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जीवनी खंड करते थे। सं० १५४८ में अजमेर के शासक मल्लू खाँ ने धोखे से बरसिंह को बंदी बना लिया ! यह समाचार पाते ही राव दूदा अपने ज्येष्ठ पुत्र बीरम देव को मेड़ता का राज्य सँभालने के लिए छोड़कर जोधपुर के महाराज सातलदेव की सहायता से पीपाड़ के पास मल्लू खाँ को परास्त किया । बरसिंह कारामुक्त तो अवश्य हुऐ परन्तु कुछ ही दिनों बाद सं० १५४६ में उनकी मृत्य हो गई। कहा जाता है कि कारागृह में ही मुसलमानों ने उन्हें जहर दे दिया था । बरसिंह की मृत्यु के उपरांत मेड़ते का श्राधा राज्य राव दूदा को मिला और आधे भाग पर बरसिंह के पुत्र सीहाजी का अधिकार रहा । सीहा जी निर्बल शासक थे और उनमें अजमेर तथा नागौर के मुसलमान शासको से युद्ध करने की सामर्थ्य न थी। अतएव सं० १५५२ में ये सम्पूर्ण मेड़ता अपने चाचा राव दूदा के लिए छोड़ स्वयं रीया चले गए।
राव दूदा के छः पुत्रों में राव वीरमदेव सबसे बड़े थे जिनके ग्यारह पुत्रो में सबसे बड़ा चित्तौर का रक्षक वीरश्रेष्ट जयमल था। दूदाजी के चतुर्थ पुत्र राव रत्नसिंह थे जिन्हें गुजारे के लिए बारह गाँव मिले थे। इन्हीं बारह गाँवों में से एक कुड़की नामक गाँव में मीराँबाई का जन्म हुआ जो अपने पिता की इकलौती बेटी थीं । बचपन में ही मातृहीन हो जाने के कारण मीराँ अपने पितामह राव दूदा के साथ मेड़ता में ही रहने लगीं जहाँ उनसे छोटे चचेरे भाई जयमल भी रहते थे । राव दूदा चतुर्भुज भगवान् के भक्त एक परम वैष्णव थे । मेड़ते में उनका बनवाया हुअा चतुर्भुज जी का प्रसिद्ध मंदिर अब तक मौजूद है । सं० १५७२ में राव दूदा की मृत्यु के पश्वात् बीरमदेव भेड़ता के शासक हुये जिन्होंने सं० १५७३ में मीराँबाई का विवाह महाराणा सांगा के ज्येष्ठ कुवर युवराज भोज के साथ कर दिया। सं० १५८४ में खनवाँ के युद्ध में महाराणा सांगा की पराजय हुई और उसी युद्ध में मीरों के पिता रत्नसिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए। _ 'भक्त नामावली' के सम्पादक राधाकृष्ण दास मेवाड़ में मीराबाई के नाम से प्रसिद्ध मन्दिर को मूर्तिशून्य देख, उनके इष्टदेव गिरधर लाल की मूर्ति की खोज करते हुये थामेर पहुँचे और वहाँ उस मूर्ति को श्री जगत
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