Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur
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मुक्तावतीव्रतकथा ॥
( १९ । रुपवती तीजी सुकुमाल । मृगाक्ष चौथी सो गुणमाल ॥ करोव्याहघरकोआइयो । सकललोकघरआमन्दलियो ॥२८॥ स्थूल भद्राजा इकदिना । भोग विरक्त भयो भवतना ॥ राजपुत्रको दीनो सार । वन में जाययोगशुभधार ॥ २६ ॥ तपकरउपजो केवलज्ञान । वसु विधिहनि पायोनिर्वाण ॥ अब वे पुत्र राजकोकरें । पुण्यकाफल पावें ते घरें ॥३०॥ चारोंबांधव चतुर सुजान । अहिनिशिधर्मतनोफलमान ॥ एकसमय विरक्तसोये । आतमकार्यचिंतवतठये ॥ ३१ ॥ चारों बांधव दिक्षालई । वनमें जाय तपस्या ठई ॥ निजमनमें चिद्रपाराधि । शुक्नध्यानकोपायो साधि ॥३२॥ सर्व विमल केवल अपनो । सुख अनंत तब ही सोठनो॥ करोमहोत्सबदेवकुमार । जय २ शब्दभयोतिहिवार ॥ ३३ ॥ शेष कर्म निर्बल तिन करे । पहुंचे मुक्ति पुरी में खरे॥ अगमअगोचरभवजलपार । दशलक्षणव्रतकेफलसार ॥३४ वीरजिनेश्वर कही सुजान । शीतल जिनके बाड़े मान ।। गौतमगणधरभाषीसार। सुनश्रेणिकायेदरबार ॥ ३५॥ जो यह व्रत नर नारी करे । ताके गृह सम्पत्ति अनुसरे ॥ भहारक श्री भूषणवीर । तिनके चेला गुणगंभीर ॥ ३६॥ ब्रहाज्ञान सागर सुविचार । कही कथा दशलक्षणसार ।। मनबचनव्रतपालेजोइ । मुक्तिवरांगणाभोगेसोइ ॥ ३७॥ ।
॥ इति श्रीदशलक्षणव्रतकथामाषासम्पूर्णम् ॥
मुक्तावलीव्रतकथा॥ दो०-ऋषभनाथकेपदनमों, भविसरोजरविजान । ___ मुक्तावलिनतकी कथा, कहूं सुनो धरध्यान ॥१॥

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