Book Title: Pragvat Itihas Part 01
Author(s): Daulatsinh Lodha
Publisher: Pragvat Itihas Prakashak Samiti

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Page 14
________________ :: उपदेष्टा श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी:: आपश्री के हृदयस्थल में अपने अंकुर उत्पन्न किये । अब आपका मामा के घर में चित्त नहीं लगने लगा। फलतः मामा और आप में कभी २ कटु बोल-चाल भी होने लगी। निदान 'सिंहस्थ-मैले' के अवसर पर आप मामा को नहीं पूछकर मैला देखने के बहाने घर से निकल कर उज्जैन पहुँचे और वहाँ से लौटकर महेंदपुर में विराजमान श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्वेताम्बराचार्य श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब के दर्शन किये । श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी महाराज की साधुमण्डली के कईएक साधुओं से आप पूर्व से ही परिचित थे। आपने अपने परिचित साधुओं के समक्ष अपने दीक्षा लेने की शुभ भावना को व्यक्त किया । गुरु महाराज भी आप से बात-चीत करके आपकी बुद्धि एवं प्रतिभा से अति ही मुग्ध हुये और योग्य अवसर पर दीक्षा देने का आपको आश्वासन प्रदान किया। निदान वि० सं० १९५४ आषाढ़ कृ० २ सोमवार को खाचरौद में आपको शुभ मुहूर्त में भगवतीदीक्षा प्रदान की गई और मुनि यतीन्द्र विजय प्रापका नाम रक्खा गया। दस वर्ष गुरुदेव की निश्रा में रहकर आपने संस्कृत, प्राकृत भाषाओं का अच्छा अध्ययन और जैनागमों एवं शास्त्रों का गम्भीर अभ्यास किया। वि० सं० १९६३ पौष शु० ६ शुक्रवार को 'अभिधान-राजेन्द्र-कोष' के महाप्रणेता श्रीमद् राजेन्द्रसरि महाराज का राजगढ़ में स्वर्गवास हो गया। गुरुदेव के स्वर्गवास के पश्चात् ही वि० सं० १९६४ में रतलाम में जगतविश्रुत श्री 'अभिधान-राजेन्द्र-कोष' का प्रकाशन श्रीमद् मुनिराज दीपविजयजी और आपश्री की तस्वावधानता में प्रारंभ हुआ। आपश्री ने सहायक श्री अभिधान राजेन्द्र-कोष संपादक के रूप में आठ वर्षपर्यन्त कार्य किया और उक्त दोनों विद्वान् मुनिराजों के का प्रकाशन और जावरा सफल परिश्रम एवं तत्परता से महान् कोष 'श्री अभिधान-राजेन्द्र-कोष' का सात भागों में उपाध्यायपद. में राजसंस्करण वि० सं० १९७२ में पूर्ण हुआ। आपने वि० सं० १९७३ से वि. सं. १९७७ तक स्वतंत्र और वि० सं० १९८० तक तीन चातुर्मास मुनिराज दीपविजयजी के साथ में मालवा, मारवाड़ के भिन्न २ नगरों में किये और अपनी तेजस्वित कलापूर्ण व्याख्यानशैली से संघों को मुग्ध किया। विजयराजेन्द्रसरिजी के पट्टप्रभावक आचार्य विजय धनचन्द्रसुरिजी का वि० सं० १९७७ भाद्रपद शु०१ को बागरा में निधन हो गया था । तत्पश्चात् वि० सं० १९८० ज्येष्ठ शु० ८ को जावरा में मुनिराज दीपविजयजी को सरिपद प्रदान किया गया और वे भूपेन्द्रसूरि नाम से विख्यात हुये। उसी शुभावसर पर अपश्री को भी संघ ने आपके दिव्यगुणों एवं आपकी विद्वत्ता से प्रसन्न हो कर उपाध्यायपद से अलंकृत किया। वि० सं० १९८३ तक तो आपश्री ने श्रीमद् भूपेन्द्रसूरि (मुनि दीपविजयजी) जी के साथ में चातुर्मास किये और तत्पश्चात् आपश्री उनकी आज्ञा से स्वतंत्र चातुर्मास करके जैन-शासन की सेवा करने लगे। आपश्री ने दश स्वतंत्र चातुर्मास और वि० सं० १९८३ से श्रीमद् भूपेन्द्रसूरिजी के आहोर नगर में वि० सं० १९६३ में हुये शेष काल में किये गये कुछ स्वर्गवास के वर्ष तक क्रमशः गुढ़ा-बालोत्तरान, थराद, फतहपुरा, हरजी, जालोर, धर्मकृत्यों का संक्षिप्त परिचय. शिवगंज, सिद्धक्षेत्रपालीताणा (लगा-लग दो वर्ष ), खाचरौद, कुक्षी नगरों में स्वतंत्र चातुर्मास करके शासन की अतिशय सेवा की। लम्बे २ और कठिन विहार करके मार्ग में पड़ते ग्रामों के सद्गृहस्थों में धर्म की भावनायें मनोहर उपदेशों द्वारा जाग्रत की। अनेक धर्मकृत्यों का यहाँ वर्णन दिया जाय तो लेख स्वयं एक पुस्तक का रूप ग्रहण कर लेगा। फिर भी संक्षेप में मोटे २ कृत्यों का वर्णन इतिहास-लेखनशैली की दृष्टि से देना अनिवार्य है।

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