Book Title: Meerabai
Author(s): Shreekrushna Lal
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan

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Page 181
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ मीराँबाई अपने गिरधर के प्रेम की उनसे तुलना क्यों करने चलीं । वे तो सारे संसार को भूल कर एक उसी नागर की रट लगाए हुए हैं : ' म्हारो जनम मरन को साथी, थाँने नहिं विसरूँ दिन राती। तुम देख्याँ बिन कल न पड़त है, जानत मेरी छाती । ऊँची चढ़ चढ़ पंथ निहारूँ, रोय राय अंस्त्रियाँ राती। xxx xxx पल पल तेरा रूप निहारूँ निरख निरख सुख पाती। मीरों के प्रभु गिरधर नागर हरि चरण चित राती॥ और इसीलिए प्रकृति के नियमानुसार वसंत ऋतु में मधुवन को विकसित और पल्लवित देखकर सूर की गोपियों की भाँति वे इस प्रकार कोसता नहीं कि: मधुवन तुम कत रहत हरे। विरह वियोग स्यामसुंदर के ठाड़े क्यो न जरे। उनके अंतर में तोश्याम-विरह के अतिरिक्त, और कोई भाव ही नहीं है। ईर्ष्या और देष मोह और मत्सर क्रोध और घृणा सब इस बिरह की बाढ़ में बह गया है: राम मिलण के काज सखी, मेरे श्रारति उर में जागी री॥टेक॥ तलफत तलफत कल न परत है, विरह बाण उर लागीरी। निसदिन पंथ निहारू पीव को, पलक न पल भरि लागी री। पीव पीव मैं रहूँ रात दिन दूजी सुधि बुधि भागी री। विरह भवंग मेरो डस्यो है कलेजो, लहरि हलाहल जागी री॥ मीरों के विरह की यह एकनिष्ठा कला का उपहास सा करती है; क्योंकि साधारण व्यथा और साधारण प्रेम तो कला की करामात से, वक्रोक्ति और व्यंजना से, उपमा और उत्प्रेक्षा से रमणीय,चमत्कारपूर्ण और आकर्षक बनाये जा सकते हैं, परंतु जहाँ प्रेम का अपार सागर है, जहाँ उमड़ती हुई वेदना की एक बाढ़ है, वहाँ कला और कौशल की पहुँच भी नहीं हो पाती । जहाँ अंतरतम को पाड़ा और आनंद की अनुभूति की अभिव्यक्ति करनी पड़ती है, वहाँ रस, अर अलकार ध्वनि और व्यंजना,रीति और वक्रोक्ति आदि सबका अतिक्रमण कर सरल और स्पष्टतम शब्दों का ही सहारा लेना पड़ता है । मीनू For Private And Personal Use Only

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