Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur

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Page 7
________________ - ऋषिपंचमीव्रतकथा ॥ जासेसुख परमानंदलहो । विछुरापुत्र मिलैसोकहो ॥ २२ ॥ सुने बचन तब मुनिवरकहैं । ज्यासों रोगशोक सबद हैं । जासे स्वर्गमुक्तिफलहोइ । व्रत पंचमीकरोभविलोइ ॥ २३ ॥ जोड़े कमलनी कर दोइ । कहो मुनींद्रकौन विधिहोइ ॥ सुनिनिमुनिवीलेअभिराम । मासअषाढसुक्खकाधाम २४ जबहिशुक्रपंचमिदिन होइ । तबहीव्रतकीजे भविलोइ ॥ व्रतकेदिनछोड़ो आरंभ । जिनवरजजोतजोसबदंभ ॥२५॥ वर्षपंच अरुमासहि पंच । येसब ब्रत पेंसठ सुनसंच ।। जब यह व्रत पूरे हो लोइ । यथाशक्ति उद्यापन होइ ॥२६॥ लीनो व्रत कमलनी भाय । सव दुख ताके गये पलाय ॥ कथासुभविकदत्तकीठहीं । नगरनमोसोगयोनहिं कहीं ॥२७॥ पहुंचो राजाके दरबार । दिन आथयो भयो अधिकार ॥ तहां न कोई मानव रहै। कासोंबात चित्तकी कहै ॥२॥ नृपकी सुता रूपगुण खान । बोली तासों कर सन्मान ॥ अहोधीरतुमआयेयहां। कोनजातिपुर निवसो कहां ॥२६॥ कौन भांतितुम आगमभयो । यह सन्देह भयो मोनयो । तासे भविकदत्त वृत्तांत । अपनोकहीभयो तब शांत ॥३०॥ सुनपुनि राजकुंवरि यों कहै । एक महाराक्षस यह रहै । तानेपुरकीन्हों विध्वंशा। नरनारिनकारहान वंशा ॥ ३१ ॥ वहपुत्री करराखो मोहि । ना जानों अब कैसी होहि ॥ तुम्हें देख बहकरिहक्रोध । सदालेत मानुष का शोध ॥३२॥ अब मैं एकजो तुमसे कहीं। मैं द्वारे मंदिर के रहो। तुमभीतर रहिदेउकिवारा । तोवासेकुछहोइ उबारा ॥ ३३ ॥ कुंवर राखिदृढ़ दये किवारा । आप रही मंदिर के द्वारा ॥ सबैनिशाचर आयो तहां । पुत्री मंदिर बाहर जहां ॥ ३४ ॥

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