Book Title: Meerabai
Author(s): Shreekrushna Lal
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan

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Page 162
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अालोचना खंड १५५. ने उन्हें अपना लिया और अपना ही नहीं लिया उन्हें मोल ही ले लिया और • उन पर अपना सब कुछ न्यौछावर भी कर दिया : माई री मैं लीयो गोविन्दो मोल ॥ टेक ।। कोई कहै छाने, कोई कहै चौड़े, लियो री बज्जता ढोल । कोई कहै मुँहघो कोई सु घो, लियो री तराजू तोल । कोई कहै कारो, कोई कहै गोरो, लियो री आँखी खोल । याही क सब लोग जाणत है, लियो री आँखी खोल । मीरों के प्रभु दरसन दीज्यौ, पूरब जनम को कोल । मीरों ने अपने प्रियतम को लुक-छिप कर नहीं, ढोल बजा कर, तराजू पर तौल कर, अपनी आँखें खोल कर अच्छी तरह परीक्षा कर लेने के पश्चात् ही मोल लिया है। यह प्रेम अद्भुत और अपूर्व है । प्राचीन आचार्यों के लक्षण ग्रंथों में भी स्वप्न-दर्शन, चित्र-दर्शन तथा गुणों का गान सुनकर पूर्वानुराग उत्पन्न होना स्वीकार किया गया है, परन्तु वह पूर्वानुराग केवल पूर्वानुराग ही होता है, प्रेम की इस चरम परिणति को कभी प्राप्त नहीं होता। पूर्वानुराग के पश्चात् मिलन हीना प्रेम की प्रौढ़ता के लिए आवश्यक माना गया है। परंतु यहाँ मीराँ के पूर्वानुराग ने बिना मिलन के ही प्रेम की प्रौढ़ता ही नहीं प्राप्त की, वरन् वह प्रेम की चरम सीमा तक पहुँच गई । वह पूर्व जन्म के संस्कार द्वारा ही सम्भव हो सकता है । महाकवि कालिदास ने भी कहा है कि मन पिछले जन्म के सम्बन्ध को भली भाँति पहचान ही लेता है।' मिलन के अभाव में भी मीरों का प्रेम और विरह किसी भी प्रेम-योगिनी से कम नहीं था। सच तो यह है कि विरह-साधना में मीराँ अदितीय हैं। अपने राम के लिए उनकी प्रतीक्षा का एक राग सुनिए : राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊँ बाटड़ियाँ ॥टेक।। दरस बिना मोहिं कछु न सुहावै, जक न पड़त है अाँखड़ियाँ । १. रतिस्मरौनूनमिमावभूतां राज्ञां सहस्रधु तथा विबाला । गतेयत्माप्रतिरूपमेव मनो हि जन्मान्तर मङ्गतिशम् ।। [ रघुवंश, मम संग, १५ वां श्लोक ] For Private And Personal Use Only

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