त्रिता' ॥ इतिलक्षणात् ॥ ४६ ॥ अन्वय-स्वर्भानुः अपराधे तुझ्ये 'अपि' भानुमन्तं चिरेण हिमांशुं 'च' आशु ग्रसते (इति) यत् तत् प्रदिग्नः फलं स्फुटम् एव ॥ ४९ ॥ हिन्दी अनुवाद - समान अपराध होने पर भी राहु सूर्य को विलम्ब से तथा चन्द्रमा को जो शीघ्र प्रसता है, वह कोमलता ( शान्त रहने ) का स्पष्ट फल है, यहाँ 'अप्रस्तुतप्रशंसा' अलङ्कार है | ॥ ४९ ॥ प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में दुर्बलता का अन्य उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। एतदेव भङ्गयन्तरेणाह स्वयं प्रणमतेऽल्पेऽपि परवायावुपेयुषि । निदर्शनमसाराणां लघुर्बहुतृणं नरः ॥ ५० ॥ स्वयमिति ॥ असाराणां दुर्बलानां निदर्शनं दृष्टान्तः । अत एव ईषदसमाप्तं तृणं बहुतृणम् । तृणकल्पमित्यर्थः । 'विभाषा सुपो बहुच्पुरस्तात् -' (३२६८) इति वहुच्प्रत्ययः प्रकृतेः पूर्वं च भवति । 'स्थादीषदसमाप्तौ तु बहुच्प्रकृतिलिङ्गके' इति वचनात्प्रकृतिलिङ्गता । लघुनिष्पौरुषो नरोऽल्पेऽपि परो वायुरिवेत्युपमितसमासः । बहुतृणमिति । स्पष्टोपमासाहचर्य त्किल्पब्देश्यदेशीयदेश्यादीति ( २२६० ) दण्डिना कल्पवादीनामौपम्यवाचकेष्वभिधानात् । तस्मिन्नुपेयुषि प्राप्ते सति स्वयं प्रणमते स्त्रयमेव प्रह्वीभवति । ‘कर्मवत्कर्मणा तुल्यक्रियः' ( ३|११८७ ) इति कर्मवद्भावात् 'भावकर्मणोः' (१।५।१३ ) इत्यात्मनेपदम् । न दुहस्नुनमां यक्चिणी' ( ३1१1=६ ) इति यप्रतिषेधः । दायुना तृणमिवाल्पीयसापि रिपुणा लघुरक्लेशेन परिभूयत इत्यर्थः । उपमालङ्कारः ॥ ५० ॥ अन्वयः - असाराणां निदर्शनं बहुतृणं लघुः, (यः) नरः अल्पे अपि परवायौ उपेयुषि स्वयं प्रणमते ॥ ५० ॥ हिन्दी अनुवाद - दुर्बलों का ( सबसे बड़ा ) उदाहरण तृण के समान पौरुषहीन मनुष्य है, जो नाममात्र की भी शत्रुरूपी हवा के बहने पर शीघ्र शुक जाता है ।। ५० ।। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः जाते हैं, वे तृण ( अर्थात् निःसार तृण मन्दहवा के चलने पर भी झुक जाते हैं। इसी प्रकार ai ( पौरुषहीन ) पुरुष छोटे शत्रु के भा जानेपर भी स्वयं ही झुक के समान निःसार पदार्थों के उदाहरण है, यहाँ उपमालङ्कार है ॥ ) प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी बीरस्व का गुण बतलाते हैं । पुन: पौरुषे गुणमाह ---- तेजस्विमध्ये तेजस्वी दवीयानपि गण्यते । पञ्चमः पञ्चतपसस्तपनो जातवेदसाम् ॥ ५१ ॥ तेजस्वीति ॥ दवीयानपि दूरस्थोऽपि । 'स्थूलदूर - ' ( ६।४।१५६ ) इत्यादिना पूर्वगुणयणादिपरलोपौ । तेजस्वी तेजस्विनां मध्ये गण्यते संख्यायते । तथा हिपञ्चाग्रिसाध्यं तपो यस्य स तथा तस्य पञ्चतपसः पञ्चाग्निमध्ये तपस्यतः तपनोऽर्को जातवेदसामग्नीनां पञ्चमः पञ्चानां पूरणः । पञ्चमो जातवेदा भवतीत्यर्थः । विशेषेण सामान्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः ॥ ५१ ॥ C अन्वय - दवीयान् अपि तेजस्वी तेजस्विमध्ये गण्यते, पञ्चतपसः तपनः जातवेदसां पञ्चमः ॥ ५१ ॥ हिन्दी अनुवाद - अत्यन्त दूर रहने वाला भी तेजस्वी पुरुष तेजस्वियों में गिना जाता है, ( जिस प्रकार ) पञ्चाग्नि-साधन करने वालों के लिये ( दूरस्थ ) सूर्य भी पांच अग्नियों में गिना जाता है, अर्थात् तेजस्वियों की सर्वत्र मान्यता होती है । प्रस्तुत श्लोक में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है | ॥ ५१ ॥ प्रसङ्ग - बलराम जी कहते हैं कि कीर्ति को चाहने वाले व्यक्ति को पुरुषार्थं का अवलम्बन करना चाहिये । गुणान्तरं च व्यतिरेकेणाह - कृत्वा हेलया पादमुच्चैर्मूर्धसु विद्विषाम् । कथंकारमनालम्बा कीर्तिर्द्यामधिरोहति ॥ ५२ ॥ अकृत्वेति ॥ उच्चैरुन्नतेषु विद्विषां मूर्धषु हेलया पादमकृत्वा अनिधाय । 'अन पूर्वे' इति निषेधात्समासेऽपि न ल्यवादेशः । कीर्तिः कथंकारम् । कथमित्यर्थः । 'अन्यथैवं कथमित्थंसु सिद्धाप्रयोगश्चेत् ' - ( ३।४।२७ ) इत्यनर्थंकादेव करोतेः कथंपूर्वाणमुल् । अनालम्बा निराधारा कीर्तिद्य दिवमधिरोहति । न कथञ्चिदित्यर्थः । किञ्चिन्निःश्रेण्यादिकमनाक्रम्य उच्चसौधस्य दुरारोहत्वादिति भावः । तस्मात्कीर्तिमिच्छता पौरुषमेवाश्रयणीयमिति श्लोकतात्पर्यम् । कीर्तितद्वतोरभेदोपचारात्समानकर्तृता निर्वाहः । अत्र प्रस्तुतायाः कीर्ते विषय महिम्ना अप्रस्तुतप्रासादारोहणस्त्रीव्यवहारप्रतीतेः समासोक्तिः ॥ ५२ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् अन्वयः - उच्चैः विद्विषां मूर्धसु हेलया पादम् अकृत्वा अनालम्बा कीर्तिः कथङ्कारं धाम् अधिरोहति ।। ५२ ।। १०० हिन्दी अनुवाद - शत्रुओं के उन्नत मस्तक पर अवज्ञापूर्वक पैर रक्खे विना निराधार कीर्ति स्वर्ग में कैसे चढ़ सकती है ? इसलिए कीर्ति चाहने वाले व्यक्ति को पुरुषार्थं का अवलम्बन करना चाहिए । यहाँ 'समासोक्ति' अलङ्कार है ।। ५२ ।। प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में, 'पौरुष का ही आश्रय लेना चाहिए,' यह कहा गया है । पौरुषमेवाश्रयणीयमित्यत्रान्वयव्यतिरेकदृष्टान्तावाचष्टे— अङ्काधिरोपितमृगश्चन्द्रमा मृगलाञ्छनः । केसरी निष्ठुरक्षिप्तमृगयूथो' मृगाधिपः ॥ ५३ ॥ अङ्केति ॥ अङ्कमुत्सङ्गमधिरोपितो मृगो येन स चन्द्रमाः मृगलाञ्छनः मृगाङ्कः । तथा निष्ठुरं यथा तथा क्षिप्तो हतो मृगयूथो मृगसमूहो येन स केसरी सिंहो मृगाधिपः । उभयत्रापि ख्यात इति शेषः । तस्माच्छत्री मार्दवं दुष्कीर्तये, पौरुषं तु कीर्तये इति भावः । अत्राप्रस्तुतकथनात्प्रस्तुतार्थप्रतीतेरप्रस्तुतप्रशंसा ॥ ५३ ॥ अन्वय-अङ्काधिरोपितमृगः (सः) चन्द्रमाः मृगलान्छनः, निष्ठुरक्षिप्तमृगयूथः (सः) केसरी मृगाधिपः ।। ५३ ।। हिन्दी अनुवाद -- गोद में मृगको ( दयापूर्वक ) आश्रय देनेवाला चन्द्रमा 'मृगलान्छन' (मृगकलङ्की ) कहा जाता है, और निर्दयतापूर्वक मृगों को मारनेवाला सिंह 'मृगाधिप' (मृर्गों का राजा ) कहा जाता है ॥ ५३ ॥ विशेष- ( इसलिये कीर्ति के लिए पौरुप की ही आवश्यकता है । शत्रु के साथ मृदुव्यवहारं दुष्कीर्ति का कारण होता है । प्रकृत श्लोक में अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कार है ॥ ) प्रसङ्ग — मनु के इस वचन का - "साम्ना भेदेन दानेन समस्तैरुत वा पृथक् । विजेतुं प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदाचन ॥ " ( ७|१९८ ) - खण्डन करते हुए बलराम जी कहते हैं कि चतुर्थोपायसाध्ये तु शत्रौ र सान्त्वमपक्रिया | स्वेद्यमामज्वरं प्राज्ञः कोऽम्भसा परिषिञ्चति ॥ ५४ ॥ ननु सामादि सुकरोपायमुपेक्ष्य कि पाक्षिकसिद्धिना दण्डेन । यथाह मनुः'साम्ना भेदेन दानेन समस्तैरुत वा पृथक् । विजेतुं प्रयतेताऽरीन्न युद्धेन कदाचन ॥ (म० स्मृ० ७ १६८ ) २. रिपो । १. पुगो । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः इति । तस्मात्सान्त्वमेव युक्तमित्याशङ्कय द्वाभ्यां निराचष्टे चतुर्थोपायेति॥चतुर्थोपायसाध्ये दण्डसाध्ये रिपोसान्त्वं साम। 'साम सान्त्वमुभे समे' इत्यमरः । अपक्रियापकारः । तथा हि-स्वेद्यं स्वेदाहम् । स्वेदनकार्यमित्यर्थः । 'स्वेदस्तु स्वेदने धर्म' इति विश्वः। आमज्वरमपक्वज्वरं प्राप्य । 'आमो रोगे रोगभेदे आमोऽपक्वे तु वाच्यवत्' इति विश्वः । कः प्राज्ञः पण्डितोऽम्भसा जलेन परिषिञ्चति । न कोऽपीत्यर्थः। ज्वरितस्याम्भःसेकवत्क्रुद्धस्य सान्त्वमुद्दीपनकरं स्यात् । अतो दण्ड्य एवेति भावः । वाक्यभेदेन प्रतिबिम्बकरणापेक्षो दृष्टान्तालङ्कारः ॥ ५४॥ अन्वयः-चतुर्थोपायसाध्ये रिपौ तु सान्त्वम् अपक्रिया। स्वेधम् आमज्वरं का प्राज्ञः अम्भसा परिषिञ्चति ॥ ५४॥ हिन्दी अनुवाद-(साम-दान-भेद-दण्ड-इन चार उपायों में से ) चौथे उपाय से अर्थात् दण्ड से साध्य (मानने वाले) शत्रुपर साम (शान्ति) का प्रयोग करना हानिकारक होता है, जैसे-पसीना लाने योग्य ( स्वेदनकाह ) कच्चे (आम ) ज्वर को कौन विद्वान् पानी से सींचता है ? कोई नहीं । इस श्लोक में दृष्टान्तालङ्कार है ॥ ५४॥ विशेष-दण्ड देने योग्य शत्रु के साथ शान्ति का व्यवहार ( सामोपाय) सर्वथा अनर्थ को जन्मदेता है। इसलिये शिशुपाल को दण्ड देना ही चाहिए, ॥ सङ्ग-पूर्वोक्त विचार को ही पुनः इस प्रकार कहा गया है। सामवादाः सकोपस्य तस्य प्रत्युत दीपकाः । प्रतप्तस्येव सहसा सर्पिषस्तोयबिन्दवः ॥५५॥ सामवादा इति ॥ सकोपस्य रूढवरस्य तस्य चैद्यस्य सामवादाः प्रियोक्तयः सहसा प्रतप्तस्य क्वथितस्य सर्पिषो घृतस्य तोयबिन्दव इव प्रत्युत वैपरीत्येन दीपकाः प्रज्वलनकारिणः । न तु शान्तिकरा इत्यर्थः। तस्माद्दण्डय एव सः। मनुवचनं त्वप्ररूढवरविषयमिति भावः ॥ ५५ ॥ अन्वया-सकोपस्य तस्य सामवादाः प्रत्युत दीपकाः (भवन्ति) प्रतप्तस्य सर्पिषः सहसा तोयबिन्दवः इव ॥ ५५ ॥ हिन्दी अनुवाद-क्रोधी शिशुपाल के साथ सामवाद अर्थात् प्रिय (मधुर) बातें करना एकदम उसके क्रोध को बढ़ाने वाली ही होंगी, जैसे तप्त घी में शीतल जल के छोटे घी को उद्दीप्त करने वाले ही होते हैं ॥ ५५ ॥ प्रसन-बलराम जी उद्धवजी की ओर लक्ष्यकर कहते हैं Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ शिशुपालवधम् एवं स्थिते यदि केचिदुद्धवादयः प्रत्याचक्षीरंस्तान्प्रत्याह गुणानामायथातथ्यादर्थ विप्लावयन्ति ये। अमात्यव्यञ्जना राज्ञां दूष्यास्ते शत्रुसंशिताः ॥ ५६ ॥ गुणानामिति ॥ सन्ध्यादीनां गुणानामायथातथ्यात् । तथात्वमनतिक्रम्य यथातथम् । यथायोग्यमिति यावत् । 'यथार्थे तु यथातथम्' इत्यमरः। यथार्थेऽव्ययीभावः । ‘स नपुंसकम्' (२।४।१७ ) इति नपुंसकत्वम् । 'ह्रस्वो नपुंसके-' (१।२।४७ ) इति ह्रस्वत्वम् । ततो नसमासे अयथातथं, तस्य भावः आयथातथ्यम् । ब्राह्मणादित्वात् ष्यञ्प्रत्ययः । 'यथातथायथापुरयोः पर्यायेण' (७।३।३१) इति विकल्पान्नपूर्वपदवृद्धिः। तस्मादायथातथ्यादयथायोग्यत्वात् । अन्यकालेऽन्यप्रयोगादित्यर्थः । अयं प्रयोजनं ये विप्लावयन्ति निघ्नन्ति। कार्यहानि कुर्वन्तीत्यर्थः। अमात्यानां व्यञ्जनं चिह्न येषां ते तथोक्ताः। तद्वेषधारिण इत्यर्थः । अवो बहुव्रीहिय॑धिकरणो जन्माधुत्तरपदः' (२०१६) इति वामनः। वस्तुतस्तु शत्रुरिति संज्ञा एषां सजाता शत्रुसंज्ञिताः शत्रव एव ते कूटमन्त्रिणो राज्ञां दूषयितुमर्हाः दूष्या गाः । त्याज्या इति यावत् । 'कृत्यानां कर्तरि वा' (२।३।७१) इति कर्तरि षष्ठी । अतः स्वोक्तं न प्रतिरोद्धव्यमिति भावः ।। ५६ !! अन्वयः-गुणानाम् आयथातथ्यात् ये ( राज्ञाम् ) अर्थ विप्लावयन्ति ते अमात्यव्यञ्जनाः शत्रुसंज्ञिताः (अतश्च ते) राज्ञां दूष्याः ॥ ५६ ॥ हिन्दी अनुवाद-जो (मन्त्रीगण) सन्धिविग्रहादि गुणों का अयोग्य प्रयोग कर राजा के कार्य को नष्ट कर देते हैं, वे मन्त्री के वेष में शत्रु ही होते हैं, रामाको ऐसे मन्त्रियों का त्याग कर देना चाहिये ।। ५६ ॥ विशेष-शत्रु के साथ सन्धि कब करनी चाहिये, उसपर आक्रमण कव करना चाहिये आदि छः गुणों के तत्वों का प्रयोग-उचित ज्ञान न होने से कार्य नष्ट हो जाते हैं। ___ अतः मन्त्रियों को गुणों-संधि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभावके प्रयोग का सम्यक ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है ॥५६॥ प्रसङ्ग-बलराम जी नीतिकारों के विचारों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहते हैं। ननु यातव्योऽपि काले यातव्य इत्याशङ्कय अयमेव काल इत्याह स्वशक्त्युपचये केचित्परस्य व्यसनेऽपरे । यानमाहुस्तदासीनं त्वामुत्थापयति द्वयम् ।। ५७ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १०३ स्वेति ॥ केचिद्वृद्धाः स्वस्य शक्त्युपचये सामर्थ्यातिरेके यानं यात्रामाहुः । यथाह कामन्दकः 'प्रायेण सन्तो व्यसने रिपूणां यातव्यमित्येव समादिशन्ति । तथा विपक्षे व्यसनाऽनपेक्षी क्षमो द्विषन्तं मुदितः प्रतीयात् ' ॥ इति । अपरे वृद्धाः परस्य शत्रोव्यंसने विपदि । 'व्यसन विपदि भ्रंशे' इत्यमरः । यानमाहुः ॥ अत्र मनुः - ' तदा यायाद्विगृह्यैव व्यसने चोत्थिते रिपोः ( ७।१८३ ) इति । तद्वयमुक्तपक्षद्वयं कर्तृ आसीनमनुद्युञ्जानम् । 'ईदासः' ( ७२८३ ) इति शानजाकारस्येकारादेशः । त्वामुत्थापयति प्रेरयति । तदुभयलाभादी दृक्कालो न कदापि लक्ष्यत इत्यर्थः ॥ ५७ ॥ अन्वयः - केचित् स्वशक्त्युपचये ( सति ) यानम् आहुः, अपरे परस्य व्यसने ( यानम् आहुः ) तत् द्वयम् " अपि " आसीनं श्वाम् उत्थापयति ।। ५७ ॥ हिन्दी अनुवाद - कुछ राजनीतिज्ञ ( कामन्दक, जैसे ) अपनी शक्ति ( प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्ति) के बढ़ने पर शत्रुपर चढ़ाई करना, उचित कहते हैं । और कुछ (मनु ) राजनीतिज्ञों का विचार है कि जब शत्रु विपत्ति में हो, तब उसपर आक्रमण करना चाहिए। उक्त दोनों ही विचार - ( अपनी शक्ति की वृद्धि तथा शत्रुकी विपत्ति ) खाली बैठे हुए आपको ( युद्ध के लिए ) प्रोत्साहित कर रहे हैं ॥ ५७ ॥ ( अतः शिशुपाल पर आक्रमण करने का यही उचित अवसर है । ) विशेष – कवि माघ के उपर्युक्त विचार कामन्दकीय नीतिसार में देखने को मिलते हैं "प्रायेण सन्तो व्यसने रिपूणां यातव्यमित्येव समादिशन्ति । तथा विपक्षे व्यसनानपेक्षी क्षमोद्विषन्तं मुदितः प्रतीयात् ॥" (का० नी० सा०१५ | २ ) मनु कहते हैं— "तदा यायाद्विगृह्यैव व्यसने चोत्थिते रिपोः ।" (म० स्मृ० ७११८३) प्रस्त समझें तब उसपर ( जब शत्रुको अमात्य आदिके विरोध या व्यसन में आक्रमण करें ।। ) ।। ५७ ।। प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी अपनी अलङ्घनीय यादव-शक्ति की ओर संकेत कर रहे हैं। तत्र स्वशक्त्युपचयं तावल्लक्षयति- लिलङ्घयिषतो लोकानलङध्यानल घीयसः । यादवाम्भोनिधीन् रुन्धे वेलेव भवतः क्षमा ॥ ५८ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् लिलङ्घयिषत इति ॥ लोकल्लिङ्घयितुमिच्छतो लिलङ्घयिषतः । लङ्घयतेः सन्नन्ताल्लटः शतरि शस् । अलङ्घयान्स्वयं दुर्लङ्घयान् । कुतः - अलघीय सोऽतिगुरून् । अत एव यादवा अम्भोनिधय इवेत्युपमितसमासः, वेलेवेति लिङ्गात् । तान् यादवाम्भोनिधीन्भवतः क्षमा तितिक्षा वेलेव कुलमिव । 'वेला कूलेऽपि वारिधेः' इति विश्वः । रुन्धे प्रतिबध्नाति । अन्यथा प्रागेव सर्वं संहरेयुरिति भावः ॥ ५८ ॥ १०४ अन्वयः - लोकान् लिलङ्घयिषतः अलङ्घयान् अलघीयसः यादवाम्भोनिधोन् (हे कृष्ण !) भवतः क्षमा वेला इव रुन्धे ॥ ५८ ॥ हिन्दी अनुवाद - संसार को भी लांघने की इच्छा रखने वाले, पर स्वयं दुर्लङ्घ्य, बहुत बढ़े यादवरूपी समुद्र को केवल आपकी क्षमा ही तटकी तरह रोकती है ( रोक रही है ) ।। ५८ ।। प्रसङ्ग - बलराम जी श्रीकृष्ण को कहते हैं कि विजय-लाभ तो विना किसी कष्ट प्राप्त हो जायगा, आपको तो केवल उपस्थित मात्र रहना है । अभ्युच्चयश्चायमपरो यदक्लेशेनैव ते विजयलाभ इत्याहविजयस्त्वयि सेनायाः साक्षिमात्रेऽपदिश्यताम् । फलभाजि समीक्ष्योक्ते वुद्धेर्भोग इवात्मनि ॥ ५९ ॥ विजय इति ॥ सेनायाः कर्या विजयः साक्षिमात्रे उदासीने एव फलभाजि त्वयि समीक्ष्योक्ते साङ्ख्योक्ते । 