Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur

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Page 9
________________ ऋषिपषमीव्रतकथा । अरुसबमिलजुकहीहठबात । भविकदत्तमबमानीमात ॥४॥ बनिता सहितचढ़ोसोजहाज । त्रिय बोलीमलीप्रियसाज ॥ देव अनर्थ दिया संदूक । वस्त्राभरण भरे गई चूक ॥४८॥ सुनी धनी वाणी निजत्रिया। ऋद्विसिद्धबिनकम्पोहिया ॥ भविकदत्तआतुरहोधाय । नगरमध्यसोपहुंचोजाय ॥ ४ ॥ बन्धुदत्तचित चिंतो क्रूर । भातहिछांड़ गयो पुनि दूर ॥ वणिकोसहितमंत्रतिनकियो । सबहिदानमनवांछितदियो पहुंचे जाय समुदके तीरा । निज नगरी आये धर धीरा ॥ मिलेसहिजनगणअरुतात। मात मिलोप्रमुदितमन गात ॥ देख अपूर्व वस्तु संयोग । भये सर्व विस्मय युत लोग ॥ अरुसुंदरिघरभीतर लई । रूप श्री आनंदित भई ॥५२॥ ताहि देख सब पुर नरनारी । कोई नहीं तास उनहारी॥ माता वन्धुदत्त से कहै। यहसुंदरिदुःखित क्योरहै ॥ ५३॥ कौननगरीकिसकीयहधिया। किन उपकारसुतुमपरकिया ॥ सुनध्वनिबन्धुदत्तमुखइसो । रत्न द्वीपसागरमेवसो ॥ ५४॥ पृथ्वीपाल नृपतिकी सुता । राजादई हमें गुणयुता ॥ मात तात गृहकीसुधिकरै। अखिलदेखधीरनहिंधरै ॥ ५५ ॥ | हमतुमविननाकियोविवाह । सुन ध्वनिसोआनंदीसाह ॥ ऐसेही सबसाथिन कही। तब सब केमनआईसही ॥ ६ ॥ सुन सबके मनभयो उछाह । कीजे बंधुदत्तका व्याह । शोधघडीपंडितनेकही । व्याह करो तिनदूजे सही ॥ ५७ ॥ कामिन गावें मंगल चार । बिविध, भांति दीनी ज्योनार ॥ कुंबररहोमंदिरसतखनै । निंदिकर्मभुखजिन वरभनै ॥८॥ करसाहव दृढ़दये किवार । त्यागे तिलक ताम्बूलाहार ॥ ऐसे यहां कथांतरहोइ । भविकदत्तसुधिकहै न कोइ ॥९॥

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