Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur

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Page 18
________________ रखत्रयव्रतकथा ॥ ऐसा व्रत पाले जो कोइ । स्वर्ग मुक्ति पद पावे सोइ ॥ . विनयसागरगुरुआज्ञाकरी। हरिकिलपाठचित्त मेंधरी ॥३॥ तव यहकथाकरीमनलाय । यथा शास्त्र में वरणीआय ॥ विधिपूर्वकपालेजोकोइ । तोकोअजरअमरपदहोइ ॥३७॥ इति नोअनंतचौदशन्तकथा सम्पूर्णम् ॥ रत्नत्रयव्रत कथा दोहा-अरहनाथकोवन्दिके, वन्दोसरस्वति पाय ॥ __ रत्नत्रयव्रत की कथा, कहूं सुनो मनलाय ॥१॥ ॥चौपाई॥ जंबद्वीप भरत शुभ क्षेत्र । मग्ध देश सुखसम्पति हेत ॥ राजगृहतहानगरवसाय । राजा नेणिकराजकराय ॥ २ ॥ विपुलाचल जिनबीरकुंवार । केवलज्ञान विराजतसार ॥ भालीआय जनावो दयो । तत्क्षण राजा बंदनगयो ॥३॥ पूजा वंदनकर शुभसार । लागो पूछन प्रश्न विचार ॥ हस्वामी रत्नत्रयसार । व्रतकहिए जैसा व्यवहार ॥२॥ दिव्यध्वनिभगवानवताय । भादोंसुदिद्वादशि शुभभाय ॥ करस्नान स्वच्छ पटश्वेत । पहिनोजिनपूजनके हेत ॥५॥ आठोद्रव्यलेय शुभजाय । पूजो जिनवर मनवचकाय ॥ जीर्णन्यूतन जिनके ग्रह । विवधरावो तिनमें तेह ॥६॥ हेमरूग्य पीतलके यंत्र । तांबा यथा भोजके पत्र ॥ यंत्रकरो बहुमन थिरदेउ । रत्नत्रयकेगण लिखलेउ ॥७॥ निश्शांकादिदर्शनगुणसार । संशयरहितसो ज्ञान अपार ॥ अहिंसादि महाव्रतसार । चारित्र के ये गुणहैंधार ॥८॥ ये तीनों के गुणहैं आदि । इन्हें आदि जेते गुण वादि ॥

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