Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur
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ऋषिपमव्रतकथा ॥
भविकदत्त नगरी मे गयो । सब सामग्री ले आइयो || देखशून्यथल लई पछार । मुखजंपे धिक् २ संसार ॥ ६० ॥ तब वहदेव भयो प्रत्यक्ष । भविकदत्तहम तुम्हरी पक्ष ॥ अनतुम हमको आज्ञादेव | पुजनोंमन वांछितकरसेव ॥६९॥ अविकदत्तयहकहो निदान । पहुंचोंजाय भातके थान ॥ - देवसुभगवहुलीनोशाज । रत्नपटाम्बरगजअरुबोज ॥ ६२ ॥ चढ़ि विमान में पहुंची सहां । कमल श्री पौढ़ी थी जहां ॥ देखविभूतिपुत्रको सोइ । सत्यकिधोंयहस्वप्ना होइ ॥ ६३ ॥ भविकदत्त बोलो वर वोर । मिली माय मोको घरधोर ॥ सुने वचनत संशयगयो । गहभर अंकपुत्रभेट्यो ॥ ६४ ॥ बंधुदत्त जो कीनो पाप । कहा सर्व माता से आप ॥ माता बोली कर उत्साह । तासे बंधुदत्तकरे व्याह ॥ ६५ ॥ सो नित चित्त परिव्रतधरे । तासे मूढ़ व्याह विधिकरे ॥ सो तो बहू तुम्हारी आइ । ताको देहु पारनो जाइ ॥ ६६ ॥ वस्त्राभन बके जिते । माताको पहिराये तिते ॥ अरु निजकर की मुंदरीदई । बैठ सुखासन सतहं गई ॥ ६७ ॥ कमल श्री आवतहो देख । रूप श्री मन भई विशेख ॥ मिलीं परस्परजियसुखभयो । करसन्मान बैठकादयो ॥ ६६ ॥ कमल श्रीमंदिर पर गई । वचन सुनाय सो ठाढ़ी भई ॥ तबतिन जानी अपनीसास | पडीपांदृढ़ लईउसांस ॥६९ ॥ अरुसुतको आगमनसुनाइ । देभोजनगृह पहुंचीजाय ॥ भविकदत्तराजापरगयो । मिलराजाआनंदित भयो ॥ ७० ॥ तवै राय सुन सो वृतंत । क्रोधन सको सम्हारि महंत ॥ किंकर पठये पहुंचे जाय । वंधुदत्तको लाये धाड़ ॥ ७९ ॥ आये लोग संग के सबे | पंछी तिन्हें सोह दे तबै ॥

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