Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 31
________________ चिद्काय की आराधना/29 मोक्ष का सोपान है। अपनी चिद्देह का लक्ष्य छोड़कर बाह्य जगत को लक्ष्य करना हमारा स्वभाव नहीं है। क्षायिक केवलज्ञान में बाह्य जगत का ज्ञान होना जीव का कार्य-स्वभाव है। अपनी चिद्देह के अनुभवरूप कारण-स्वभाव को प्रगट किये बिना कार्य-स्वभाव की उपलब्धि होना असंभव है। निज जीवास्तिकाय के दर्शन-संवेदन भोग से ही ज्ञानावरण कर्म का क्षय होकर सकल परद्रव्यों का ज्ञान होता है। जितने भी सिद्ध भगवान बने हैं, बन रहे हैं और आगे बनेंगे, वे सब अपनी चिद्काया का ध्यान करने से ही बने हैं, बन रहे हैं और आगे बनेंगे। ‘धनि धन्य हैं जे जीव, नरभव पाय यह कारज किया। तिनही अनादि भ्रमण पंच प्रकार तजि वर सुख लिया।। जिन जीवो ने मनुष्य पर्याय प्राप्त करके निज चिद्काय की आराधना की है, वे जीव ही धन्य हैं। उन जीवो ने ही अनादिकाल से चले आ रहे पाँच प्रकार के परावर्तन रूप संसार परिभ्रमण का अभाव कर उत्तम मोक्षसुख को प्राप्त किया है। बाह्य जगत का आज तक हमने जो कुछ जाना है, जो कुछ प्राप्त किया है, आज के बाद जो कुछ जानेंगे और प्राप्त करेंगे, वह सब देहाश्रित होने से मृत्यु होने पर एक ही समय में छूट जायेगा जाना-अनजाना हो जायेगा, प्राप्ति-अप्राप्ति । में बदल जायेगी; उसी प्रकार जैसे भूतकाल में अनन्त जन्मों से हमने जो कुछ जाना है, पाया है, वह सब विस्मृत हो गया है, खो दिया गया है। एक स्वाधीन स्वसंवेदन प्रत्यक्ष निज सुखद जीवास्तिकाय का अनुभव, संवेदन, भोग ही " पराधीन नहीं होने से मृत्यु के पश्चात् हमारे साथ जाता है। यह उत्तम मनुष्य पर्याय अल्पायु वाली है। मनुष्य पर्याय में ही ध्यान की सिद्धि संभव है। ध्यान का अभ्यास न कर हम यह अमूल्य एवं दुर्लभ मनुष्य पर्याय खो देते हैं। हमें सावधान होकर देह प्रमाण अपनी चिद्देह को अन्तर्दृष्टि से देखना चाहिए, अनुभव करना चाहिए, जिसको पुनः पुनः देखने, अनुभव करने पर अल्पकाल में घातिया कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान में सब जान लिया जाता है

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