Book Title: Shishupal vadha Mahakavyam
Author(s): Gajanan Shastri Musalgavkar
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 185
________________ द्वितीयः सर्गः १०३ स्वेति ॥ केचिद्वृद्धाः स्वस्य शक्त्युपचये सामर्थ्यातिरेके यानं यात्रामाहुः । यथाह कामन्दकः 'प्रायेण सन्तो व्यसने रिपूणां यातव्यमित्येव समादिशन्ति । तथा विपक्षे व्यसनाऽनपेक्षी क्षमो द्विषन्तं मुदितः प्रतीयात् ' ॥ इति । अपरे वृद्धाः परस्य शत्रोव्यंसने विपदि । 'व्यसन विपदि भ्रंशे' इत्यमरः । यानमाहुः ॥ अत्र मनुः - ' तदा यायाद्विगृह्यैव व्यसने चोत्थिते रिपोः ( ७।१८३ ) इति । तद्वयमुक्तपक्षद्वयं कर्तृ आसीनमनुद्युञ्जानम् । 'ईदासः' ( ७२८३ ) इति शानजाकारस्येकारादेशः । त्वामुत्थापयति प्रेरयति । तदुभयलाभादी दृक्कालो न कदापि लक्ष्यत इत्यर्थः ॥ ५७ ॥ अन्वयः - केचित् स्वशक्त्युपचये ( सति ) यानम् आहुः, अपरे परस्य व्यसने ( यानम् आहुः ) तत् द्वयम् " अपि " आसीनं श्वाम् उत्थापयति ।। ५७ ॥ हिन्दी अनुवाद - कुछ राजनीतिज्ञ ( कामन्दक, जैसे ) अपनी शक्ति ( प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्ति) के बढ़ने पर शत्रुपर चढ़ाई करना, उचित कहते हैं । और कुछ (मनु ) राजनीतिज्ञों का विचार है कि जब शत्रु विपत्ति में हो, तब उसपर आक्रमण करना चाहिए। उक्त दोनों ही विचार - ( अपनी शक्ति की वृद्धि तथा शत्रुकी विपत्ति ) खाली बैठे हुए आपको ( युद्ध के लिए ) प्रोत्साहित कर रहे हैं ॥ ५७ ॥ ( अतः शिशुपाल पर आक्रमण करने का यही उचित अवसर है । ) विशेष – कवि माघ के उपर्युक्त विचार कामन्दकीय नीतिसार में देखने को मिलते हैं "प्रायेण सन्तो व्यसने रिपूणां यातव्यमित्येव समादिशन्ति । तथा विपक्षे व्यसनानपेक्षी क्षमोद्विषन्तं मुदितः प्रतीयात् ॥" (का० नी० सा०१५ | २ ) मनु कहते हैं— "तदा यायाद्विगृह्यैव व्यसने चोत्थिते रिपोः ।" (म० स्मृ० ७११८३) प्रस्त समझें तब उसपर ( जब शत्रुको अमात्य आदिके विरोध या व्यसन में आक्रमण करें ।। ) ।। ५७ ।। प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में बलराम जी अपनी अलङ्घनीय यादव-शक्ति की ओर संकेत कर रहे हैं। तत्र स्वशक्त्युपचयं तावल्लक्षयति- लिलङ्घयिषतो लोकानलङध्यानल घीयसः । यादवाम्भोनिधीन् रुन्धे वेलेव भवतः क्षमा ॥ ५८ ॥

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