Book Title: Jain Vrat Katha Sangraha
Author(s): Lala Jainilal Jain
Publisher: Lala Jainilal Jain Saharanpur

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ - - - पुष्पागलिनतकथा । (२५) सीतानदोदक्षिणदिशिसार । मंगलायतीसुदेशअपार ॥४॥ दोहा-रत्न संघयपुर तहां, बजसेन नृप आय । जयवती बनितालसे, पुत्रबिहानोथाय ॥५॥ ॥चौपाई॥ पुत्रचाह जिन मंदिरगई। ज्ञानोदधि मुनि बंदित भई ॥ हेमुनिनाथ कहोसमझाय । मेरेपुत्रहोइ के नाय ॥६॥ दोहा-मुनियोले हे बालकी, पुत्रहोइ शुभसार । भूमिछखंड सुसाधिहै, मुक्तितनोभरतार ॥ ७ ॥ सुनकेमुनिकेवचनतब, उपजो हर्ष अपार । क्रमसे पूरे मासनव, पुषभयो शुभ सार ॥८॥ यौवन वयस सोपायके, क्रीड़ा मंडपसार । सहाव्योमसे आइयो, खगभूपरतिसवार ॥६॥ . रत्नशेखरकोदेखकर, बहुतप्राति उरमाहि। मेघवाहनने पांचसो, विद्यादीनी ताहि ॥ १० ॥ ॥चौपाई॥ दोनोमित्र परस्पर प्रोति । गये मेरु वन्दन तज भीति ॥ सिद्धकट चेत्यालय वंदि। आये पंचचित्त आनंदि ॥ ११ ॥ ताकी सखो जनाई सार । वेग स्वयम्बर करी तयार ॥ भरि भूप आये तत्काल । माल रत्नशेखरगलडाल ॥ १२ ॥ धूमकेत विद्याधर देख । क्रोकियो मन माहि विशेष ॥ कन्याकाजदुष्टताधरी । विद्याबल बहुमायाकरी ॥१३॥ रत्नशेखर से युद्धसो करो। वहुत परस्पर विद्याधरी ॥ जीतोरत्नशेखरतिसवार । पाणिग्रहणकियोव्यवहार ॥ १४ ॥ मदन मजषा रानी संग । आयो अपने ग्रह असंग ॥ वजसेनकोकरनमस्कार। माततासमनसक्खअपार ॥१५॥ एकदिनामंदिरगिर योग । पहुंचे मित्र सहित सब लोग ॥ चारणमुनिबंदेतिहिबार । सुमोधर्मचितभयोउदार ॥ १६ ॥ -

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39