Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 73
________________ (६७) ये देखकर क्षुल्लकजी ने शोक के उद्वेग का कारण पूंछा। तब रुक्मणी ने सारा वृत्तांत सुनाया और कहा कि नारद जी ने मुझे बड़ा धोखा दिया, वे मेरे मरने में आड़े होगए, मैं मरना ही चाहती थी कि उन्हों ने आकर पुत्र के आगमन के शुभ समाचार मुझे सुनाकर मरने से रोक दिया । हाय अब क्या करूं, दोनों ओर से गई, पुत्र भी न आया और मैं भी न मरी । अब मेरे जीवन को धिक्कार है । क्षुल्लक जी ने माता को धैर्य दिया और यह कहकर कि तेरा पुत्र जो कार्य करता, क्या मैं नहीं कर सकता, सत्यभामा की दासियों के सामने इस प्रकार विक्रिया करने लगे। उन्हों ने रुक्मणी को लोप करदिया और एक मायामई रुक्मणी बना कर सिंहासन पर विराजमान किया और आप स्वयं कंचुकी का रूप धारण करके सिंहासन के आगे खड़े हो गए। दासियों ने सविनय नमस्कार करके केशोंकी प्रार्थनाकी । रुक्मणी ने तुरंत अपना मस्तक उघाड़ दिया । नाई ने छुरा निकाला और तेज़ी से चलाने लगा पर क्षुल्लक वेष में कुमार ने माया से ऐसी लीला की कि नाई ने पहिले अपनी नाक और अंगुलियां काट ली फिर दूसरी स्त्रियों के नाक कान भी काट लिए पर किसी को भी मालूम न हुआ । वे नाचती, कूदती, हुई रुक्मणी की चोटी लेकर सत्य

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