Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 75
________________ (६१) क्यों कर रहा है । शीघ्र अपनी मायाको समेट कर प्रगट हो। मेरे नेत्र तेरे दर्शनों को तरसते हैं । माता के वचन सुनकर कुमार बोला, हे माता ! मुझ कुरूप पुत्र से तुझे क्या लाभ होगा, उल्टी लज्जा और घृणा होगी, अतएव मुझे जाने दे, मैं कहीं बाहर चला जाऊंगा। पर माता का प्रेम तो आदर्श प्रेम होता है । कुरूप से कुरूप और दुष्ट से दुष्ट पुत्र से भी माता का हृदय शांत होजाता है। उसे वह चांद सा ही दिखाई देता है । रुक्मणी ने उत्तर दिया बेटा तू जैसा है वैसा ही सही, मगर कहीं जा मत । अब ब्रह्मचारी क्षुल्लक जी ने अपना सुंदर उत्कृष्ट रूप धारण कर लिया और माता के चरण कमलों में गिर पड़ा । माता ने शीघ्र अपने प्यारे आंखों के तारे पुत्र को उठाकर छाती से लगा लिया और बारम्बार प्यार करके अपने सुख दुख की वार्ता करने लगी। माता पुत्र के अतिशय सुंदर रूप को बार २ देखती थी परंतु तृप्त न होती थी। उसके हर्ष और आमोद का पार न था । उस समय संसार में उसके समान शायद ही कोई दूसरा सुखी हो। __ कुमार अनेक रूप धारण कर २ के माता के चित्त को प्रसन्न करता था। कभी गोद का बालक बन जाता था और

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