Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur
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रविव्रतकथा ।।
(२)
वृतप्रभुसुगमकहोसमझाय । जासेरोगशोगसबजाय ॥ ५ ॥ करुणानिधि भाषे मुनिराय । सुनो भव्यतम चित्त लगाय ॥ जबआषाढसितपक्षविचार । तत्र कीजेअंतमरविवार ॥६॥ अनसन अथवालघुआहार । लवणादिकजोकरे परिहार ॥ नवफलयुत पंचामृतधार । वसुप्रकारपूजोभवहार ॥ ७ ॥ उत्तम फल इवयासी जान । नव श्रावक घर दीजे आन ॥ याविधिकरोनववर्षप्रमाण । यातेहोयसर्वकल्याण ॥८॥ अथवा एकवर्ष एकसार । कीजेरवि वृतमनहि विचार ॥ सुखाहुन ननिजघरकोगई। वृतनिंदासे निंदित भई॥६॥ बत निंदासे निर्धन भये । सातपुत्र अयोध्यापुर गये ॥ तहाजिनदत्तसेठगृहरहें । पूर्वदुःकृतका फललहैं ॥ १० ॥ . मातपितागृहदुःखितसदा । अवधिसहितमुनिपूछेतदा॥ दयाबंतमुनि ऐसेकहो । ब्रतनिंदासे तुमदुःखलहो ॥ १९ ॥ सुनगुरुवचनबहुरिबतलयो । पुण्यकियोघर धनभयो । भविजनसुनोकथासम्बन्ध । जहांरहतथेवेसबनन्द ॥ १२॥ एकदिवस गुणधरसुकुमार । धासले आये गूहद्वार ॥ क्षधावतभावजपेगयो। दंतविनानहिभोजनदयो, ॥१३॥ बहुरि गये जहां भूलोदन्त । देखोतासे अहि लिपटत ॥ फणपतिकीतहाधिनसीकरी । पदमावतिप्रगटीसुंदरी ॥१४॥ संदरमणिमय पारसनाथ । प्रतिमा पंचरत्नशुभ हाथ ॥ देकरकहो कुंवरकरभोग। करोक्षणकपूजासयोग ॥१५॥ आनधि निजघरमें धरो। तिहेकरतिनकोदारिद्र हरी॥ सुखविलसतसेवेसबनंद। दिनप्रतिपूर्जेपार्सजिनेंद्र ॥ १६ ॥ साकेतानगरी अभिराम । जिनप्रसाद राचोशुभधाम ॥ करीप्रतिष्ठापुण्यसंयोग। आयेभविजनसंगसोलोग ॥१७॥
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