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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवनी खंड २६ ही नहीं, शील, गुण और सौन्दर्य में भी अद्वितीय हैं; उनमें समस्त कामिनीजनोचित गुणों और सौन्दर्य का अद्भुत आकर्षण है । ___ मध्यदेश के कवि हृदय ने न तो ऐतिहासिक सत्य के प्रति असंतोष प्रकट किया, न मीराँ को श्रादर्श नारी के रूप में चित्रित किया, वरन् उसने भागवत से मीराँ की एक उपमा हूँढ़ निकाली-ब्रज-गोपी । ब्रज की गोपियाँ भी मोस् के समान विवाहिता थीं, परंतु भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति उनका स्वकीया कासा प्रेम था । मीरों की भक्ति-भावना भी ठीक उसी कोटि की थी। सबसे पहले भक्त कवि नाभादास ने ही यह नाम्य ढूंढ़ निकाला था । 'भक्तमाल' में वे मीरों के सम्बंध में लिखते हैं : सदृश गोपिका प्रेम प्रकट कलियुगहिं दिखायो। निर अंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो । फिर देव कवि के दो कवित्तों में इस उपमा का कवित्वपूर्ण विकास हुआ। कवि ने मीराँ के मुख से कहलवाया है : कोई कहौ कुलटा कुलीन अकुलीन कहो, कोई कहौ रंकिनि कलंकिति कुनारी हौं। कैसो नरलोक, परलोक, वरलोकनि में, लीन्हीं मैं अलीक लाक-लीकनि ते न्यारी हो ।। तन जाऊ, मन जाऊ देव गुरुजन जाऊ, प्रान किन जाउ टेक टरति न टारी हौं। वृन्दावनवारी वनवारी की मुकुट वारी, पीतपट वारी वहि मूरति पै वारी हो । कैसी कुलबधू ? कुल कैसो ? कुलबधू कौन ? तू है यह कौन पूछ काहू कुलटाहि री । कहा भयो तोहि, कहा काडि तोहि तोहि मोहिं, कीधौं और का है और कहा न तो काहि री॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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