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मीराबाई
तुम देख्याँ बिन कल न परत है, हियो फटत मोरी छाती ।
मीराँ कहे प्रभु कब रे मिलोगे, पूर्व जन्म के साथी । अथवा हेली म्हाँसू हरि बिनि रह्यो न जाय ॥
सास लडै मेरी नगाद खिजावै रगा या रिमाय : xx
xxxx पूर्व जनम की प्रीत पुराणी, सो क्यूँ छोड़ी जाय । मीरों के प्रभु गिरधर नागर और न आवे म्हारी दाय ।
मो० पदा० पद सं० ४६ । इस प्रकार मीरों की प्रीति पुरानी अवश्य है, परन्तु कितनी पुरान: है यह कोई भी नहीं कह सकता। किसी पूर्व जन्म में जब बे सम्भवतः कोई गोपी रही होंगी तब प्रथम दर्शन में अथवा बाल-क्रीड़ा के मिलन और साहचर्य द्वारा ही भगवान् कृष्ण के प्रति उनका प्रेम हो गया होगा और वह प्रेम इस जन्म में भी किसी भूली हुई स्मृति के समान जाग उठा है । जब से वह पुरानी प्रीति मीराँ की चेतना में साकार हो उठी है तभी से वे विरह में व्याकुल हो गई हैं । इस प्रकार मीराँ का प्रेम विरह से प्रारम्भ होकर विरह में ही समाप्त हुआ।
मीरों के इस जन्म में उनकी पुरानी प्रीति जागने का कुछ वर्णन उनके कुछ पदों में मिलता है । एक स्थान पर मीरा लिखती हैं :
माई म्हॉने सुपने में, परण गया जगदीस । सोती को सुपना श्राविया जी, सुपना विस्वा बोस ।
मी० पदा० पद मं०२७) और भी, सोवत ही पलका में मैं तो, पलक लगी पल में पिउ पाए।
मैं जु उठी प्रभु श्रादर देन , जाग परी पिव हूंढ़ न पाए ।
और सखी पिउ सूत गमायें, मैं जु सखी पिउ जागि गमाए । अाज की बात कहा कहूँ सजनी, सपना में हरि लेत बुलाए ।
वस्तु एक जब प्रेम की पकरी, श्राज भये सखि मन के भाए। अस्तु, कल्पना अथवा स्वप्न में ही अपने गिरधर नागर का दर्शन पाकर मीरा
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