'साङ्ख्यं समीक्ष्यम्' इति त्रिकाण्डः । आत्मनि बुद्धेर्महत्तत्त्वस्य मूलप्रकृतेः प्रथमविकारस्य कर्त्याः भोगः सुखदुःखानुभव इवापदिश्यतां व्यवहृयताम् । भृत्यजयपराजययोः स्वामिगम्यत्वादिति भावः । साङ्ख्या अप्याहुः 'कर्तेव भवत्युदासीन' इति, 'सर्व प्रत्युपभोगं यस्मात्पुरुषस्य साधयति बुद्धि:' इति च ॥ ५६ ॥ अन्वयः - सेनायाः विजयः फलभाजि साक्षिमात्रे " एव" स्ययि समीयोके आत्मनि बुद्धेः भोगः इव अपदिश्यताम् ।। ५९ ।। हिन्दी अनुवाद - सांख्यदर्शन के अनुसार बुद्धि ( महत्तत्व ) का सम्पूर्ण प्रपञ्च जैसे, पुरुष में समझा जाता है, यद्यपि वह उदासीन रहता है, ( वह ) कुछ करता नहीं, उसी तरह आप भी केवल उदासीन ही रहें, उपस्थित मात्र रहें, विजय तो सेना ही कर लेगी ॥ ५९ ॥ विशेष - बलराम जी श्रीकृष्ण को कहते हैं कि- जैसे सांख्यदर्शन के अनुसार पुरुष शान्तचित्तका निर्विकार द्रष्टा है । वह उदासीन है । 'कर्तेव भवत्युदासीनः ' ( सां० का० २० ) वस्तुतः बुद्धि ही प्रधान है । वह पुरुष के लिये समस्त शब्दादिकों के उपभोग को साधती है । 'सर्वं प्रत्युपभोगं यस्मात् पुरुषस्य साधयति बुद्धिः" Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १०५ (सां. का० ३७)। वैसे ही आप (श्रीकृष्णा) युद्ध में उपस्थित होकर केवल देखते रहें, सेना ही (बुद्धि जैसी शत्रु वर्ग का संहार करेगी, विजय प्राप्त करेगी, किन्तु आप (श्रीकृष्ण ) स्वामी होने के कारण विजय आपकी कहलायगी । 'श्रीकृष्ण ने शत्रु-वर्ग का संहार किया' ऐसा कहा जायगा ॥ ५९ ।। अथ परस्य व्यसनमाह हते हिडिम्बरिपुणा राशि द्वैमातुरे युधि । चिरस्य मित्रव्यसनी सुदमो दमघोषजः ॥ ६॥ हते इति ॥ हिडिम्बरिपुणा भीमेन द्वयोर्मात्रोरपत्यं पुमान्द्वैमातुरः। 'मातुरुत्संख्यासम्भद्रायाः' (४।१।११५ ) इत्यण्प्रत्ययः उकारश्चान्तादेशो रेफपरः। तस्मिन् राज्ञि जरासन्धे । स हि द्वाभ्यां पत्नीभ्यामर्धशः प्रसूतो जरया नाम पिशाच्या सन्धितश्चेति कथयन्ति । युधि हते सति चिरस्य चिरकालेन । 'चिराय चिररात्त्राय चिरस्याद्याश्चिरार्थकाः' इत्यमरः। मित्रव्यसनी मित्रभ्रंशवानिति यावत् । 'व्यसनं 'विपदिभ्रंशे' इत्यमरः । दमघोषाज्जातो दमघोषजश्चैद्यः सुखेन दम्यत इति सुदमः । एकाकित्वात्सृसाध्य इत्यर्थः ॥ ६ ॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी शत्रु-विपत्ति का उल्लेख करते हैं। अन्वयः-हिडिम्परिपुणा द्वैमातुरे राज्ञि युधि हते ( सति ) चिरस्य मित्रव्यसनी दमघोषजः सुदमः॥ ६॥ हिन्दी अनुवाद-भीम के द्वारा युद्ध में जरासन्ध के मारे जाने पर चिरकाल से मित्र के अभाव में निर्बल हुए शिशुपाल को सरलता से जीता जा सकता है ( अर्थात् शिशुपाल पर आक्रमण करने का यही अवसर है)॥ ६०॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी नीतिज्ञों के विचार का समर्थन करते हुए कहते हैं कि___ कष्टश्चायं पक्षोऽभ्युपेत्यवादेनोक्तः, वस्तुतस्तु शूराणामग्रिमपक्ष एवेष्टः शास्त्रसंवादी । यथाह कामन्दक: 'यदा समस्तं प्रसभं निहन्तुं पराक्रमादूजितमप्यमित्रम् । तदाऽभियायादहितानि कुर्वन्नुपान्ततः कर्षणपीडनानि' ॥ इति । इत्यभिप्रेत्याह नीतिरापदि यद्गुम्यः परस्तन्मानिनो हिये । विधुर्विधुन्तुदस्येव पूर्णस्तस्योत्सवाय सः॥ ६१ ॥ नीतिरिति ॥ परः शत्रुरापदि गम्यो गमनाहः नीतिरिति यत् तदापदि गमनं Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ शिशुपालवधम् मानिनः शेर्पाभिमानिनो ह्रिये । लज्जाकरमित्यर्थः । किन्तु पूर्ण उपचितगात्रः स शत्रुस्तस्य मानिनः, विधुश्चन्द्रः विधुं तुदति हिनस्तीति विधुस्तुदो राहुः । 'विश्व - रुषोस्तुद:' ( ३।२।१५ ) इति खश्प्रत्यये मुमागमः । तस्येवोत्सवाय । अत एव बलिना बलवता यातव्यः, बलिनश्च वयमिति भावः ॥ ६१ ॥ अन्वय - ( हे कृष्ण ! ) परः आपदि गम्यः नीति: ( इति ) यत् तत् मानिनः ह्रिये । पूर्णः सः तस्य, विधुः विधुन्तुदस्य इव उत्सवाय ( भवतीति शेषः ) ।। ६१ ॥ हिन्दी अनुवाद - ( वस्तुतः ) विपत्तिग्रस्त शत्रुपर आक्रमण करना शौर्याभिमानी वीर पुरुष के लिये लज्जा जनक है । ( क्योंकि ) राहु भी पूर्ण चन्द्रमा को ही ग्रसता है ॥ ६१ ॥ ( अतः शक्तिशाली शत्रुपर आक्रमण करना चाहिये ) विशेष—नीतिज्ञ कामन्दक ने कहा है कि शक्तिसम्पन्न शत्रुपर आक्रमण करना चाहिए— "यदा क्षमस्तु प्रसभं निहन्तुं पराक्रमादूर्जितमप्यमित्रम् तदाऽभियायादहितानि कुवन्परस्य वा कर्षणपीडनानि" (का० नी० सा० १५। ३ ) ।। ६१ ।। प्रसङ्ग - अब पूर्वोदाहृत मनु आदि नीतिज्ञों के उदाहरणों में संभवतः विरोध प्रतीत होगा, इस शंका को दूर करने के लिए कहते हैं तह पूर्वोदाहृतमन्वादिशास्त्रविरोधः स्यादित्याशङ्क्याहअन्यदुच्छृङ्खलं सत्त्वमन्यच्छास्त्रनियन्त्रितम् । सामानाधिकरण्यं हि तेजस्तिमिरयोः कुतः ॥ ६२ ॥ अन्यदिति ॥ अन्यदुच्छृङ्खलमनर्गलम् । प्रसह्य पीडनक्षममिति भावः । सत्त्वं बलमन्यत् । शास्त्रेण मन्वादिशास्त्रेण नियन्त्रितमुदाहृतं परव्यसनकाले निर्मितं सत्त्वमन्यत् । उत्कटानुत्कटलक्षण वैलक्षण्यमन्यशब्दार्थः । तयोः सापेक्षत्वनिरपेक्ष-त्वाभ्यां मिथो विरोधान्नकशास्त्रत्वं सम्भवतीत्यर्थः । अत्र दृष्टान्तमाह – तेजस्ति मिरयोः समानमधिकरणं ययोस्तयोर्भावः सामानाधिकरण्यमेकाश्रयत्वं कुतः । न कुतश्चित् तयोः सहाऽवस्थानविरोधादिति भावः । तस्मादुभयोरुदिताऽनुदितहोमवद्भिन्नविषयत्वादितरेतरशास्त्रविरोधो न बाधक इति भावः ॥ ६२ ॥ अन्वयः -- उच्छृङ्खलं सत्त्वम् (तद् ) अन्यत् शास्त्रनियन्त्रितं ( सत्त्वम् ) अन्यत् । हि तेजस्तिमिरयोः सामानाधिकरण्यं कुतः ? ।। ६२ ।। " हिन्दी अनुवाद - उच्छृङ्खल ( अनर्गल, नीति के विरुद्ध बलपूर्वक शत्रुपर चढ़ाई कर उसे पीडित करना ) वल दूसरा है अर्थात् और बात है, और शास्त्र नियन्त्रित बल दूसरा है । ( नीतिशास्त्र के अनुसार - जब शत्रु विपत्ति में रहे उस Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १०७ समय उसपर आक्रमण करना आदि, दोनों में एक रूपता नहीं लायी जा सकती, क्योंकि ) प्रकाश और अन्धकार की एक साथ स्थिति कहाँ हो सकती है ? ।। ६२ ।। विशेष- इस विषय में कामन्दक ने कहा है— "प्रायेण सन्तो व्यसने रिपूणां यातव्यमित्येव समादिशन्ति ।” प्रायः विवेकी पुरुष व्यसन को प्राप्त हुए पुरुषपर आक्रमण करने को कहते हैं ॥ मनु कहते हैं— " तदा यायाद्विगृह्यैव व्यसने चोरिथते रिपोः ।" ( शत्रु विपद्ग्रस्त होनेपर आक्रमण करना चाहिये । ) कौटिल्य कहते हैं— “व्यसनी यातव्यः, अनपाश्रयो दुर्बलाश्रयो वोच्छेदनोयः” व्यसनी शत्रु राजापर आक्रमण कर देना चाहिए। आश्रयहीन अथवा दुर्बल शत्रु · राजापर भी आक्रमण कर देना चाहिए | प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी कर्तव्य का निर्देश देते हैं--- तहि नः किमिदानीं कार्यमत आह इन्द्रप्रस्थगमस्तावत्कारि मा सन्तु चेदयः । आस्माकदन्तिसान्निध्याद्वामनीभूतभूरुहः ॥ ६३॥ इन्द्रप्रस्थेति । इन्द्रप्रस्थस्य पार्थनगरस्य गमो गमनम् । 'ग्रहवृदृनिश्विगमश्र्व' ( ३।३।५८ ) इत्यप्रत्ययः । तावदिदानीं मा कारि तावत् । न क्रियतामेवेत्यर्थः । 'यावत्तावत्परिच्छेदे कात्स्न्ये मानावधारणे' इति विश्वः । कृञः कर्मणि लुङ् । 'माङि लुङ्' (३।३।१७५) इत्याशीरर्थे । 'न माङ्योगे ' ( ६|४|७४ ) इत्यट्प्रतिषेधः । किन्तु चेदयश्चेदिदेशाः अस्माकमिमे आस्माका: । ' युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खव' ( ४ | ३ | १ ) इति विकल्पादण्प्रत्ययः । ' तस्मिन्नणि च युष्माकास्माको ' ( ४।३।२ ) इत्यस्माकादेशः । सन्निधिरेव सान्निध्यम् । स्वार्थे ष्यञ्प्रत्ययः । आस्माकानां दन्तिनां सान्निध्याद्वामनीभूताः शाखाभङ्गात्खर्वीभूता भूरुहो वृक्षा येषां ते तथोक्ताः सन्तु । चेदियत्रैव क्रियतामित्यर्थः । सा च प्रस्तुता प्रस्तुतेनैव स्वकार्येण गम्यते इति पर्यायोक्तालङ्कारः । 'कारणं गम्यते यत्र प्रस्तुतात्कार्य वर्णनात् । प्रस्तुतत्वेन सम्बन्धात्पर्यायोक्तः स उच्यते ' ॥ इति लक्षणात् ॥ ६३ ॥ अन्वयः -- ( हे कृष्ण ! ) इन्द्रप्रस्थगमः मा कारि तावत् । चेदयः आस्माकदन्ति-सान्निध्यात्वामनीभूतभूरुहः सन्तु ।। ६३ । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् हिन्दी अनुवाद -- इसलिए हस्तिनापुर की यात्रा रोक दीजिये और चेदि देश अर्थात् शिशुपाल के देश के वृक्ष हम लोगों के हाथियों से छोटी-छोटी शाखावाले हो जायँ ॥ ६३ ॥ विशेष - कवि ने यहाँ सेना में हाथियों की अधिकता सूचित की है, इस श्लोक - मैं पर्यायोक्तालङ्कार है I १०८ प्रसङ्ग — प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी शत्रु-शिशुपाल को जीतने के उपाय का उल्लेख करते हैं— निरुद्धवीवधासारप्रसारां' गा इव व्रजम् । उपरुन्धन्तु दाशार्हाः पुरीं माहिष्मतीं द्विषः ॥ ६४ ॥ निरुद्धेति ॥ किश्व दाशार्हा यादवाः वीवधो धान्यादिप्राप्तिः आसारः सुहृद्वलम्, प्रसारस्तृणकाष्ठादेः प्रवेशः । धान्यदेववधः प्राप्तिरासारस्तु सुहृद्वलम् । प्रसारस्तृणकाष्ठादेः प्रवेश: इतिवैजयन्ती । ते निरुद्धा यैस्ते तथोक्ताः, अन्यत्र निरुद्धो वीवधानां पर्याहारापरनाम्नां स्कन्धवाद्यक्षीराद्याहरणसाधनभार विशेषाणामासारप्रसारी प्रवेशनिर्गमो यैस्ते तथोक्ताः । 'विवधो वीवधो भारे पर्याहाराध्वनोरपि' इति हेमचन्द्रः । व्रजं गोष्ठम् । ‘व्रजः स्याद्गोकुलं गोष्ठम्' इति वैजयन्ती । गा इव माहिष्मतीं पुरीं द्विषोsनुरुन्धन्तु । व्रजे गा इव माहिष्मत्यामरीना वृण्वन्त्वित्यर्थ: । 'दुहिया चिरुधि- ' इति द्विकर्मकत्वम् । तत्र पुरीव्रजावकथितं कर्म, अन्यदीप्सितं कर्म ॥ ६४ ॥ " - अन्वयः - दाशार्हाः निरुद्धवीबधासारप्रसाराः ( सन्तः ) व्रजं गाः इव माहिष्मत पुरीं द्विषः उपरुन्धन्तु ॥ ६४ ॥ हिन्दी अनुवाद - यादव लोग–गल्ला, ( भोज्य पदार्थ अन्नादि सामग्री ) मित्रवर्ग की सहायक सेना और घास, भूसा, ईंधन आदि का प्रवेश आना रोक कर महिष्मती में शत्रुओं को घेरलें । जैसे दूध, दही ढोने वाले लोगों का आना-जाना रोक कर गोकुल में गायें घेरली जाती हैं ॥ ६४ ॥ १. प्रसारा । विशेष - शत्रुपर आक्रमण करते समय आचार्य कौटिल्य कहते हैं कि जिस समय वीवध (धान्य) आसार और प्रसार ( लकड़ी - घास) आदि को जिस रास्ते से पहुचाया जा रहा हो, उस समय उसे नष्ट कर दिया जाय " विषमस्थस्य मुष्टिं सस्यं वा हन्याद्वीवधप्रसारौ च ।” (कौटिल्य अर्थशास्त्र - १२1४ ) प्रसङ्ग — प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी कहते हैं कि-सभी के कार्य की दिशा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १०२ निश्चित होनेपर किसी के स्वार्थ में बाधा न पहुँचेगी, अतः सभी अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते रहें । हि पार्थप्रार्थनायाः का गतिरित्याशङ्क्य उपेक्षैव गतिरित्याहयजतां पाण्डवः स्वर्गमवत्विन्द्रस्तपत्विनः । वयं नाम द्विषतः सर्वः स्वार्थ समीहते ॥ ६५ ॥ यतामिति ॥ पाण्डवो युधिष्ठिरो यजतां यागं करोतु । इन्द्रः स्वर्गमवतु रक्षतु । इनोऽर्कः 'इनः पत्यो नृपार्कयो:' इति मेदिनी । तपतु प्रकाशताम् । वयं द्विषोsन्नाम मारयान । 'आडुत्तमस्य पिच्च' ( ३।४।१२ ) इत्याडागमः । सर्वत्र प्राप्तकाले लोट् । तथा हि-सर्वो जनः स्यायं स्वप्रयोजनं समीहतेऽनुसन्धत्ते । इन्द्रादिसमानयोगक्षेमो नः पार्थं इत्यर्थः । अर्थान्तरन्यासः ॥ ६५ ॥ अन्वयः -- पाण्डवः यजतां, इन्द्रः स्वर्गम् अवतु, इनः तपतु, वयं द्विषतः हनाम "तथाहि” सर्वः स्वार्थं समीहते ॥ ६५ ॥ हिन्दी अनुवाद - पाण्डव ( युधिष्टिर ) यज्ञ सम्पन्न करें, इन्द्र स्वर्ग की रक्षा करें, सूर्य तपते रहें और हम लोग भी अपने शत्रु (शिशुपाल का वध करें, क्योंकि सभी अपने-अपने स्वार्थ की सिद्धि चाहते हैं, यहाँ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है ॥ ६५॥ प्रसङ्ग - बलराम जी यहाँ अपनी अभिलाषा को व्यक्त करते हैं । प्राप्यतां विद्युतां सम्पत्सम्पर्कादर्करोचिषाम् । शस्त्रैर्द्विषच्छिरश्छेदप्रोच्छलच्छोणितोक्षितैः ॥ ६६ ॥ प्राप्यतामिति ॥ किञ्च द्विषतां शिरश्छेदेन प्रोच्छलतोद्गच्छता शोणितेनोक्षितः सिक्तैः शस्त्रैरर्करोचिषां सम्पर्कात्सम्बन्धाद्विद्युतां सम्पल्लक्ष्मीः प्राप्यतामिति निदर्शनालङ्कारः ॥ ६६ ॥ अन्वयः - द्विषच्छिरश्छेदप्रोच्छु लच्छोणितोचितैः शस्त्रैः अर्करोचिषां सम्पर्कात् विद्युत सम्पत् प्राप्यताम् ।। ६६ ।। हिन्दी अनुवाद - (शिशुपाल के साथ होनेवाले युद्ध में ) शत्रुओं के सिर कटनेपर उड़ती हुई रक्त की धारा से सिक्त शस्त्रों को सूर्य किरणों के सम्पर्क से विद्युत-शोभा प्राप्त हो, प्रस्तुत श्लोक में निदर्शनालङ्कार है ।। ६६ ।। प्रसङ्ग—इस प्रकार ( २- २२ से ६६ ) बलराम की ओजपूर्ण ( क्षुब्ध ) वाणी सभा भवन में प्रतिध्वनित हो उठी । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० शिशुपालवधम् इति संरम्मिणो वाणीबलस्यालेख्यदेवताः । सभाभित्तिप्रतिध्वानेभेयादन्ववदन्निव ॥६७ ॥ __ इतीति । इतीस्थ संरम्भिणः क्षुभितस्य बलभद्रस्य वाणीरालेख्यदेवताश्चित्रलिखितदेवताः सभाया सदोगृहस्य भित्तीनां प्रतिध्वानः । प्रतिध्वनिव्याजेनेत्यर्थः । भयादन्ववदन्नन्वमोदयनिवेत्युत्प्रेक्षा ॥ ६७ ॥ __ अन्वयः-इति संरम्भिणः बलस्य वाणीः आलेख्यदेवताः सभाभित्तिप्रतिध्वानैः भयात् अन्ववदन् इव ॥ ६७ ॥ हिन्दी अनुवाद-इस प्रकार सुन्ध बलराम की वाणी समाप्त होनेपर सभाभित्ति में चित्रलिखित देवताओं ने भी भयभीत होकर सभाभवन की प्रतिध्वनि के व्याज से मानों उनकी बातों का समर्थन किया, प्रस्तुत श्लोक में उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥६॥ प्रसन-प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण, बलराम जी के विचार सुनने के पश्चात् उद्धवजी को अपने विचार प्रकट करने के लिए संकेत करते हैं निशम्य ताः शेषगवीरभिधातुमधोक्षजः । शिष्याय बृहतां पत्युःप्रस्तावमदिशद् दशा ।। ६८॥ निशम्येति ॥ अधः कृतमक्षजमिन्द्रियजं ज्ञानं येन सोऽधोक्षजो हरिः ताः शेषस्य शेषावतारस्य बलभद्रस्य गाः वाचः शेषगवीः। 'गोरतद्धितलुकि' (२४६२) इति टच । टित्वान्डीप् । निशम्य श्रुत्वा । 'निशाम्यतीति श्रवणे तथा निशमयत्यपि' इति भट्टमल्लः। तत्र शाम्यतेरिदं रूपम् । अन्यथा निशमय्येति स्यात् । अत एव वामनः-'निशम्यनिश मय्यशब्दो प्रकृतिभेदात्' इति । बृहतां वाचां पत्युर्वृहस्पतेस्तस्य शिष्यायोद्धवायाभिधातुं वक्तुं दृशा दृक्संज्ञया प्रस्तावमवसरमदिशदतिसृष्टवान् । 'प्रस्तावः स्यादवसरः' इत्यमरः ॥ ६८ ॥ __ अन्वयः--अधोक्षजः ताः शेषगवीः निशम्य बृहतां पत्युः शिष्याय अभिधातुं दृशा प्रस्तावम् अदिशत् ।। ६८ ॥ हिन्दी अनुवाद-श्रीकृष्ण ने उपर्युक्त बलराम जी की वाणी ( २१२२-६६) सुनकर बृहस्पति के शिष्य उद्धवजी को कहने के लिये (शिशुपालपर आक्रमण विषयक विचार ) नेत्रों से संकेत किया ॥१८॥ प्रसङ्ग--प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी अपने विचार प्रकट करते हैं भारतीमाहितभरामथाऽनुद्धतमुद्धवः। तथ्यामुतथ्यानुजवजगादाऽग्रे गदाग्रजम् ॥ ६९ ॥ भारतीमिति ॥ अथ कृष्णानुज्ञानन्तर मुद्धवः आहितो भरोऽर्थगौरवं यस्यां सा तां तथ्यां यथार्थी भारती वाचम् । अनुद्धतमवितं यथा तया गदस्याग्रज कृष्णम् । