Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur

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Page 15
________________ अनंतचौदश व्रतकथा दोहा - अनंतनाथ बन्दों सदा, मनमें कर बहु भाव । सुर असुर सेवत जिन्हें, होय मुक्ति परचाव ॥ १ ॥ चौपाई ॥ जंबूद्वीप द्वीपोंमें सार । लख योजन ताका विस्तार | मध्य सुदर्शन मेरु बखान । भरत क्षेत्रता दक्षिणमान ॥ २ ॥ मगध देश देशों शिरमणी । राजगृह नगरी अतिवनी ॥ श्रेणिक महाराजगुणवंत । रानी चेलनागृहशोभंत ॥ ३ ॥ धर्मवंत गुणतेज अपार । राजा राय महागुण सार ॥ एक दिवस विपुलाचलवीर । आयेजिनवरगुणगंभीर ॥ ४ ॥ चार ज्ञानके धारक कहे । गौतम गणधरसों संग रहे ॥ 'छहऋ तुर्क फल देखेनयन । वनमालीलेचालोऐन ॥ ५ ॥ हर्ष सहित वनमाली भयो । पुष्प सहित राजा परगयेा ॥ नमस्कार करजोड़ेहाथ । मेोपरकृपाकरोनरनाथ ॥ ६ ॥ विपुलाचल उद्यान कहंल । महामुनीश्वर तहां बसंत ॥ सुन राजाअतिहर्षित भयो । बहुतदान मालीकोदयो ॥ ७ ॥ सप्तध्वनि बाजे वाजंत। प्रजा सहित राजा चालंत ॥ देप्रदक्षिणाबैठा राव | जिनवर देखकरोचितचाव ॥ ८ ॥ द्वै विधि धर्मको समझाय । यासे पाप सर्व जर जाय ॥ खग तह आयो एक तुरंत । सुंदर रूप महा गुणवंत ॥ ९ ॥ नमस्कार जिनवर को करो । जय जयकारशब्द उच्चरो ॥ ताहिदेख आश्चर्यितयो | राजाश्रेणिक पूछतभयेो ॥ १० ॥ सेना सहित महागुणखानि । को यह आयोसुंदरवाणि ॥

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