Book Title: Meerabai
Author(s): Shreekrushna Lal
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan

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Page 178
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७१ आलोचना खंड आवेग है । भाव की स्वच्छंदता के साथ स्वाभाविकता, परिष्कार के साथ अनलंकरण मीरों की भाषा की विशेषता है। छंद-मीराँ के पद पिंगल के नियमों को दृष्टि में रखकर नहीं लिखे गए थे। उन पदों की गति और संगीत में मीराँ के सरल और संदर भावों का स्वाभाविक संगीत मिलता है, जिसका कोई नियम नहों। भावों के अनुरूप ही छंद की गति बदलती रहती है । देखिए : करणों सुणि स्याम मेरी, मैं तो होइ रही चेरी तेरी। दरसण कारण भई बावरी विरह विथा तन घेरी। तेरे कारण जोगण हूँगी दूंगी नग्र बिच फेरी ! कुंज सब हेरी हेरी ॥ अंग भभूत गले म्रिग छाला, यो तन भसम भरूँरी । अजहुँ न मिल्या राम अबिनासी, बन बन बीच फिरूँरी। रोऊँ नित हेरी हेरी ॥ [ मी० पदा० पद सं० ९४ ] इसका पहला चरण १३ मात्रा का है, दूसरा १८ मात्रा का, तीसरा और चौथा १६+१२ मात्रा का और पाँचवाँ १६मात्रा का है । इस प्रकार स्वच्छंद भाव से छंदों की गति बदलती रहती है। भाषा की भाँति मीराँ के छंद भी स्वच्छंद हैं। कला-मीरों के पद नायिका भेद तथा अन्य साहित्यिक परम्पराओं से ही मुक्त नहीं हैं, उनमें ध्वनि और व्यंजना, रीति और वक्रोक्ति, गुण और अलंकार की काव्य परम्परा का भी निर्वाह नहीं है। यों तो कुछ पदों में रूपक, । रूपक ( सुधन जल सींचि सीचि प्रेम बेलि वोई । अब तो बेल फैल गई प्रांणद फल होई। भौसागर अति जोर कहिए, अनंत ॐडो धार : राम नाम का बांध बेड़ा, उतर परली पार ।। ज्ञान चोसर मन्डी चोहटे, सरत पासा मार। या दुनियां में रची बाजी, जील भाव हार ।। For Private And Personal Use Only

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