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १११ अग्रे पुरत इति प्रागल्भ्योक्तिः, उतथ्यस्य महर्षेरनुजो वृहस्पतिः। 'उतथ्यावरजो जीवः' इति विश्वः । तद्वत्तेन तुल्यं जगाद । 'तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः' (२१११११) इति वतिः । तद्धितगेयमुपमा ॥ ६६ ॥ अन्वयः-अथ उद्धवः आहितभरां तथ्यां भारतीम् अनुद्धतं गदाग्रजम् अग्रे उतथ्यानुजवत् जगाद ॥ ६९ ॥ हिन्दी अनुवाद-इस (श्रीकृष्ण के द्वारा बोलने के लिये संकेत प्राप्त होने) के पश्चात् श्रीउद्धव अपनी अर्थपूर्ण यथार्थ वाणी को नम्रभाव से श्रीकृष्ण के सामने बृहस्पति के समान गम्भीर भाव से बोले, प्रकृत श्लोक में उपमालङ्कार है ॥ ६९ ॥ प्रसङ्ग-उद्धवजी कहते हैं कि बलराम जी के द्वारा विचार प्रकट किये जाने के पश्चात् अब कुछ कहना उचित नहीं है। किं जगादेत्याहु सम्प्रत्यसाम्प्रतं वकुमुक्के मुसलपाणिना ॥ निर्धारितेऽर्थे लेखेन खलूक्त्वा खलु वाचिकम् ।। ७०॥ सम्प्रतीति ॥ सम्प्रति मुसलपाणिना बलभद्रेण । केवलं शूरेणेति ध्वनिः । उक्ते सति वक्तुमसाम्प्रतमयुक्तम् । साधूक्तत्वादभ्याससमानयोगक्षेमप्रसङ्गादिति ध्वनिः । साम्प्रतशब्दस्यार्थित्वात्तद्योगे 'शकधृष' ( २।४।७५) इत्यादिना तुमुन् । तथा हि लेख्येन पत्रेणार्थे वाच्ये निर्धारिते निर्णीते सति वाचिकं व्याहृतार्थी वाचम । सन्देशवचनमित्यर्थः । 'सन्देशवाग्वाचिकं स्यात्' इत्यमरः। 'वाचो व्याहृतार्थायाम' (५।४।३५ ) इति ठक् । उक्त्वा खलु । न वाच्य खल्वित्यर्थः। खलुराद्यः प्रतिषेधे, अन्यो वाक्यालङ्कारे । 'निषेधवाक्यालङ्कारे जिज्ञासानुनये खलु' इत्युभयत्राप्यमरः। 'अलंखल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा' ( ३।४।१८ ) इति क्त्वाप्रत्ययः। इह न पादादौ खल्वादय इति निषेधस्योद्वेजकाभिप्रायत्वात् नबर्थखलुशब्दस्यानुद्वेजकत्वात नवदेव पादादी प्रयोगो न दुष्यत्यनुसन्धेयम् लिखितार्थे वाचिकमिव बलोक्ते मदुक्तिरनवकाशेति वाक्यार्थप्रतिबिम्बकरणात् स्पष्टस्तावद् दृष्टान्तः । स्तुतिव्याजेन निन्दावगमाद् व्याजस्तुतिन । लक्षणं चाग्रे वक्ष्यते ॥ ७० ॥ अन्वयः-सम्प्रति मुसलपाणिना उक्त (सति ) वक्तुम् असाम्प्रतम्, लेखेन अर्थ निर्धारिते सति वाचिकं खलु उक्त्वा खलु ॥ ७० ॥ हिन्दी में अनुवाद-(उद्धवजी ने कहा कि -) बलराम जी के बोलने पर अब बोलना ( अपने विचार प्रकट करना ) उचित नहीं है। जैसे, लेख द्वारा विषय निर्णीत हो जानेपर मौखिक वचन कहना व्यर्थ होता है। (अर्थात् लेख द्वारा एक बात पक्की निश्चित हो जानेपर केवल सूखा-सूखा जवानी जमाखर्च, जैसे व्यर्थ होता है, इसी तरह बलराम के कहने के पश्चात् जव Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ शिशुपालवधम् एक बात तय (निश्चितः) हो चुकी, तो अब पुनः उस विषय में मेरा कुछ कहना व्यर्थ ही है । ) प्रस्तुत श्लोक में दृष्टान्त व व्याजस्तुति अलङ्कार है ।। ७० ॥ प्रसङ्ग-उद्धवजी श्रीकृष्ण को कहते हैं कि मेरे प्रति आपका आदर मुझे कुछ कहने के लिये प्रेरित कर रहा है, अतः मैं अपने विचार व्यक्त करता हूँतहि किं तूष्णीभूतेन भाव्यं नेत्याह तथापि यन्मय्यपि ते गुरुरित्येष' गौरवम् । तत्प्रयोजककतृत्वमुपैति मम जल्पतः ॥ ७१ ॥ तथापीति ॥ तथापि बलेन निर्णीतेऽपि ते तव मय्यपि । बलभद्र इवेत्यपिशब्दार्थः। गुरुरित्येव यत्तगौरवमादरः यद्गौरवं जल्पतः जल्पने प्रयोज्यकर्मणो मे प्रयोजककर्तृत्वं प्रेरकत्वमुपैति । अतो वक्ष्यामीत्यर्थः । न हि पण्डितः सादरं पृष्टस्य विशेषज्ञस्याऽज्ञवत्तूष्णींभावो युक्त इति भावः ॥ ७१ ॥ अन्वयः-(हे कृष्ण !) तथापि ते मयि अपि गुरुः इति यत् गौरवम् अस्ति तत्. जल्पतः मम प्रयोजककर्तृत्वम् उपैति ॥ ७१ ॥ हिन्दी अनुवाद-हे कृष्ण ! फिर भी आपकी हमारे प्रति गुरु जैसी जो श्रद्धा हैं, उसीसे प्रेरित होकर मैं कुछ कहता हूँ ॥ ७१ ।। प्रसङ्ग-श्री उद्धवजी कहना प्रारम्भ करते हैं - ननु रामेणव सर्वं प्रपञ्चेनोक्तम्, सम्प्रति किं ते वाच्यमस्तीत्याशक्य वृथा प्रपञ्चोऽयमिति हृदि निधाय स्तुवन्नाह त्रयेण वर्णैः कतिपयैरेव ग्रथितस्य स्वरैरिव । अनन्ता वाड्मयस्याहो ! गेयस्येव विचित्रता ॥७२॥ वर्णैरिति । कतिपयः परिमितर्वर्गः पञ्चाशतव मातृकाक्षरः, कतिपयः सप्तभिरेव स्वरैदिषादादिभिर्ग्रथितस्य गुम्फितस्य वाङ्मयस्य शब्दजालस्य । 'एका. चोऽपि नित्यं मण्टमिच्छन्ति' इति स्वार्थे मयट् । गीयत इति गेयं तस्य गानस्येव विचित्रता रचनाभेदादनन्ता आरमिता भवतीत्यर्थः। अहो ! अतस्तेन साधूक्तेऽपि विशेषानन्त्यान्ममापि वक्तव्यमस्तीत्येको भावः। तस्य दुरुक्तत्वान्ममैवास्तीत्यन्यः । प्रत्यवयवमिवोपादानादनेकवेयमुपमा ॥ ७२ ॥ अन्वयः-कतिपयैः एव वर्णैः स्वरैः इव ग्रथितस्य वाङ्मयस्य गेयस्य इव विचित्रता अनन्ता अहो ।। ७२ ।। हिन्दी अनुवाद-कुछ अर्थात् परिमित (सात) स्वरों (निषाद, ऋषभ आदि) १. रित्यस्ति । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ द्वितीयः सर्गः से प्रथित गाने के समान परिमित (पचास ) अक्षरों से ग्रथित शब्दों (वचन ) की असोमित ( रचनाभेद के कारण ) विचित्रता होती है, यह आश्चर्य है ॥ (बलराम के द्वारा इस विषयपर अर्थात् शिशुपाल पर आक्रमण करना चाहिये या युधिष्ठिर के यज्ञ में सम्मिलित होना चाहिए-पर्याप्त कहा जानेपर यद्यपि इस विषय में कुछ भी कहना शेष नहीं रहा है, फिर भी निषादादि सात स्वरों से सङ्गीत शास्त्र के गायन के प्रकार जैसे असंख्य हैं, उसी तरह केवल पचास अकारादिवर्णमातृकाओं से रचित शब्द-प्रयोग के प्रकार भी अनन्त हैं, इसलिये बलराम की उक्ति में अर्थात् उनके कथन में और अधिक विशेषता लाने के लिये मेरा कुछ कहना निसरी असंगत नहीं होगा ॥ ७२ ॥ विशेष-संगीत शास्त्र के सम्बन्ध में कवि की अधिकार पूर्ण उपमाएँ एवं उक्तियाँ सिद्ध करती हैं कि महाकवि माघ संगीतप्रेमी थे। उनकी संगीतनिपुणता उपर्युक्त श्लोक से प्रकट होती है, उपर्युक्त श्लोक में उपमालङ्कार है ॥ ७२ ॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी कहते हैं कि पूर्वापर सम्बन्ध से युक्त विषयका प्रतिपादन करना बहुत ही कठिन होता है - बपि स्वेच्छया कामं प्रकीर्णमभिधीयते । अनुज्झितार्थसम्बन्धः प्रबन्धो दुरुदाहरः ।। ७३ ॥ बह्वपीति ॥ स्वेच्छया स्वप्रतिभानुसारेण प्रकीर्णमसङ्गत बह्वपि काम यथेष्टमभिधीयते । किन्तु अनुज्झितोऽर्थसम्बन्धः पदार्थसङ्गतियं स्मिन्स प्रबन्धः सन्दर्भः दुरुदाहरो दुर्वचः। हरतेः खल्प्रत्ययः । रामेण तु सङ्गतमेवोक्तमिति स्तुतिः, असङ्गतमेवोक्तमिति निन्दा च गम्यते ॥ ७३ ।। अन्वयः--स्वेच्छया प्रकीर्ण बहु अपि कामम् अभिधीयते । अनुज्झितार्थसम्बन्धः प्रबन्धः दुरुदाहरः ॥ ७३ ॥ हिन्दी अनुवाद-( उद्धवजी कहते हैं कि ) स्वेच्छा से असङ्गत (नीतिशास्त्रके विरुद्ध ) बातें चाहे जितनी कही जा सकती हैं, परन्तु पूर्वापर सम्बन्ध से युक्त विषय का प्रतिपादन करना बहुत ही कठिन है ॥ ७३ ॥ ___ विशेष-प्रबन्ध का अर्थ है-जो बन्ध सहित हो । विद्वान् प्रबन्ध को काग्य का श्रेष्ठरूप मानते हैं। प्रबन्ध को आचार्य कुन्तक ने महाकवियों का कीर्तिकन्द अर्थात् उनके यश का मूल आधार माना है____ "प्रबन्धेषु कवीन्द्राणां कीर्तिकन्देषु किं पुनः ।" क्रमसिद्धिस्तयोः स्रगुसंसवत् (का० लं० सू० १।३।२८) आचार्य वामन के मत में मुक्तक और प्रबन्ध में वही सम्बन्ध है जो माला और उत्तंस में। जिस प्रकार माला गुंफन की कला में पारंगत होने के पश्चात् ही उत्तंस ( शिरोभूषण) गुंफन में सिद्धि प्राप्त होती है, उसी ८शि०व० Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ शिशुपालवधम् प्रकार मुक्तक रचना की सिद्धि के उपरान्त ही कवि प्रबन्ध रचना में सिद्धि प्राप्त करता है। कविमाघ का इसी ओर संकेत जान पड़ता है। प्रसङ्ग-उद्धवजी कहते हैं कि-प्रतिभा सम्पन्न कुशल वक्ता ही अर्थ गौरव से युक्त एवं कार्यसङ्गति का ध्यान रखते हुए वाणी का प्रसार कर सकता है म्रदीयसीमपि घनामनल्पगुणकल्पिताम् । प्रसारयन्ति कुशलाश्चित्रां वाचं पटीमिव ।। ७४॥ म्रदीयसीमिति ॥ कुशला वक्तारो प्रदीयसीमतिसुकुमाराक्षरां श्लक्षणतरां च तथापि घनामर्थ गुर्वीम्, अन्यत्र सान्द्राम् । कदलीदलकल्पामित्यर्थः । अनल्पबहुभिर्गुणः श्लेषादिभिः तन्तुभिश्च कल्पिता रचितां निर्मितां च चित्रां शब्दादिविचित्रां विचित्ररूपां च वाचं पटीं शाटीमिव प्रसारयन्ति । रामवागप्येवंविधेति स्तुतिः, रामवाक्तु नैवंविधेति निन्दा च गम्यते । अत्र श्लेषस्य शुद्धविषयासम्भवेन सर्वालङ्कारबाधकत्वादुपमाप्रतिभोत्थापितः प्रकृताप्रकृतश्ले पोऽयमित्यलङ्कारसर्वस्वकारः । एवं च पूर्णोपमाया निविषयत्वप्रसङ्गात् श्लेषप्रतिभोत्थापितेय मुपमैवेत्यन्ये ॥ ७४ ॥ अन्वयः-( हे कृष्ण ! ) कुशलाः म्रदीय सीम् अपि घनाम् अनरूपगुणकल्पिता चित्रां वाचं पटोम् इव प्रसारयन्ति ॥ ७४ ।। हिन्दी अनुवाद-(उद्धवजी कहते हैं कि हे कृष्ण !) अत्यधिक मुलायम होनेपर भी केले के गाभे की तरह सघन तथा विविध प्रकार के सूत से निर्मित चित्र विचित्र वर्ण की साड़ी को जैसे सिद्धहस्त तन्तुवाय (जुलाहा) ही बना सकता है, उसी तरह अत्यन्त सुकुमार अक्षरों वाली होनेपर भी अर्थगौरवान्वित एवं माधुर्य गुणों से युक्त तथा नानाशास्त्रों से सम्बद्ध लोक विलक्षण वाणी को कुशलवक्ता ही कह सकता है ।। ७४ ॥ प्रसङ्ग-अथोद्धवः स्वसिद्धान्तं वर्णयिष्यन् स्तुत्या गर्व परिहरन् हरिमभिमुखीकरोति प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी अपने सिद्धान्त वचनों को कहने की इच्छा करते हुए तथा श्रीकृष्ण की स्तुति द्वारा अपनी लघुता को प्रकट करते हुए, उन्हें अपनी ओर भाकर्षित करते हैं विशेषविदुषः शास्त्रं यत्तवाग्राह्यते पुरः। हेतुः परिचयस्थैर्ये वक्तुर्गुणनिकैव सा ॥ ७५ ॥ विशेषेति ॥ विशेषानवान्तरभेदान्वेत्ति विशेषविद्वान् तस्य विशेषविदुषो विशेषज्ञस्य । गतिगम्यादिपाठाद् द्वितीयासमासः । तव पुरोऽग्रे शास्त्रं नीतिशास्त्रमुद्ग्राह्यत उपन्यस्यत इति यत् । 'उद्ग्राहितमपन्यस्तम्' इति वैजयन्ती। सा ! Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ११५ दुहणमित्यर्थः । विधेयप्राधान्यात्स्त्रीलिङ्गत्वम् । वक्तुरुग्राहयितुः परिचय स्थेयॅ - भ्यासदाढ हेतुर्गुणनिका । आम्रेडितमेवेति यावत् । न तु वैदुष्यप्रकटनमिति भावः । गुण आम्रेडने चौरादिकात् 'ण्यासश्रन्थो युच्' ( ३।३।१०७ ) इति युच् । ततः संज्ञायां कन् । कारपूर्वस्येकारः ॥ ७५ ॥ अन्वयः - ( हे कृष्ण ! ) विशेषविदुषः तव पुरः शास्त्रम् उदग्राह्यते ( इति ) यत् सा वक्तुः परिचयस्थैर्ये हेतुः गुणनिका एव ।। ७५ ।। हिन्दी अनुवाद - हे कृष्ण ! नीतिशास्त्र के विशेषज्ञ ! आपके आगे नीतिविषयपर कुछ कहना आपके तस्वबोध के लिए न होकर मेरे ही नीतिविषयक अभ्यास बढ़ाने के लिये है । न कि वैदुष्य प्रकट करने के किये ॥ ७५ ॥ प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक से उद्धवजी अपने सिद्धान्त को क्रमशः उपन्यस्त करते हैं— सम्प्रति स्वमत मुन्यस्यति - प्रोत्साहावतः स्वामी यतेताधातुमात्मनि । तौ हि मूलमुदेष्यन्त्या जिगीपोरात्मसम्पदः ।। ७६ ।। प्रज्ञेति । अतोऽस्मात्कारणात् स्वमस्यास्तीति स्वामी प्रभुः । 'स्वामिनैश्वर्ये' ( ५२।१२६ ) इति निपातः । प्रजोत्साहो मन्त्रोत्साहशक्ती आत्मनि स्वस्मिन्नाधातुं सम्पादयितुं यतेत । स्वयमुभय शक्तिमान्भवेदित्यर्थः । कुनः - हि यस्मात्ती प्रज्ञोत्साहो उदेष्यन्त्याः वत्स्र्त्स्यन्त्याः जिगीषोरात्मनः सम्पदः प्रभुशक्तेर्मूलं निदानम् । अत्रोत्साह• ग्रहणं दृष्टान्तार्थम् । यथोत्साहस्तथा मन्त्रोऽपि ग्राह्यो, न तु केवलोत्साह इति बलभद्रापवादः ॥ ७६ ॥ अन्वयः - अतः ( हे कृष्ण ! ) स्वामी प्रोत्साहौ आत्मनि आधातुं यतेत । हि तौ उदेष्यन्त्याः जिगीषोः आत्मसम्पदः मूलम् ॥ ७६ ॥ राजाको मन्त्रशक्ति और शक्तियाँ ( मन्त्र और मूल आधार ( कारण ) हिन्दी अनुवाद - ( उद्धवजी कहते हैं कि ) इसलिये उत्साह शक्ति सम्पन्न होना चाहिये, क्योंकि ये ही दोनों उत्साह ) जिगीषु राजा की उत्पन्न होनेवाली प्रभुशक्ति के हैं । अर्थात् उत्साह के साथ मन्त्र भी ग्रहण करना चाहिए, केवल उत्साह से कार्य की सिद्धि सम्पन्न नहीं हो सकती । ( अतः राजा को बुद्धि के साथ उत्साहसम्पन होना चाहिये ) || ७५ ॥ विशेष - 'मन्त्रशक्ति', से प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि, और 'पराक्रमसम्पत्ति' से उत्साह Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् को कहा जाता है, ये दोनो बुद्धि और पराक्रम 'प्रभुशक्ति' प्राप्ति के मूल कारण हैं। इस हेतु बुद्धि और पराक्रम से प्रभुशक्ति का सम्पादन करना चाहिये । प्राचीन नीतिज्ञों का मत है कि उत्साहशक्ति और प्रभावशक्ति इन दोनों में से उत्साहशक्ति श्रेष्ठ है" "उत्साहप्रभावयोरुत्साहः श्रेयान्" कौटलीय अर्थशास्त्र ॥ ७६ ॥ प्रसङ्ग- श्लोक ७७ से ८० उद्धवजी यहाँ बुद्धिपूर्वक उत्साह करने का आग्रह करते हैंउत्साहवत्प्रजापि ग्राहयेत्युक्तं तस्याः प्रयोजनमाह सोपधानां धियं धीराः स्थेयसी खटवयन्ति ये। तत्रानिशं निषण्णास्ते जानते जातु न श्रमम् ॥ ७७ ॥ सोपधानामिति ॥ ये धीरा धीमन्तः सोपधानां सविशेषाम् । युक्तियुक्तामित्यर्थः। अन्यत्र सगेन्दुकाम् । सोपींमित्यर्थः। 'उपधानं विशेष स्याद्गेन्दुके प्रणयेऽपि च' इति विश्वः। स्थयमी स्थिरतरामचपलां द्रढीयसी च । स्थिरशब्दादीयसुनि 'प्रियस्थिर'-(६।४।१५७ ) इत्यादिना स्थादेशः । धियं खट्वन्ति खट्वां पर्यवं कुर्वन्ति । आश्रयन्तीत्यर्थः। शयनं मञ्चपर्यङ्कपल्यङ्काः खट्वया समाः' इत्यमरः। 'तत्करोति तदाचष्टे' ( गणसूत्र ) इति णिच् । ते धीरास्तत्र घीखट्वायामनिशमश्रान्तं निषण्णा विश्रान्ताः सन्तो जातु कदाचिदपि श्रमं खेदं न जानते न विदन्ति । श्रमः खेदो रत्यादेरिति लक्षणम् । धीपूर्वक एवोत्साहः सेव्यो न केवल इति सर्वथा धीराश्रयणीयेत्यर्थः । अत्र धिय आरोप्यमाणायाः प्रकृतश्रमापनोदरूपोपकारपर्यन्ततया परिणामालङ्कारः । 'आरोप्यमाणस्य प्रकृतो. पयोगित्वे परिणामः' इति लक्षणात् ॥ ७७ ॥ अन्वयः ---( हे कृष्ण ! ) ये धीराः सोपधानां स्थेयसीं धियं खट्वयन्ति ते तत्र अनिशं निषण्णाः ( सन्तः) जातु श्रमं न जानते ॥ ७७ ॥ हिन्दी अनुवाद-हे कृष्ण !-जो विद्वान् युक्तियुक्त और स्थिर (दृढ़ ) बुद्धि को ही पलङ्ग बनाकर उसका आश्रय लेते हैं, वे उसपर सदा निश्चिन्त होकर सुखानुभव करते हैं, और कभी भी उन्हें खेद ( कष्टानुभव ) नहीं होता। अर्थात् बुद्धिपूर्वक किया हुआ उत्साह ही श्रेयस्कर है। अतः बुद्धि का ही आश्रय (ग्रहण) करना चाहिये । प्रकृत श्लोक में परिणामालकार है ॥७७॥ . प्रसङ्ग-उद्धवजी यहाँ कुशाग्रबुद्धिवाले पुरुषों की प्रशंसा करते हैंअथ प्रज्ञाप्रज्ञयोर्दाभ्यां वैषम्यमाह स्पृशन्ति शरवत्तीक्ष्णाः स्तोकमन्तर्विशन्ति च । बहुस्पृशाऽपि स्थूलेन स्थीयते बहिरश्मवत् ॥ ७८ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः ११७ स्पृशन्तीति ॥ हे कृष्ण ! तीक्ष्णाः निशितप्रज्ञाः शरवच्छरेण तुल्यं स्तोकमल्पमेव स्पृशन्ति, अन्तः कार्यस्य चान्तरं विशन्ति 1 अल्पायासेन बहु कार्य साधयन्तीत्यर्थः । बहुस्पृशा व्यापिना, स्थूलेन मन्देन वृहता च अश्मनोपलेन तुल्यमश्मवत् । तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः (५।१।११५) । वहि रेव । कार्यं स्याकार्यंस्य चेति भावः । स्थीयते स्थितिः क्रियते । मूढो हि अल्पस्य हेतोर्बहु प्रयासं करोति । मूषकग्रहणाय शिखरिखननं परिहासास्पदं भवतीति भावः । तद्धितगतेयमुपमा ॥ ७८ ॥ अन्वयः - ( हे कृष्ण ! ) तीचणाः शरवत् स्तोकं स्पृशन्ति अन्तः च विशन्ति । बहुस्पृशा अपि स्थूलेन अश्मवत् बहिः स्थीयते ॥ ७८ ॥ हिन्दी अनुवाद - कुशाग्र बुद्धिवाले पुरुष अल्प अवसर पाकर बाण की तरह भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं अर्थात् तीक्ष्ण बुद्धि वाले कार्य के तत्व में अवगाहन करते हैं कम बोलते हुए भी कार्यंतस्वरूपी शरीर को जान लेते हैं । और स्थूलबुद्धिवाले पुरुष पत्थर की तरह बाहर अधिक स्थान घेरकर भी शरीर के भीतर प्रविष्ट नहीं हो पाते (अर्थात् मूढ़ अल्पप्राप्ति के लिये बहुत प्रयास करते हैं ) प्रस्तुत श्लोक में उपमालङ्कार है ।। ७८ ।। प्रसङ्ग — प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी मूर्ख और कुशल पुरुषों के स्वभाव में अन्तर बतलाते हैं आरभन्तेऽल्पमेवाश्चाः कामं व्यग्रा भवन्ति च । महारम्भाः कृतधियस्तिष्ठन्ति च निराकुलाः ॥ ७९ ॥ आरभन्त इति ॥ किव अज्ञा अल्पं तुच्छमेवारभन्ते प्रक्रमन्ते काममत्यन्तं व्यप्राः त्वरिताश्च भवन्ति । न च पार गच्छन्तीति भावः । कृतधियः शिक्षितबुद्धयस्तु महारम्भा महोद्योगा भवन्ति निराकुला अव्यग्राश्च भवन्ति । पारं गच्छन्तीति भावः ॥ ७६ ॥ अन्वयः - अज्ञाः अल्पम् एव आरभन्ते, ( परं ) कामं व्यग्राः च भवन्ति । कृतधियः, महारम्भाः ( अथ ) निराकुलाः च तिष्ठन्ति ।। ७९ ।। हिन्दी अनुवाद - मूढ़ पुरुष ( अल्पज्ञ ) तुच्छ कार्य के करने में ही ( दीपक के समान ) अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं ( वे अपना कार्य सम्पन्न नहीं कर पाते ) और शिक्षित अर्थात् शास्त्रपरिणत बुद्धिमान् पुरुष बड़े-बड़े कार्यों को करते हुए भी अन्य ( सूर्य के समान ) निराकुल रहते हैं । अर्थात् वे अपना कार्य सम्पन्न कर लेते हैं ।। ७९ ।। प्रसङ्ग — प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी कहते हैं कि बुद्धिमान् होनेपर भी यदि उत्साह का त्यागकर वह प्रमाद करता है तो उसका कार्यं भी सफल नहीं होता Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ शिशुपालवधम् अथ प्रज्ञानवानपि न प्रमाद्येदित्याह उपायमास्थितस्यापि नश्यन्त्यर्थाः प्रमाद्यतः । हन्ति नोपशयस्थोऽपि शयालुर्मंगयुर्मुगान् ॥ ८॥ उपायमिति ॥ उपायमास्थितस्य प्राप्तस्यापि । उपायेनैव कार्य साधयतोऽपीत्यर्थः। किमुत व्यग्रतयेति भावः । प्रमाद्यतोऽनवधानस्य । 'प्रमादोऽनवधानता' इत्यमरः। अर्थाः प्रयोजनानि नश्यन्ति । तथा हि-शयालुनिद्रालुः । आलुचि शीङो वक्तव्यत्वादालुच । मृगान् यातीति मृगयुधिः । 'मृगय्वादयश्च इत्योणादिकः कुप्रत्ययान्तो निपातः। 'व्याधो मृगवधाजीवो मृगयुर्लुब्धकश्च सः' इत्यमरः । उपशेरतेऽस्मिन्नित्युपथयो मृगमार्गस्थायिनो व्याधस्यात्मगुप्तिस्थानं गर्तविशेषः । 'एरच्' ( ३।३।५६ ) इत्यच्प्रत्ययः । तत्र तिष्ठतीत्युपशयस्थोऽपि मृगान् न हन्ति । विशेषेण सामान्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः ॥ ८० ॥ अन्वयः-उपायम् आस्थितस्य अपि प्रमाद्यतः (पुंसः) अर्थाः नश्यन्ति । (यथा) शयालुः मृगयुः उपशयस्थः अपि मृगान् न हन्ति ।। ८० । हिन्दी अनुवाद-युक्ति के द्वारा कार्य सम्पन्न करनेवाला चतुर पुरुष भी उपाय रहने पर भी यदि प्रमाद करता है तो उसका कार्य नष्ट हो जाता है । जैसे सोनेवाला बहेलिया उपशय (मृगों के मार्ग में छिपकर बैठने का स्थान) में रहकर भी मृगों को नहीं मार सकता । प्रस्तुत श्लोक में अर्थान्तन्यासालङ्कार है । ८०॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी पुनः 'उत्साह-शक्ति की आवश्यकता पर पल देते हैंएवं प्रज्ञाया आवश्यकत्वमुक्तम्, तथोत्साहस्याप्याह उदेतुमत्यजन्नीहां राजसु द्वादशस्वपि । जिगीषुरेको दिनकृदादित्येष्विव कल्पते ॥ ८१॥ उदेतुमिति ॥ जेतुमिच्छजिगीषुरेक एव द्वादशस्वपि राजसु मध्ये द्वादशस्वादित्येषु दिनकृद् यो दिनकरणे व्याप्रियमाण आदित्यः स इव ईहामुत्साहामस्यजन्प्रयुञान एव । न तु निरुद्योग इति भावः । उधेतुं कल्पते उदयाय प्रभवति । उत्साहशक्तिरेव प्रभुशक्तरपि मूलमित्यर्थः । 'नानालिङ्गत्वाद्धेतूनां नानासूर्यत्वम्' इति श्रुतेः । प्रतिमासमादित्यभेदाद् द्वादशत्वं, तच्चकस्य व द्वादशात्मकत्वम् । 'द्वादशात्मा दिवाकरः' इत्यभिधानात् । ते चार्यमादयः पुराणोक्ता द्रष्टव्याः । राजानस्तु 'अरिमित्रममित्रं मित्रमित्रमतः परम् । तथारिमित्रमित्रं च विजिगीषोः पुरस्सराः ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सग पचेति शेषः 'पाणिग्रहास्ततः पश्चादाक्रन्दस्तदनन्तरम् । आसारावनयोश्चैव विजिगीषोस्तु पृष्ठतः ॥ पाष्णिग्राहासारः, आक्रान्दसारश्चेत्यर्थः । अत्र चत्वार इति शेषः । एवं नव भवन्ति । विजिगीषुर्दशमः । 'अरेशच विजिगीषोश्च मध्यमो भूम्यनन्तरः । अनुग्रहे संहतयोः समर्थो व्यस्तयोर्वधे । मण्डलाद्वहिरेतेषामुदासीनो बलाधिकः ॥ इति मध्यमोदासीनाभ्यां सह द्वादश वेदितव्याः । पूर्णोपमा ॥ ८१ ॥ अन्वयः - जिगीषुः एकः द्वादशसु अपि राजसु आदित्येषु दिनकृत् इव ईहाम् अत्यजन् उदेतुं कल्पते ॥ ८१ ॥ हिन्दी अनुवाद - जिस प्रकार द्वादश ( बारह ) सूर्यों में दिन करने वाला ही सूर्य उदय को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जो राजा प्रभुशक्ति के मूल आधार 'सा' शक्ति को नहीं छोड़ता और निरन्तर प्रयत्नशील रहता है, वही अभ्युदय को प्राप्त होता है, प्रस्तुत श्लोक में पूर्णोपमालङ्कार है ।। ८१ ।। ११९ विशेष – “धाता मित्रोऽय्र्यमा रुद्रोवरुणः सूर्य एव च । मृगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमः स्मृतः, एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुर्द्वादश उच्यते ॥ " जैसे धाता, मित्र, अर्यमा, रुद्र, वरूण, सूर्य, मृग, विवस्वान्, पूषा और सविता इन बारह सूर्यों में, उत्साह-शक्ति से सम्पन्न दिनकृत् ( दिन को बनाने वाला ) सूर्य ही उदित होता है, और शेष ग्यारह सूर्य केवल संख्या- पूरक होते हैं, वैसे ही द्वादश राजाओं में ( राजमण्डल में ) उत्साह सम्पन्न एक ही राजा उन्नति करने के लिए समर्थ होता है, शेष ग्यारह राजा नहीं । अतः उत्साह सम्पन्न होना आवश्यक है । अरिमिंत्रम रेमिंत्र मित्रमित्रमतः परम् । तथाऽरिमित्रमित्रं च विजिगीषोः पुरः स्थिताः ॥ पाणिग्राहः स्मृतः पश्चादाक्रन्दस्तदनन्तरम् । आसारावनयोश्चैव विजिगीषोस्तु मण्डलम् ॥ अरेस्तु विजिगीषोस्तु मध्यमो अनुग्रहे संहतयोः समर्थो मण्डलवे हि चैतेषामुदासीनो अनुग्रहे संहतानां व्यस्तानां भूम्यनन्तरः । व्यस्तयोर्वधे ॥ बलाधिकः । च वधे प्रभुः ॥ - ( कामन्दकीय नीतिसार ८।१६ - १९ ) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० शिशुपालवधम् द्वादश राजा-(१) शत्रु (२) मित्र ( ३) शत्रु का मित्र (४) मित्र का मित्र, (५) शत्रु के मित्र का मित्र, (६) पाणिग्राह (विजिगीषु राजा की सहायता करने के लिए आनेवाला ) (७) आक्रंद (शत्रु के पीछे सहायता के लिए आनेवाला) (८) पाणिग्राहसार (सहायता करने के लिए अपने पक्षमें बुलाया हुआ)(९) आक्रन्दासार (सहायता करने के लिए शत्रु के पक्ष में बुलाया हुआ) (१०) विजिगीषु (विजय की इच्छा करने वाला) (११) मध्यम और (१२) उदासीन ॥ उपर्युक्त राजाओं में से प्रथम पाँच राजा विजिगीषु राजा की विजययात्रा में क्रमशः आगे रहते हैं और उसके पीछे क्रमशः चार राजा रहते हैं । शत्रु तथा विजिगीषु राजा की भूमिका समीपवर्ती संगठित-असंगठित एवं शत्रु-मित्र को सहायता देने एवं असंगठित शत्रु के निग्रह में समर्थ राजा 'मध्यम' कहलाता है। विजिगीषु राजा और मध्यम राजा की प्रकृति से बाहर तथा मध्यम से भी शक्तिशाली तथा संगठित या असंगठित विजिगीषु एवं मध्यम राजा की सहायता करने में समर्थ एवं असंगठित शत्रुओं के निग्रह में समर्थ राजा उदासीन कहलाता है। इस प्रकार बारह राजाओं का राजमण्डल कहलाता है । ८१ ॥ प्रसङ्ग-उद्धव जी पुनः शान्ति पक्ष का ही प्रतिपादन करते हैंउपायमास्थितस्येत्यराजा न प्रमाद्येदित्युक्तम्, अप्रमादप्रकारमाह तन्त्रावापविदा योगैमण्डलान्यधितिष्ठता । सुनिग्रहा नरेन्द्रेण फणीन्द्रा इव शत्रवः' ।। ८२ ।। तन्नेति ॥ तन्त्रावापी स्वपरराष्ट्रचिन्तनम्, अन्यत्र तन्त्रावापं शास्त्रौषधप्रयोगं च वेत्ति यस्तेन तन्त्रावापविदा । 'तन्त्रं स्वराष्ट्रचिन्तायामावापः परचिन्तने । शास्त्रौषधान्तमुख्येषु तन्त्रम् इति वैजयन्ती। योगः सामाधुपायः, अन्यत्र देवताध्यानश्च । 'योगः संनहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु' इत्यमरः । मण्डलानि स्वपराष्ट्राणि माहेन्द्रादिदेवतायतनानि च अधितिष्ठताऽतिक्रमता नरेन्द्रेण राज्ञा विषवद्येन च । 'नरेन्द्रो बार्तिके राज्ञि विषवद्ये च कथ्यते' इति विश्वः। शत्रवः फणीन्द्रा इव सुनिग्रहा। सुखेन निग्राह्याः । एवं च प्रकृताप्रकृतविषयः श्लेषः । उपमैवेति केचित् ॥ २ ॥ __ अन्वयः-तन्त्रावापविदा योगैः मण्डलानि अधिष्ठिता नरेन्द्रेण शत्रवः फणोन्द्रा इव सुनिग्रहाः ( सुखेन दमयितुं शक्याः )॥ ८२ ॥ हिन्दी अनुवाद-मणि, मन्त्र, जड़ी और औषधियों को जानने वाला, देवताओं के ध्यान-योग आदि से अपनी रक्षा के लिये निर्मित मण्डलोपर विश्राम १. अयमग्रिमश्च श्लोको मल्लिनाथीयटीकायां 'स्थायिनोऽर्थे प्रवर्तन्ते' इत्यस्थानन्तरं दृश्यते । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १२१ सर्पों को विना प्रयास के अर्थात् सरलता से पकड़ शत्रु के राष्ट्र के रहस्यों को जाननेवाला नीतिअपनी रक्षा कर शत्रुवर्ग को सरलता से ही अपने और करनेवाला सपेरा जैसे बड़े-बड़े लेता है, उसी प्रकार अपने तस्वचित् राजा सामादि-उपायों से वश में कर लेता है, प्रकृत श्लोक में उपमालङ्कार है ।। ८२ ।। प्रसङ्ग-अब उद्धवजी श्रीकृष्ण को कहते हैं कि उत्साहशक्ति के साथ मन्त्रशक्ति का होना परमावश्यक है ‘प्रज्ञोत्साहावतः स्वामी' इत्यत्रैव तावेव प्रभशक्तेमूलमित्युक्तं तदेव व्यनक्तिकरप्रचेयामुत्तुङ्गः प्रभुशक्ति प्रथीयसीम् । प्रज्ञाबलबृहन्मूलः फलत्युत्साहपादपः ।। ८३ ॥ करेति ॥ उत्तुङ्गो महोन्नतः प्रज्ञाबलं मन्त्रशक्तिरेव बृहत्प्रधानं मूलं यस्य सः, उत्साह एवं पादपः करेण बलिना प्रचेयां वर्धनीयां हस्तग्राह्यां च ' बलिस्तांशवः करा:' इत्यमरः । प्रथीयसीं पृथुतराम् । र ऋतो हला दे : - ( ६।४।१६१ ) इति रेफादेशः । प्रभुशक्ति तेजोविशेषम् । स प्रतापः प्रभावश्च यत्तेजः कोशदण्डजम्' इत्यमरः । फलति । प्रसूते इत्यर्थः । फल निष्पत्तौ । मन्त्रपूर्वक एवोत्साहः फलति । विपरीतस्तु छिन्नमूलो वृक्ष इव शुष्यतीति भावः । रूपकालङ्कारः ॥ ८३ ॥ अन्वयः—उत्तुङ्गः प्रज्ञाबलबृहन्मूल: उत्साहपादपः करप्रचेयां प्रथीयसीं प्रभुशक्ति फलति ॥ ८३ ॥ हिन्दी अनुवाद - महान् ( ऊँचा ) बुद्धिबल ( मन्त्रशक्ति ) रूपी दीर्घ जड़वाल। उत्साहरूपी वृक्ष, कर (टेक्स, राजदेय भाग ) से बढ़नेवाली ( अत्यधिक फलों से अवनत होने के कारण, हाथ से तोड़ने लायक ) बहुत बड़ी प्रभुशक्ति ( कोष, चतुरङ्गिणीसेनारूप तेज ) को फैलाता है ।। ८३ । अर्थात् मन्त्रशक्ति युक्त उत्साहरूपी वृक्ष, करों से बढी हुई राजा की प्रभुशक्ति को ( सम्पत्ति को ) उत्पन्न करता है। इसके विपरीत छिन्नमूल (बुद्धिरूपी जड़ों से रहित ) वृक्ष (उत्साह) सूख जाता हैं, प्रकृत श्लोक में रूपकालङ्कार है ॥ ८३ ॥ प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी, राजा के स्वरूप का उल्लेख करते हैं— विमृष्यकारिणस्तु विश्वमपि विधेयं स्यादिति त्रयेणाह - बुद्धिशस्त्रः प्रकृत्यङ्गो घनसंवृतिकञ्चुकः । चारेक्षणो दूतमुखः पुरुषः कोऽपि पार्थिवः ॥ ८४ ॥ बुद्धिशस्त्र इति || बुद्धिरेव शस्त्रं यस्य स बुद्धिशस्त्र: । अमोघपातित्वात्तस्या इति भावः । प्रकृतयः स्वाम्यादिराज्याङ्गानि । 'राज्याङ्गानि प्रकृतयः' इत्यमरः । ता एवाङ्गानि यस्य सः । तद्वैकल्ये राज्ञो वैकल्यं स्यादिति भावः । घना दुर्भेदा संवृतिर्मन्त्रगुप्तिरेव कञ्चुकः कवचो यस्य स तथोक्तः । मन्त्रभेदे राज्यभेदादिति Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ शिशुपालवधम् भावः । चरतीति चरः । पचाद्यच् । स एव चारो गूढपुरुषः । प्रज्ञादित्वात्स्वाथिकोऽष्प्रत्ययः । 'चारश्च गूढपुरुषः' इत्यमरः। स एवेक्षणं चक्षुर्यस्य स चारेक्षणः । अन्यथा स्वपरमण्डलवृत्तान्तादर्शनात् । 'अन्धस्येवान्धलग्नस्य विनिपातः पदे पदे' इति भावः । दूतः सन्देशहरः। 'स्यात्सन्देशहरो दूतः' इत्यमरः। स एव मुखं वाग्यस्यासो दूतमुखः । अन्यथा मूकस्येव वाग्व्यवहारासिद्धी तत्साध्यासाध्यकार्यप्रतिबन्धः स्यादिति भावः । एवंभूतः पार्थिवः कोऽपि पुरुषोऽन्य एवायम् । लोकविलक्षणः पुमानित्यर्थः । अतो राज्ञा बुध्द्यादिसम्पन्नेन भवितव्यम् । एतदेवाप्रमत्तस्वम् । अन्यथा स्वरूपहानिः स्यादिति भावः । अत्र कोऽपीति राजो लोकसम्बन्धेऽपि तदसम्बन्धोक्त्या तद्रूपातिशयोक्तिः । सा च बुद्धिशस्त्र इत्यादिरूपकनिर्दी देति तेन सहाङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः ।। ८४ ॥ अन्वयः---बुद्धिशम्नः प्रकृत्यङ्गः घनसंवृतिकन्चुकः चारेक्षणः दूतमुखः पार्थिवः कः अपि पुरुषः (राजोच्यते नान्य इत्युक्तं भवति ) ॥ ८४ ॥ हिन्दी अनुवाद-( उद्धवजी कहते हैं कि ) राजा एक अलौकिक पुरुष है-- जिसका शस्त्र तो बुद्धि है, प्रकृति ( स्वामी, मंत्री, सुहृत्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग, तथा सेना आदि राज्य के सात अङ्ग) हो शरीर है, मन्त्र को गुप्त रखना ही कवच है, गुप्तचर ही नेत्र हैं और सन्देश हर (दूत ) ही मुख है, तात्पर्य यह है कि मंत्रशक्ति सम्पन्न पुरुष ही राजा कहा जाता है । ( अर्थात् राजा को बुद्धि सम्पन्न होना चाहिए) प्रकृत श्लोक में संकरालंकार है ॥ ८४ ॥ प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी बलराम के द्वारा पूर्व कथित वचन "श्लोक २-५४-दण्ड द्वारा साध्य रिपु के प्रति साम का प्रयोग करना हानिकर होता है" का उत्तर देते हैंचतुर्थोपायसाध्य इत्यादिना यत् क्षात्रमेव कर्तव्य मुक्तं, तत्रोत्तरमाह तेजः क्षमा वा नैकान्तात् कालग्रस्य महीपतेः। नैकमोजः प्रसादो वा रसभाग-विदः कवेः ॥ ८५॥ तेज इति ॥ कालं जानातीति कालज्ञस्तस्य । अयं काल इति विदुष इत्यर्थः। आतोऽनुपसर्गे कः, ( ३।२।३ ) न तु 'इगुपध'-(३।१।१३५) इत्यादिना कविधिः । समासे कर्मोपपदस्यव वलवत्त्वभाषणात् । तस्य महीपतेस्तेजः क्षात्रमेवेति वा एकान्तं नियमो न नास्ति । किन्तु यथाकालमुभयमप्याश्रयणीयमित्यर्थः। तथा हि-रसान् शृङ्गारादीन भावान् निर्वेदादींश्च वेत्ति यस्तस्य रसभावविदः । भावग्रहणं सम्पाता. यातम् । कवेः कवितुरेक केवलमोजः प्रौढप्रवन्धत्वं वा एकः प्रसादः सुकुमारप्रबन्धत्वं वा न । किन्तु तत्र हि रसानुगुण्येन यथायोग्यमुभयमप्युपादेयम् । दृष्टान्तालखारः ॥ ८५ ॥ १. नकान्तम् । २. रसभाव । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १२३ सभ्वयः - कालज्ञस्य महीपतेः तेजः क्षमा वा एकान्तं न, रसभावविदः कवेः एकम् ओजः प्रसादो वा न ॥ ८५ ॥ हिन्दी अनुवाद - शृङ्गारादि रस और भावों का ज्ञाता कवि अपने प्रबन्धरस क अनुकूल जैसे कभी ओजगुणयुक्त' और कभी प्रसादगुणयुक्त प्रबन्ध की रचना करता है, वैसे ही समय का ज्ञाता राजा भी कभी शान्ति और कभी उग्रताका रूप धारण करता है ।। ८५ ।। अर्थात् अवसर को जाननेवाले राजा को समयानुसार कभी तेज का ( दण्ड ) याचमा (मृदुता ) का प्रयोग करना चाहिये । विशेष — कौटिल्य ने कहा है कि नीतिज्ञ व्यक्ति को चाहिये कि वह देश-काल का भली-भाँति विचार करले । "नीतिशो देशकालौ परीचेत ॥ ८५ ।। " प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी बलराम के पूर्व कथित इस वचन - " पुनः पुनः विरोध करने वाले को कौन क्षमा करेगा ?” २/४३-- -- का उत्तर देते हैंयदुक्तं 'क्रियासमभिहारेण विराध्यन्ते क्षमेत कः' इति, तत्रोत्तरमाह - कृतापराधोऽपि परैरनाविष्कृतविक्रियः । असाध्यः कुरुते कोपं प्राप्ते काले गदो यथा ॥ ८६ ॥ कृतापचार इति ॥ परैः शत्रुभिः कृतः अपचारोऽपकारः अपथ्यं च यस्य सः, तथाप्यनाविष्कृतविक्रियोऽन्तर्गृढविकारः । अत एवासाध्योऽप्रतिसमाधेयः सन् गदो यथा रोग इव । ' इववद्वा यथाशब्द' इति दण्डी । काले बलक्षयावसरे प्राप्ते सति कोपं कुरुते । प्रकुप्यतीत्यर्थः । तदुक्तम् 'वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालविपर्ययः । तमेव चागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मना ॥ इति ॥ ८६ ॥ १. ओजः समासभूयस्त्वं मांसलं पदडम्बरम् ।" बन्धदाढर्य मित्यर्थः । २. "प्रसादो बन्ध थिल्यं रचना सरला तथा " । ३. मनुने कहा है कि राजा प्रयोजन के अनुसार कार्यं तथा शक्ति का वास्तविक विचार कर कार्य सिद्धि के लिए बार-बार अनेक रूप धारण करता है । ७ /१० ३. पचारोऽपि । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् अन्वयः परैः कृतापराधः अपि अनाविष्कृतविक्रियः असाध्यः गदः यथा काले प्राप्ते कोपं कुरुते ॥। ८६ ।। १२४ हन्दी अनुवाद - जैसे बाहर प्रकट न होकर भीतर ही भीतर छिपा हुआ रोग सारे शरीर में व्याप्त होकर कुपित हो जाता है वैसे ही शत्रु के द्वारा अपकृत होनेपर भी उससे व्यथित हुए अपने हृद स्थ भाव को प्रकट न कर अवसर की प्रतीक्षा करता शान्त बैठा हुआ बुद्धिमान् पुरुष भी अवसर पाकर कुपित होता है || ८६ ॥ विशेष - "वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत् कालविपर्ययः । तमेव चागते काले भिन्द्याद्धरमिवाश्मना ।" ( अपनी निर्बलावस्था में शत्रु को कंधोंपर रखना चाहिए, और अपना अनुकूल समय आनेपर उसपर ( शत्रुपर ) प्रहार कर देना चाहिए ।। ) चाणक्य ने भी कहा है- " शत्रु छिद्रे प्रहरेत् ।" जहाँ भी शत्रु की दुर्बलता दिखाई दे, वहीं उसपर प्रहार करना चाहिये ।। ८६ ।। प्रसङ्ग - उद्धवजी कहते हैं कि - विजिगीषु राजा सर्वप्रथम इमा धारण करें, क्योंकि उसके द्वारा तेज की तेजस्विता बढ़ती है और विजय की प्राप्ति भी— इतश्च क्षन्तव्यमिदानीमित्याह मृदुव्यवद्दितं तेजो भोक्तुमर्थान्प्रकल्पते । प्रदीपः स्नेहमादत्ते दशया ह्यन्तरस्थया ॥ ८७ ॥ मृद्वति ॥ मृदुना मृदुवस्तुना व्यवहितमन्तर्हितं तेजः अर्थान् भोक्तुं प्रकल्पते प्रभवति । तथा हि-प्रदीपोऽभ्यन्तरस्थया मध्यस्थया दशया वर्त्या । ' दशा वर्ताववस्थायां स्नेहस्तलादिके रस' इति विश्वः । स्नेहं तैलादिकमर्थमादत्ते । अन्यथा स्वयमेव निर्वापादिति । ततः क्षान्तिपूर्वमेव क्षात्रं फलतीति सर्वथा प्रथमं क्षन्तव्यमिति भावः । विशेषेण सामान्यसमर्थनादर्थान्तरन्यासः ॥ ८७ ॥ अन्वयः - मृदु व्यवहितं तेजः अर्थात् भोक्तुम् प्रकल्पते, प्रदीपः अभ्यन्तरस्थया दशया स्नेहम् आदत्ते ॥ ८७ ॥ हिन्दी अनुवाद - जिस प्रकार प्रदीप भी कोमल वर्त्तिका (बत्ती ) को मध्य में रखकर ही उसके द्वारा तेल को भोगता है, उसी प्रकार राजा भी मृदुस्वभाव से राज्य आदि सम्पत्ति को भोग सकता है ।। ८७ । विशेष - मनु ने कहा है- "विनययुक्त राजा कभी नष्ट नहीं होता" "विनीतारमा हि नृपतिर्न विनश्यति कर्हिचित् । " ( ७/३९ मनु ) तथा कौटिल्य कहते हैंसे शत्रु को भी जीता जा सकता है "शत्रुं जयति सुवृत्तता" कामन्दक सद्ग्यवहार १. वभ्यन्तर । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १२५ का भी यही कहना है कि तीचणदण्ड से प्रजा उद्वेजित अर्थात् विरक्त हो जाती है, और मृदुता से राजा ही का तिरस्कार होने लगता है, इस हेतु राजा तीचणता एवं मृदुता से युक्त दण्ड का विधान करे— उद्वेजयति तीचणेन मृदुना परिभूयते । दण्डेन नृपतिस्तस्माद्युक्तदण्डः प्रशस्यते || (का० नी० सा० २ ३७ ) ||८७ प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी भाग्य तथा पुरुषार्थ दोनों का अवलम्बन ( ग्रहण) करने के लिये कहते हैं तर्हि पौरुषं माभून्नित्यं क्षममाणस्य देवमेव श्रेयो विधास्यतीत्याशङ्कयाह नालम्बते देष्टिकतां न निषीदति पौरुषे । शब्दार्थो सत्कविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते ॥ ८८ ॥ नालम्बते इति ॥ विद्वानभिज्ञः दिष्टे मतिर्यस्येति दैष्टिकः । देवप्रमाणक इत्यर्थः । 'देव दिष्टं भागधेयम्' इत्यमरः । 'अस्ति नास्तिदिष्टं मतिः' ( ४|४|६० ) इति ठक् । तद्भावं दैष्टिकतामेव नालम्बते । सर्वथा यद्भविष्यस्य विनाशादिति भावः । तथा पौरुषे केवलपुरुषकारेऽपि । युवादित्वादण् प्रत्ययः । न निषीदति न तिष्ठति । देवप्रातिकूल्ये तस्य वैफल्यादिति भावः । किन्तु सत्कविः सत्कविता शब्दार्थाविव । तयोः काव्यशरीरत्वादिति भावः । यथाह वामनः - 'अदोषी सगुणी सालङ्कारी शब्दार्थौ काव्यम्' इति । द्वयं पौरुषं देवं चापेक्षते । अतः पौरुषमप्यावश्यकम्, किन्तु काले कर्तव्यमिति विशेषः । पौरुषाऽदृष्टयोः परस्परसापेक्षत्वादिति भावः ॥ ८० ॥ अन्वयः - विद्वान् दैष्टिकातां नालम्बते पौरुपे च न निपीदति । सत्कविः शब्दार्थौ इव द्वयम् अपेक्षते ॥ ८८ ॥ हिन्दी अनुवाद - विद्वान् पुरुष देव और पुरुषार्थं दोनों का आश्रय ( ग्रहण ) करता है । अर्थात् केवल देव के भरोसे भी नहीं रहता और न केवल पुरुषार्थ के ही भरोसे रहता है । जैसे महाकवि शब्द और अर्थ दोनों का ही आश्रय लेता है । केवल एक का नहीं । अतः उद्धवजी कहते हैं कि समयानुसार पुरुषार्थ आवश्यक है, किन्तु वह भी असमयपर प्रयुक्त करनेपर हानिकर सिद्ध होता है ॥ ८८ ॥ प्रसङ्ग - उद्धवजी पुनः क्षान्ति ( शान्ति ) पक्ष का ही प्रतिपादन करते हैं - अथ क्षान्तेः फलमाह - स्थायिनोऽर्थं प्रवर्तन्ते भावाः सञ्चारिणो यथा । भूयांसस्तथा नेतुर्महीभुजः ' ॥ ८९ ॥ रसस्यैकस्य १. महीभृतः । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ शिशुपालवधम् स्थायिन इति ॥ रस्यते स्वाद्यते इति रसः शृङ्गारादिः, रसतेः स्वादनार्यत्वाद्रस्यन्त इति ते रसा इति निर्वचनात् । तस्य रसस्य रसीभवतः स्थायिभावस्य रत्यादेः । 'रतिहसिन क्रोधच शोकोत्साहभयानि च । जुगुप्सा विस्मय चपाः स्यायिभावाः प्रकीर्तिताः' । इत्युक्तरवात् । एकस्यैवायें स्वादुभावरूपे प्रयोजने भूयांसः सञ्चारिणो व्यभिचारिणो भावा निदादयः । विभावादीनामुपलक्षणमे नत् । यया प्रवर्तन्ते । तदुक्तम् - 'विभावरनुभावश्च सात्त्विक भिचारिभिः । आनीयमानः स्वादुत्वं स्थायिभावो रसः स्मृतः' । इति । तथा स्थायिनः स्थिरस्य । क्षारया कालं प्रतीक्षमाणस्येत्यर्थः । एकस्यैव नेतु:जिगीषो यकम्पार्थे प्रयोजने भूर्यासो महीभृतो राजानः प्रवर्तन्ते । स्वयमेवास्य कायं साधयन्तीत्यर्थः। ततः क्षन्तव्यमिति भावः । केचित्तु भावपदस्यापि रसपरत्वमाथिस्य यथा सञ्चारिणः प्रसङ्गादागन्तुका अन्ये रसाः स्थायिनः स्थिरस्य कस्य मुख्यस्यायें प्रवर्तन्ते, तथाऽस्मिन्नेष काव्ये वीरस्य शृङ्गारादय इति व्याचक्षते । उपमालङ्कारः ॥ ८६॥ अन्वयः-रसस्य ( स्थायिनः ) एकस्य अर्थे भूयांसः संचारिणः भावाः यथा प्रवर्तन्ते तथा स्थायिनः नेतुः अर्थे महीभृतः ( प्रयतन्ते ) ।। ८९ ॥ हिन्दी अनुवाद-जैसे सञ्चारीभाव रसपदवी को प्राप्त होनेवाले किसी स्थायिभाव के सहायक हो जाते हैं, उसी तरह स्थायी (शान्ति से अवसर की प्रतीक्षा करने वाला ) विजिगीषु नेता-राजा के भी अन्य बहुत से राजा-गण सहायक हो जाते हैं। प्रकृत श्लोक में उपमालङ्कार है ।। ८९ ।। विशेष-नारादि नवरस और उनके रति आदि नव स्थायीभाव इस प्रकार हैं-(.) भृङ्गार, (२) वीर, ( ३ ) वीभत्स (४) रौद्र (५) हास्य (६) अद्भुत, (७) भयानक ( ८ ) करुण (९) और शान्त । स्थायी भाव-“रतिहासश्च क्रोधश्च शोकोत्साहभयानि च । जुगुप्साविस्मयशमाः स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ॥ उपर्युक्त नव रसों के नव स्थायीभाव, सवारी अर्थात् ग्यभिचारीभावों से पुष्ट होकर भास्वाय बना दिये जाते हैं अर्थात् रसरूप में प्रतीत होने लगते हैं । तात्पर्य यह है कि शारादि रस की सिद्धि के लिए जैसे सबारी आदि (३३) भाव सहायक हो जाते हैं, वैसे ही शान्ति से समय की प्रतीक्षा में स्थिरभाव से बैठने वाले विजिगीष राजा के अन्य शेष ग्यारह राजा भी उसकी कार्यसिदि में सहायक बन जाते हैं ॥ ८९ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १२७ प्रसन-उद्धवजी अब पुनः शान्ति पक्ष में गुणान्तरों को कहते हैंक्षान्तिपक्ष एव गुणान्तरमाह अनल्पत्वात्प्रधानत्वाद्वंश' स्येवेतरे स्वराः। विजिगीपोर्नपतयः प्रयान्ति परिवारताम् ॥ ९०॥ अनल्पत्वादिति ॥ अनल्पत्वात्प्रज्ञोत्साहाधिकत्वादत एघ प्रधानत्वान्मण्डलाभिज्ञत्वात्, अन्यत्रानल्पत्वादुच्चस्तरत्वात् प्रधानत्वान्नायकस्वरत्वाच्च वंशस्य वंशवाद्य. स्वरस्य इतरे स्वरा वीणागानादिशब्दा इव । अथ वा आश्रयत्वाद्वंश इव वंशस्तत्कालविहितः स्वर उच्यते । तस्य स्वरस्येतराः षड़जादय: विजिगीषोर्न पतयोऽन्ये मण्डलपरिवतिनो राजानः परिवारतां पोष्यतां प्रयान्ति । तरकार्यमेव साधयन्तीत्यर्थः । तस्माद्विमृष्य कर्तव्यमित्यर्थः ॥ १० ॥ अन्वयः-अनरूपत्वात् प्रधानत्वात् घंशस्य इतरे स्वराः इव विजिगीपोः नृपतयः परिवारताम् प्रयान्ति ॥ ९० ॥ हिन्दी अनुवाद-प्रज्ञा ( बुद्धि ) और उत्साह की अधिकता से तथा मण्डलाभिन्न होने से प्रधान पदवी को प्राप्त विजिगीषु राजा के निकटवर्ती अन्य राजालोग वैसे ही सहायक हो जाते हैं जैसे बाघ विशेष के स्वर बांसुरी के प्रधान स्वर का अनुसरण करते हुए गायन को सफल बनाते हैं। अर्थात् अन्य स्वर प्रधान स्वर के परिवारव को प्राप्त होते हैं ॥१०॥ प्रसङ्ग-अब उद्धवजी शक्तिशाली एवं व्यापक प्रभुसत्ता सम्पन्न राजा का महत्व बताते हैं अप्यनारभमाणस्य विभोरुत्पादिताः परैः। वजन्ति गुणतामर्थाः शम्दा इव विहायसः ॥ ९१ ॥ अपोति ॥ किञ्च अनारभमाणस्य स्वयमकिञ्चित्कुर्वाणस्यापि विभोः प्रभोः व्यापकस्य च परैरन्यनृपतिभिः शङ्खभेर्यादिभिश्च उत्पादिताः, सम्पादिताः जनिताश्वार्थाः प्रयोजनानि विहायस आकाशस्य शब्दा इव गुणतां विशेषणतां कारणत्वाद् गुणवं व्रजन्ति । शक्तो हि राजा स्वयमुदासीन एवाकाशवत्स्वमहिम्नव कार्यदेशं व्याप्नुवन् शब्दानिव सर्वार्थानपि स्वकीयतां नयतीत्यर्थः। 'गुणस्त्वावृत्तिशब्दादिज्येन्द्रिया मुख्यतन्तुषु' इति वैजयन्तिी ॥ २१ ॥ १. दंश । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ शिशुपालवधम् अन्वयः-अनारभमाणस्य अपि विभोः परैः उत्पादिताः अर्थाः, विहायसः शब्दाः इव गुणतां प्रजन्ति ॥ ९१ ॥ हिन्दी अनुवाद-शक्तिशाली पराक्रमी राजा की प्रभुता के कारण लोग उसके दूतों या अन्य राजाओं के द्वारा सम्पादित कार्यों को राजा के ही कार्य समझते हैं, यद्यपि राजा स्वयं कुछ भी करता नहीं। जैसे व्यापक आकाश कुछ भी करता नहीं, वह केवल विभु मात्र है। इसलिये भेरी आदि के शब्द आकाश के ही गुण कहे जाते हैं ॥ ९१ ॥ विशेष-नैय्यायिक आदि दार्शनिक आकाश को विभु एवं शब्द गुण वाला मानते है 'शब्दगुणक्रमाकाशम्' ( तर्कभाषा)। आकाश में एक मात्र विशेष गुण शब्द ही है। प्रकृत प्रसङ्ग में कवि माघ ने दार्शनिक प्रतिभा का परिचय दिया है। कवि का तात्पर्य यह है कि विभु अर्थात् सर्व-व्यापी राजा कुछ भी न करते हुए अन्यान्य राजाओं के द्वारा सम्पादित कार्यों का समावेशन स्वयं में कर लेते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे शंख भेरी द्वारा उत्पन्न शब्द, विभु-निष्क्रिय आकाश में उत्पन्न शब्द माने जाते हैं । इस हेतु राजा को सर्वव्यापी होना आवश्यक है ॥११॥ प्रसङ्ग --- उद्धवजी अब तेजस्विता के महत्व का प्रतिपादन करते हैं यातव्यपाणिग्राहादिमालायामधिकातिः । एकार्थतन्तुप्रोतायां नायको नायकायते ॥ ९२ ॥ यातव्येति ॥ किञ्च एकार्थ एकप्रयोजनं स एव तन्तुः सूत्रं तत्र प्रोतायाम् एकाभीष्टाभिलाषिण्यामित्यर्थः । प्रपूर्वाद्वेषः कर्मणि क्तः । 'वचिस्वपि ( ६।१।१५) इत्यादिना सम्प्रसारणम् । यातव्योऽभिषेणयितव्योऽरिः पाणिं गृह्णातीति पाणिग्राहः पृष्ठानुधावी । कर्मण्यण । तावादी येषां ते पूर्वोक्ताः पङ्क्तिशः स्थितास्तएव माला रत्नमालिका तस्यामधिकातिमहातेजा नायकः शक्तिसम्पन्नो जिगीषु यकायते मध्यमणिरिवाचरति । स्वयमेव सर्वोत्कर्षेण वर्तते इत्यर्थः । तस्माद्विमृष्य कर्तव्यमिति भावः । 'नायको नेतरि श्रेष्ठे हारमध्यमणावपि' इति विश्वः । 'उपमानादाचारे' ( ३।१।१० ) इति क्यङ् । 'अकृत्सार्वधातुक' (७४।२५) इति दीर्घः। नायकायते इत्युपमा, अन्यथाऽनुशासनविरोधात् । एकार्थतन्त्वित्यत्र तु रूपकम् । अधिष्ठानतिरोधानेनारोप्यमाणतन्तुत्वस्यवोद्भटत्वात्प्रोतत्वसिद्धेस्तदेव युक्तम् । तबलात्पाणिप्राहादिमालायामित्यत्रापि रूपकमेव । तदनुप्राणिता चेयमुपमेत्यङ्गाङ्गिभावेन तयोः सङ्करः ॥ ६२ ॥ ___ अन्वयः-एकार्थतन्तुप्रोतायाम् यातव्य पाणिग्राहादिमालार्याम् अधिकद्युतिः नायकः नायकायते ॥ ९२ ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १२६ हिन्दी अनुवाद-यातव्य ( चढ़ाई किये जाने योग्य-शत्रु ) और पाणिग्राह (पीछे रक्षा करनेवाला ) आदि राजाओं को माला ( पंक्ति ) में अत्यधिक तेजस्वी राजा ही प्रधान समझा जाकर शोभित होता है। जैसे मणिहार का मध्यस्थ मणि अन्य मणियों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ होने के कारण नायकमणि ( प्रधानमणि) कहा जाता है। प्रकृत श्लोक में रूपक और उपमा का अङ्गाङ्गिभाव होने से सङ्करालकार है।। १२ ।। विशेष- पृथ्वी पर सर्वाधिक तेजस्वी एवं शक्ति सम्पन्न राजा ही सार्वभौम सम्राट होता है। अतः तेजस्विता को ग्रहण करना चाहिये । प्रसङ्ग-अतः तेज एवं शक्ति के चाहने वाले राजा को षड्गुणरूपी रसायन का सेवन करना चाहियेअथ विमृष्यकरणप्रकारमाह पाड्गुण्यमुपयुञ्जीत शक्त्यपेक्षं' रसायनम् । भवन्त्यस्यैवमलानि स्थानूनि बलवन्ति च ।। ९३ ।। पाडगुण्यमिति ।। शक्तिप्रभावादित्रयं बलं चापेक्षत इति शक्त्यपेक्षः सन् । पचायच् । शक्तिले प्रमावादो' इति विश्वः । षड्गुणा एव षाडगुण्यं सन्धिविन. हादिषट्कम् । चातुर्वर्यादित्वात्स्वार्थे प्यञ् प्रत्ययः । ददेव रसायनमौषधविशेषमुपयुजोर सेवेत । 