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मीराँबाई
जाति ही ते जाति कैसी जाहि को है जाति चेरी,
तो सों ह्रौं रिसानी मेरी मां सों न रिसाहिरी । 'लाज गहु, लाज गहु'- लाज गहिबे को रही, पंच हँसि हैं री हौं तो पंचन त बाहिरी ॥
परंतु इतने से भी जनता के कवि हृदय को संतोष न हुआ। अस्तु, सादृश्य की इस भावना को और आगे बढ़ाकर उसने मीरों को ब्रज-गोपी का अवतारनिश्चित किया । मीराँ के नाम से प्रसिद्ध कितने ही पदों में इस बात की ओर संकेत मिलता है । यथा :
मेरे प्रीतम प्यारे राम ने लिख भेजूँ री पाती ॥ टेक ॥ स्याम सनेसो कबहुँ न दीन्हों, जान बूझ गुरु बाती ॥
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तुम देख्याँ बिन कल न परत है, हियो फटत मोरी छाती ॥ मीरा कहे प्रभु कब रे मिलोगे पूर्व जनम के साथी | [ मी० शब्दा० वे०प्र० ५०२१] और भी राणा जी म्हारी प्रीत पुरबली मैं क्या करूँ ।
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राम नाम बिन घड़ा न सुहावे, राम मिले मेरा हियरा ठराय || [ मी० शब्दा० पृ० ३५
और भी हेली म्हाँसू हरि बिन रह्यो न जाय ।
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पूर्व जन्म की प्रीत पुराणी, सो क्यूँ छोड़ी जाय । मीरा के प्रभु गिरधर नागर और न श्रावे म्हाँरी दाय ॥ [मी० शब्दा० पू० ३८ ]
और एक पद में तो स्पष्ट रूप से लिखा मिलता है कि
पूरब जनम की मैं हूँ गोपी का अधविच पड़ गयो झोलो रे । तेरे कारण सब जग त्यागो, अब मोहे कर सों लो रे || मीरा के प्रभु गिरधर नागर, चेरी भई बिन मोलो रे ॥
[ राग कल्पद्रुम प्रथम भाग पृ० ३२७
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