Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur
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सुगधदशमीव्रतकथा ॥ तिन राजालेसांचीकही। समधनभविक्रदत्तको सही ॥७२॥ राजासुनतकोपअतिकियो । बन्धुदत्तकोदण्ड जु दियो । अपनिसुतापुनिदीनीराइ । करविवाहमंदिरपहुंचाइ ॥७३॥ भविकदत्त माता गुण भरी । पुत्रलयो मैने शुभ घरी मैंव्रतकियोपंचमी तनो। जाते भयोअतुलधनधनो ॥ १४ ॥ तिनभीधुनिसुनकेव्रतलियो। भावसहितविधिपूर्वक कियो । उद्यापन विधिपूरणकरी । जाते भूरिलच्छि विस्तरी ॥७५॥ दोय २ सत तिनकेभये। नित २ करत महोत्सव नये ॥ भविकदत्तदीक्षानतलयो । दशवेंस्वर्गजायसुर भयो ॥६॥ भुगतेभोग परम सुखनयो । दयावन्तफिर मुक्तहिगयो । श्रेणिकसुनतसवहिवतकरो । तिनसयधोरदुःखपरिहरो ॥७७ और जो करे भावसे कोय । ताकोस्वर्ग मुक्ति सुख होय ॥ सत्रहसौसत्ताबनजान । मिती पौषसुदिदशमीमान ॥ ८ ॥ हती कंतपुरमें रचिकथा । श्रीसुरेंद्र भूषण मुनियथा ॥ नावकपढ़ोसुनोधरध्यान । जासेहोयपरमकल्याण ॥ ७६ ॥ |
इति श्रीऋषिपंचमी व्रतकथा भाषा सम्पूर्णम् ॥ सगधदशमी व्रत कथा।
चौपाई॥ वर्द्धमान वंदो जिनराय । गुरु गौतम बंदों सुख दाय ॥ सुगंधदशमीव्रतेकीकथा । वर्द्धमानसुप्रकाशीयथा ॥१॥ मगधदेश राजगृह नाम । श्रेणिक राज करे अभिराम ॥ नामचेलनागृहपटरानि । चंद्ररोहिणी रूप समान ॥२॥ ! नृप बैठो सिंहासन परे । वन माली फल लायो हरे॥
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