Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 28
________________ (२२) अहा हा ! पुण्य की महिमा भी अपरम्पार है। जहां कहीं पुण्यात्मा जीव जाते हैं, उन्हें वहीं सर्व प्रकार की इष्ट सामग्री प्राप्त हो जाती है। * बारहवां परिच्छेद म धर तो कालसंवर के यहां प्रद्युम्नकुमार अपने माता पिता को सुखी कर रहा था, उनकीमनो न कामनाओं को पूर्ण कर रहा था, और आनंद में मग्न होरहा था, इधर जब रुक्मणी निद्रा से सचेत हुई और उसने अपने प्राणप्रिय पुत्र को अपने पास न देखा, उसके सारे बदन में सन्नाटा छा गया । ऊपर का दम ऊपर, नीचे का नीचे रह गया, मूर्छा आगई, होश हवास जाते रहे । बार २ उसकी मनमोहनी मूरत का स्मरण कर २ के रोने चिल्लाने लगी और छाती कूटने लगी । हाय, मेरा प्यारा आंखों का तारा पुत्र कहां गया । हाय ! मेरे जीवन का अवलम्ब, मेरे नेत्रों का उजाला कहां लोप हो गया । रुक्मणी के विलाप को सुनकर सबकी छाती फटी जाती थी, सारे रणवास में कोलाहल मच रहा था और सबके नेत्रों से धारा प्रवाह जल बह रहा था। ,

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