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जीवनी खंड
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ही नहीं, शील, गुण और सौन्दर्य में भी अद्वितीय हैं; उनमें समस्त कामिनीजनोचित गुणों और सौन्दर्य का अद्भुत आकर्षण है । ___ मध्यदेश के कवि हृदय ने न तो ऐतिहासिक सत्य के प्रति असंतोष प्रकट किया, न मीराँ को श्रादर्श नारी के रूप में चित्रित किया, वरन् उसने भागवत से मीराँ की एक उपमा हूँढ़ निकाली-ब्रज-गोपी । ब्रज की गोपियाँ भी मोस् के समान विवाहिता थीं, परंतु भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति उनका स्वकीया कासा प्रेम था । मीरों की भक्ति-भावना भी ठीक उसी कोटि की थी। सबसे पहले भक्त कवि नाभादास ने ही यह नाम्य ढूंढ़ निकाला था । 'भक्तमाल' में वे मीरों के सम्बंध में लिखते हैं :
सदृश गोपिका प्रेम प्रकट कलियुगहिं दिखायो।
निर अंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो । फिर देव कवि के दो कवित्तों में इस उपमा का कवित्वपूर्ण विकास हुआ। कवि ने मीराँ के मुख से कहलवाया है :
कोई कहौ कुलटा कुलीन अकुलीन कहो,
कोई कहौ रंकिनि कलंकिति कुनारी हौं। कैसो नरलोक, परलोक, वरलोकनि में,
लीन्हीं मैं अलीक लाक-लीकनि ते न्यारी हो ।। तन जाऊ, मन जाऊ देव गुरुजन जाऊ,
प्रान किन जाउ टेक टरति न टारी हौं। वृन्दावनवारी वनवारी की मुकुट वारी,
पीतपट वारी वहि मूरति पै वारी हो । कैसी कुलबधू ? कुल कैसो ? कुलबधू कौन ?
तू है यह कौन पूछ काहू कुलटाहि री । कहा भयो तोहि, कहा काडि तोहि तोहि मोहिं,
कीधौं और का है और कहा न तो काहि री॥
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