'रसायनं विहङ्गेऽपि जराव्याधिमिदोषधे इति विश्वा। एवं सत्यस्य प्रयोक्तुरङ्गानि स्वाम्यादीनि । 'स्वामी जनपदोऽमात्यः कोशो दुर्गबलं सुहृत् । राज्यं सप्तप्रकृरयङ्ग नीतिज्ञाः सम्प्रचक्षते ।' इति । गावागि च स्यास्न नि स्थिराणि । कालान्तरक्षमाणीत्यर्थः । 'ग्लाजिस्थश्च-' (३।२।१३६) इति गस्नुः : बलवरित च परमोडाक्षमाणि च भवन्ति । श्लिष्टप. रम्परितरूपकम् ।। ६३ ॥ अन्वयः-शस्यपेक्षः ( सन् ) षाड् गुष्यं रसायनम् उपयुम्जीत, एवम् भस्य अङ्गानि स्थास्नूनि बलवन्ति च भवन्ति ।। ९३ ।। हिन्दी अनुवाद- प्रभाव, उत्साह और मन्त्ररूप शक्ति चाहने वाले राजा को सन्धि-विग्रहादि षड्गुणरूपी रसायन का सेवन करना चाहिये। ऐसा करने से ( रसायन का सेवन करने वाले व्यक्ति ) राजा के समस्त अङ्ग ( स्वामी अमात्यादि) (शरीर के समस्त अवयव ) स्थिर एवं शक्ति सम्पन्न ( शत्रुपीडन में समर्थ) होते हैं । प्रस्तुत श्लोक में श्लिष्ट परम्परित रूपकालङ्कार है ।। ९३ ॥ और इनके अभाव में भङ्ग शिथिल हो जाते हैं । १. शक्त्यपक्षो। ६ शि० व० Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० शिशुपालवधम् विशेष - निश्चित ही शरीर सुदृढ बनाने के लिये नीतिशास्त्रोक्त रसायन ( षड्गुण- सन्धिविग्रहादि का ) ( आयुर्वेदोक्त चन्द्रोदयादि, स्वर्णसिन्दुरादि ) का सेवन करना चाहिये, जिससे - -यह लाभ होता है"मतिभेदतमस्तिरोहिते गहने कृत्यविधौ विवेकिनम् ॥ सुकृतः परिशुद्ध आगमः कुरुते दीप इवार्थदर्शनम् ॥ राज्य के सात अङ्ग ये हैं- "स्वामी जनपदोऽमात्यः कोशो दुर्गबलं सुहृत् । राज्यं सप्तप्रकृत्यङ्ग नीतिज्ञाः सम्प्रचक्षते ॥ " ( उक्त श्लोक में कवि ने आयुर्वेद के सिद्धान्त की ओर संकेत किया है ) प्रसङ्ग – प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी कहते हैं कि बलाबल का विचार कर कार्य करने से सफलता मिलती है । स्थाने शमवतां शक्त्या व्यायामे वृद्धिरङ्गिनाम् । अयथाबलमारम्भो क्षयसम्पदः ।। ९४ ॥ निदानं स्थाने इति । किञ्च स्थाने शक्यविषये शमवतां क्षमावतामङ्गिनां राज्ञां शरीरिणां च शक्त्या प्रभावाद्यनुसारेण बलेन च व्यायामे व्यापारे षाड्गुण्यप्रयोगे गमनादौ च । सतीत्यर्थः । वृद्धिरुपचयः । राज्यस्य शरीरस्य चेति भावः । विपक्षे बाधकमाह - अयथाबलं शक्त्यतिक्रमेण । 'यथा सादृश्ये' २०२७ इत्यन्ययीभावे नञ्समासः । आरम्भो व्यायामः क्षयसम्पदोऽत्यन्त हानेनिदानमादिकारणम् । बङ्गानामिति भावः । तस्मादस्माकमकस्माच्च द्यास्कन्दन म श्रेयस्करमिति भावः । अत्र विशेषस्यापि क्लिष्टत्वात् शब्दशक्तिमूलो वस्तुना वस्तुध्वनिः । अतो द्वयानामङ्गिनामौपम्यं च गम्यते इति संक्षेपः ॥ ६४ ॥ अन्वयः -- स्थाने शमवताम् अङ्गिनाम् शक्त्या व्यायामे वृद्धिः (भवति) अयथाबलम् आरम्भः ( यः, सः ) क्षयसम्पदः निदान ॥ ९४ ॥ हिन्दी अनुवाद -मा-शील राजा अवसर देखकर अपनी / शक्ति - ( प्रभाव, उत्साह और मन्त्ररूप ) - के अनुसार सन्ध्यादि षड्गुणों का यदि प्रयोग करे, तो उसके राज्य - ( स्वामी, अमात्यादि सात अंगों ) की वृद्धि ( शक्ति सम्पन्नता ) होती है, और यदि अपने बल को न समझता हुआ षड्गुणों का प्रयोग करे, तो उसके राज्य का सप्त अंगों का ) य होता है। जैसे व्यायामशील व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार यदि व्यायाम करता है तो उसकी शारीरिक शक्ति बढ़ती है और उसका Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः शरीर सुदृढ होता है, इसके विपरीत स्थिति में उसका बल क्षीण होता है ।। ९४ ॥ विशेष-उपर्युक्त श्लोक में कवि ने व्यायाम की उपयोगिता की ओर संकेत किया है । आयुर्वेद भी व्यायाम पर बल देता है। शक्ति के अनुसार व्यायाम करना चाहिए, जिससे शरीर की वृद्धि होती है, किन्तु विपरीत अवस्था में तो शरीर की शक्ति को बढ़ाने वाला वही व्यायाम क्षय का कारण होकर शरीर को दुर्घल और रोगों का घर बना देता है ।। ९४ ॥ प्रसन-अप उद्धवजी शिशुपाल की शक्ति की ओर संकेत करते हैं। फलितमाह तदीशितारं चेदीमां भवांस्तमवमस्त मा। निहन्त्यरीनेकपदे य उदात्तः स्वरानिव ।। ९५ ॥ तदिति ॥ तत्तस्मादशक्या यस्याकायंत्वात्तं चेदीनामिशितारं शिशुपालं भवाम्मा वमस्त नाव मन्यस्व । मन्यतेसङि लुङ् । अनुदात्तत्वान्ने गगमः । कुठःयश्वैद्य : उदातः स्वराननदात्तानि वारीने कपदे एकस्मिन् पदन्यासे सुप्तिङन्तलक्षणे च निहन्ति हिनस्ति नोचः करोति च । अतिशूरत्वात् , अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (१।१५८) इति परिभाषाबलाच्चेति भावः ।। ६५ ॥ अन्वयः - ( तस्मात् ) तत् चेदीनाम् ईशितारम् (तं चैy ) भवान् (हे कृष्ण ! ) मा अवमंस्त, ( यश्चैवं यथा) यः उदात्त: स्वरान् इव अरीन् एकपदे निहन्ति ।। ९५ ॥ हिन्दी अनुवाद-अतः चेदिनरेश शिशुपाल को आप साधारण समझकर उसकी उपेक्षा ( अनहेलना ) न करें, वह बहुत शक्तिशाली है। वह एक ही आक्रमण में अनेक शत्रओं को नष्ट कर सकता है। जैसे उदात्त स्वर एक पद में अन्य स्वरों को नष्ट अनुदात्त (नीच) निहन्ति कर देता है ।। ९५ ।। विशेष - वैदिक व्याकरण के नियमानुसार उदात्त स्वर वाले अक्षर से भिन्न अक्षर, अनुदात्त हो जाते हैं 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्-६-१-१५८ अष्टा० ॥ ९५ ॥ कवि 'ध्याकरण शास्त्र' की परिभाषा के व्याज से प्रकृत अभिप्राय को स्पष्ट करते हैं कि जैसे उदात्त स्वर एक ही पद में अन्य स्वरों को अनुदात्त कर देता है, अर्थात् - 'निहन्ति', उसी प्रकार शिशुपाल उदात्त ( महाबलशाली ) होकर शत्रुओं को नष्ट कर देगा । इस हेतु शीघ्रता में शिशुपाल की उपेक्षा करना ठीक नहीं है ॥ ९५ ॥ __ प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी शिशुपाल को राजयक्ष्मारोग कहकर उसकी भयंकरता की ओर संकेत करते हैं Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ शिशुपालवधम न चाय मे काको फि नः करिष्यतीति मन्तव्यमित्याह मा वेदि यदसावेको जेतम्यश्चेदिराहिति । राजयक्ष्मेव रोगाणां समूहः स महीभृताम् ॥ ९६ ॥ मा वेदीति ।। असौ चेदिराट् एकः एकाकी अतो जेतव्यः सुजय इति मा वेदि मा ज्ञायि । वेत्तेः कर्मणि माङि लुङ् । यन् यस्मात्स चेदिराट् , राज्ञश्चन्द्रस्य यक्ष्माराजा चासो यक्ष्मेति वा राजयक्ष्मा क्षयरोगो रोगाणामिव महीभृता समूहः समष्टिरूपः । यथाह वाग्भट: अनेक रोगानुगतो बहु रोगपुर:सरः । राजयक्ष्मा क्षयः शोषो रोगराडिति च स्मृतः ॥ नक्षत्राणां द्विजानां च राज्ञोऽभूद्यदयं पुरा। यच्च राजा च यक्ष्मा च राजयक्ष्मा ततो मतः ॥' (नि. स्था० अ० ५) इति । अतो दुर्जय इति भावः । एतेन 'चिरस्य मित्रव्यसनी सुदमो दमघोषजः' (२०६०) इति निरस्तम् ।। ६६ ।। अन्वयः- हे कृष्ण !! असौ चेदिराट एकः "अतः" जेतव्य इति मा वेदि, यत् सः रोगागाम् “मध्ये" राजगचमा इव महीभतां समूहः ।। ९६ ॥ हिन्दी अनुवाद-हे कृष्ण ! यह चेदिनरेश ( शिशुपाल) अकेला है, ( अतः इसे ) जीतना सरल है, यह न समझें, क्योंकि शिशुपाल राजाओं का समूह है, जैसे रोगों का समूह राजयचमा ( होता है।) ।। ९६ ॥ ( अतः यह दुर्जय है।) विशेष-जिस प्रकार ज्वर, खाँसी, रक्तपित्तादि जन्य अनेक रोगों के समूह का नाम राजयचमा है, उसी प्रकार शिशुपाल अनेक राजाओं का समूह है । वाग्भट्टने कहा है अनेकरोगानुगतो बहुरोगपुरःसरः । राजयचमा क्षयः शोषो रोगरादिति च स्मृतः ॥ नक्षत्राणां द्विजानां च राज्ञोऽभूद्यदयं पुरा । यच्च राजा च यदमा च राजयक्ष्मा ततो मतः ।। (नि. स्था. अ. ५) ॥ ९६ ॥ प्रसन्न-प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी शिशुपाल के द्वारा उपकृत बाणासुर के विषय में कहते हैंअथास्य सर्व राजसमप्टितामेव द्वाभ्यां व्याचष्टे सम्पादितफलस्तेन सपक्षः परभेदतः । कार्मुकेणेव गुणिना बाणः सन्धानमेष्यति ॥९७ ॥ १. परभेदनः । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १३३ सम्पादितेति ।। सम्पादितं फलं लामो वाणाग्रं च यस्य सः । 'फलं लाभशराप्रयोः इति शाश्वतः । सपक्षः समुहृद् श्रादिपत्रयुतश्च । परेषां भेदकः शत्रुविदारणः । बाणो बाणासुरः । शरश्च । गुणिना शौर्यादिगुणवता अधिज्येन च तेन पंगेन । कर्मणे प्रभवति कार्मुकम् । कर्मण उकन (५।१।१०३) । तेनैव सम्धानं सन्धि मेष्यति । अतो नं काकोति भावः । अत्राप्युपमा श्लेषो वा मतभेदात् ।। ६७ ॥ अन्वयः-सम्पादितफलः सपषः परभेदनः बाणः गणिना तेन (सह) ( गुणिना ) कार्मुकेण इव सन्धानम् एष्यति ॥ ९७ ॥ हिन्दी अनुवाद-शिशुपाल के द्वारा उपकृत ( लाभान्वित ) पक्ष (सहायकों) सहित और शत्रओं को मारने में समर्थ बाणासुर गुणी शिशुपाल के साथ सहयोग करेगा । जैसे - फलान्वित ( फल से युक्त बाण का अग्रभाग) सपक्ष ( कंकपत्ररूप पंखों से युक्त ) और शत्रुओं को मारने में समर्थ बाण ( बाणासुर और धनुष के पक्ष में तीर ) गुणी ( गुणवान् और धनुष के पक्ष में प्रत्यम्चा सहित ) धनुष के साथ सन्धान को प्राप्त होता है। प्रस्तुत श्लोक में मतभेद से उपमा एवं श्लेष अलङ्कार माना जाता है ॥ ९७ ॥ प्रसङ्ग-यहां कवि माघ ने शिशुपाल के अन्य पहायकों के नामों का उल्लेख किया है ये चान्ये कालयवनशाल्वरुक्मिद्रुमादयः। तमःस्वभावास्तेऽप्येनं प्रदोषमनुयायिनः ॥९८॥ ये चेति ॥ ये चान्ये कालयवन शाल्वरुक्मिद्रुमादयो राजानस्तमःस्वभावास्तमो. गुणात्मका अत एव तेऽपि प्रदोषं प्रकृष्टदोषम् । 'प्रदोषो दुण्ट रात्र्यं शौ' इति वैजयन्ती । तामसमेवनं चैद्य मनुयायिनोऽनयास्यन्ति । सादृश्यादिति भावः । 'भविष्यति गम्यादयः' (३।३।३) इति णिनिर्भदिष्यदर्थे । 'अकेनोर्भविष्यदाघमण्यंयो:' इति षष्ठोप्रतिषेधाद् द्वितीया । यथा ध्वान्तं रजनी मुखमनुयाति तद्वदिति वस्तुनाऽलङ्कारघ्वनिः ॥ १८ ॥ अन्वयः - ये च अन्ये कालयवनशाल्वरुक्मिगुमादयः तमः स्वभावाः ते अपि प्रदोषम् एनम् अनुयायिनः (पश्चादागमिष्यन्ति ) ॥ ९८ ।। हिन्दी अनुवाद-इतना ही नहीं, अन्य भी कालयवन-शाश्व-रुक्मि-द्रुम आदि जो तमोगुणी राजा हैं वे सभी अतिदुष्ट इस शिशुपाल का साथ देंगे ॥ ५८ ।। प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में कवि माघ के शब्दों में उद्धव जी कहते हैं कि आपके साथ शिशुपाल द्वारा की गई साधारण भेदनीति (छेदखानी) भी बाणासुरादि राजाओं को भड़काने में कारण बनेगी Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ शिशुपालवधम् ननु बाणादयोऽस्माभिः कृतसम्धाना इदानी न विराध्यन्तीत्यत आह उपजापः कृतस्तेम तानाकोपवतरस्पयि । __आशु दीपयितापोऽपि साग्नीनेधानिधानिलः ॥ ९९ ।। उपजाप इति । तेन चेन कृतोऽरूपोऽप्युपजापो भेदः । 'भेदोपजापौ' इत्य. मरः । त्वय्याकोपवतस्तान् वाणादीन् अनिल : साग्नी नेघानिन्धनानीव । 'काप्ठ दाविग्घने स्वेध इध्म मेधः समिस्त्रियाम्' इत्यमरः । आशु दोपयिता सद्यः प्रज्वल. यिष्यति । दीपेण्यंन्ताल्लुट । अन्तर्वैराः सहिदा: आपदि सति रन्ध्रे सद्यो विश्लिध्यतीति भावः ।। ६६ ॥ अन्वयः-(हे कृष्ण ! ) तेन (सह ) कृतः उपजापः अल्प अपि त्वयि आकोपवतः तान् अनिलः साग्नीन एधान् इव आशु दीपयिता ( दोभयिष्यति ) ॥ ९९ ॥ हिन्दी अनुवाद--उस ( शिशुपाल ) के द्वारा घटित ( किया गया ) अल्प भी भेद ( छेड़खानी ) आपके ( श्रीकृष्ण ) विषय में पूर्व से ही खुद उन (बाणासुर आदि ) को, अग्नि-प्रज्वलित इन्धन को वायु के समान शीघ्र उद्दीप्त कर देगा, अर्थात् आपके विरुद्ध भड़का देगा ।। ९९ ॥ प्रसा-अब उद्धव जी कहते हैं कि उपर्युक्त कारणों से शिशुपाल को जीतना सरल नहीं हैततः किमत आह बृहत्सहायः कार्यान्तं क्षोदीयानपि गच्छति । सम्भूयाम्भोधिमभ्येति महानद्या नगापगा ॥१०॥ वृहदिति । बृहत्सहायो महासहायवान्क्षोदीयान्क्षुद्रतरोऽपि । 'स्थूल दूर-' (६।४।१५६) इत्यादिना यणाविपरनोप: पूर्वगुणश्च । कार्यस्यान्तं पारं मच्छति । तथा हि-अपां समूह आपम् । 'तस्य समूहः' (४।२।३७) इत्यण । तेन गग्छतीस्यापगा नगापगा गिरिनदी महानया गङ्गादिकया सम्भूय मिलित्वाम्भौधिमभ्येति । क्षुद्रोऽप्येवं तादृक् । महावीरश्चैद्यस्तु किमु वक्तव्य इत्यपिशब्दार्थः । विशेषण सामान्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरण्यासः ॥ १० ॥ अन्वयः-(हे कृष्ण ! ) क्षोदीयान् अपि बृहस्सहायः ( सन् ) कार्यान्तं गच्छति, ( यतः कारणात् ) नगापगा महानद्या सन्भूय अम्भोधिम् अभ्येति ।। १०० ।। हिन्दी अनुवाद-बलवान् (बदों) की सहायता से चुद्र (निर्बल) भी व्यक्ति अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता है जैसे पहाड़ी नदी, 'गला' आदि महानदियों की सहायता से समुद्र को प्राप्त करती है। प्रकृत में अर्थान्तरन्यासालङ्कार है ॥१०॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १३५ प्रसन्न-- अब उद्धव जी, शिशुपाल के साथ युद्ध प्रारम्भ होने पर कौन किसका साथ देगा, बतलाने हैंकिञ्च न केवलं शत्रोरसाध्यत्वं मित्रविरोधश्चाधिकोऽनर्थकर इत्याह द्वयेन तस्य मित्राण्यमित्रास्ते ये च ये चोभये नृपाः।। अभियुक्तं त्वयैनं ते गन्तारस्त्वामतः परे ॥ १०१॥ तस्येति ॥ ये च तस्य चैद्यस्य मित्राणि नृपाः, ये च ते तवामित्रा नृगस्ते उभये स्वयाऽभियुक्त ममियातमेनं चैद्यं गम्तारो गमिष्यन्ति । गमेः कर्तरि लुट । अतः परे उक्तो भयव्यतिरिक्ताः । तर मित्राणि तस्यामित्राश्चेत्यर्थः । त्वां गम्तारः ॥ १.१ ।। __ अन्वयः-(हे कृष्ण !) ये च तस्य मित्राणि ये च ( तव ) अमित्राः ते उभये नृपाः स्वया अभियुक्तम् एनम् (चैयं ) गन्तारः गमिष्यन्ति ) अतः परे स्वाम गन्तारः ( अनुयास्यन्ति ) ॥ १०१ ।। हिन्दी अनुवाद-( उद्धव जी कहते हैं कि हे कृष्ण !) और जो राजागण शिशुपाल के मित्र हैं वे तो उसकी सहायता करेंगे ही, परन्तु जो राजागण तुम्हारे शत्र हैं वे भी इस अवसर पर उसी की सहायता करेंगे। इनको छोड़कर जो तुम्हारे मित्रगण हैं और उसके शत्रु हैं, वे सभी तुम्हारी सहायता करेंगे ।। १०१ ॥ प्रसङ्ग-अब उद्धव जी शिशुपाल पर तात्कालिक आक्रमण से संभावित हानि की ओर संकेत करते हैंततः किमत आह मनविघ्नाय सकलमित्थमुत्थाप्य राजकम् । इन्त ! जातमजातारेः प्रथमेन त्वयारिणा ।। १०२ ॥ मखेति ॥ इत्थमनेन प्रकारेण 'इदमस्य मुः' (५।३।२४) इति थमुप्रत्ययः । मखविघ्नाय मखविघाताय सकलं राजकं राजसमूहम् । 'गोत्रोक्ष ~ (४।२।३९) इत्यादिना वञ् । उत्थाप्य क्षोभयित्वा । हन्त इति खेदे। अजातारेरजातशत्रोर्युधिष्ठिरस्थ त्वया प्रथमेनारिणा जातमजनि । नपुंसके भावे क्तः ॥ १०२॥ अन्वयः-इत्थं मखविघ्नाय सकलं राजकम् उत्थाप्य, हन्त ( हे कृष्ण !) अजातारेः प्रथमेन स्वया अरिणा जातम् ॥ १०२ ॥ हिन्दी अनुवाद -( उद्धव जी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि ) इस प्रकार ( पूर्वोक्त श्लोक २१०, के अनुसार ) सम्पूर्ण राजाओं के वर्ग को यज्ञ-विश्न के लिए क्षभित. कर अजातशत्र युधिष्ठिर के आप प्रथम शत्रु बन जाओगे, यह खेद है ॥ १.२॥ प्रसङ्ग-अब उद्धव जी धर्मराज की अभिलाषा को व्यक्त करते हैं Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् अस्तु सोऽपि शत्रुः को दोषस्तत्राह--- संभाव्य त्वामतिभरक्षमस्कन्धं सुबान्धयः । सहायमभ्घरधुरां धर्मराजो विवक्षते ।। १०३ ।। सम्भाग्येति ॥ बन्धुरेव बाम्धवः म धर्मराजः अतिभरस्य क्षमः स्कन्धो यस्य स तम् । समानस्कन्धमित्यर्थः । स्वां सहायं सम्माम्याभिसम्धाय । अध्वरस्य धुर. मध्वरधुराम् । 'ऋक्पूर-' (५।४।७४) इत्यादिना समासान्तोऽन्प्रत्ययः। समासाम्तानां प्रकृतिलिङ्गत्वात्तत्पुरुषे परवल्लिङ्गत्वे टाप् । विवक्षते वोढुमिच्छति । वहतेः स्वरितेतः सन्नन्ताल्लिट् । तथा हि--विरोधे विश्वासघातो बन्धुद्रोहश्च दो स्यातामिति भावः । विशेषणसाम्यात्प्रस्तुत यागधमंप्रतीतेः समासोक्तिः ॥१०३॥ ___ अन्वयः- हे कृष्ण ! ) बान्धवः सः धर्मराजः अतिभरक्षमस्कन्धं स्वाम् सहायम् सम्भाष्य अध्वरधुरां विवक्षते ॥ १०३ ॥ हिन्दी अनुवाद - ( उद्धव जी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे श्रीकृष्ण ! ) अच्छे भाइयोंबाले वह युधिष्ठिर तो महान् भार के वहन करने में समर्थ कन्धेवाले भापको ही सहायक समझकर , यह ) चाहता है कि आप उसके यज्ञ भार को धारण करें ( वहन करें ) अर्थात् युधिष्ठिर ने तो भार उठाने में समर्थ समझकर आपको ही यज्ञ का उत्तरदायित्व सौंपा है । उपर्युक्त श्लोक में समासोक्ति अलकार है ।। १०३ ॥ प्रसन- उद्धव जी युधिष्ठिर के यज्ञ-समारोह के अवसर पर शिशुपाल पर आक्रमण करने से संभावित अन्य दोषों की ओर श्रीकृष्ण का ध्यान आकर्षित करते हैं ननु प्रतिश्रुश्याऽकरणे दोषः प्रागेव, परिहारे तु को दोष इत्यत माह महात्मानोऽनुगृह्णन्ति भजमानान् रिपूनपि । सपत्नीः प्रापयन्त्यग्धिं सिन्धवो नगनिम्नगा। ॥ १०४।। महात्मान इति ॥ महात्मानो निग्रहानुग्रहसमर्था भजमानान् शरणागतान रिपुनप्यनुगृह्णन्ति । कि मुत बन्धूनिति भावः । अर्थान्तरं न्यस्यति-सिन्धवो महानवः समान एकः पतिर्यासां ताः सपत्नीः । नित्यं सपरन्यादिषु' (४।१३५) इति डोप नकारपव । नगनिम्न गा गिरिनिर्झरिणीरब्धि प्रापयन्ति । स्वसौभाग्यं ताभ्यः प्रयच्छन्तीति भावः । अत: परिहारोऽप्यनथं इति भावः ॥ १०४ ॥ अन्वयः-महात्मानः (पुरुषाः) भजमानान् रिपून् अपि अनुगृह्णन्ति, (यथा) सिन्धवः सपत्नी: नगनिम्नगाः अब्धि प्रापयन्ति ॥ १०४ ॥ १. स बान्धवः । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १३७ हिन्दी अनुवाद-( उद्धवजी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि ) महान् लोग शरण में आये शत्रुओं पर भी अनुग्रह किया करते हैं, जैसे-महानदी अपनी सौतों ( छोटी-छोटी पहादी नदियों ) के शरण में आजाने पर उन्हें भी अपने पति समुद्र के पास पहुंचा देती है ।। १७४ ।। ___ अतः युजिष्ठिर के यज्ञ-भार को वहन करना आपका कर्तग्य हो जाता है ।। ५.४ ॥ प्रसन्न .. उद्धवजी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि विमानित मित्रों को कठिनाई से सन्तुष्ट किया जा सकता है-- तहि सम्प्रत्युपेक्षायामपि पश्चात्प्रार्थनया पार्थमाजवयेयमित्यत आह चिरादपि बलात्कारो बलिनः सिद्धयेऽरिषु । छन्दानुवृत्ति दुःसाध्याः सुहृदो विमनीकृताः ॥ १०५॥ चिरादिति ।। बलिना स्वयं बलवतोऽप्यरिष विषये बलात्कारो दण्डश्चिरा. चिरकालेनापि । सद्यो मा भूदिति भावः। सिद्धये वर्शवदत्व सिद्धये। भवतीति शेषः । अविमनसो विमनसः सम्पद्य माना: कृता विमनोकृताः। वैमनस्यं प्रापिता इत्यर्थः । 'अरुमंनश्चक्षुश्चेतोरहोरजसा लोपश्च' ५।४।५१) इति विप्रत्ययलोपो। 'अस्य चौ' (७।४।३२) इतोकारः । शोमनं हृदयं येषां ते सुहृदो मित्राणि तु । 'सुहृत् दुहूं दो मित्रामिषयोः' (५।४।१५०) इति निपातः । छन्दस्याभिप्रायस्यानु. वृत्त्या चित्तानुरोधेनापि दुःसाध्याः । बार्जवयितुमशक्या इत्यर्थः। 'अभिप्रायश्छन्द आशयः' इत्यमरः। शनैः शत्रुर्दण्डेनापि वशो भवति, मित्रं वमनस्ये न साम्नाऽणति भावः ॥ १०५ ॥ अन्वयः-( हे कृष्ण !) बलि नः चिरात् अपि अरिषु वलात्कारः सिद्धये (भवति) विमनीकृताः सुहृदः छन्दानुवृत्तिदुःसाध्याः ।। १०५ ।। हिन्दी अनुवाद-(उद्धवजी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि) बलवान् व्यक्ति शवपर आक्रमण कुछ विलम्बसे भी यदि करता है तो हानि नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं बलवान् है, और जब चाहेगा तब उसे दण्डित कर सकेगा । परन्तु मित्रों की भग्नप्रीति को पुनः प्राप्त करना सर्वथा कठिन है । अर्थात् मित्र के साथ वैमनस्य होने पर उसे कठिनता से प्रसन्न किया जा सकता है ॥ १० ॥ प्रसा-अब उद्धवजी श्रीकृष्ण के मन का सन्देह दूर कहते हैंननु सुहृत्कार्यात्सुर कार्य बलीय इत्यवाह--- मन्यसेऽरिवधः श्रेयान्प्रीतये नाकिनामिति ।' पुरोडाशभुजामिष्टमिष्टिं कर्तुमलन्तराम् ।। १०६ ।। १. 'नामपि' इति पा०। २. मिष्टं । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ शिशुपालवधम् मन्यस इति ।। नाकिनां देवानां प्रीतयेऽरिवधः श्रेयान्प्रशस्ततरः । प्रशस्यस्य श्रः' (५॥३६०) इति श्रादेशः । इति मन्यसे चेत्तहि पुरोडाशभुजां हविर्मोजिनाम् । अत एव नाकिनामिष्टममी प्सितं कर्तुम् । इषः कर्मणि क्तः । इष्टमिष्टिः । याग इति यावत् । यजे वे क्तः । 'वचिस्वपि -- (६।१।१५) इत्यादिना सम्प्रसारणम् । अनन्तरामति पर्याप्तम् । अव्ययांदामुप्रत्ययः । शत्रुवधादति प्रियकरो याग एव । नाकिनां भुक्त्वापि शत्रुवधस्य सुकरत्वादिति भावः । १०६ ॥ अन्वयः- ( हे कृष्ण ! ) नाकिनां प्रीतये अरिवधः श्रेयान् इति मन्यसे चेत् , पुरोडाशभुजाम् इष्टं व तु इष्टम् अलन्तराम् ॥ ४०६ ।। हिन्दी अनुवाद-( उद्धवजी कहते हैं कि हे कृष्ण ! ) यदि (आप) शत्रु (शिशुपाल ) का वध करना देवों को प्रसन्न करने के लिए अधिक श्रेष्ठ मानते हैं तो ( यज्ञ-सम्बन्धी) हवि का भोजन करने वाले देवों का अभीष्ट यज्ञ का सम्पादन करना ही पर्याप्त है। देवताओं की प्रसन्नता के लिये यदि (नारदोक्त ) शत्रु ( शिशुपाल ) का वध है, तो उन्हें इससे भी अधिक प्रसन्नता यज्ञ से होती है, ( क्योंकि देवगण तो हविभोजी हैं, उनकी तृप्ति यज्ञ से होगी ) इसलिये उनके अभीष्ट यज्ञ में (युधिष्ठिर द्वारा आयोजित यज्ञोत्सव में ) ही सहयोग करना श्रेष्ठ है, शत्रुवध तो यज्ञ की समाप्ति के पश्चात् भी हो सकेगा ।। १०६ ॥ प्रसङ्ग-उद्भवजी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि यदि आप यह कहें कि सदा अमृत का का पान करते वाले देवगणों को यज्ञ-पिष्टान्न के भोजन से क्या प्रयोजन है ? तो इसका समाधान यह हैतथाप्यमृताशिनां तेषां देवानां किमेभिः पिष्ट भक्षणप्रलो मनरत आह -- अमृतं नाम यत्सन्तो मन्त्रजिह्वेषु जुह्वति । शोभैव 'मन्दरक्षुब्धक्षुभिताम्भोधिषर्णना ।। १०७ ।। अमृतमिति ॥ अमृतं नाम सन्तो विद्वांसः मन्त्रा एव जिह्वा येषां तेषु मन्त्र. जिह्वध्वग्निषु । 'मंत्रजिह्वः सप्त जिह्वः सुजिह्वो हव्यवाहनः' इति वैजयन्ती। यत्पुरोडाशादिकं जुह्वति । तदेवेति शेष । यत्तदोनित्यसम्बन्धात् । मन्दर एव क्षुब्धो मन्थन दण्डः । 'क्षुब्धध्वान्त ---' (७॥२।१८) इत्यादिनास्मिन्नर्थे निपातनासिद्धम् । तेन क्षुभितस्य मथितस्याम्भोधेवर्णना शोभवालङ्कार एव । अन्धिमन्थनेनामृतमुत्पादित मिति यतः कोतिमात्रम् , अतो हुतमेवामृतमिति भावः। वाक्यार्थयोहेतुहेतुमद्भावाद्वाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमलङ्कारः ।। १०७ ।। १. 'मन्दरक्षुब्धि' इति पा० । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १३६ अन्वयः-(अहो ! ) सन्त: मन्त्रजिह्वेषु यत् जुह्नति तत् अमृतं नाम । मन्दरदुग्यक्षुभिताम्भोथिवर्णना ( तस्य ) शोभा एव ।। १०७ ।। हिन्दी अनुवाद-विद्वान् लोग विधिपूर्वक जो हवि अग्नि में हवन करते हैं, वस्तुतः वही तो अमृत है । और पौराणिको का यह कहना कि समुद्र का मन्दराचल से मन्थन करने पर जो अमृत निकला है, वह तो समुद्र का महत्व मात्र है। इस प्रकार के वर्णन से समुद्र की शोभा ही बढ़ती है । उपर्युक्त श्लोक में काव्यलिङ्ग अलंकार है ।। १०७ ॥ विशेष-पुराणों ( मत्स्य, १.९.;२४९.१४ से अन्त तक वायु, २३.९०,५२. ३७; ९२. ९, विष्णु-१.९ ८०-१11) के अनुसार समुद्रमन्थन अमृत की प्राप्ति के लिए हुआ था ।। १०७ ॥ प्रसन-अब उद्धवजी शिशुपाल पर आक्रमण करने में बाधक श्रीकृष्ण कृत प्रतिज्ञा की ओर संकेत करते हैं । यात्रायाः प्रतिबन्धः कश्चिद् दुस्त रस्तवास्तीत्याह--- सहिष्ये शतमागांसि प्रत्यौषीः 'फिलेति यत् । प्रतीक्ष्यं तत्प्रतीक्ष्यायै पितृष्वस्र प्रतिश्रुतम् ।। १०८ ॥ सहिष्य इति ।। प्रतीक्ष्याय पूज्याय । 'पूज्यः प्रतीक्ष्यः' इत्यमरः। पितृष्वा पितृभगिन्मं । 'विभाषा स्वस पत्यो।' ६।३।२५ इति विकल्पादलुगभावः । 'मातृपितृभ्यां स्वसा' ८।३।८४ इति षत्वम् । ते तव सूनोः शतमागांस्यपराधान् । 'बागो. ऽपराधो मन्तुश्च' इत्यमरः। सहिष्ये सोढाहे इति यत्त्वया प्रतिश्रुतं प्रतिज्ञातं तत्प्रतीक्ष्यं प्रतिपालनीयम् । अन्यथा महादोषस्मरणाविति भावः ॥ १०८ ।। अन्वयः-प्रतीक्ष्यायै पितृष्वस्रे "ते सुनोः शतम् आगांसि सहिष्ये" इति यत् स्वया प्रतिश्रुतम् तत् अपि प्रतीक्ष्यम् ॥ १०८ ॥ हिन्दी अनुवाद-( उद्धव जी कहते हैं कि हे श्रीकृष्ण ! ) आप अभी भी शिशुपाल का वध करने के लिये उस पर आक्रमण नहीं कर सकते, क्योंकि आपने अपनी पूज्या बुआ से यह प्रतीज्ञा की है कि तेरे पुत्र शिशुपाल के सौ अपराध मैं सहन करूँगा। अतः आपको अपनी इस प्रतिज्ञा का अवश्य ही पालन करना चाहिये ।। १०८ ॥ विशेष- चेदिराजकुले जातस्यद एव चतुर्भुजः । रासभारावसदृशं ररास च ननाद च ।। १ ।। १. 'मदकाव्यमेतदित्यर्थः' इत्यादर्शपुस्तके। २. सूनोस्त इति यत्त्वया । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० शिशुपालवधम् अन्तर्भूतं ततो भूतं उवाचेदं पुनर्वचः । यस्योस्सने गृहोतस्य भुजावभ्यधिकावुभौ ॥ २ ॥ पतिष्यतः क्षितितले पञ्चशीर्षाविवोरगौ । तृतीयमेतद्वालस्य ललाटस्थ तु लोचनम् । निमज्जिप्यति यं दृष्ट्रा सोऽस्य मृत्युभविष्यति । ततश्चेदिपुरी प्राप्तौ संकर्षणजनार्दनौ । यादवी यादवीं द्रष्टुं स्वसारं सौ पितुस्तदा । सोभ्यर्च्य तौ तदा वीरौ प्रीत्या चाभ्यधिकं ततः । पुत्रं दामोदरोत्सङ्ग देवी सव्यदधात् स्वयम् । न्यस्तमात्रस्य तस्यांक भुजावभ्याधिकावुभौ ।। पेततुस्तच्च नयनं न्यमज्जत ललाटजम् । तं दृष्टवा म्यशिता त्रस्ता वरं कृष्णमयाचत ।। शिशुपालस्यापराधान् क्षमेथास्वं महाबल । अपराधशतं साम्यं मया ह्यस्य पितृष्वसुः ॥ "पुत्रस्य ते वधार्हस्य मात्वं शोके मनः कृथाः ॥" ( महाभारते सभापर्वम् २।१०८) ॥ १०८ ॥ प्रसङ्ग-उद्धवजी सज्जन पुरुषों के स्वभाव की विशेषता का उल्लेख करते हुए श्रीकृष्ण को पूर्वकृत प्रतिज्ञा का पालन करने का आग्रह करते हैंसत्यमस्ति प्रतिश्रुतं, किन्वक्योन्मत्तत्वादोद्धत्यादपि जिह्वासित मत आह तीक्ष्णा नारुम्तुदा बुद्धिः कर्म शान्तं प्रतापवत् । नोपतापि मनः सोप्म वागेका वाग्ग्मिनः सतः ।। १०९ ॥ तीक्ष्णेति । सतः सत्पुरुषस्य बुद्धिस्तीक्ष्णा निशिता स्यादिति विदीत्यध्याहारः । एवमुत्तरत्रापि। तथाप्य रुस्तुदतीत्यरुन्तुदा शस्त्र वन्मर्मच्छेदिनी न भवेत् । अहिंसयंव परं पीडयेदित्यर्थः । कर्म व्यापार: प्रतापवत्तेजस्वि भयदं स्यात. तथापि थान्तं स्यात् । न तु सिंहादिवद्धिस्रं भवेदित्यर्थः । मनश्चित्तं सोष्म अभिमानोष्णं स्यात्तथापि उपतापयतीत्युपतापि अग्न्यादिवत्परसन्तापि न स्यात् । वाग्मिनो वक्तुर्वागे का एकरूपा स्यात् । वाग्मी सत्यमेव वदेदित्यर्थः । अतः सत्यसन्धस्य प्रतिश्रतार्थहानिरनति भावः । अत्र प्रकृवाया वाचोऽप्रकृतानां बद्धिक्रममनसा तुल्यवदिौपम्यावगमाद्दीपकालङ्कारः। 'प्रकृताप्रकृतानो च साम्ये तु तुल्यधर्मतः । औपम्यं गम्यते यत्र दीपक तनिगयते' ।। इति लक्षणाद् । बुद्धयादीनां शस्त्रादिव्यतिरेको व्यज्यते ॥ १०६ ।। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १४१ अन्वयः-पतः त्रुद्धिः तीक्ष्णा, अरुन्तुदा न, सतः कर्म प्रतापवत् , ( भपि) शान्तम् ( भवति ) सतः मनः सोम उपतापि न, (भवति)। वाग्मिनः वाक् अपि एका (भवति)।१०९।। हिन्दी अनुवाद-जैसे सज्जनों की बुद्धि तीषण होती है, किन्तु वह मर्मस्थल को पीड़ा नहीं देती, ( उनका ) कर्म प्रतापयुक्त होता है, किन्तु शान्त रहता है । (कर पशु के समान हिंसक नहीं)। मन अभिमान से उष्ण रहता है, पर दूसरों को सन्तप्त नहीं करता । उनकी वाणी भी एक ही रहती है, अर्थात् वे अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ रहते हैं, उससे विचलित नहीं होते। अतः आपको भी अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिये । प्रस्तुन श्लोक में 'दीपकालङ्कार' है ।। १०९ ।। प्रसन्न-उद्धवजी प्रस्तुत श्लोक में काल की महत्ता की ओर संकेत करते हुए श्रीकृष्ण को कहते हैं कि मय के पूर्व शिशुपाल का वध करना भी संभव नहीं है अशक्यश्चाऽकाले नेद्यवध इत्याह स्वयकृतप्रसादस्य तस्याहो भानुमानिव । समयावधिमप्राप्य नान्तायाऽलं भवानपि ।। ११०।। स्वयकृतेति ।। किञ्च अह्रो भानुमानिव स्थय कृत. प्रसादोऽनुग्रहः प्रकाशश्च यस्य तस्प चंद्यस्यानाय समयावधि नियतकालावसान मप्राप्य भवानपि नाल शक्तो न तथा च वयाऽपकोतिरेव । अन्यत्र किञ्चित्फलं स्यादिति भावः ।। ११० ॥ अन्वयः-( हे कृष्ण ! ) किञ्च अह्नः भानुमान इव स्वयंकृतप्रसादस्य तस्य अन्साय समयावधिम् अप्राप्य भवान् अपि न अलम ।। ११० ॥ हिन्दी अनुवाद -- (हे कृष्ण ! ) जैसे दिनका कर्ता स्वयं दिनकर (सूर्य) भी जबतक दिनकी नियन कालावधि का समाप्तिकाल, ( सायकाल ) नहीं आता, तबतक उसका (दिनका ) अन्त नहीं कर सकता, वैसे ही अपराधशत (सौ अपराधों) तक क्षमा करने की प्रतिज्ञा किये हुए आप (श्रीकृष्ण ) भी उस समयावधि के पूर्व उसका (शिशुपाल) का वध नहीं कर सकते ॥ ११० ॥ प्रसन-प्रस्तुत श्लोक में उद्धव जी शिशुपाल पर आक्रमण करने के पूर्व आवश्यक कर्तव्य की ओर संकेत करते हैंतहि किमय मुपेक्ष्य एव नेत्याह कृत्वा कृत्यविदस्तीथेरन्तः' प्रणिधयः पदम् । विदाकुर्वन्तु महतस्तलं विद्विषदम्भसः ।। १११ ।। १. ०स्तीर्थेष्वन्तः । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् कृत्वेति ॥ किन्तु कृत्यविद्रः कार्यंज्ञाः विधिज्ञाश्च प्रणिधीयन्त इति प्रणिधयो गूढचारिण: । 'प्रणिधिगूढपुरुष:' इति हलायुधः । वरन्त्येभिरिति तीर्थानि मन्त्राद्यष्टादशस्थानानि जलावताराश्च । १४२ 'योनी जलावतारे च मन्त्राद्यष्टादशस्वपि । पुण्यक्षेत्रे तथा पात्रे तीर्थं स्यात् ॥' इति हलायुधः । तेष्वन्तः पदं स्थानं पादप्रक्षेपं कृत्वा महतो दुरवगाहस्य पूज्यस्य च विद्विषन् शत्रुरेवाम्भस्तस्य तलं स्वरूपम् । प्रमाणमिति यावत् । 'अधःस्वरूपयोरस्त्री तलम्' इत्यमरः । विदाङ्कुर्वस्तु विदन्तु । विद् ज्ञाने लोट् । 'विदाङ्कुर्वन्तिवत्यश्यतरस्याम्' (३|१|४१ ) इति विकल्पादाम्प्रत्ययनिपातः । अम्भस व शत्रोः कृततीर्थस्य सुप्रवेशत्वात्प्रागन्तः प्रविश्य परीक्ष्येत्यर्थः । श्लिष्टपरम्परि तरूपकम् ।। १११ ॥ अन्वयः - कृत्यविदः प्रणिधयः तीर्थेषु अन्तः पदं कृत्वा महतः विद्विषदम्भसः तलं विदाङ्कुर्वन्तु ।। १११ ।। हिन्दी अनुवाद - तो क्या अभी शिशुपाल पर आक्रमण करने का विचार छोड़ दिया जाय ? नहीं, जबतक शिशुपाल पर आक्रमण नहीं किया जाता, तब तक कार्यकुशल ( विधि के जानकार ) गुप्तचरों के द्वारा मन्त्रणादि जो शत्रु के १८ स्थान हैं, उनमें प्रविष्ट होकर उनकी पूर्ण जानकारी प्राप्त करें, उनकी थाह लगावें । जैसे चतुर विद्वान् सीढ़ियों के द्वारा जलाशय के भीतर उतरकर उसकी गहराई ज्ञात करते हैं । इस श्लोक में श्लिष्ट परम्परित रूपकालङ्कार है ॥ १११ ॥ विशेष - पञ्चतन्त्र के तृतीत तन्त्र में शत्रुपक्ष के अठारह तीर्थों का उल्लेख किया गया है । वे इस प्रकार हैं 1 'यस्तीर्थानि निजे पक्षे परपक्षे विशेषतः । गुप्तेश्वरैर्नृपौ वेनिस दुर्गतिमाप्नुयात् ॥' 'यच्छत्रुपक्षेऽष्टादशतीर्थानि स्वपक्षे पंचदश । तैः ज्ञानैः स्वपक्षाः परपक्षश्च वश्यो भवति । अर्थात् तीर्थ शब्द से राजकार्य में नियुक्त पुरुष अभिप्रेत हैं। वे तीर्थं अधोलिखित है १ – मंत्री, २ – पुरोहित, ३ – सेनापति, ४ – युवराज, ५-द्वाररक्षक, ६– अन्तःपुररक्षक, ७ – प्रशासक, 2 - मालगुजारी एकत्र करने वाला, ९ पुरुषों का परिचय करानेवाला, १० – न्यायाध्यक्ष, ११ – पेशकार, १२ – सेनाध्यज्ञ, १३हस्तिविभागाध्यक्ष, १४ – कोषाध्यक्ष, १५ – दुर्गपाल, १६ – कराध्यक्ष, १७ सीमा Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोया सर्गः १४३ रक्षक, १८-प्रियभृत्य । इनको अपनी ओर मिला देने से शत्रु शोघ्र ही यश में हो जाता है। महाकवि भारवि ने उक्त भाव को 'किरातार्जुनीयम' में इस प्रकार कहा है "विषमोऽपि विगाह्यते नयः कृततीर्थः पयसामिवाशयः ।। स तु तत्र बिशेषदुर्लभः सदुपन्यस्यति कृत्यवर्मयः” (२।३) ॥१११॥ प्रसन-यहाँ राजनीति में गुप्तचरों के महत्व पर प्रकाश डाला गया है-- आवश्यकं चैतदित्याह अनुत्सूत्रपदन्यासासवृत्तिः सन्नियन्धना। शन्दविद्येव नो भाति राजनीतिरपस्पशा ।। ११२ ॥ अनुत्सूत्रेति ॥ उत्सूत्र उच्छास्त्र नीतिशास्त्रविरुद्धः पदन्यासः एकपदप्रक्षेपो. ऽपि । स्वरूपव्यवहारोऽपोति यावद । नास्ति यस्यां साऽनुत्सूत्र पदन्यासा । नीतिपूर्वकसवंव्यवहारत्यर्थः । अन्यत्रानुत्सूत्रपदम्यासा अनुत्सृष्ट सूत्राक्षर: इष्ट्युपसङ्ख्या. ननरपेक्ष्येण सूत्राक्षररेव सर्वार्थप्रतिपादको न्यासो वत्तिव्याख्यानग्रन्थ विशेषो यस्या सा तथोक्ता । तथा सती यथार्थ कल्पनया शोभना वृत्तिभृत्यामात्यादीनामाजीविका यस्यां सा सवत्तिः, अन्यत्र सतो वृत्तिः काशिकाख्यसूत्रव्याख्यान ग्रायविशेषो यस्यां सा ! 'वत्तिर्ग्रन्थजीवनयोः' इति वैजयन्ती। सन्ति निबन्धनान्यनुजीव्यादीनां क्रियावसानेषु दत्तानि गोहिरण्यादिशाश्वतपारितोषिकदानानि यस्यां सा। एतच्च 'दत्त्वा भूमिनिबन्ध चे'त्येतद्वचनव्याख्याने मिताक्षरायां द्रष्टव्यम् । अन्यत्र सरिन बन्धनं भाष्यग्रन्थो यस्यां सा। एवंभूतापि राजनीती राजवृत्तिः। अपगतः स्पशः चारो यस्याः साऽपस्पशा चेत् । 'यथार्थवर्णो मर्मज्ञः स्पशो हरक उच्यते' इति हलायधः । अन्यत्र अविद्यमानः पस्पशः शास्त्रारम्भसमथक उपोद्घातसन्दर्भग्रन्थो यस्याः स: अपस्पशः । शब्दविद्या व्याकरणवियेव नो भाति न शोभते । तस्मा. च्चरप्रेषणमावश्यकम् , द्रहितस्य राज्ञोऽग्धप्रायत्वादिति भावः । अत्र पस्पशेत्यत्र जतुकाष्ठवच्छन्दयोरेव श्लिष्टत्वाच्छन्दश्लेषः । सद्वत्तिः सन्निबन्धनेत्यत्रकवन्तावलम्बिफलद्वयवदर्थश्लेषः । अनुत्सूत्रपदण्यासेत्यत्र तूभयसम्भवादुमयश्लेषः । शब्दविद्ये वेति पूर्णोपमा व्यक्तव । तयोः सापेक्षत्वात्सङ्करः ।। ११२ ।। अन्धयः - अनुरसूत्रपदन्यासा सद्वृत्तिः सनिबन्धना राजनीतिः, अपस्पशा शब्दविद्या इव नो भाति ।। ११२ ॥ हिन्दी अनुवाद - राजनीति के कथित या निर्धारित नियम के विरुद्ध एक पद भी जिसमें नहीं रक्खा जाता हो, ( अर्थात् जहाँ नीतिशास्त्रानुकूल ही सब काम किये जाते हैं ) राजकार्य सम्पादित करनेवालों के लिये जिसमें उत्तम तथा कार्य की Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपालवधम् समाप्ति पर पारितोषिक आदि की व्यवस्था हो, वह राजनीति भी पस्पश (गुप्तचरों ) के अभाव में शोभा नहीं देती। जैसे सूत्रों के अनुसार पदों के न्यास को प्रतिपादन करनेवाली, सुत्र-व्याख्यारूप काशिकादि ग्रन्योवाली और उत्तम महाभाज्यादि नियन्धनवाली शब्दविधा ( व्याकरण शास्त्र ) पस्पश ( महाभाष्य के प्रथमाध्यायका प्रथम आन्हिक ) के बिना शोभा नहीं देती । प्रस्तुत श्लोक में श्लेष और पूर्णोपमा का संकर होने से सङ्करालङ्कार ॥ ११२ ।। कहा गया है-"सर्वस्यैव शास्त्रस्य कर्मणो वापि कस्यचित् , यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् तस्केन गृह्यते ॥" विशेष-पतञ्जलि रचित महाभाष्य के प्रथम अध्याय के प्रथम आन्हिक का नाम 'पस्पशआन्हिक' है । इसमें व्याकरण शास्त्र के प्रयोजनों का उल्लेख किया गया है। इन प्रयोजनों को जानने से ही व्याकरण शास्त्र का ज्ञान होता है। अतः जैसे व्याकरणशास्त्र के ज्ञान के लिये पस्पश-आहिक अत्यन्त आवश्यक है वैसे ही राजनीति के ज्ञान ( शत्रुपक्ष के १८ तीर्थों के ज्ञान ) के लिये गुप्तचरों को रखना आवश्यक होता है । इन के अभाव में राजा अन्धा ही रहता है "तस्माचारप्रेषणमावश्यकम् तद्रहितस्य राज्ञोऽन्धप्रायस्वादिति भाव ॥" ॥ ११२ ।। प्रसन-अब उद्धवजी गुप्तचरों के कर्तव्यों की ओर श्रीकृष्ण का ध्यान आकर्षित कर, उनका भावी कार्यक्रम क्या होना चाहिये, इसका उल्लेख करते हैं । न केवलं चारमुखेन वृत्तान्तज्ञानम् , अपि तूपजापश्च कर्तव्य इत्याह अज्ञातदोषैर्दोषहरुद्दष्योभयवेतनैः । भेद्याः शत्रोरभित्यक्त'शासनै: सामवायिकाः ।। ११३ ॥ अज्ञातेति । फिञ्चाज्ञात दोषः पररज्ञातस्वफ मभिर्दोषज्ञ: स्वयं परमर्मज्ञरभिव्यक्तानि भेद्यस्याग्रे प्रकटितानि शासनानि तदमात्याद्यविश्वास कराणि कूटलिखि. तानि येषां तः उमयवेतनरुभयत्र भेद्यो स्वामिनि च वेतनं भृतिर्येषां तरुभय जीवि. का पाहिमिः । भेद्यनगरवास्तव्यश्वररित्यर्थः ! 'भृतयो ममं वेतनम्' इत्यमरः । शत्रोः सम्बन्धिनः समवायं समवयन्तीति सामवायिकाः सङ्घमुख्या: सचिवादयः । 'समवायासमवैति' (४।४।४३) इति ठक । उद्ष्य द्विषामेते दत्तहस्ता अस्माभिरेषां लिखितान्येव गृहीतानीत्युच्चदूषयित्वा भेद्याः विघटनीयाः ।। ११३ ।। अन्धयः-अज्ञातदोषैः दोषज्ञैः अभिव्यक्तशासनैः उभयवेतनैः शत्रोः सामवा. यिकाः उद्ष्य भेथाः ।। ११३ ॥ हिन्दी अनुवाद-( उद्धवजी गुप्तचरों द्वारा किये जानेवाले गुप्त कार्यों का १. • रभिव्यक्त । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ द्वितीयः सर्गः उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ) जिनके दोषों को अन्प न जानता हो और स्वयं दूसरों के दोषों को जानते हों, ऐसे दोनों पक्षों (अपने राष्ट्र से और शत्रु के राष्ट्र से) वेतन प्राप्त करने वाले गुप्तचरों द्वारा कपट-लेखादिकों को दिखलाकर शत्रुपक्ष के राजा और मन्त्रियों में भेद उत्पन्न किया जाना चाहिये । ११३ ॥ प्रसङ्ग-अब उद्धवजी गुप्तचरों द्वारा किये जाने वाले दूसरे कार्य का उल्लेख करते हैं उपेयिवांसि कर्तारः पुरोमाजातशात्रवीम् । राजन्यकान्युपायहरेकार्थानि चरैस्तव ॥ ११४ ॥ उपेयिवांसीति ॥ किञ्च उपायज्ञ: कायंसाधन कुशलस्तव चरन्तीति चरंगूद. चारिभिः । पचाद्य च । एकार्थानि त्वया स है क प्रयोजनानि राजन्यानां समूहा राजन्यकानि । 'गोत्रोक्ष-'(४।२।३९) इत्यादिना वुञ् । अजातशत्रोरिमामाजातशात्रवी पुरीमिन्द्रप्रस्यमुपेयिवांसि । 'उपेयिवान्-' (३।२।१०६) इत्यादिना क्व सुप्रत्ययान्तो निपातः। कर्तारः करिष्यन्ते । कृत्रः कर्मणि लुट । इन्द्रप्रस्थेऽस्माकं महत्कार्य भविष्यति तदध्वरयात्राव्याजेन सन्नद्ध रागन्तव्यमिति गूढं सम्दिश्य सत्र सर्वे मेलयितव्या इत्यर्थः ।। ११४ ।। __ अन्वयः-(हे कृष्ण !) उपायज्ञैः तव चरैः एकार्थानि राजन्यकानि । अजातशानवीं पुरीम् उपेयिवांसि कर्तारः ॥ ११४ ॥ हिन्दी अनुवाद-(उद्धव जी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि) उपायों को जाननेवाले अपने गुप्तचरों के द्वारा स्व-पक्षपाती अर्थात् आपके ही विचारों या प्रयोजनों को रखनेवाले राजाओं को यज्ञ के व्याज ( बहाने ) से इन्द्रप्रस्थ में बुला लेना चाहिये ।। ११४ ॥ ___ अभिप्राय यह है कि आपके गुप्तचर इन्द्रप्रस्थ पहुँच कर आपके पक्षपाती राजाओं को यज्ञ के बहाने सेनासमेत एकत्र करलें ॥ ११४ ॥ प्रसङ्ग-अब उद्धवजी कहते हैं कि-यज्ञ के अवसर पर युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो सकती है ननु तत्राध्वरकर्मणि को युद्धावकाश इत्याशक्य तौव महत्कलहबीजं सम्पादयति सविशेषं सुते पाण्डोभक्तिं भवति तन्वति । __ वरायितारस्तरलाः स्वयं मत्सरिणः परे ।। ११५ ।।। सविशेषमिति ॥ पण्डोः सुते युधिष्ठिरे भवति पूज्ये त्वयि अविशेषं यथा तथा भक्ति तन्वति सति तरलाश्चपला मत्सरिणो द्वषवन्तः परे शत्रवः स्वयमेव वैरायि १०शि० व० Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ शिशुपालवधम् तारों वरं कर्तारः । ' शब्दवेर कलह - ' ( ३|१|१७ ) इत्यादिना क्यङ् । ततः कर्तरि लुट् ।। ११५ ।। अन्वयः - ( हे कृष्ण ! ) पण्डोः सुते सविशेषं ( यथाभवति ) तथा भक्ति तन्वति ( सति ) तरलाः मत्सरिणः परे, स्वयं वैरायितारः ।। ११५ ।। हिन्दी अनुवाद - ( उद्धवजी यज्ञ के अवसर पर युद्ध के कारण का उल्लेख करते हुए कहते हैं) हे कृष्ण ! इन्द्रप्रस्थ में जब युधिष्ठिर आपकी सर्वप्रथम पूजा करेंगे, उस समय ( शिशुपाल और उसके समर्थक ) मत्सरी ( दूसरे के उत्कर्ष में डाह या विद्वेष रखनेवाले ) राजागण अवश्य हो विरोध करेंगे ।। ११५ ॥ प्रसङ्ग - क्या शिशुपाल मण्डल के सभी राजागण विरोध करेंगे ? इसका उत्तर देते हुए उद्धवजी कहते हैं— fas सर्वे वैयिष्यन्ते नेत्याह यात्मविदो विपक्षमध्ये सहसंवृद्धियुजोऽपि भूभुजः स्युः । बलिपुष्टकुलादिवान्यपुष्टैः पृथगस्मादचिरेण भाविता तैः ॥ ११६ ॥ इति । ये इह विपक्षमध्ये शत्रुमध्ये सहसंवृद्धियुजोऽपि चैद्येन सहैश्वर्यं गता अपि 'सत्सूद्विपः’(३।२।६१ ) इत्यादिना क्विप् । ये भूभुजो राजान आत्मविदः स्वामिजनवेदिनः स्युः, यद्वा स्वात्मरूपवेदिनः स्युस्तंभू भूग्भिः वलिपुष्टकुलात्काककुलात् । 'काके तु करटारिष्टबलिपुष्पमकृत्प्रजाः' इत्यमरः । अन्यपुष्टैः परभृतैरिवाचिरेण सद्योऽस्माद्विपक्षमध्यात् । 'अन्याशत् - ' (२।३।२६ इत्यत्रान्वशब्दस्यार्थं परत्वात्पृथगादिप्रयोगेऽपि पञ्चमी । पृथग्भाविता पृथग्भविष्यते । भावे लुट् । चिण्वदिट वृद्धिः । तेष्वपि केचिदस्माभिः सङ्गच्छन्ते इत्यर्थः । औपच्छन्दसिकंवृत्तम् ||११६ ॥ अन्वयः - ( हे कृष्ण ! ) इह विपक्षमध्ये सह संवृद्धियुजः अपि ये भूभुजः आत्मविदः स्युः तैः बलिषुण्टकुलात् अन्यपुष्टैः इव अस्मात् अचिरेण पृथक् भाविता ।। ११६ ॥ हुआ हिन्दी अनुवाद - शिशुपाल के पक्ष में रहकर जिनका उत्कर्ष ( अभ्युदय ) है और जो आत्माभिमानी तथा अपने स्वरूप को जाननेवाले राजागण हैं वे अवसर आते ही शिशुपालपक्ष से पृथक् हो जायेंगे। जैसे कौर्वों के समूह से कोयल समय आने पर अलग हो जाती है । प्रकृत श्लोक औपच्छन्दसिकवृत्त का है ।। ११६ ।। प्रसङ्ग — अब उद्धवजी संघर्ष के परिणाम को आशीर्वाद रूप में बतलाते हुए कहते हैं— अथ फलितं निगमयन्नाशिषं प्रयुङ्क्ते - सहज बापलदोषसमुद्रतश्चलित दुर्बल पक्षपरिग्रहः । तव दुरासदवीर्यविभावसौ शलभतां लभतामसुदृद्गणः ।। ११७ ।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः १४७ सहजेति ॥ सहजं स्वाभाविकं चापलं दुविनीतत्वम् अनवस्थितत्वं च । 'चपलः पारदे शीघ्र दुविनीतेऽनवस्थिते' इति वैजयन्ती । तेन व दोषेण समुद्धतो दृप्तः पक्षः सहायो गरुच्च । 'पक्षः पार्श्वगरुत्साध्यसहायबलभित्तिषु' इति वैजयन्ती । चलितोऽस्थिरो दुर्वलपक्षपरिग्रहो यस्य सः असुहृद्गणः शत्रु वर्गस्तव दुरासदवीयविभावमो दुःसहते जोवनी 'वीयं शुक्रे प्रभावे च तेजःसामर्थ्ययोरपि' 'सूर्यवह्नी विभावसू' इति विश्वामरौ । शलभतां पतङ्गत्वम् । 'समौ पतङ्गशलभौ' इत्यमरः। भावे तल । लभतां गच्छतु । रूपकालङ्कारः । द्रुतविलम्बितं वृत्तम् ॥ ११७ ॥ ___ अन्वयः-( हे कृष्ण !) सहजचापलदोषसमुद्धतः चलितदुर्बलपक्षपरिग्रहः असुहृद्गणः तव दुगसदवीर्यविभावसौ शलभतां लभताम् ।। ११७ ।। हिन्दी अनुवाद-हे कृष्ण ! अपनी नैसर्गिक चञ्चलता से उन्मत्त और दुर्बल सहायकोंवाला शत्रपक्ष आपके दुःसहप्रतापरूप अग्नि में पतङ्गों की तरह भस्म हो जाय । प्रकृत श्लोक में रूपकालङ्कार है, एवं 'द्रुतविलम्बित' छन्द है ।। ११७ ॥ प्रसङ्ग-यहाँ महाकविमाघ उद्धव की वाणी की विशेषताओं नथा तज्जन्य श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का उल्लेख करते हैं इति विशकलितार्थामौद्धधीं वाचमेना ___मनुगतनयमार्गामर्गलां दुर्नयस्य । जनितमुदमुदस्थादुच्चकैरुच्छ्रितोरः स्थलनियनिषष्णश्रीश्रुतां शुश्रुवान् सः॥१८॥ इतीति ॥ स हरिरित्थं विशकलितार्था विवेचितार्थामनुगतनयमार्गी नीतिमार्गानुसारिणी दुर्नयस्य बलभद्रायुक्तस्येत्यर्थः । अर्गलां निवारयित्रीमिति वैधयेण रूपकालङ्कारः । 'तद्विष्कम्भोऽर्गलं न ना' इत्यमरः । अत एव जनितमुदं हरेः कृतानन्दाम उच्छ्रिते उन्नते उरःस्थले नियतं निषण्णया अविश्रान्तमाश्रितया श्रिया श्रुतां नान्ययेति मन्त्रगुप्तिः । उद्धवस्येमामौद्धवीमेनां पूर्वोक्तां वाचं : श्रुवाञ्श्रुतवान् । 'भाषायां सदवसश्रुवः' (३।२।१०८) इति क्वसुः । उच्चरेवोच्चकै रुन्नतः सन् । 'अव्ययसर्वनाम्नामकच्प्राक्टेः' (५।३।७१) इत्यकच्प्रत्ययः । उदस्थादासनादुत्थितवान् । 'उदोऽनूर्वकर्मणि इत्यस्य' प्रत्युदाहरणमेतत् । रूपकानुप्रासालङ्कारी। मालिनी वृत्तम् ॥ ११८ ॥ इति श्रीमहोपाध्ययकोलाचलमल्लिनाथसूरिविरचिते शिशुपालवधव्याख्याने सर्वकषाख्ये द्वितीयः सर्गः ॥ २॥ - Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ शिशुपालवधम् अन्वयः-इति सः (हरिः) विशकलितार्थाम् अनुगतनयमार्गाम् दुर्नयस्य अर्गलां जनितमुदम् उच्छ्रितोरःस्थलनियत निषण्णश्रीश्रुताम् एनाम् औद्धवीम् वाचम् शुश्रुवान् (भगवान्) उदस्थात् ॥ ११८ ॥ हिन्दी अनुवाद-श्रीकृष्ण ने इस प्रकार (७१ से ११७ तक ) स्पष्टार्थ को प्रतिपादित करनेवाली, नीतिमार्ग का अनुसरण करनेवाली, दुर्नीति को रोकनेवाली तथा हर्पजनक और (श्रीकृष्ण के ) उन्नत वक्षःस्थल में सदा निवास करने वाली पत्नीस्वरूपा लक्ष्मी (अथवा वक्षःस्थल में सदा स्थित शोभा) से सुने गये उद्धव के वचन को सुना और सिंहासन से उठ खड़े हुए । प्रस्तुत श्लोक में रूपक और अनुप्रासालङ्कार है, एवं मालिनी छन्द है ।। ११८ ।। । इति पं० डॉ० केशवसदाशिवशास्त्रिमुसलेगावकर-विरचितायां माघकाव्य टीकायां मन्त्रवर्णनं नाम द्वितीयः सर्गः ॥२॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान कार्यालय फोन दु३३३४४५ (घर) 335930 चौखम्भा संस्कृत संस्थान पोस्ट बाक्स नं. 1139 के 37/16, गोपाल मन्दिर लेन गोलघर समीप मैदागिन) वाराणसी-२२१००१ (भारत)