Book Title: Moksh marg prakashak
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 17
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates अब तक के संस्करणोंमें सभी शीर्षक एक रूप में ही दिये गये हैं जबकि कुछ शीर्षक दूसरे शीर्षकोंके अंतर्गत उप-शीर्षक होने चाहिये थे। दूसरा शीर्षक आने से ऐसा लगता है कि जैसे पहले शीर्षक का प्रकरण समाप्त हो गया है; जैसे – व्यवहाराभासी मिथ्यादृष्टिका प्रकरण चल रहा है और बीचमें 'कुलअपेक्षा धर्मविचार' शीर्षक आ गया; तो ऐसा लगता है जैसे व्यवहाराभासी का प्रकरण समाप्त हो गया है, जबकि वह ३५-३६ पृष्ठ आगे तक जाता है। इन ३५-३६ पृष्ठोंमें अनेक शीर्षक डाक दिये गये जो वस्तुतः उप-शीर्षक थे। ____ अत: शीर्षकोंको तर्क संगत बनाने के लिये उन्हें सात भागोंमें बाँटा गया है और उनकी भिन्नता स्पष्ट करने के लिये अनेक प्रकार के टाइप प्रयोग किये गये हैं। विषय सूची भी तदनुसार अनेक टाइपोंमें बनाई गई है जिससे विषय वस्तुका संतुलित दिगदर्शन सूची देख कर ही हो जावेगा। यही स्थिति पैरेग्राफोंके समबन्धमें भी थी। जो वाक्य कई प्रकरणोंके उपसंहाररूपमें था, उसे भी बिना पैरा बदले ही रख दिया गया था, जिससे यह पता ही नहीं चल पाता था कि यह उपसंहार कितनी विषयवस्तु का है। जैसे – पृष्ठ २१३ पर एक शंका का समाधान चल रहा था और उसी पैरामें लिख दिया कि 'इसप्रकार निश्चयनयके आभाससहित एकान्तपक्षके धारी जैनाभासोंके मिथ्यात्वका निरूपण किया।' यह उपसंहार-वाक्य लगभग बीस पृष्ठोंके लिये है। उसे एक शंका के समाधान के साथ रख देना कहाँ तक उचित है ? इसी प्रकार अन्य भी जानना। विषय को सुगम बनाने के लिये अधिकतर पैरा तोड़े गये हैं, पर अनावश्यक पैरा समाप्त भी कर दिये गये हैं। * इसप्रकार के तारे लगाने का नया प्रयोग किया है। खासकर उन स्थानों पर जहाँ शीर्षक से समबन्धत विषयवस्तु समाप्त हो गई है और नया शीर्षक लगाना उपयुक्त या संभव नहीं हुआ है, वहाँ पृथक्ता बताने के लिये इस प्रकार के तारोंका प्रयोग किया गया उद्धरणोंके संदर्भ और प्रमाण यथा सम्भव प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें कहाँ-कहाँ, क्या-क्या किया गया है- यह सब यहाँ लिखना संभव नहीं है। इसके लिये पूर्व-प्रकाशित संस्करणों से इस संस्करणका मिलान कर स्वाध्याय करना अपेक्षित है। आशा है, विशिष्ट जिज्ञासु पाठक ऐसा करेंगे ही। इसके संपादनके समय यह अनुभव हुआ कि जो लोच और लावण्य पंडित टोडरमलजी की मूल भाषा में था, वह अनुवाद में सुरक्षित नहीं रह पाया है। उसे ठीक करने का विकल्प आया पर वह काम इतना बड़ा था जो इस समय समयाभावसे संभव नहीं था। मुझे विश्वास है कि इस नवीन संस्करण से मोक्षमार्गप्रकाशकका मर्म समझने में पाठकोंको थोड़ी-बहुत सुविधा अवश्य होगी। दिनांक १ मई, १९७८ ___ - (डॉ०) हुकमचन्द भारिल्ल Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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