Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur

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Page 20
________________ - दशलक्षणवनकथा । दिव्यरूपसुखकोभंडार । सत्यनिरूपणअवधिविचार ॥ २९ ॥ सौ धमेन्द्र विचारी घरी । यच्छेश्वर को आज्ञा करी ॥ वेगदेशनिर्माप्योजाय। थापासुथरापुर अधिकाय ॥२२॥ कुंभपुर राजा तहांबसे । देवी प्रजावती तिस लसे॥ नोआदिकतहाँदेवीआय । गर्भ से साधना कोनी जाय ॥२३॥ रत्न वृष्टि नृप अंगन भई । पन्द्रह मासलों बरसत गई। सर्वार्थसिद्धिसेसुरआय । प्रजावतीसुकुच्छउपजाय ॥ २४ ॥ मल्लिनाथ सो नामकोपाय । द्वेज चंद्रसम बढ़त सुभाय ॥ जबविवाहमंगलबिधिभई । तबप्रभुचितविरागतालई ॥२॥ दिक्षाधर बलमें प्रभु गये । घोतिकर्म हनि निर्मलठये ॥ केवललेनिर्वाण सेोजाय । पूजा करीसुरेशोआय ॥ २६ ॥ यहविधान श्रेणिक ने सुनो। व्रतलीने चित अपने गुणो । भक्तिविनयकरउत्तमभाय । पहुंचे अपनेगृहकोआय ॥२७॥ याविधि जो नर नारीकरे। सो भवसागर निश्चयतरे।। नलिनकीर्तिमुनिसंस्कृतकही। ब्रह्मज्ञानभाषानिर्मही ॥२८॥ ॥ इति श्रीरत्नत्रयव्रतकथा भाषा सम्पूर्णम् ॥ दशलक्षणब्रतकथा । दोहा-प्रथमवन्दि जिनराज के, शारदगणधरपाय । दशलक्षणव्रतकीकथा, कहूंअगमसुखेदाय ॥१॥ ॥चौपाई॥ विपुलाचल श्रीवीरकुंवार । आये भवभंजन भरतार ॥ सुनभूपतितहांवंदनगयो । सकललोकमिलिआनंदभयो ॥२॥ -

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