Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 73
________________ 8 एवं (अ) = इस प्रकार । जिणपण्णत्तं (जिग)-(पणत्त) भूक 1|| अनि । सगरयणं । (दमण)-(रयरण) 1/1]। धरेह (धर) अाज्ञा . 2/2 सक । भावेण (क्रिविन) = भावपूर्वक । सारं (मार) 1/।। गुणरयणत्तय [(गुगण)-(रयग्ग)-(त्तय) मूलणब्द 6/1।। सोवाणं (सोवाग) 1/1 । पढम' (पढम) 1/1 वि । मोक्खस्स (मोक्म) 4/।। 1. अनुस्वार का लोप विकल्प से होता है। (हेम प्राप्त व्याक गा : 1-29) 2. गुण=तीन गुणों से व्युत्पन्न तीन की संख्या । 3. देखें गाथा सं. 5 9 गाणं (गाण) 1/1 | परस्स (गर) 4/1 । सारो (मार) 1|| । वि (अ)=तथापि । होइ (हो) व 3/1 अक। सम्मत्तं (मम्मन) 1/।। सम्मत्ताओ (सम्मत्त 5/1 | चरणं (घरग) 1|| । चरणाओ (चरण) 5/1 । गिव्वाणं (गिव्वागग) 1/।। 10 सुत्तम्मि' (सुत्त) 7/1। जाणमाणो (जाग) व 1|| । भवस्स (भव) 4/1 वि । भवरणासणं । (भव)-(ग्गामण) 1/1] । च (अ) = निश्चय ही सो (त) 1/1 मवि । कुणदि (कुण) व 3/1 सक । सूई (मूई) - 1/1 । जहा (अ)=जैसे । असुत्ता (असुत्ता) 1/1 वि । णासदि (गाम) व 3/1 अक । सुत्ते (सुत) 7/1 । सहा' (सहा) 1/1 वि णो वि (अ) = कभी नहीं। 3. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) 4. 'सह' के योग में तृतीया विभक्ति होती है और यहां तृतीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग हुआ हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) 11 पुरिसो (पुरिस) 1/1 । वि (अ) = भी । जो (ज) 1/1 सवि । ससुत्तो (ससुत्त) 1/1 वि । ण (अ)=नहीं। विणासइ (विणास) व 3/1 40 ] [ अष्टपाहुड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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