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(१३९) मिलत-जोबन्धा निकाचित आयुष्य नरककमाही। महाराज कर्ता वोही पाय के भरताजी ॥ श्रीराम॥३॥ यह दिया दम दिलासा मोह वश केइ । महाराज कहो कछू कयो न जावे जी। बडेरमनुष्य और इन्द्र जिनोको भ्रमन करावेजी ॥ फिर रामचन्द्र महाराजको सीस नमाया । महाराज इन्द्र गये आप ठिकाने जी। हुवा रामऋपिश्वर सिद्ध जिनोको जक्त मैं जाने जी॥ चोपाइ-श्रीरत्नचन्द्रजी ज्ञान शिखायो ।
जवाहरलालजी मुनी गुरुपायो । जिन मार्ग के सरणमें आयो।
हीरालाल सदा सुख चहायो । मिलत-यह उन्नीसो चौसट साल भोपालके मांही। महाराज आनंदसदा रहेहै बरताजी।। श्रीराम॥३॥