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पुष्पानगिनतकथा स्वर्गमुक्तिफलकादातार । हैयहपुष्पांजलिव्रतसार ॥ ३० ॥ दोष-पदमावति उपदेश से, लीनान्नत शुमसार ।
पृथ्वीपरसोप्रकाशिके, कियोभक्ति चितधार ॥३१॥ तपविद्याश्रुतकीर्तिने, पाई अति जो प्रचंड । प्रभावती व्रतखंड ने,आई सो बलबंड ॥ ३२ ॥
॥चौपाई॥ बासर तीन व्यतीते जवे । पदमावति पुनि आई तबे ॥ विद्यासवभागोतत्काल । करोसंन्यास भरणतिसवाल ॥३३॥ कल्प सोलहवें मध्यसोजान । देवभयोसा पुण्य प्रवाण ॥ तहदेिवने कियोविचार । मेरातात भ्रष्टआचार ॥ ३४ ॥ मैं सम्बोधों वाको अने। उत्तम गति वह पावे नये ॥ यहीविचारदेवआइयो । मरणसंन्यासतातकोकियो ॥ ३५ ॥ वाही स्वर्ग भयो सो देव । पुण्य प्रभाव लयो फलएव ।। बंधुमती माता का जीव । उपजाताहीस्वर्ग अतीव ॥ ३६ ॥ दो०-प्रभावतीका जीव तू, रत्नशेखर भयोआय। माताका जो जीव है, मदनमजूषा थाय ॥ ३७॥
॥चौपाई॥ श्रुतिकीर्तिको जीव जो तहां । मंत्री मेघ वाहन है यहां ॥ ये तीनोंके सुन पर्याय । भईसो चिंता अंग न माय ॥ ३८ ॥ सुनव्रतफलअहगुरुकोवानि । भयोसुचितत्तलीनोजानि ॥ अपनेथानबहुरिआइयो। चक्रवर्ति पदभोगसुकियो ॥ ३ ॥ समय पाय वैरागसा भयो । राज भारसत्र सुत को दयो । त्रिगुप्तिमुनिकेचरणोपास। दिक्षालीनोपरमहुलास ॥ ४० ॥ रत्न शेखर दिक्षालो जये। भये सेव वाहन मुनि तबे॥ भविजीवोंकोअनिसुखकार । केवलज्ञानउपार्जीसार ॥ ४ ॥ घाति कर्म निर्मल सुकरे । पाछे मुक्ति पुरो अनुसरे ॥