Book Title: Meerabai
Author(s): Shreekrushna Lal
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan

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Page 166
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलोचना खंड १५४ शुद्ध और पवित्र है । परन्तु इसमें कोई विशेषता नहीं है क्योंकि तुलसीदास की भक्ति-भावना देखते हुए उनके शृंगार-वर्णन में शुद्धता और पवित्रता न होना अवश्य आश्चर्यजनक होता । तुलसीदास दास्यभाव की भक्ति करते थे जो लौकिक भक्ति-भावना की कोटि में बहुत निम्नश्रेणी की मानी गई है। वहाँ उच्छं खलता और असंयम के लिए कोई स्थान ही नहीं वरन् वहाँ तो मर्यादा की रक्षा का ही महत्व अधिक है । एक सेवक अपने स्वामी और स्वामिनी के शृंगार-वर्णन में शुद्धता और पवित्रता के अतिरिक्त और देख हो क्या सकता है। परन्तु मोरों ने माधुर्यभाष की तीव्रतम भक्ति-भावना में भी जो पवित्रता, गम्भीरता और स्वाभाविक सरलता प्रदर्शित की है वह वास्तव में अद्भुत और अभूतपूर्व है। मारी के पदों में मधुर भाव को पवित्र, गम्भीर और सहज अभिव्यक्ति के मुख्य दो कारण है। पहला तो उनका गिरधर नागर के प्रति मधुर भाव मिलन के अभाव में अत्यंत गम्भोर हो उठा है। लौकिक शृंगार की सभी अपवित्रता और उच्छखलता विरह को पवित्र दिव्य ज्वाला में जल कर भत्म हो गई है। विरह से मारम्भ कर विरह में ही समाप्त होने वाली उनको गम्भीर प्रेम-साधना में तपाए हुए सोने के समान वह निर्मल तेजस्विता है कि उसके सामने पढ़ने वालों को लोकिक शृंगार भावना भी शुद्ध हो जाती है। यह बात नहीं है कि मीराँ केवल विरह की आँच में ही जलती रहती हैं; उन्हें मिलन की अाशा का आनंद और संयोग का काल्पनिक सुख भी मिल जाता है, परन्तु उस क्षणिक पाशा और भिलन-सुख में भी साधक के पवित्र भावों के ही दर्शन होते हैं । सावन में बादलों को मंद ध्वनि में उन्हें अपने प्रियतम के आने की आवाज़ सुनाई पड़तो है और वे उत्सुक अाशा से प्रतीक्षा करने लगती हैं : सुनी हो मैं हरि श्रावन की आवाज || हेल चढ़े चाहे जोऊं मेरी सजनी, कब श्रावै महराज ।। अथवा, मुक पाई बदरिया सावन की, सावन की मन भावन की। For Private And Personal Use Only

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