Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 60
________________ 70 जो भीषण संसाररूपी महासागर से (बाहर) निकलने की चाह रखता है, वह कर्मोरूपी ईंधन को जलाने वाली शुद्ध प्रात्मा का ध्यान करता है। 71 ध्यान में स्थित (व्यक्ति) लोक में (हिंसात्मक) व्यवहार से . . रुका हुआ (रहता है), (तथा) लालसा, अहंकार, राग-द्वेष, व्याकुलता और सभी कषायों को छोड़ कर प्रात्मा को ध्याता है। 72 जो रूप मेरे द्वारा देखा जाता है, वह बिल्कुल नहीं जानता है, (और) (जो) जानने वाला है वह (मेरे द्वारा) देखा नहीं जाता है, इसलिए मैं किसके (साथ) बोलू। . 73 जो योगी बाह्य लोकाचार (विषमता) में सोया हुप्रा (है) वह आत्मा (तनाव-मुक्तता) के काज में जागता है। जो बाह्य लोकाचार (विषमता) में जागता है, वह प्रात्मा (तनाव-मुक्तता) के काज में सोया हुआ है। ... 74 इस तरह जानकर योगी पूर्णतः सब बाह्य लोकाचार को छोड़ता है, (और) जिस तरह जितेन्द्रियों (अरहंतों) द्वारा कहा . — गया है, (उसी तरह) परमात्मा का ध्यान करता है। 75 अध्यात्म (समता/तनाव-मुक्तता) में रुचि सम्यक्त्व (है), और 'अध्यात्म (मानसिक समता) का ज्ञान सम्यक् ज्ञान होता है, त्याग (अंनासक्ति) चारित्र (है), जितेन्द्रियों (अरहंतों) द्वारा. (यह) कहा गया है। 76 जिस (शुद्ध प्रात्मा) को जानकर योगी पुण्य और पाप का परित्याग करता है, कर्म-रहित (व्यक्तियों) द्वारा वह निर्विकल्प (आत्मानुभव-रूप.) चारित्र कहा गया हैं। चयनिका ] । [ 27 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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