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श्रालोचना खंड
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की सबसे बड़ी विजय सती-मोह प्रसंग में दिखाई गई है जो गुसाई तुलस दास की अपनी सूझ है । इस प्रसंग में सती ज्ञान की प्रतीक है और शिवजी भक्ति के । लीलाप्रिय भगवान् राम को सीता के वियोग में विकल देखकर सच्चे भक्त शिव जी तो पुलकित हो उठते हैं, परंतु ज्ञान की प्रतीक सती के हृदय में कितनी हो शंकाएँ उठती हैं :
ब्रह्म जो व्यापक विरज अज, अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत वेद ।। विष्णु जो सुर हित नर तनु धारी । सोउ सर्वज्ञ जथा त्रिपुरारी।
खोजइ सो कि अज्ञ इव नारी । ज्ञानधाम श्रीपति असुरारी॥ और इन शंकाओं से प्रेरित होकर जब वह राम की परीक्षा लेने जाती है, तब उसे अपने ज्ञान की तुच्छता का बोध होता है और फिर शंकर द्वारा परित्यक्त होकर, पिता द्वारा अपमानित होकर उसे अपना शरीर भस्म करना पड़ता है। इस प्रकार ज्ञान और भक्ति के संघर्ष में ज्ञान पराजित ही नहीं होता उसे अपना अस्तित्व ही मिटा देना पड़ता है। सती जब दूसरा अवतार धारण करके गौरी के रूप में जन्म लेती है तब वह भी शिव जी की ही भांति भक्त है, ज्ञानी नहीं । इस प्रकार एक पौराणिक कथा के रूप में तुलसीदास ने ज्ञान का मूलोच्छेद ही कर डाला।
दूसरी ओर सूरदास ने भी ज्ञान के ऊपर भक्ति की विजय दिखाई, जे भागवत की परम्परा में होते हुए भी कवित्वपूर्ण और सुंदर है । सूर ने भक्ति की प्रतीक गोषियों को समझाने के लिये शान के प्रतीक उद्धव को ला खड़ा किया और इस प्रकार भक्ति और ज्ञान का संघर्षदिखला कर भक्ति की विजय दिखाई । यह विजय तर्क की विजय नहीं थी जैसी कि शंकराचार्य ने अपने प्रतिद्वंद्वियों पर प्राप्त की थी वरन् यह भावना की विजय थी। तर्क की दृष्टि से भक्ति और ज्ञान में कोई संघर्ष ही नहीं। ज्ञान और भक्ति का अंतर स्पष्ट करते हुए सच्चे कवि हृदय सूर ने उद्धव से कहलवाया है :
हौ इक बात कहत निगुन की वाही में अटकाऊँ । वै उमड़ी वारिधि तरंग ज्यों जाकी थाह न पाऊँ ॥
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