Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ 39 (हे मनुष्य)। भाव-रहित सुना हुआ होने से क्या लाभ प्राप्त किया जाता है, प्रथवा (भाव-रहित) पढ़े जाने से भी क्या लाभ (प्राप्त किया जाता है)। भाव (ही) गृहस्थ (एवं) साधु होने वालों का आधार बना हुआ है। . . . . . . . 40 (जो) भाव (है) (उसके) तीन प्रकार के भेद (है)। (वह भाव) शुभ, अशुभ (तथा) शुद्ध ही समझा जाना चाहिए। प्ररहंतों द्वारा (कहा गया है कि) धर्म (ध्यान) शुभ (है) तथा मार्त और रौद्र (ध्यान) अशुभ (हैं)। 41 (जो) (आत्मा का) शुद्ध स्वभाव (है) (वह) शुद्ध (भाव) (है); वह (शुद्ध भाव) प्रात्मा के द्वारा आत्मा में ही अनुभव किया : जाना चाहिए । (तीनों में) जो श्रेष्ठ (है) (तुम) उसका प्राचरण करो। इस प्रकार अरहंत द्वारा कहा गया है। . ... 42 यदि (मनुष्य) प्रात्मा को नहीं चाहता है, किन्तु (वह) (केवल) सकल पुण्यों को (ही) करता है, तो भी (वह) परम शांति नहीं पाता है. (और) (वह) संसार (अशान्ति) में ही स्थित कहा गया है। 43 भाव-रहित. (व्यक्तियों) के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग, पर्वत, नदी, गुफा और घाटी में रहना तथा सकल ध्यान और अध्ययन (ये सब) निरर्थक (हैं)। . 44 इन्द्रियरूपी सेना को छिन्न-भिन्न करो, मनरूपी बंदर को प्रयत्न पूर्वक रोको, (तथा) जन-समुदाय को खुश करने के साधन, (केवल) बाह्य व्रतरूपी वेश को तुम धारण मत करो। चयनिका ] _ [17 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106