Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 88
________________ णियदेहं [(रिणय) वि-(देह) 2/1] । अप्पाणं (अप्पाण) 2/1। अज्झवसवि (अज्झवस) व 3/1 सक। मूढविट्ठी [(मूढ) वि-(दिट्ठि) 1/1 वि] । ओ (प्र) = खेद ।। 63 जो (ज) 1/1 सवि । देहे1 (देह) 7/1। णिरवेक्खो (रिणरवेक्ख) 1/1 वि । णिइंदो (रिणद) 1/1 वि । णिम्ममो (णिम्मम) 1/1 वि । गिरारंभो (रिणरारंभ) 1/1 वि । आवसहावे [(पाद)-(स-हाव) 7/1] । सुरओ [(सु) =पूरी तरह-(रअ) भूक 1/1 अनि । जोई (जोइ) 1/1। सो (त) 1/1 सवि । लहइ (लह) व 3/1 सक । णिव्वाणं (रिणव्वाण) 2/11 1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का - प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136) 64 परदव्वरमो [(पर) वि-(दव्व)-(रअ) भूक 1/1 अनि । बज्झवि (बज्झदि) व कर्म 3/1 सक अनि । विरओ (वि-रत्र) भूकृ 1/1 अनि । मुच्चेइ (मुच्चेइ) व कर्म 3/1 सक अनि । विविहकम्मेहि [(विविह) वि-(कम्म) 3/2] । एसो (एत) 1/1 सवि । जिउवदेसो [(जिण)(उवदेस) 1/1] । समासदो (समास) पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय । बंधमुक्खस्स [(बंध)-(मुक्ख) 6/1] । 2. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का . प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136) ।। 3. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का - प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 65 परवव्वादो [(पर) वि-(दव्व) 5/1] । दुग्गइ (दुग्गइ) मूलशब्द" 1/1 । सव्वादो [(स)-(दव्व) 5/1] । हु (अ)=किन्तु । सग्गई (सग्गइं) 4. किसी कार्य का कारण बतलाने वाली संज्ञा में तृतीया या पंचमी .. का प्रयोग किया जाता है। 5. पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिंशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) चयनिका ] [ 55 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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