Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur

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Page 17
________________ अनन्तचौदशमकथा ॥ ( १३ ) त्रिकाल पूजेश्रीजिनदेव | रात्रिजागरणकरसुख लेव ॥ २३ ॥ गीतनृत्य महोत्सवजान । धारा जिनवर करो बखान ॥ वर्ष चतुर्दश विधिसेधरे । ता पीछे उद्यापन करे ॥ २४ ॥ करे प्रतिष्ठा चौदह सार । या से पाप होइ जर क्षार ॥ भारीधारी अधिकअनूप । चरणकलशदेवेशुभरूप ॥ २५ ॥ दीवट झालर संकल माल । और चंदोवे उत्तम जाल ॥ छत्र सिंहासन बिधिसे करे । ताते सर्वपाप परिहरे ॥२६॥ चार प्रकार दान दीजिये । याते अतुल सुक्ख लीजिये ॥ अन्तावस्था ले संन्यास । तातेमिले स्वर्गका बास ॥ २७ ॥ उद्यापन की शक्ति न होइ । कीजे व्रत दूनो भविलोइ ॥ विप्रकियात्रतविधिसेआय | सर्वदुःखतसुगयाविलाय ॥२८॥ अंतकाल धरके संन्यास । ताते पायो स्वर्ग निवास ॥ चौथे स्वर्ग देव सो जान । महाऋद्विताकेसोबखान ॥ २६ ॥ 'विजयार्द्धगिरि उत्तम ठौर । काचीपुर पत्तन शिरमौर ॥ राजात अपराजितवीर | विजयातासप्रियागम्भीर ॥ ३० ॥ ताका पुत्र अरिंजय नाम । तिनयहआयकरोसोप्रणाम ॥ कंचनमय सिहासन आन | तापरभूप बैठौ सुखखान ॥ ३१ ॥ व्योमपटलविनशतल खसंत । उपजो चित वैरागमहंत ॥ राजपुत्रको दयो बुलाय | आपलईदीक्षा शुभमाय ॥३२ ॥ सही परीपह हृढ़चित धार । ताते कर्म भये अतिक्षार ॥ घाति घातिया केवल भयो । सिद्धबुद्धसोपदनिर्मयो ॥३३॥ रानीने व्रत की सही । देव देह दिव अच्युतलही ॥ तहांसुसुखभुगतेअधिकाय । तहांसे आयभयोनरराय ॥ ३४ ॥ राजऋद्धिपाई शुभसार । फिरतपकर विधिकीने क्षार ॥ तहांसेमुक्ति पुरीको गयो । ऐसातिनव्रतका फललयो ॥ ३५ ॥

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