Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 14
________________ 12/चिद्काय की आराधना विकल्प जाल को छोड़कर अन्तर में अपने जीवास्तिकाय का, चिद्काय का ध्यान करने का निरंतर अभ्यास करना चाहिए। यही भगवान की दिव्य देशना है। हे जीवो! क्या तुम भगवान के दर्शन चाहते हो? यदि हाँ तो तुम निश्चय से यह जानो कि तुम स्वयं अपने प्रदेशों और गुणों की अपेक्षा अभी भगवान हो। कर्म के सम्बन्ध से प्राप्त मूर्त देह में तुम स्थित हो और स्वानुभवगम्य हो। नख और केश को छोड़कर सम्पूर्ण देह के कण-कण में तुम विद्यमान हो। दूध-नीर के समान देह और तुम एकक्षेत्रावगाह मिले हुए हो। लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी होने पर भी कर्म के सम्बन्ध से प्रगट संकोच-विस्तार शक्ति के कारण तुम्हारा आकार प्राप्त पुद्गल देह के समान है। प्राप्त पुद्गल देह इन्द्रियगम्य है, लेकिन तुम्हारी चिन्मय देह स्वसंवेद्य है। तुम निश्चय से अमूर्त हो, पुद्गल से अप्रभावी हो, लोकाग्र निवासी हो, तथापि कर्मबंध के कारण पुद्गल से प्रभावी हो, लोक में विचरण करते हो, इसलिए व्यवहार से मूर्त कहलाते हो। नेत्रों को बन्द कर देह के किसी स्थान पर तुम स्वसंवेदन रूप से देखो तो तुम्हें वर्णादि रहित तुम्हारी परमार्थ सुख शांति की कणिका का अनुभव होगा तथा बहुमूल्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रत्नों की भी तत्क्षण ही प्राप्ति होगी। तीर्थंकारादि महापुरुष भी देह में स्थित निज भगवान को स्वसंवेदन रूप से देखते हैं, अनुभव करते हैं। मोक्षपाहुड़, गाथा 103 में कहा है 'हे भव्य जीवो! तुम इस देह में स्थित क्या है, उसे जानो। लोक में स्तुति करने योग्य, ध्यान करने योग्य तीर्थंकरादि हैं, वे भी उसका ध्यान . करते हैं।' समयसार गाथा 17-18 में कहा हैयदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिए। अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहिचानिए।। जो परमार्थ सुख की कामना हो तो निज जीवराजा को जानना चाहिए।

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