Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur

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Page 19
________________ -- - रत्नत्रयव्रतकथा ॥ (१५) शिवमार्गके साधन हेत । ये गण धारेव्रती सुचेत ॥ ६॥ भादोमाघ चैत्र में जान । तीनोकाल करो भविआन ॥ याविधितेरहवर्षप्रमाण । भावनाभावगुणहिनिधान ॥१०॥ लवंगादि अष्टोत्तर आन । जपो मंत्र मनकर श्रद्वान । पुनिउद्यापन विधिजीएह । कलशाचमरछत्रशुभदेह ॥१९॥ संग चतुर्विधि को आहार । वस्त्राभरण देउ शुभसार ॥ विंब प्रतिष्ठाआदिअपार । पूजोत्रीजिनहोभवपार ॥ १२ ॥ दो०-इसविधि त्रीमुखधर्मसुन, भनोचित्तधरभाय ॥ ___ कौनेफल पायोप्रभ, सो भाषो समझाय ॥ १३ ॥ ॥चौपाई॥ जंबूद्वीप अलंकृत हेर । रहो ताहि लवणो दधिधेर ॥ मेरुसेदक्षिणदिशिहैसार। है सोविदेहधर्म अवतार ॥ १४ ॥ कच्छवती सुदेश तहांवसे । वीत शोक पुर तामें लसे ॥ वैसिवनामतहांका राय । करेराजसुरपतिसमभाय ॥१५॥ वनमाली ने जनावोदयो । विपुलबुद्धि प्रभुवनमें ठयो॥ इतनीसुननपवंदनगयो । दानवहुतमालीकोदयो ॥ १६ ॥ हे स्वामी रत्नत्रय धर्म । मोसो कहौ मिटै सब भर्म ॥ तवस्वामीनेसबबिधिकही। जोपहिलेसोप्र काशी सही ॥१७॥ पंचामृत अविशेकसुठयो । पूजाप्रभुकीकर सुखलयो । जागिरनादिठयोबहुभाय । इसविधिव्रतकरविसिवराय ॥१८॥ भावसहित राजावतकरो। धर्मप्रतीत चित्त अनुसरो॥ पोडशभावनामावतभरो। अंतसमाधिमरणतिनकरो ॥१९॥ गोत्र तीर्थंकर वांधोसार । जो त्रिभुवनमें पूज्यअपार ॥ सर्वार्थसिद्धिपहुंचोजाय । भयोतहांअहमेंद्रसुभाय ॥२०॥ | हस्तमात्रंतनुऊंचोभयो। तेतिससागर आयुसेालया। -

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