Book Title: Meerabai
Author(s): Shreekrushna Lal
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan

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Page 147
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . १४० मीराँबाई श्राली साँवरो की दृष्टि मानो प्रेम की कटारी है। लागत बेहाल भई, तन की सुधि बुधि गई ; तन मन व्यापो प्रेम, मानो मतवारी है। अथवा प्रेमनी प्रेमनी प्रेमनी रे मने लागी कटारी प्रेमनी रे ॥ और इस प्रेम की कटारी का घाव भी साधारण नहीं है । सूर ने ठीक ही कहा है 'जोइ लागे सोई पै जाने प्रेम बान अनियारो' और मीराँ भी इस घाव के सम्बन्ध में कहती हैं : । घायल की गति घायल जाणे की जिन लाई होय __ जौहरी की गति जौहरी जाणे की जिन जौहर होय ॥ इन घाव।की कोई दवा नहीं । इस घाव को अच्छा करने वाला वैद्य भी एक मीरों की यह पीर मिटै जब वैद सँवलिया होय । परन्तु उस सँवलिया वैद' का मिलना असम्भव ही है । लेकिन मीरों को अपनी पीड़ा पर विश्वास है वे उस पीड़ा को लेकर उसकी प्रतीक्षा में बैट जाती हैं । रो-रोकर गा-गाकर अपने गिरधर नागर को बुलाती हुई मीरों वेदना में पागल हो उठती हैं। सब लोग तो पाते हैं केवल वही सँवलिया न जाने कहाँ छिपा है जो अाता ही नहीं | मीराँ व्याकुल हो कर, खीझ कर कह उठती है: कोइ कहियो रे हरि श्रावन की, श्रावन की मन भावन की। वे नहिं आवत लिख नहि भेजत, बान पड़ी ललचावन की ।। ये दोउ नैन कह्यो नहिं मानत, अँसुश्राँ बहैं जैसे सावन की । लीलामय भगवान को ललचाने की आदत पड़ गई है और मीरा की आँखे भी जैसे पागल हो गई हैं, किसी का कहना ही नहीं मानतीं, और आँसुत्रों की धारा बहती ही जाती है। कितनी मार्मिकता से दरद-दिवानी मीराँ ने अपनी व्यथा का वर्णन किया है। यह विरहोन्माद अात्म-निवेदन की चरम सीमा है और केवल मीराँ ही इस सीमा तक पहुँच सकी है। For Private And Personal Use Only

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