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मीराँबाई
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है । यह चित्रण प्रकृति की स्वतंत्र सत्ता मान कर नहीं किया गया, वरन् अधिकांश उद्दीपन विभाव के ही रूप में श्राया है। मिलन-सुख अथवा विरह की वेदना को उद्दीप्त करने वाली प्रकृति ने ही भक्त कवियों और बाद के रीति कवियों को आकृष्ट किया । भक्त कवि अपनी भक्ति और अपने भगवान में ही इतने मग्न हो रहे थे कि उन्हें प्रकृति की स्वतंत्र सत्ता का ध्यान भी न था । फिर भी परम्परा वश मिलन-सुख और विरह वेदना को उद्दीप्त करने वाली प्रकृति पर उनकी दृष्टि पड़े बिना न रही। सूर और विद्यापति के पदों में प्रकृति के इस रूप का बहुत ही सुन्दर और व्यापक वर्णन मिलता है । मीराँ की विरह वेदना अंतर्मुखी थी इसीलिए उद्दीपन विभाव के रूप में भी प्रकृति का चित्रण उनकी कविता में बहुत कम है । केवल एक पद में उन्होंने 'बारहमासा' की परम्परा का पालन कर दिया है । केवल वसंत और वर्षा का वन कुछ विस्तार से मिलता है क्योंकि ये दोनों ऋतुएँ कवि हृदय को प्रभाबित करती ही है । इन दोनों ऋतुओं के वर्णन में भी वसंत का वर्णन केवल होली के रूप में अत्यंत संक्षिप्त है । होली में सारे संसार को राग-रंग में मस्त देखकर नारीजनोचित स्पर्धा के भाव से मीराँ केवल इतना ही कहती हैं : किरण सङ्ग खेलूँ होली, पिया तज गए हैं अकेली । हंली पिया बिन मोहिं न भावै, घर ब्राँगण न सुहावे । दीपक जो कहा करूँ हेली, पिंय परदेस रहावे । सूनी सेज जहर ज्यू लागे, मुसक सुसक जिय जावें । नींद नैन नहि यावे । पूर्ण रूप से श्रकृष्ट किया | डोल जाता है, तब वियोगी
परन्तु वर्षा ऋतु ने विरहिणी मीरों का ध्यान बादलों को देखकर जब सुखी लोगों का भी मन का तो कहना ही क्या ? काले-काले बादलों ने मीरों का धैर्य हर लिया वे' अधीर होकर पुकार उठती है :
अथवा
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१. देखिये भीराँबाई की पदावली पद सं० ११६ ।
२. मेघा लोके भवति सुखिनोप्यन्यथा वृत्ति चेतः । कंठा इलेषप्रखयिनि जने कि पुनदूर संस्थे
मेघदूतम् पूर्वमेघः, तृतीय श्लोक उत्तराद्ध'
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