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आत्म नगरमे ज्ञान की गंगा
जिससे अमृत बरसा। सम्यकद्रुष्टी भर भर पीवे,मिथ्याद्रुष्टी प्यासा ॥ सम्यकदृष्टी समता जल मे, नित ही गोते खाता है।
मिथ्याद्रुष्टी राग व्देषकी ,आग मे झुलसा जाता है। समता जल का सींचन करके हे सुख शांति पा जाता ॥आत्म नगर मे।।1
पुण्य भावको धर्म मान करके ,संसार बढाता। राग बंधकी गुत्थीको वह,कभी न कभी न सुलझा पाता। जो शुभ फलमे तन्मय होता,वह भी निगोद मे जाता|आत्म नगर मे॥2
पर मे अहंकार तु करता ,परका स्वामी बनता।
इसलिये संसार बढाकर,भवसागरमे रुलता। एक बार निज आत्मरसका पान करो हे ज्ञाता ॥आत्म नगर मे॥3
मनुष्य भव दुर्लभ है, पाकर आत्म ज्योत जगाले ।
ज्ञान उजाले मे आ करके ,अपनी निधी उठाले । तु है शुध्द निरंजन चेतन शिवपुरका वासी है।आत्म नगर मे ॥
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