Book Title: Pradyumna Charitra
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Mulchand Jain

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Page 90
________________ (८४) तथा अन्य समस्त उपस्थित गण बोल उठे, हा बेटा, प्रद्युम्न कुमार तुम ने इस युवावस्था में क्या विचार किया। यह संयम का समय नहीं है, यह अवस्था भोग भोगने की है न कि दीक्षा लेने की। इस के सिवाय जिनेन्द्र भगवान ने जो कहा है उसे कौन जानता है कि होगा या नहीं, फिर व्यर्थ क्यों भयभीत होरहा है। अपने दुःखित पिताको मोह के वश में जानकर प्रद्युम्न कुमार बोला, हे पूज्य पुरुषो ! केवली भगवान के बचन कदापि असत्य नहीं होसकते, मुझे उनपर पूरा विश्वास है। मुझे भय किसका, अपने बांधेहुए कर्मों के सिवाय और डर ही किसका होसकता है । संसार में न कोई किसी का बंधु है और न कोई शत्रु है, न कोई किसी का कुछ लेसकता है और न कोई किसी को कुछ दे सकता है । इस असार संसार में जीव अनादि निधन हैं, अगणित भवों में इस के अगणित बंधु हुए हैं। फिर बतलानो किसके साथ स्नेह कियाजाए। मुझे आश्चर्य है कि पाप जैसे विद्वान् भी शोक करते हैं। आप क्या शोक करते हैं, आप तो दूसरों को उपदेश देने वाले हैं। क्या आप नहीं जानते कि मृत्यु भायु के क्षीण होजाने पर सबजीवों को भक्षणकर जाती है । क्याराजा क्या रंक, क्या धनीक्या निर्धन, क्या विद्वान् क्या मूर्ख, क्या युवा

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