Book Title: Meerabai
Author(s): Shreekrushna Lal
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan

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Page 175
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीराबाई मीरों की भक्ति-भावना की स्वच्छंदता ने, जिसमें लोक-लाज नहीं था, समाज का भय नहीं था, काव्य-कला में भी इसी प्रकार की स्वच्छंदता दद ली थी । भाषा, छंद और काव्य-परम्परा सब में मीरा ने एक स्वाभाविक स्वच्छंदता प्रदर्शित की है। भाषा-मीराँबाई के पद वर्तमान रूप में तीन भिन्न भाषाओं में मिलते हैं । कुछ पदों की भाषा पूर्ण रूप से गुजराती है और कुछ की शुद्ध ब्रज भाषा है, शेष पद राजस्थानी भाषा में पाये जाते हैं, जिनमें ब्रजभाषा का भी पुट मिला हुआ है। पता नहीं मीरों के मूल पद किस एक अथवा किन-किन भिन्न भाषाओं में लिखे गए थे, परंतु इस समय उनमें स्पष्ट तीन भाषाएँ हैं । ऐसा भी सम्भव है कि सचमुच ही तीन भिन्न भाषाओं में लिखी गई हों क्योंकि मीराँ गुजरात में काफी दिनों रही थीं, ब्रज में भी उन्होंने लगभग पाँच छः वर्ष बिताए थे और राजस्थान में तो वे पैदा हुई थीं, वहीं व्याही गई थीं और जीवन का अधिकांश भाग वहीं बिताया था। ब्रजभाषा तथा ब्रज-मिश्रित राजस्थानी भाषा में विरचित मीरा के पदों में भाषा का प्राडम्बर तनिक भी नहीं है । जायसी, कबीर तथा अन्य संत कवियों की भाँति मीराँबाई भी परिष्कृत तथा पूर्ण साहित्यिक भाषा नहीं लिख सकती थीं, ऐसी बात नहीं है, वरन् इसके विपरीत कुछ पदों में मीर ने ऐसी परिष्कृत तथा शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है जो पिछले खेवे के कवियों के लिए आदर्श मानी जा सकती है । उदाहरण के लिए देखिए : मन रे परसि हरि के चरण ।। टेक ॥ सुभग सीतल कँवल कोमल, त्रिविध ज्वाला हरण । जिण चरण पहलाद परसे, इन्द्र पदवी धरण। जिण चरण ध्रुव अटल कीने, राखि अपनी सरण । त्याहिद[ मी० पदा० पद० सं० १] अथवा छाँड़ों लॅगर मोरी बहियाँ गहो ना। मैं तो नार पराये घर की, मेरे भरोसे गुपाल रहो ना। For Private And Personal Use Only

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