Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur

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Page 8
________________ Than.hunandaname-- names (४) ऋषिपंचमीनतकथा । सो हठकर मंदिर में गयो। देखकुंवर प्रमुदितमन भयो । अबमेरेसी सबकाज । तुमदर्शन पायो मैं आज ॥ ३५ ॥ तुमतो मेरे मित्र निदान । कन्या राखी तुम्हरे जान ॥ अनमोकोतुमअतिसुखदेऊ। कन्याराजपाटसबलेऊ ॥३६॥ तबहि असुरनेकियो बिवाह । कन्या दे कीन्हीं उत्साह ॥ भविकदत्तमहराजकुमारी । सुखसेरहतसुमहलमझारी ॥३॥ सम्म खने मंदिर के रहैं। तातमात की सब सुधि कहैं। यहतोलब्धिसुइनकोभई । कथो जो वंधुदत्त की ठई ॥ ३८ ॥ बस्तुबेब अरू लीनी नई । नफा न एक दाम की भई ॥ सोमरयानदेशको बले । वीचनीचतस्करबहमिले ॥ ३ ॥ तिन मिल लट लयो सब संग । कठिन कष्टसे छोड़े.नंग ॥ आयेफेरतिलकपुरथान। भविकदत्तअवलोकेजान ॥१०॥ दम्पति लखि आनंदितमये । तबसन मिल आगे होलये ॥ वन्धुदत्तपावोंपड़गयो । तुम बिनभातसहादुखलयो ॥४१॥ चोरों लूट लये हम सबे । कठिन कष्ट से छोड़े अवै॥ भविकदत्तहंसबोलोवीर । कछु शंकामतकरोशरीर ॥ ४२ ॥ मेरे बहु लछमी भंडार । रत्न जहाज भरो इक सार ॥ ऐसे कह सब गृह में गये । वस्त्राभूषण सबको दये ॥४३॥ षटरस व्यंजन भोजन करे । तासे सबहि कष्ट परिहरे॥ कर सन्मान यानभरदये। सर्व लोगप्रमुदितमनभये ॥१४॥ बन्धुदत्त विनवे कर सेव । अब तुम चलो देश को देव ।। धर्म धुरंधर कुल आधार। तुम समनहींपुरुषसंसार ॥ ४५ ॥ तात मातके दर्शन करो। योसे सकल कष्ट परिहरो॥ अरुभावजसेबिनतीकरी । सुनधुनिसागोलीगणभरी ॥ १६ ॥ अव प्रिय जिय कोजे सतभाव । देखें कमल श्री के पांव ॥ - -

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