Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 58
________________ 64 पर द्रव्य में अनुरक्त (व्यक्ति) विभिन्न प्रकार के कर्मों (तनावों) के द्वारा बांधा जाता (है), (पर द्रव्य से) अनासक्त (व्यक्ति) (विभिन्न प्रकार के मानसिक तनावों से) छुटकारा पाता है। संक्षेप से, बन्ध (प्रशान्ति) और मोक्ष (शान्ति) के विषय में यह जिन-उपदेश है। 65 पर द्रव्य के कारण दुर्गति (होती है), किन्तु स्व-द्रव्य के कारण सुगति होती है। इस तरह (यह) जान कर (तुम सब) स्व द्रव्य में अनुराग करो (तथा) शेष से विरति (करो)।. . 66 आत्म-स्वभाव से अन्य (जो) सचित्त-अचित्त (तथा) मिश्रित (द्रव्य) होता है, वह सर्वज्ञ द्वारा सच्चाईपूर्वक पर द्रव्य कहा गया है। 67 जिन द्वारा कथित (वह) आत्मा (जो) दुष्ट पाठ कर्मों से रहित (है), अनुपम, नित्य, (और) शुद्ध (है), (तथा) (जिसका) ज्ञान ही शरीर (है) (वह) स्वद्रव्य होता है । 68 निश्चय ही पर द्रव्य से विमुख जो (व्यक्ति) सम्यक् प्रकार से आचरण करके स्व द्रव्य का ध्यान करते हैं, उन्होंने जितेन्द्रिय के पथ का अनुसरण किया है । (अतः) (वे) परमशांति प्राप्त · करते हैं। 69 व्रतों और तपों के द्वारा जो स्वर्ग (प्राप्त किया जाता है), (वह) अधिक अच्छा (है), (जिससे) इतरों (अव्रतों और अतपों) के कारण नरक में (जाने का) दुख न होवे। (ठीक ही है) छाया और गरमी में ठहरे हुए प्रतीक्षा करते हुए (व्यक्तियों) में बड़ा .. भेद है। चयनिका ] - [ 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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