Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 28
________________ मिलता है ( 25, 88 ) । बाह्य स्थितियाँ उसे सुखी - दुःखी नहीं करती हैं ( 88 ) । उसे अपने कार्य में सफलता का लाभ मिले अथवा असफलता की हानि, तो भी वह एक से प्रेरित और दूसरे से विचलित नहीं होता है ( 25 ) । उसे कार्यों के लिए धन न मिले या खूब धन मिल जाए, तो भी वह अपमान या सम्मान भाव से खिन्न या प्रसन्न नहीं होता है ( 25 ), वह तो जीवन में चलता ही जाता है और सामाजिक अन्याय को मिटाने श्रोर व्यक्यिों को समता की ऊँचाइयों पर ले जाने की ओर उसका जीवन सतत गतिमान रहता है ( 24 ) । समता की भूमिका, सम्यग्दर्शन ( सम्यक्त्व) : मनुष्य संसार में शुभ - प्रशुभ भावों में लीन रहता हुआ अपनी जीवन यात्रा समाप्त करता है । जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि शुभ-अशुभ भावों में जीने वाले व्यक्ति के जीवन में एक बात समान होती है कि वह तनाव में जीता है, यद्यपि तनाव की प्रकृति में अन्तर होता है । शुभ भावों से उत्पन्न शुभ प्रवृत्तियाँ समाज के लिए तो हितकर होती हैं, पर व्यक्ति के लिए तो तनाव पूर्ण ही होती हैं । अशुभ भावों से उत्पन्न अशुभ प्रवृत्तियाँ समाज के लिए अहितकर होती हैं और व्यक्ति के लिए तनाव उत्पन्न करती हैं । कैसा भी तनाव हो, व्यक्ति के लिए सह्य नहीं होता है, यद्यपि श्रशुभ भावों के तनाव से परेशान होकर व्यक्ति शुभ भावों के तनाव में राहत अनुभव करता है ( 69 ), किन्तु यह राहत भी व्यक्ति के लिए कुछ समय पश्चात् सहनीय नहीं रह जाती है और वह तनाव मुक्तता को ही चाहने लगता है । पूर्ण तनाव मुक्तता में रुचि ही सम्यग्दर्शन है । जो निषेधात्मक दृष्टि से पूर्ण तनाव मुक्ति है, वही स्वीकारात्मक दृष्टि से पूर्ण समता की प्राप्ति है । अतः पूर्ण समता की प्राप्ति में रुचि को सम्यग्दर्शन कहा जा सकता है । जो समता में रुचि है, वही आत्मा या अध्यात्म में रुचि है । अतः अध्यात्म में रुचि सम्यग्दर्शन है ( 75 ) । श्रात्मा में रुचि या श्रद्धा भी सम्यग्दर्शन है ( 7, 15, 81 ) । चयनिका -] [ xix Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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