Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur
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(१०)
सुगंधदशमीव्रतकथा । राजा मदनसुंदरी बाल । सुखसे जात न जानो काल ॥ एकदिवसमुनिवरवंदियो । धर्मश्रषणमुनिवरपरकियो ॥२६॥ हाथ जोड़ पूछे तब राय । महा मुनींद्र कहो समझाय ॥ मोगृहरानीमढनावली । ता शरीरसौरमताभली ॥३०॥ कौन पुण्य से सुभग सुरूप । सुर वनितासेअधिक अनूप ॥ राजाबचनमुनीश्वरसुने । सबवृत्तांतरायसे भने ॥ ३१ ॥ जैसे दुर्गंधांवत लहो । तैसी विधि नरपति से कहो॥ सुने भवांतरजोड़ेहाथ । दिक्षावृतदीजेमुनिनाथ ॥ ३२ ॥ राजाने जब दिक्षा लई । रानी तबे अर्जिका भई॥ तप करअंतवर्गकोगई। सोलमस्वर्गप्रतेंद्रसोभई ॥ ३३ ॥ वाइस सागर कालजो गयो । अंत काल ता दिवसे चयो॥ भरतसुक्षेत्रमग्धतहंदेश । वसुधाअमरकेतुपुरवेस ॥ ३४ ॥ ता नपग्रह जन्म उनलहो । जो प्रतेंद्र अच्युत दिव कहो। कनिककेतुकंचनद्युतिदेह । बनिता भोगकरेशुभग्रह ॥ ३५ ॥ अमरकेतु मुनि आगमभयो। कनिक केतु तह बन्दनगयो । सुनो सुधर्मनवणसंयोग । तजेपरिग्रहअरुभवभोग ॥ ३६॥ घातिघातियाकेवललयो। पुनअघातिहनिशिवपुरगयो । वृत्तसुगंधदशमीविख्यात । ताफलभयोसुरभियुतगात ॥३७॥ यह वत पुरुष नारिजो करे । सो दुःख संकट भूलि नपरे । शहर गहलोउत्तम बास । जैन धर्मकोजहां प्रकाश ॥ ३८॥ सब नावकवृतसंयम धरें। पूजा दान से पातक हरें॥ उपदेशी विश्वभूषणसही। हेमराज पंडित ने कही ॥३॥ मन वच पढे सुनेजो कोय । ताको अंजर अमर पद होय ॥ यासेभविजनपढ़ोत्रिकाल । जो छूटेंविधिकेभ्रमजाल ॥ ४० ॥
इनि श्रीसुगंधदशमीव्रतकथा भाषा संपूर्णम् ॥
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