Book Title: Meerabai
Author(s): Shreekrushna Lal
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan

View full book text
Previous | Next

Page 154
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४७ आलोचना खंड नन्द नन्दन बिलमाई, बदरा ने घेरी माई ॥ टेक ॥ इत बन लरजे, उत धन गरजे, चमकत बिज्जु सपाई ॥१॥ उमड़ घुमड़ चहुँ दिस से अाया, पवन चले पुरवाई ॥२॥ दादुर मोर पपीहा बोले, कोयल सब्द सुनाई। मोग के प्रभु गिरधर नागर चरन कमल चित लाई ।। मो० शब्दा० पृ०० ४८] और भी, बादल देख भी हो स्याम मैं बादल देख झरी । काली पीली घटा ऊमंगी बरस्यो एक घरी । जित जाऊँ तित पानिहि पानी, हुई सब भोम हरी ।। [ मी० शब्दा० पृ० सं० ४७ ] कभी तो बादलों की गरज में मीरों को अपने गिरधर नागर के आने की आवाज सुनाई पड़ती है और उन्हें यह चिन्ता सताती है कि :. मतवारो बादल अायो रे, हरि के संदेसो कुछ नहिं लायो रे ॥ दादुर मोर पपीहा बोले, कोयल सबद सुनायो रे। कारी अंधियारी बिजुली चमके, विरहिन अति डरपायो रे ॥ एक तो सावन ने यों ही मन को सरस बना कर गिरधर नागर से मिलने की उत्कंठा अत्यंत तीव्र कर दी है, दूसरे पपीहा ने 'पी कहा' की रट लगा कर विरह-वेदना को असह्य बना दिया है। इसीलिए भूत मात्र से स्नेह रखने वालो माराँ पपीहे को वैरी समझकर उससे पूछती हैं : रे पपइया प्यारे कब को वैर चितारो ।। में सूती छी अपने भवन में, पिय पिय करत पुकारो। दाध्या ऊपर लूण लगायो, हिवड़े करवत सारो। प्रकृति का चित्रण मीरों ने बहुत ही कम किया है परंतु जो कुछ भी किया है वह बहुत ही स्वाभाविक और सुन्दर है, अत्यंत कवित्वपूर्ण है। व्यर्थ की अतिशयोस्तियों में उलझना, केवल परम्परा का पालन करना मीरों का स्वभाव न था, उन्होंने तो केवल अपनी स्वाभाविक अनुभूतियों को सरलतम शब्दों में प्रकाशित किया है। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188